दिल्ली की सड़कें अंग्रेजों की लाशों से पट गईं। इन लाशों को उठाने की तो कौन कहे, इनकी ओर मुंह करके खड़े होने वाला भी कोई नहीं था। दिल्ली मानो खून के ज्वार-भाटे से बाहर निकली थी जो अपने पीछे गोरे इंसानों की लाशें छोड़ गया था।
अंततः 11 मई 1857 का मनहूस दिन और उसके बाद की चीत्कारों भरी रात बीत गई तथा 12 मई का मलिन सा सवेरा दिल्ली की वीरान सड़कों पर अनमने ढंग से उपस्थित हो गया। कल जो गुण्डे और लुटेरे दिल्ली की सड़कों पर राज कर रहे थे, आज वे कहीं भी दिखाई नहीं देते थे क्योंकि अब उन्हें लूटने की नहीं, अपितु लूट के उस माल को छिपाने की चिंता थी जो उन्होंने कल रईसों, सेठों और लालाओं की हवेलियों तथा अंग्रेजों के बंगलों से लूटा था।
ईस्वी 1857 में दिल्ली भारत की राजधानी नहीं थी किंतु मुगल बादशाह की उपस्थिति के कारण भारत में दिल्ली की प्रतिष्ठा अंग्रेजों की राजधानी कलकत्ता के समानांतर अवश्य थी। आज इसी समानांतर राजधानी के समस्त सम्भ्रांत लोग लुट-पिट कर रो रहे थे और जो लुटने से बच गए थे, अपने जान-माल की रक्षा के लिए अपने मकानों के तहखानों में दुबके पड़े थे।
किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वह दिल्ली की उन सड़कों पर निकलकर देखे कि अंग्रेजों की लाशें किन-किन सड़कों पर पड़ी हैं! कौनसे लाला की हवेली के दरवाजे टूटे पड़े हैं और कौनसे रईस के अस्तबल के घोड़े कल सुबह से भूखे खड़े हैं!
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
दिल्ली की सड़कों पर अंग्रेजों की लाशें बिखरी हुई थीं। ये शव उन रौबीले फिरंगियों के थे जिन्हें देखते ही कल तक हिन्दुस्तानियों की टांगें पसीने से भीग जाती थीं किंतु आज वे मानव-शरीर अपने रौब और घमण्ड को खोकर सड़कों पर तिनकों की भांति बिखरे हुए थे। अंग्रेजों की लाशें सभ्य भारतीयों को डराने के लिए उसी तरह पर्याप्त थीं, जिस तरह ये लाशें जीवित होने पर डराती थीं।
इन रौबीले शासकों के अचानक ही दृश्य से गायब हो जाने के कारण आज के दिन दिल्ली का कोई स्वामी नहीं रह गया था। इसलिए यह तय नहीं कि इन शवों की अंत्येष्टि कौन करेगा! उन दिनों की दिल्ली में नगर पालिका नहीं थी, पुलिस जरूर थी किंतु वह भी उच्च अधिकारियों के आदेश बजाने की इतनी अभ्यस्त थी कि स्वयं अपनी तरफ से कुछ भी निर्णय लेने में अक्षम थी।
लगभग ग्यारह बजे शहर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित पहाड़गंज पुलिस स्टेशन का थानेदार मुईनुद्दीन हुसैन खान अपने घर से निकला और किसी तरह डरता-सहमता हुआ लाल किले तक पहुंचा। वहाँ का दृश्य और भी विचित्र था! बादशाह के अधिकांश खिदमतगार, चोबदार और पहरेदार तिलंगों तथा लुटेरों के भय से लाल किला छोड़कर भाग चुके थे। लाल किले के मुख्य दरवाजे पर कोई नहीं था। जब मुइनुद्दीन सूने महलों में घुसा तो भी उसे रोकने वाला कोई नहीं था।
अंत में थानेदार को एक कमरे में दो ख्वाजासरा दिखाई दिए जो अदब से खड़े हुए बादशाह की खिदमत बजा रहे थे। थानेदार ने उन ख्वाजासरों से कहा कि मुझे बादशाह सलामत से मिलने दें। ख्वाजासरों ने बादशाह से अनुमति लेकर थानेदार को बादशाह से बात करने की इजाजत दे दी। समय-समय की बात है, एक समय वह भी था कि बड़ी-बड़ी दाढ़ियों और भारी-भरकम भालों वाले ड्यौढ़ीदार और मीरबक्शी बादशाह की खिदमत में रहा करते थे और बादशाह तक यह निवेदन पहुंचने में कई-कई दिन और महीने लग जाया करते थे कि अमुक देश का राजकुमार या वजीर बादशाह के हुजूर में पेश होना चाहता है।
आज उसी महल में, उसी मुगलिया बादशाह के पास, दो हिंजड़ों के अलावा और कोई नहीं बचा था! ख्वाजासरा महबूब अली का भी कहीं अता-पता नहीं था। इसलिए थानेदार को बादशाह के सामने पहुंचने में कोई समय नहीं लगा। थानेदार मुईनुद्दीन हुसैन खान ने बादशाह को दिल्ली के हालात की जानकारी दी। कहने को वह दिल्ली का थानेदार था और इसी हैसियत से बादशाह के सामने उपस्थित हुआ था किंतु न तो वह अपनी कोतवाली को दंगाईयों के हाथों जलाए जाने से बचा पाया था और न किसी भी शहरी का मकान लुटने से रोक पाया था।
संभवतः कुछ देर बाद बादशाह के कुछ चोबदार दिल्ली की सड़कों पर शांति हो गई जानकर फिर से बादशाह के हुजूर में लौट आए थे। बादशाह ने थानेदार मुइनुद्दीन की बात विस्तार से सुनी तथा अपने चोबदारों को थानेदार के साथ दरियागंज भेजा ताकि वे बादशाह की ओर से मुनादी करें कि- ‘दिल्ली में कत्लो-गारत तुरंत बंद किया जाए।’
बादशाह ने थानेदार मुइनुद्दीन तथा अपने चोबदारों से यह भी कहा कि यदि उन्हें कोई घायल या बेसहारा अंग्रेज मिले तो उसे किले में लाकर उसकी हिफाजत करें। जब बादशाह के चोबदारों ने दरियागंज में बादशाह के आदेश का ऐलान किया तब दिल्ली की गलियां पूरी तरह सूनी थीं। लूट का सिलसिला थम चुका था। सड़कों पर आवारा कुत्तों के सिवाय और कोई दिखाई नहीं देता था। शायद दिल्ली में लुटने के लिए कुछ बचा ही नहीं था!
बादशाह के चोबदारों को लगभग एक दर्जन घायल अंग्रेज और उनके स्त्री बच्चे यत्र-तत्र छिपे हुए मिले जिन्हें वे लाल किले में ले आए। बादशाह ने उच्च अंग्रेज अधिकारियों फ्रेजर, डगलस, जेनिंग्स और उनके परिवार के लोगों के शवों को लाल किले में मंगवा लिया तथा दर्जियों को बुलवाकर अंग्रेजों के शवों के लिए कफन सिलवाए।
इसे समय का ही फेर कहा जा सकता है कि जो अंग्रेज पिछले 54 सालों से लाल किले के पर कतरते आ रहे थे आज वही लाल किला उन अंग्रेजों के लिए कफन सिलवा रहा था! जिन अंग्रेजों ने बादशाह को लाल किला छोड़कर जाने के आदेश दिए थे, आज उन्हीं अंग्रेजों के शव लाल किले से अंतिम विदाई ले रहे थे। बादशाह ने मुनादी करवाई कि लाल किले में रह रहे सभी मर्द, अंग्रेज अधिकारियों के जनाजे में शामिल होंगे!
बादशाह के आदेश से थानेदार ने दिल्ली के समस्त अंग्रेजों के बंगलों एवं चर्चों की तलाशी ली। चर्च के भीतर थानेदार को 19 अंग्रेज छिपे हुए मिले। थानेदार उन्हें लाल किले में ले आया। जब थानेदार मुइनुद्दीन यह काम निबटकार लाल किले से निकल ही रहा था कि मेरठ से आए क्रांतिकारी सिपाहियों का एक घुड़सवार दस्ता धड़धड़ाता हुआ लाल किले में घुस आया।
शाहजहाँ तथा औरंगजेब के जमाने में जिस लाल किले में घुसते हुए बड़ों-बड़ों की रूहें पानी मांग लेती थीं आज उसी लाल किले में घुसने के लिए तिलंगों को किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी!
जिस थानेदार मुईनुद्दीन हुसैन खान को देखकर बड़े-बड़े अपराधियों की टांगें कांपने लगती थीं, आज वही थानेदार इन तिलंगों को देखकर अपनी टांगों में कंपकंपी का अनुभव करने लगा। थानेदार समझ गया कि अब यही तिलंगे दिल्ली के असली मालिक हैं! किसी बड़ी अनहोनी की आशंका से उसका कलेजा कांप गया!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता