सुलेमान शिकोह अपने पिता दारा शिकोह का बड़ा पुत्र था। सबको लगता था कि शाहजहाँ के बाद दारा शिकोह और दारा शिकोह के बाद सुलेमान शिकोह हिन्दुस्तान का बादशाह तथा लाल किलों का मालिक होगा। इसलिए सुलेमान शिकोह बड़े उत्साह से राजकाज एवं युद्धों में भाग लेता था।
जब दारा ने सुलेमान को शाहशुजा का दमन करने के लिए बनारस की तरफ भेजा था तो सुलेमान शिकोह ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था तथा अपने चाचा शाहशुजा को ऐसे स्थान पर घेर लिया था जहाँ से शाहशुजा का बचना कठिन था किंतु शाहशुजा ने संधि का प्रस्ताव करके अपनी जान बचा ली।
इसके बाद सुलेमान को तुरंत आगरा लौट आने का शाही फरमान मिला था क्योंकि औरंगजेब तथा मुरादबक्श दक्किन की ओर से आगरा की तरफ बढ़े चले आ रहे थे। उस समय आम्बेर नरेश जयसिंह भी सुलेमान शिकोह के साथ ही था।
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जब सुलेमान शिकोह तथा महाराजा जयसिंह इलाहाबाद से 105 मील पश्चिम में थे तब उन्हें सामूगढ़ की पराजय के समाचार मिले। इन समाचारों के मिलते ही महाराजा जयसिंह ने सुलेमान को छोड़ दिया तथा महाराजा जयसिंह भागकर औरंगजेब की तरफ चला गया। कृतघ्न दिलेर खाँ तथा बहुत से अन्य शाही अमीर एवं हाकिम भी वहीं से औरंगजेब के पक्ष में चले गए।
जब सुलेमान आगरा पहुंचा तो उसे ज्ञात हुआ कि उसका पिता तो रात्रि में तीन बजे ही अपने हरम एवं खजाने को लेकर दिल्ली की तरफ चला गया है तो सुलेमान भी दिल्ली के लिए रवाना हो गया। जब वह दिल्ली जा रहा था तो उसे ज्ञात हुआ कि उसका पिता दारा शिकोह पंजाब चला गया है। इस पर सुलेमान दिल्ली न जाकर पंजाब के लिए मुड़ गया।
मार्ग में ही उसे समाचार मिले कि दारा शिकोह पंजाब से गुजरात की तरफ चला गया है तो सुलेमान गढ़वाल चला गया। गढ़वाल के हिन्दू राजा पृथ्वीसिंह ने सुलेमान शिकोह को इस शर्त पर शरण दी कि वह अपनी सेना को गढ़वाल राज्य की सीमा पर ही छोड़ दे तथा केवल अपने परिवार एवं 17 नौकरों के साथ राजधानी श्रीनगर में प्रवेश करे।
कुछ समय बाद जब औरंगजेब ने दारा शिकोह को मार डाला तब औरंगजेब का ध्यान सुलेमान की ओर गया। इस समय तक सुलेमान को श्रीनगर में रहते हुए एक साल हो चुका था। औरंगजेब ने राजा पृथ्वीसिंह को आदेश भिजवाए कि वह सुलेमान को पकड़कर हमारे पास भेज दे।
राजा पृथ्वीसिंह ने शरणागत शहजादे के साथ विश्वासघात करने से मना कर दिया परंतु पृथ्वीसिंह के पुत्र मेदिनी सिंह ने सुलेमान शिकोह को पकड़कर औरंगजेब को सौंपने का निश्चय किया ताकि मुगलिया सल्तनत का विश्वासपात्र बन सके। जब सुलेमान शिकोह को राजकुमार मेदिनी सिंह के इस निश्चय के बारे में ज्ञात हुआ तो सुलेमान शिकोह श्रीनगर से भाग खड़ा हुआ। उसका विचार लद्दाख जाने का था।
राजकुमार मेदिनीसिंह की सेना ने सुलेमान और उसके आदमियों का पीछा किया तथा सुलेमान को पकड़ लिया। राजकुमार मेदिनीसिंह के सैनिकों से हुए युद्ध में शहजादा सुलेमान बुरी तरह घायल हो गया। उसी घायल अवस्था में सुलेमान को औरंगजेब की सेना के हाथों में सौंप दिया गया। औरंगजेब की सेना शहजादे को पकड़कर औरंगजेब के पास दिल्ली ले आई।
6 जनवरी 1661 को सुलेमान शिकोह अपने चाचा औरंगजेब के समक्ष प्रस्तुत किया गया। सुलेमान ने अपने चाचा से अपने प्राणों की भीख मांगी तथा अनुरोध किया कि मुझे पोस्ता नहीं पिलाया जाए। उन दिनों मुगल बादशाह अपने कुल के शहजादों को अत्यधिक मात्रा में पोस्ता पिलाते थे जिससे शहजादा अपनी शारीरिक एवं मानसिक शक्ति खोने लगता था तथा कुछ ही दिनों में कमजोर होकर मर जाता था। औरंगजेब ने सुलेमान से बहुत मीठे शब्दों में बात की तथा उसे वचन दिया कि उसे पोस्ता नहीं पिलाया जाएगा।
इसके बाद सुलेमान शिकोह को ग्वालियर के दुर्ग में ले जाकर बंद कर दिया गया। वहाँ सुलेमान को प्रतिदिन बड़ी मात्रा में अफीम पिलाई जाती थी। इस अफीम के कारण मई 1662 में सुलेमान स्वयं ही मर गया। इस प्रकार चार वर्ष की अवधि में औरंगजेब ने अपने समस्त भाइयों तथा भतीजों की नृशंसता पूर्वक हत्या करवा दी। उसका यह काम ठीक वैसा ही था जैसा शाहजहाँ ने अपने भाइयों तथा भतीजों के साथ किया था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता