हुमायूँ तो इस असार संसार से चला गया था किंतु अपने वंशजों के लिए शत्रुओं एवं समस्याओं की लम्बी कतार छोड़ गया था, जिनसे भाग्य के बल पर ही पार पाया जा सकता था। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर तो दिल्ली से दूर था किंतु मिर्जा कामरान का एक पुत्र अबुल कासिम दिल्ली में मौजूद था। हुमायूँ के विश्वस्त अमीरों को संदेह हुआ कि कहीं गद्दार किस्म के अमीर कामरान के पुत्र को बादशाह घोषित करने का षड़यंत्र न रचें। इसलिए कामरान के पुत्र को तत्काल अकबर के पास स्वामिभक्ति प्रकट करने के बहाने दिल्ली से दूर भेज दिया गया।
बाबर ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में अफगानिस्तान से आकर भारत में मुगलिया सल्तनत की नींव डाली थी किंतु हुमायूँ ने अपने भाइयों की गद्दारी के कारण उस सल्तनत को शेरशाह सूरी के हाथों खो दिया था। हुमायूँ के माथे पर लगभग 15 साल तक उस सल्तनत को गंवा देने का कलंक लगा रहा किंतु अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले हुमायूँ ने उस कलंक को धो दिया। फिर भी हुमायूँ द्वारा भारत में फिर से खड़ी की गई मुगलिया सल्तनत कागज के महल से अधिक मजबूत नहीं थी। शेरशाह सूरी का भतीजा सिकंदरशाह सूरी शिवालिक की पहाड़ियों में तलवारें लहरा रहा था और हिसार के गवर्नर शाह अबुल मआली के बगावती तेवर किसी से छिपे नहीं थे।
बाबर का भतीजा मिर्जा सुलेमान जिसे हुमायूँ ने बदख्शां का शासक बनाया था, हुमायूँ की राजधानी काबुल और कांधार को हथियाने की योजना पर काम कर रहा था। 14 साल का अकबर इस समय पूरी तरह से बैराम खाँ बेग की दया पर निर्भर था और मुगलिया हरम भारत की भूमि से 1200 किलोमीटर दूर काबुल के किले में बंद रहककर भारत बुलाए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था।
अकबर के सौभाग्य से हुमायूँ ने भारत-अभियान पर आने से पहले काबुल, कांधार और गजनी की सुरक्षा का बहुत मजबूत प्रबंध किया था। राजधानी काबुल तथा हुमायूँ का हरम मुनीम खाँ के संरक्षण में थे जो कि हुमायूँ का सर्वाधिक विश्वस्त अमीर था। हुमायूँ ने उसे काबुल के साथ-साथ गजनी और हिंदूकुश पर्वत से लेकर सिंधु नदी तक का क्षेत्र सौंप रखा था। ताकि किसी भी हालत में अफगानिस्तान तथा हिंदुस्तान के बीच का सम्पर्क न टूट सके।
हुमायूँ ने अफगानिस्तान में मुगलों की दूसरी राजधानी कहे जाने वाले कांधार की जागीर बैराम खाँ बेग को दे रखी थी किंतु बैराम खाँ बेग हुमायूँ के साथ भारत चला आया था, इसलिए बैराम खाँ ने शाह मुहम्मद नामक एक विश्वस्त अमीर को कांधार का प्रबंध सौंप रखा था। शाह मुहम्मद एक योग्य सेनापति था, इसलिए यह विश्वास किया जा सकता था कि उसके जीवित रहते कोई भी मुगल, उज्बेक अथवा अफगान; कांधार के किले पर अधिकार नहीं कर सकता था।
हुमायूँ के मरते ही भारत में हुमायूँ की वर्तमान राजधानी दिल्ली को अली कुली खाँ शैबानी ने अपनी सुरक्षा में ले लिया था। संभल का शासन भी उसी के पास था। हुमायूँ की पूर्व राजधानी आगरा को इसकन्दर खाँ उजबेक ने अपनी सुरक्षा में कस रखा था। इसी प्रकार हुमायूँ ने कालपी में अब्दुल्ला खाँ उज्बेग को, मेवात में तर्दी खाँ बेग को, अलीगढ़ में किया खाँ को और बयाना में हैदर मुहम्मद खाँ को नियुक्त कर रखा था। हालांकि हुमायूँ के जीते जी इनमें से किसी ने भी शाही इच्छा के विपरीत काम नहीं किया था किंतु बदली हुई परिस्थिति में कौन सा बेग अथवा अमीर किस दिन बागी हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता था। शाह अबुल मआली के बगावती तेवरों से इन अमीरों के शत्रु खेमे में जाने की आशंकाएं बढ़ गई थीं।
हुमायूँ ने अकबर के लिए काबुल में दो बड़ी चुनौतियां छोड़ी थी। ये चुनौतियां थीं चूचक बेगम के दो पुत्र जो इस समय काबुल के किले में पल रहे थे। कहने को ये अकबर के सौतेले भाई थे किंतु ये दोनों भी अकबर के लिए उतने ही खतरनाक सिद्ध हो सकते थे जितने कि बाबर के भाई बाबर के लिए तथा हुमायूँ के भाई हुमायूँ के लिए खतरनाक सिद्ध हुए थे।
हुमायूँ को मरे हुए आज 465 वर्ष बीत चुके हैं, इस बीच भारतीय इतिहास की धारा ने कई विकट मोड़ देखे हैं किंतु भारत के अधिकांश लोग आज भी हुमायूँ को नरम-दिल बादशाह के रूप में याद करते हैं। वैसे भी हुमायूँ ने भारत का राज्य अफगानों से छीना था न कि हिंदुओं से। भारत के लोगों के लिए अफगानियों के राज्य से मुगलों का राज्य कई अर्थों में अच्छा था। भारत के हिंदुओं पर हुमायूँ ने उसी प्रकार कोई अत्याचार नहीं किया जिस प्रकार उसने अफगानिस्तान अथवा भारत के मुसलमानों पर कोई अत्याचार नहीं किया। उसका स्वयं का जीवन अपने शत्रुओं, अपने भाइयों एवं मुगल अमीरों के षड़यंत्रों तथा विद्रोहों से इतना संत्रस्त था कि उसे भारत की प्रजा पर वास्तविक शासन करने का समय ही नहीं मिला था, इसलिए अत्याचार करने की तो संभावना ही नहीं थी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता