Saturday, July 27, 2024
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तिलंगों का कहर

अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में भाग लने वाले पुरबिया सैनिकों को भारतीय इतिहास में तिलंगा कहा गया है। दिल्ली वासियों ने इन तिलंगों का कहर अपनी आंखों से देखा। जब तिलंगों ने दिल्ली पर आक्रमण किया, तब उनका उद्देश्य अंग्रेजों को मारकर दिल्ली को मुक्त करवाना और बहादुरशाह जफर को बादशाह घोषित करना था किंतु जब ये दिल्ली में घुसे तो दिल्ली के गुण्डे और अराजक तत्व तिलंगों के साथ हो गए तथा दिल्ली में लूटपाट करने लगे।

11 मई 1857 को दिल्ली में केवल इतना ही नहीं हुआ था कि अंग्रेजों को दिल्ली से मारकर या भगाकर सरकारी कार्यालयों पर कब्जा कर लिया गया था और दिल्ली के कुछ बड़े रईसों को दिल्ली के स्थानीय गुण्डों ने लूट लिया था, अपितु कुछ ऐसी घटनाएं भी हुईं जिनका उल्लेख भारत के इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता है।

इसका कारण यह है कि अंग्रेजों ने उस काल के अधिकांश दस्तावेजों को क्रांति समाप्त होने के बाद लंदन पहुंचा दिया था जिनमें वे अखबार, बहुत से लोगों की निजी डायरियां एवं पत्र आदि भी शामिल थे जिनमें इन घटनाओं का जिक्र किया गया था। ये दस्तावेज अब ब्रिटिश म्यूजियम के लाइब्रेरी खण्ड के बक्सों में बंद हैं।

1857 की घटनाओं से सम्बन्धित बहुत से दस्तावेजों के पुलिंदे लाल किले में नियुक्त मुस्लिम अधिकारियों के पास थे जो अंग्रेजों की नजरों से बचा लिए गए थे। ये पुलिंदे ईस्वी 1947 में पाकिस्तान बनने के समय दिल्ली से चुपचाप कराची पहुंचा दिए गए। ऐसे बहुत से दस्तावेज आज भी लाहौर एवं इस्लामाबाद की लाइब्रेरियों एवं संग्रहालयों में रखे हुए हैं।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

लाल किले की कुछ बेगमें एवं शाही परिवार के कुछ सदस्य ईस्वी 1858 में बादशाह बहादुरशाह जफर के साथ बर्मा चले गए थे। उन लोगों के पास भी कुछ पत्र एवं डायरियां थीं जो उनके साथ बर्मा चली गईं। इस प्रकार 1857 की क्रांति के दस्तावेजों का जखीरा बिखर गया और इस क्रांति का जो भी इतिहास लिखा गया, वह बहुत ही टूटा-फूटा इतिहास है। वीर सावरकर ने इस क्रांति की घटनाओं पर आधारित इतिहास को बहुत सुंदर तरीके से अपनी पुस्तक ‘अट्ठारह सौ सत्तावन का स्वातंत्र्य समर’ नामक पुस्तक में सहेज लिया जो आज भारत की अनुपम धरोहर है।

एक स्कॉटिश लेखक विलियम डेलरिम्पल ने ईस्वी 2004-2005 में लंदन, दिल्ली, कराची, लाहौर, रंगून आदि शहरों का भ्रमण करके इन दस्तावेजों को खंगाला तथा अपने ग्रंथ ‘द लास्ट मुगल’ में बहुत से नवीन तथ्यों का प्रकाशन किया। इस धारावाहिक की कुछ कड़ियों में उन तथ्यों को आधार बनाया गया है। डेलरिम्पल के वर्णन में तिलंगों का कहर प्रमुखता से चित्रित हुआ है।

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विलियम डेलरिम्पल ने 11 मई 1857 को कम्पनी सरकार की अदालत के लोअर मजिस्ट्रेट थियोफिलस मेटकाफ के सम्बन्ध में घटित एक घटना का बहुत रोचक वर्णन किया है।  11 मई को जब पहाड़गंज के थानेदार मुईनुद्दीन को मेरठ के तिलंगों के दिल्ली में घुसने की सूचना मिली तो उसने अपनी कोतवाली पहुंचकर सिपाहियों को हथियार दिए तथा उन्हें बागियों का सामना करने के आदेश दिए। जिस समय थानेदार यह कर ही रहा था कि कम्पनी सरकार की अदालत का लोअर मजिस्ट्रेट थियोफिलस मेटकाफ एक घोड़े पर सवार होकर कोतवाली पहुंचा। उसके हाथ में नंगी तलवार लहरा रही थी और वह पूरे जोश में था। थानेदार ने देखा कि मजिस्ट्रेट के शरीर पर केवल एक कमीज और जांघिया ही बचा है। उसके कपड़े तिलंगों ने उतार लिए थे।

थियोफिलस मेटकाफ तो तिलंगों के हाथों मारा ही जाने वाला था किंतु किसी दैवीय कृपा से वह एक खाई में गिर गया और तिलंगों की दृष्टि से बच गया। जब तिलंगे वहाँ से चले गए तब थियोफिलस मेटकाफ किसी तरह अपने घोड़े पर बैठकर कोतवाली पहुंचा। जब थानेदार ने मेटकाफ को इस हालत में देखा तो उसने मेटकाफ को अपने मित्र भूरे खाँ मेवाती के घर में छिपा दिया।

थियोफिलस मेटकाफ न केवल दिल्ली में कम्पनी सरकार की अदालत में लोअर मजिस्ट्रेट था अपितु वह दिल्ली के पूर्ववर्ती रेजीडेंट थॉमस मेटकाफ का बेटा भी था जिसे बहादुरशाह जफर की बेगम जीनत महल ने जहर देकर मरवाया था।

कुछ प्रत्यक्षदर्शी लोगों ने लिखा है कि जब मेटकाफ अपने घोड़े पर सवार होकर जा रहा था, तब उसने अचानक उन पुरबिया सैनिकों को देखा जो अंग्रेजों को मार रहे थे। इसलिए मेटकाफ तुरंत अपने घोड़े से उतर गया और उसने अपने कपड़े स्वयं ही उतार फैंके और उन लोगों की भीड़ में छिप गया जो सिपाहियों को देखने के लिए जमा हो गई थी। यदि मेटकाफ ऐसा नहीं करता तो निश्चित ही तिलंगों का कहर उस पर मौत बनकर टूटता!

जब तिलंगे कुछ दूर चले गए तो मेटकाफ फिर से अपने घोड़े पर बैठकर कोतवाली पहुंच गया। कुछ लोगों के अनुसार तिलंगों ने मेटकाफ को पकड़ लिया था और जब तिलंगे पकड़े गए अंग्रेजों को गोलियां मार रहे थे, तब मेटकाफ एक खड्डे में गिर गया और उसके प्राण बच गए।

थियोफिलस मेटकाफ की तरह कुछ और भी अंग्रेज 11 मई 1857 के दंगों में अपने प्राण बचाने में सफल हुए थे। दिल्ली की सैन्य छावनी, सिविल लाइन्स, चर्च आदि स्थानों से जीवित ही बच निकले अंग्रेज उत्तर-पश्चिम दिल्ली में स्थित एक पहाड़ी की टेकरी पर बने फ्लैगस्टाफ-टॉवर के निकट एकत्रित हो गए।

इस पहाड़ी को अंग्रेजों के शासन काल में ‘रिज’ के नाम से जाना जाता था। आज भी इस पहाड़ी को रिज ही कहा जाता है तथा इसे दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट देखा जा सकता है।

हमने इस रिज का उल्लेख इसलिए किया है कि यह रिज 1857 की क्रांति की महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी रही है। तिलंगों का कहर इसने अपनी आंखों से देखा है। अंग्रेज दिल्ली से भागने से पहले इसी रिज पर एकत्रित हुए थे और जब वे फिर से दिल्ली में लौटकर आए तो उन्होंने इसी रिज पर अपनी सेनाओं का जमावड़ा आरम्भ किया।

11 मई 1857 की शाम होने तक दिल्ली से जान बचाकर भागे अधिकांश अंग्रेज रिज पर स्थित फ्लैगस्टाफ-टॉवर तक पहुंचने में सफल रहे थे। फ्लैगस्टाफ-टॉवर पर कुछ टेलिग्राफ कर्मचारी भी एकत्रित हो गए। वे दिल्ली में स्थित उच्च अंग्रेज अधिकारियों एवं दिल्ली के निकटवर्ती स्थानों में स्थित अधिकारियों को दिल्ली में हुई घटनाओं की जानकारी भेजने लगे तथा सहायता के लिए आग्रह करने लगे किंतु थोड़ी ही देर में स्पष्ट हो गया कि दिल्ली के अंग्रेजों को कहीं से भी शीघ्र सहायता मिलने की आशा नहीं है।

जिस प्रकार जीवित अंग्रेज दिल्ली से भाग-भागकर रिज की तरफ आ रहे थे उसी प्रकार अंग्रेज अधिकारियों के शवों से भरी ही वह बैलगाड़ी भी रिज पर चली आई जिसे अंग्रेजों ने प्रातः काल में मुख्य गार्ड से बैरकों की ओर रवाना किया था। रिज पर स्थित अंग्रेजों ने अपने मृत साथियों के शवों का वहीं पर अंतिम क्रिया-कर्म किया।

कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने उसी रात करनाल के लिए प्रस्थान कर दिया। बहुत से अंग्रेज अधिकारियों को मार्ग में स्थित ग्रामीण लोगों की सहायता मिल गई किंतु उनमें से अधिकतर अंग्रेजों को मार्ग में लुटेरों ने लूट लिया। बहुत से अंग्रेजों के बदन पर कपड़े तक न बचे।

अंग्रेजों को लूटा और मारा गया, यह बात समझ में आती है, किंतु यह बात समझ में नहीं आती कि उन निरपराध भारतीयों को किस बात की सजा मिली थी जिन्हें गुण्डों द्वारा सड़कों पर कत्ल करके उनका सब-कुछ लूट लिया गया था! संभवतः उन्हें सभ्य, सम्भ्रांत एवं निर्दोष होने की सजा मिली थी, जो प्रायः इस धरती के अधिकांश लोगों को मिला करती है!

पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरागांधी को लिखे एक एक पत्र में इन गुण्डों को समाज का कचरा कहकर सम्बोधित किया है। सभ्यता का दर्प रखने वाले भारतीय समाज में समाज का यह कचरा कुछ ज्यादा ही है, तब भी था और आज भी है!

उधर अंग्रेज करनाल की तरफ भागे जा रहे थे और इधर दिल्ली शहर पर रात की काली चादर अपना शिकंजा कसती जा रही थी। आग की लपटों, काले-सफेद धुंओं, और लुटे-पिटे घरों से निकलती सिसकारियों ने भी सुबह होते-होते दम तोड़ दिया। सूरज की किरणों के निकलने से बहुत पहले ही रोती-बिलखती दिल्ली चुप हो चुकी थी किंतु आगे क्या होगा, इसकी बेचैनी में तड़प रही थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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