Friday, March 29, 2024
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99. बहादुरशाह ने अपने हाथों से कामबक्श के घावों पर मरहम लगाया!

जिस समय बहादुरशाह और उसका छोटा भाई आजमशाह जजाऊ के मैदान में अपने भाग्य का निर्णय कर रहे थे, उस समय कामबक्श दक्खिन में शांत बैठा रहा। 20 दिसम्बर 1708 को बहादुरशाह ने हैदराबाद के लिए सैनिक अभियान आरम्भ किया। उसके पास तीन सौ ऊंट और 20 हजार घुड़सवार थे। उसने अपने पुत्र जहांदारशाह के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी को अग्रिम टुकड़ी के रूप में आगे बढ़ाया। 12 जनवरी 1709 को बहादुरशाह स्वयं भी हैदराबाद पहुंच गया। एक नजूमी ने घोषणा की कि बहादुरशाह इस युद्ध में आश्चर्यजनक रूप से विजय प्राप्त करेगा।

तत्कालीन इतिहासकार विलियम इरविन ने लिखा है- ‘जैसे-जैसे बहादुरशाह की सेना हैदराबाद की तरफ बढ़ती रही, वैसे-वैसे कामबख्श के सिपाही कामबख्श का साथ छोड़कर बहादुरशाह की शरण में आते गए। अंत में कामबख्श के पास केवल 2500 घुड़सवार एवं 5000 पैदल सिपाही रह गए। जब कामबख्श ने अपने सेनापति से पूछा कि सिपाही हमारी फौज छोड़कर क्यों भाग रहे हैं तो सेनापति ने जवाब दिया कि हमारी सेनाओं को कुछ महीनों से वेतन नहीं दिया गया है, इस कारण वे हमें छोड़कर बहादुरशाह की तरफ जा रहे हैं। इस पर कामबख्श ने जवाब दिया कि मैंने अपनी तरफ से सबका भला किया है तथा अल्लाह पर मेरा पूरा विश्वास है। जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ होगा, वही घटित होगा।’

उधर कामबख्श के सैनिक घटते जा रहे थे और इधर बहादुरशाह को लगने लगा था कि अब कामबख्श भारत छोड़कर ईरान भाग जाएगा। इसलिए बहादुशाह ने अपने सेनापति जुल्फिकार खाँ नुसरत जंग को आदेश दिया कि वह मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर थॉमस पिट्ट से समझौता करे कि कि यदि अंग्रेज कामबख्श को पकड़कर हमें सौंप देंगे तो उन्हें दो लाख रुपए दिए जाएंगे।

13 जनवरी 1709 को बहादुरशाह की सेना ने कामबख्श पर आक्रमण किया। बहादुरशाह ने अपने 20 हजार सिपाहियों को दो भागों में विभक्त किया। इनमें से एक भाग का नेतृत्व मुनीम खाँ कर रहा था जिसकी सहायता के लिय बहादुरशाह के दो शहजादे रफीउश्शान तथा जहानशाह को नियुक्त किया गया। सेना के दूसरे भाग का नेतृत्व जुल्फिकार खाँ नुसरत जंग कर रहा था। इन दोनों सेनाओं ने मिलकर कामबख्श के शिविर को चारों तरफ से घेर लिया तथा जुल्फिकार खाँ ने बड़ी बेसब्री से एक छोटी टुकड़ी को साथ लेकर कामबख्श के शिविर पर हमला बोला।

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इस युद्ध में कामबख्श बुरी तहर से घायल हो गया तथा उसके शरीर से रक्त बह जाने के कारण वह बेहोश हो गया। जब यह सूचना बहादुरशाह को दी गई तो बहादुरशाह ने अपने सिपाहियों को आदेश दिए कि वह कामबक्श तथा उसके पुत्र बरीकुल्लाह को बंदी बनाकर ले आएं। बुरी तरह घायल कामबख्श को एक पालकी में डालकर बहादुरशाह के शिविर में लाया गया। बादहशाह ने अपने भाई के घावों को अपने रूमाल से साफ किया तथा उन पर मरहम-पट्टी करवाई किंतु कामबख्श के शरीर से इतना रक्त बह चुका था कि अगली सुबह होने से पहले ही उसका निधन हो गया।

इस प्रकार औरंगजेब के पांच पुत्रों में से अब धरती पर केवल एक ही पुत्र जीवित बचा था तथा वह औरंगजेब द्वारा छोड़ी गई विशाल मुगल सल्तनत का अकेला स्वामी था। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि बहादुरशाह बहुत उदार शासक था किंतु बहादुरशाह ने केवल पौने पांच साल शासन किया एवं इस दौरान वह अपने शत्रुओं से घिरा रहा। उसे शासन की नीति में परिवर्तन करने का कोई अवसर ही नहीं मिला। इसलिए उसके शासन काल में वही सब नीतियां चलती रहीं जो औरंगजेब के शासन काल में चलती थीं।

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हिन्दुओं से जजिया और तीर्थकर अब भी उसी तरह लिए जाते थे। हिन्दू किसानों से मुस्लिम किसानों की अपेक्षा दो-गुना लगान अब भी लिया जाता था। शासन में हिन्दू कर्मचारियों को रखने पर अब भी रोक यथावत् थी। बहादुरशाह ने अपने भाइयों के प्रति भी वही नीति अपनाई थी जो उसके पिता औरंगजेब ने अपनाई थी। अर्थात् भाइयों को युद्धों में मारकर पूरी मुगलिया सल्तनत पर अधिकार कर लिया।

औरंगजेब और बहादुरशाह के शासन में यदि कोई अंतर आया था तो वह केवल इतना था कि अब बादशाह तथा उसकी सरकार शियाओं के प्रति उदार हो गए थे। बादशाह के वजीर पहले की तुलना में ज्यादा ताकतवर हो गए थे तथा बादशाह के पास इतने शहजादे नहीं थे जिन्हें वह एक-एक करके जेल में बंद कर सके!

औरंगजेब ने राजपूत शासकों को ताकत के बल पर अपने अधीन रखा था, बहादुरशाह ने भी वही नीति जारी रखी किंतु अब मुगल शक्ति सिक्खों, जाटों एवं मराठों की टक्करों से कमजोर हो चुकी थी और राजपूत शक्ति मुगलों से विमुख हो चुकी थी इसलिए अब राजपूतों को ताकत के बल पर अधीन नहीं रखा जा सकता था।

बहादुरशाह के समय में सिक्खों के प्रति नीति में भी कोई परिवर्तन नहीं आया किंतु सिक्खों के गुरु गोविंदसिंह ने उत्तराधिकार के युद्ध के समय बहादुरशाह का साथ दिया था, इसलिए कुछ समय के लिए सिक्खों से युद्ध रुक गया। लगभग डेढ़ साल बाद बंदा बैरागी के नेतृत्व में सिक्खों ने फिर से युद्ध छेड़ दिया जिसे बहादुरशाह दबा नहीं सका।

गुरु गोविंदसिंह की तरह बूंदी के राजा बुद्धसिंह हाड़ा ने उत्तराधिकार के युद्ध में बहादुरशाह का साथ दिया था, इसलिए बूंदी के राजा को मुगल दरबार में बहुत महत्व मिलने लगा और उसे अनुमति दी गई कि वह अपने पड़ौसी कोटा राज्य पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर ले।

आम्बेर के राजकुमार विजयसिंह ने भी उत्तराधिकार के युद्ध में बहादुरशाह का साथ दिया था जिसे चीमाजी भी कहा जाता था। बहादुरशाह ने विजयसिंह को पुरस्कृत करने का निर्णय लिया।

बहादुरशाह ने कामबख्श को पराजित करने के बाद जुल्फिकार खाँ को दक्खिन का सूबेदार बना दिया जो कि पहले से ही बक्शी के पद पर नियुक्त था। बाबर से लेकर औरंगजेब तक किसी भी बादशाह ने कभी भी इतने बड़े दो पद किसी एक व्यक्ति को नहीं दिए थे। बहादुरशाह की इस गलती का परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर दक्खिन का सूबेदार इतना ताकतवर हो गया कि उसने दिल्ली से पृथक् सल्तनत खड़ी कर ली। चूंकि जुल्फिकार खाँ ईरानी था इसलिए बादशाह के दरबार में ताकतवर बनता जा रहा तूरानी गुट बादशाह से असंतुष्ट हो गया।

बहादुरशाह ने दरबार में अपना प्रभाव कायम रखने के लिए अपने धाय भाई कोकलताश की शक्तियों में वृद्धि की। कोकलताश ने बहुत से दरबारियों को अपनी तरफ करके एक अलग गुट खड़ा कर लिया जिसने इस दिशा में कार्य करना आरम्भ कर दिया कि बादशाह की शक्ति बादशाह के हाथों में रहे। इस कारण दूसरे तूरानी अमीरों में कोकलताश के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गई और दरबार में गुटबंदी बढ़ गई। इस प्रकार दरबारी कई गुटों में बंट गए जिन्होंने आगे चलकर मुगलिया सल्तनत की जड़ ही खोद डाली।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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