Saturday, July 27, 2024
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अध्याय-48 – राष्ट्रीय आंदोलन में बाल गंगाधर तिलक का योगदान

भारत की आजादी की पहली लड़ाई ई.1857 की सशस्त्र-क्रांति को माना जाता है जिसे अंग्रेज सैनिक-विद्रोह एवं बगावत कहते थे। इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि भारत से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया तथा ब्रिटिश क्राउन की सत्ता स्थापित हो गई।

इसके बाद स्वाधीनता के जो प्रयास आरम्भ हुए तब से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक चले संघर्ष को भारत का राष्ट्रीय आंदोलन कहा जाता है। अर्थात् भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन कहा जाता है। इस आंदोलन में देश के लाखों नर-नारियों ने भाग लिया तथा अपने प्राणों की आहुति भी दी।

भारत में उग्र राष्ट्रवाद के जनक  बाल गंगाधर तिलक

भारत में उग्र राष्ट्रवाद के जनक बाल गंगाधर तिलक न केवल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अप्रतिम सेनानी थे अपितु वे महान् विचारक और राजनीतिज्ञ भी थे। पाश्चात्य संस्कृति का विरोध करने एवं भारतीय समाज की दशा सुधारने के कामों में वे सदैव तत्पर रहते थे। उन्होंने लगभग पचास वर्ष तक भारतीय समाज की दशा सुधारने के लिए कार्य किया। उन्हें ‘भारतीय लोकशक्ति की गंगोत्री’, ‘लोकमान्य’ तथा ‘भारतीय उग्र राष्ट्रवाद के पिता’ कहा जाता है।

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके दादा केशवराव, पेशवा राज्य में उच्च पद पर आसीन थे। पेशवा के पतन के बाद उनके परिवार की पहले जैसी स्थिति नहीं रही थी। इसलिए तिलक के पिता गंगाधर पंत को अध्यापक की नौकरी करनी पड़ी। तिलक के बचपन का नाम बलवन्तराव था और उन्हें बाल कहा जाता था।

उनके पिता ने उन्हें संस्कृत, गणित और मराठी का ज्ञान घर पर ही करा दिया था। ई.1866 में तिलक पूना नगर के एक स्कूल में भर्ती कराए गए। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। उन्होंने संस्कृत के सैंकड़ों श्लोक कण्ठस्थ कर लिए। जब तिलक 10 वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। अतः उनके चाचा गोविन्दराम ने उनका पालन-पोषण किया। ई.1871 में पन्द्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह तापीबाई से हुआ।

ई.1873 में उन्होंने दकन कॉलेज में प्रवेश लिया। वे पढ़ने-लिखने के साथ-साथ मित्रों के साथ बातचीत, व्यायाम तथा आमोद-प्रमोद में भी समय लगाया करते थे। तिलक कट्टर सनातनी विचारों के थे और घर के बाहर भोजन नहीं करते थे। ई.1876 में उन्होंने बी.ए. प्रथम श्रेणी में उतीर्ण किया। तत्पश्चात् कानून का अध्ययन करके ई.1879 में उन्होंने एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त की। वे दो बार एम.ए. की परीक्षा में बैठे किंतु दोनों बार सफल नहीं हो सके।

शिक्षा प्राप्त करने के बाद तिलक ने अपना जीवन एक शिक्षक के रूप में प्रारम्भ किया किंतु उन्होंने अनुभव किया कि जनता में शिक्षा का प्रसार पत्रकारिता के माध्यम से अधिक शीघ्रता से किया जा सकता है। अतः जनता में नव-चेतना और नव-जागृति उत्पन्न करने के लिए अपने मित्रों- आगरकर, नामजोशी और चिपलूणकर के सहयोग से तिलक ने दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करने आरम्भ किए- अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ और मराठी भाषा में ‘केसरी’।

इन पत्रों में साहित्य, धर्म, इतिहास, तथा विविध विषयों के लेखों द्वारा जनता में भारतीय संस्कृति का प्रचार किया जाता था। शीघ्र ही इन पत्रों में अंग्रेजी सरकार की नीतियों के विरोध में भी लेख प्रकाशित होने लगे। अपने स्वतंत्र दृष्टिकोण तथा निर्भीक विचारों के कारण महाराष्ट्र में इन पत्रों की पाठ-संख्या बढ़ने लगी। इस कारण तिलक और आगरकर को अनेक कष्ट उठाने पड़े।

कोल्हापुर रियासत के प्रश्न को लेकर इन पत्रों में ब्रिटिश शासन की कड़ी आलोचना की गई। इस कारण कोल्हापुर के दीवान ने उन पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया जिनमें तिलक और आगरकर को चार-चार महीने के कारावास की सजा सुनाई गई। इस सजा ने इन दोनों को जननायक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

तिलक ने अनुभव किया कि शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना के बिना जनजागृति सम्भव नहीं है। अतः ई.1884 में उन्होंने दक्षिण शिक्षा समाज की स्थापना की। इसी संस्था के माध्यम से तथा जनसहयोग से ई.1885 में उन्होंने एक आर्ट्स कॉलेज की स्थापना की जो बाद में फग्र्युसन कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लगभग चार वर्ष तक तिलक शिक्षा-प्रसार के कार्य में लगे रहे।

उन दिनों नई पार्टी के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर गठित कांग्रेस, अंग्रेजों के समक्ष कुछ रियायतों के लिए अनुनय-विनय कर रही थी और अंग्रेज सरकार कांग्रेस की मांगों की उपेक्षा करती जा रही थी। तिलक को कांग्रेस का यह व्यवहार देश का अपमान प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने कांग्रेस के भीतर रह कर नए ढंग से कार्य करने की योजना बनाई।

ई.1889 में बाल गंगाधर तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। उस समय कांग्रेस पर मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का अधिकार था। कांग्रेस के अधिकांश नेता अंग्रेजी शिक्षा, इतिहास, संस्कृति और नैतिकता से प्रभावित थे और वे भारत में ब्रिटिश शासन के बने रहेने के पक्ष में थे, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि भारत की उन्नति केवल अंग्रेजों की देखरेख में संभव है।

वे लोग पश्चिमी संस्कृति के आधार पर भारतीय समाज को सुधारना चाहते थे। वे समाज सुधार पहले चाहते थे और स्वराज्य उसके बाद। कांग्रेस पर इन उदारवादियों का प्रभाव था। उदारवादी नेता स्वराज्य का अर्थ अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत औपनिवेशिक शासन मानते थे किंतु तिलक स्वराज्य का अर्थ विदेशी नियंत्रण से मुक्त स्वतंत्रता मानते थे। तिलक ने उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की नीति का विरोध किया। ई.1896 से ही वे कांग्रेस को इस बात के लिए प्रेरित करते रहे कि वह मजबूती दिखाये।

तिलक ने कहा- ‘मैं जानता हँ कि हमें अपने अधिकारों के लिए मांग करनी चाहिए, पर हमें यह अनुभव करते हुए मांग करनी चाहिए कि वह मांग अस्वीकार नहीं की जा सके। मांग प्रस्तुत करने तथा याचना करने में बहुत बड़ा अन्तर है। अगर आप अपनी मांग नामंजूर किए जाने पर लड़ने को तैयार हैं, तो निश्चित मानिए कि आपकी मांग नामंजूर नहीं की जाएगी।’

कांग्रेस में सम्मिलित होने के बाद तिलक ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति राष्ट्रीय आन्दोलन को शक्तिशाली बनाने में लगा दी। उन्होंने महाराष्ट्र के नवयुवकों में आत्म-निर्भरता, आत्म-बलिदान और आत्म-विश्वास के भाव जागृत करने हेतु अनेक समितियां, अखाड़े एवं क्लब आदि स्थापित किए। तिलक चाहते थे कि भारतीय अपनी स्वतंत्रता किसी की कृपा से नहीं अपितु अपने अधिकार के रूप में अपनी सामथ्र्य के बल पर अर्जित करें।

इसी उद्देश्य से तिलक ने ई.1893-94 में ‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणपति उत्सव’ मनाने की प्रथा आरम्भ की। इन उत्सवों के आयोजन में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होने लगे और उन्हें अपने धर्म एवं संस्कृति की महानता का भान हुआ। विचारों के परस्पर आदान-प्रदान के कारण लोगों में देशभक्ति की भावना का अपूर्व प्रसार हुआ।

ई.1897 में तिलक बम्बई विधान परिषद के सदस्य चुने गए। इसी वर्ष महाराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा और फिर पूना में प्लेग की महामारी फैली। पूना में प्लेग से निबटने का कार्य सेना को सौंपा गया। कुछ सैन्य अधिकारियों ने जांच करने के बहाने घरों में घुसकर महिलाओं से अशोभनीय व्यवहार किया। ‘मराठा’ और ‘केसरी’ में सरकारी उपायों की तीखी आलोचना की गई।

सरकारी नीति से क्षुब्ध होकर एक युवक ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड और उसके सहायक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी। यद्यपि तिलक का इस कृत्य से कोई सम्बन्ध नहीं था, किंतु सरकार ने उन पर अपने समाचार-पत्रों के माध्यम से हिंसा एवं राजद्रोह भड़काने का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा चलाया तथा उन्हें 18 महीने की कड़ी सजा दी।

तिलक को दी गई सजा की सर्वत्र निन्दा की गई किंतु इससे उनकी ख्याति पूरे देश में व्याप्त हो गई। तिलक को दी गई यह सजा भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में अत्यधिक महत्त्व रखती है। क्योंकि इससे पहले किसी भारतीय पर राजद्रोह के आरोप में मुकदमा नहीं चला था।

ई.1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। तिलक और उसके साथियों ने इसका कड़ा विरोध किया तथा एक जन आन्दोलन खड़ा कर दिया। ‘केसरी’ के माध्यम से उन्होंने स्वेदशी अपनाने, विदेशी माल और नौकरियों के बहिष्कार और स्वराज्य के लिए अथक प्रयास का सन्देश जन-जन तक पहुँचाया। अब तिलक का कार्यक्षेत्र केवल महाराष्ट्र ही नहीं रहा, अपितु वे राष्ट्रीय नेता के रूप में पहचाने जाने लगे।

20वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस में एक नए दल का उदय हो रहा था, जो कांग्रेस की भिक्षावृत्ति की नीति का विरोधी था। इस दल में लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष प्रमुख थे। इन्हें उग्रवादी नेता कहा जाता था। ये नेता बड़ी निर्भीकता से सरकार की आलोचना करते थे। उदारवादी दल के लोग अंग्रेजों से मधुर सम्बन्ध चाहते थे और इसलिए तिलक एवं उनके सहयोगियों को कांग्रेस से बाहर करना चाहते थे।

तिलक और उनके सहयोगियों की चिन्ता यह थी कि भारतीय चिन्तन, जीवन और राजनीति में पश्चिम का प्रभाव बढ़ रहा था। इसलिए तिलक कांग्रेस को ‘चापलूसों का सम्मेलन’ और काग्रेस के अधिवेशनों को ‘मनोरंजन के लिए छुट्टी का दिन’ कहते थे। धीरे-धीरे कांग्रेस में उदारवादियों और उग्रवादियों में मतभेद बढ़ते चले गए। ई.1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में उदारवादियों ने उग्रवादियों को कांग्रेस से निकाल दिया। इसे सूरत फूट कहा जाता है।

सरकार ने कांग्रेस की फूट का लाभ उठाया और ई.1908 में तिलक पर पुनः राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें छः वर्ष के कारावास की सजा दे दी। ई.1914 तक उन्हें मांडले जेल में रखा गया। जब ई.1914 में वे जेल से रिहा होकर आए, तब श्रीमती एनीबिसेन्ट ने कांग्रेस के दोनों दलों में मेल करवाया। अप्रैल 1916 में तिलक ने श्रीमती एनीबिसेन्ट के सहयोग से होमरूल आन्दोलन चलाया। ई.1919 में तिलक ने विल्सन के आत्म निर्णय के सिद्धान्त के आधार पर भारत के लिए भी इस अधिकार की मांग की। तिलक का विचार था कि कांग्रेस ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देना सीखे।

तिलक कहते थे कि हमें स्वराज्य हासिल करने के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए। तिलक स्वराजय प्राप्ति के लिए हिंसा के पक्षधर नहीं थे किंतु जब शान्तिपूर्ण तरीके प्रभावशाली सिद्ध नहीं हों तो उन्हें हिंसात्मक तरीके अपनाने में भी कोई परहेज नहीं था।

 धीरे-धीरे कांग्रेस में उग्रवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा। फलस्वरूप उदारवादियों को लिबरल फेडरेशन नामक नया संगठन बनाना पड़ा और कांग्रेस पर उग्रवादियों का प्रभाव स्थापित हो गया। तिलक ने कांग्रेस को ब्रिटिश साम्राज्य का विद्रोही बना दिया। तिलक ने कहा- ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’

तिलक अपने समय के महान् विद्वान थे। मांडले जेल में उन्होंने ‘गीता रहस्य’ और ‘आर्कटिक होम इन द् वेदाज’ नामक पुस्तकें लिखीं। वे प्रथम कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का सुझाव दिया। तिलक के भाषणों में आग होती थी, वे सरकारी नीतियों की बेधड़क आलोचना करते थे। इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें ‘भारतीय अशान्ति का पिता’ कहा। वे अपने जीवन के अन्तिम समय तक स्वराज्य के लिए संघर्ष करते रहे। 1 अगस्त 1920 को उनका निधन हो गया।

तिलक के सामाजिक विचार

यद्यपि तिलक पहले स्वराज्य और बाद में समाज सुधार के पक्षधर थे किंतु समाज सुधार की आवश्यकता के प्रति उनकी दृष्टि कम नहीं थी। वे समाज सुधार के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण नहीं चाहते थे अपितु भारतीय संस्कृति की महान विशेषताओं को फिर से स्थापित करके पश्चिम के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ग्रहण करना चाहते थे।

वे भारतीयों का अंग्रेजीकरण नहीं चाहते थे।  वेलेन्टाइन शिरोल नामक लेखक ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि तिलक पुरातनवादी और रूढ़िवादी राजनीतिक नेता थे। वे किसी प्रकार का धार्मिक या सामाजिक सुधार नहीं चाहते थे। वस्तुतः शिरोल, तिलक के सामाजिक दर्शन को इसलिए उपेक्षित करना चाहते हैं क्योंकि वे तिलक को ब्रिटिश साम्राज्य का परम विद्रोही मानते थे। तिलक के सामाजिक विचारों को केसरी में छपे उनके लेखों में पढ़ा जा सकता है।

तिलक मद्यपान तथा बाल-विवाह के विरोधी थे, विधवा-विवाह को उचित मानते थे तथा शिक्षा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रोत्साहित करने के पक्षपाती थे किंतु तिलक चाहते थे कि ये कार्य समाज द्वारा किए जाएं न कि सरकार द्वारा। क्योंकि यदि सरकार इन कार्यों को करेगी तो उसे भारत के सामाजिक ढांचे में सेंध लगाने का अवसर मिल जाएगा। यही कारण था कि जब ब्रिटिश सरकार ने ई.1890-91 में सहवास-वय विधेयक प्रस्तुत किया तो तिलक ने उसका घोर विरोध किया।

तिलक ने समाज सुधारों के क्षेत्र में उतनी उग्रवादी नीति का उनुसरण नहीं किया जितना कि राजनीतिक क्षेत्र में। रानाडे से वैचारिक मतभेद होते हुए भी उन्होंने रानाडे द्वारा प्रस्तावित कतिपय सुधारों का समर्थन किया, तिलक इस बात से सहमत थे कि लड़कों का विवाह 16, 18 या 20 वर्ष से पहले न किया जाए तथा लड़कियों का विवाह 10, 12 या 14 वर्ष से पहले न किया जाय।

उन्होंने बहुपत्नी-प्रथा का विरोध किया तथा 60 वर्ष की आयु पर विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाने का समर्थन किया। रानाडे की सुधार योजना में लड़के व लड़की के विवाह में एक वर्ष से अधिक की आय न खर्च करने का प्रस्ताव भी स्वीकार किया। शराब पर प्रतिबन्ध तथा स्त्री-शिक्षा के विस्तार का भी उन्होंने समर्थन किया। यद्यपि तिलक ने हिन्दू समाज की मान्यताओं को स्वीकार किया किन्तु वे रूढ़ियों के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया।

तिलक ने अपनी पुत्रियों का विवाह 15वर्ष की आयु के पश्चात् किया। शिवाजी और गणपति उत्सवों में उन्होंने सवर्णों के साथ अवर्णों को भी शामिल किया और उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया। उनकी मान्यता थी कि भारत के गौरवपूर्ण अतीत को भुलाने के स्थान पर उन त्रुटियों को दूर किया जाए जिनके कारण सामाजिक कुरीतियां उत्पन्न हुई हैं।

तिलक ने लिखा है- ‘जिस प्रकार रूढ़िवादी मान्यताएं तथा उनके पोषक पंडित एक-पक्षीय हैं, उसी प्रकार अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त सुधारक भी एक पक्षीय एवं दकियनूसी हैं। पुराने शास्त्री तथा पंडित नवीन परिस्थितियों से उसी प्रकार अपरिचित हैं जिस प्रकार नवीन शिक्षा प्राप्त सुधारक हिन्दू-धर्म की परम्पराओं एवं दर्शन से। अतः यह नितान्त आवश्यक है कि नवीन शिक्षा प्राप्त वर्ग को प्राचीन मान्यताओं तथा दर्शन का उचित ज्ञान कराया जाए तथा पुराने पंडितों तथा शास्त्रियों को नवीन परिवर्तनों एवं परिवर्तनशील परिस्थितियों की जानकारी दी जाए।’

तिलक को इस बात से बड़ा कष्ट पहुँचता था कि भारतीय अपने महान् प्राचीन आदर्शों की उपेक्षा करके पश्चिम के अपरिष्कृत भौतिकवाद का अन्धानुकरण करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने लिखा है- ‘यदि पश्चिम का अन्धानुकरण करके भारत का पुनर्निमाण किया गया तो भारतीय अस्मिता संकट में पड़ जाएगी।’

तिलक का विश्वास था कि- ‘समाज के बाह्य रूप और व्यवहार में परिवर्तन मात्र से सामाजिक सुधार नहीं हो सकते। सुधार तो लोगों के मन के भीतर होने चाहिए। भारत में कुप्रथाएं रूढ़िवाद का परिणाम हैं और यह रूढ़िवाद एक हजार वर्ष की पराधीनता तथा गतिहीनता का परिणाम है। अतः जनसाधारण की आत्मा को जागृत किया जाए और लोगों को भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्त्वों से परिचित कराया जाय।’

बालगंगाधर तिलक भारतीयों की प्राचीन वर्ण-व्यवस्था को मानव-प्रगति की सूचक मानते थे। तिलक के अनुसार आर्यों की वर्ण-व्यवस्था सामाजिक संगठन का निर्माण करके व्यक्ति की प्रकृति तथा प्रतिभा के अनुरूप काम करने की स्वतंत्रता देती है। वे इस आरोप को मिथ्या मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था सामाजिक भेदभाव तथा अन्याय पर आधारित है।

तिलक कहते थे- ‘यदि ईश्वर भी अछूत-प्रथा का समर्थन करते तो मैं ऐसे ईश्वर को स्वीकार नहीं करता।’ तिलक वर्ण-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था से भिन्न मानते हुए, जाति-व्यवस्था को अत्यंत दोषपूर्ण मानते थे। वे छूआछूत को सनातन धर्म जनित न मानकर एक ऐसी व्याधि मानते थे, जिसे सनातन-धर्मी पुरातन-पंथियों ने आमंत्रित किया है। इस व्याधि से छुटकारा पाने के लिए सनातन धर्म का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है अपितु रूढ़िवादिता को त्यागने की आवश्यकता है।

तिलक के उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है कि तिलक सामाजिक प्रतिक्रियावादी नहीं अपितु उदार परम्परावादी थे। वे प्रचीन भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में ही समाज सुधार के समर्थक थे।

तिलक के धार्मिक एवं आध्यात्मिक विचार

बालगंगाधर तिलक की सनातन हिन्दू-धर्म में पूर्ण निष्ठा थी। वे हिन्दू-धर्म की महानता, उदारता एवं सहिष्णुता के प्रशंसक थे। उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का विशद् अध्ययन किया तथा परम्परावादी सनातनी होते हुए भी धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया। उनके अनुसार वेदों, उपनिषदों तथा वेदान्त की वैज्ञानिक धारणाओं में सन्देह नहीं किया जा सकता।

तिलक ने हिन्दुओं की एकता पर बल दिया तथा हिन्दुओं के विभिन्न मत-मतान्तरों को समन्वित कर समस्त हिन्दू मतावलम्बियों को एक-जुट होने का आह्वान किया। उनका कहना था कि- ‘वैदिक-काल में भारत स्वावलम्बी देश था तथा एक महान् राष्ट्र की भांति संगठित था किंतु विदेशी आक्रमणों के कारण भारत की एकता छिन्न-भिन्न हो गई है जिससे हमारा पतन हुआ है। हमारे नेताओं का कत्र्तव्य है कि इस एकता को पुनः जीवित करें।’

तिलक ने धर्म को मनुष्य के लिए आवश्यक जीवन-मंत्र के रूप में देखा था। उनके अनुसार धर्म का उद्देश्य हिंसा, अपराध अथवा विध्वंस सिखाना नहीं है। वे समाज में व्याप्त संकीर्ण साम्प्रदायिकता को दूर करने के लिए धार्मिक शिक्षण पर जोर देते थे। तिलक ने हिन्दुओं तथा मुसलमानों को अपने-अपने धर्म की उचित शिक्षा ग्रहण करने का आह्वान किया ताकि वे परस्पर धार्मिक सहिष्णुता का ज्ञान प्राप्त कर सकें।

तिलक ने रमाबाई द्वारा संचालित ‘शारदा-सदन’ की गतिविधियों का भंडाफोड़ करके यह सिद्ध किया कि ईसाई मिशनरियों द्वारा किस प्रकार धर्म की आड़ में अबोध हिन्दू बालिकाओं को ईसाई बनाया जा रहा है। तिलक के अनुसार- ‘किसी को अपने धर्म पर अभिमान कैसे हो सकता है, यदि वह उससे अनभिज्ञ है? धार्मिक शिक्षा का अभाव ही इस बात का एक मात्र कारण है कि देश भर में ईसाई मिशनरियांे का प्रभाव बढ़ गया है।’

तिलक उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के पक्षधर थे किंतु संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवादी नहीं थे। उनके द्वारा महाराष्ट्र में चलाये गए जन-आन्दोलनों को विभिन्न सम्प्रदायों का समर्थन प्राप्त होता था। ई.1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में तिलक ने हिन्दुओं तथा मुसलमानों में साम्प्रदायिक समझौता करवाया।

उनके सहिष्णु दृष्टिकोण के कारण मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व देने का निर्णय कांग्रेस ने स्वीकार किया। चूंकि तिलक एक धर्मनिष्ठ सनातनी हिन्दू थे इसलिए वे अपने धार्मिक विश्वास अन्य सम्प्रदायों पर नहीं थोपना चाहते थे, सभी धर्मों की स्वतंत्रता में विश्वास करते थे।

तिलक ने सनातन धर्म की व्यवस्था को स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को सामान्य आध्यात्मिक प्रगति कर ओर ले जाने वाला माना। सनातन धर्म ने मोक्ष को जीवन का लक्ष्य मानकर धर्मयुक्त अर्थ तथा काम के सेवन का मार्ग दिखाया। हिन्दू-धर्म में जीवन के प्रति अकर्मण्यता एवं शिथिलता को दूर करने के लिए कर्मयोग का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। कर्म के अनुरूप चेतनामय जीवन, मोक्ष प्रदान करता है। वे सनातन-धर्म की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे तथा उसे विश्व-धर्म की संज्ञा देते थे।

तिलक ने ‘गीता रहस्य’ में अपने आध्यात्मिक विचार प्रस्तुत किए हैं। वे मानते हैं कि परब्रह्म से साक्षात्कार के अनेक मार्ग हैं जिनमें से कर्म का मार्ग प्रधान है। ज्ञान-योग तथा भक्ति-योग ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने में सक्षम हैं किंतु मनुष्य कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। ज्ञान से उत्पन्न वैरागय अथवा सन्यास में भी कर्म की स्थिति बनी रहती है। दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सन्यासी को भी विचरण करना पड़ता है।

व्यक्ति को ज्ञान तथा भक्ति में पूर्णता प्राप्त करके भी मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्म करना होता है। मुनष्य का ईश्वर के साथ एकाकार होना ही उसे कर्म से मुक्ति दे सकता है। कर्म द्वारा मोक्ष प्राप्ति का अर्थ है प्राणी मात्र की सेवा करके सांसारिक बन्धनों से मुक्ति तथा चिरंतन सत्य के साथ एकरूपता। कर्म के रण-प्रांगण में विजय प्रप्ति ही मोक्ष है। तिलक ने गीता रहस्य में कर्मयोग की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की है।

तिलक के अनुसार कर्म-योग ब्रह्माण्ड की सृजनात्मक शक्ति का विवेकपूर्ण एवं संतुलित उपयोग है। यही प्रवृत्ति मार्ग है जो निष्काम कर्म की प्रेरणा देता है। तिलक ने मनुष्य में स्वार्थ एवं परमार्थ दोनों ही प्रवृत्तियों का दर्शन किया है। स्वार्थ पर परमार्थ की विजय ही व्यक्ति के चरमोत्कर्ष का मार्ग है।

शंकराचार्य की तरह तिलक भी अद्वैतवादी हैं। तिलक ने मानव तथा ईश्वर के बीच अद्वैत का समर्थन किया। तिलक ने वेदान्त में व्यक्त परब्रह्म की दृष्यमान अभिव्यक्ति को ईश्वर माना है। आध्यात्मिक साधना के प्रथम चरण में ईश्वर की उपासना श्रेष्ठ है। इसके पश्चात् ध्यानावस्था की चरम परिणति निर्विकल्प समाधि है जिसमें निराकार परब्रह्म के सच्चिदानन्द स्वरूप की प्राप्ति होती है।

इस प्रकार तिलक ने ‘सांख्य दर्शन के अनीश्वरवादी परब्रह्म’ तथा ‘श्रीकृष्ण के ईश्वरीय अस्तित्त्व’ के वेदान्ती दृष्टिकोणों का गीता में सुन्दर समन्वय अनुभव किया है। आध्यात्मिक साधना से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मोक्षार्थी को कर्म त्यागने के स्थान पर अहंकार तथा स्वार्थ का त्याग करना होता है। तिलक ने गीता के अवतारवाद को स्वीकार किया है तथा ईश्वर द्वारा धर्म की रक्षा के लिए बारम्बार पृथ्वी पर अवतरित होने को निष्काम कर्म का जीवन्त उदाहरण माना है। निष्काम कर्म ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है।

तिलक के योगदान का मूल्यांकन

बालगंगाधर तिलक अपने युग के महान पुरुष थे। वे जीवन भर युगानुकूल राजनीति, आध्यात्मिक विवेचन, सामाजिक चिन्तन, पत्रकारिता एवं स्वतंत्रता संग्राम में संलग्न रहे। इस सबके बदले में तिलक को किसी प्रतिफल की आकांक्षा नहीं थी। यदि उन्हें कुछ चाहिए था तो भारत के लिए स्वराज्य, प्रजा की सामाजिक एवं आध्यात्मिक उन्नति। देश की आर्थिक एवं राजनीतिक प्रगति।

राष्ट्र ही उनका सबसे पहला देवता था जिसकी उन्होंने जीवन भर आराधना की। पत्रकारिता एवं राजनीतिक गतिविधियों के लिए जेल जाने वाले वे पहले व्यक्ति थे। अंग्रेजों ने अनेक बार उन्हें जेल भेजा। उन्होंने प्रखर राष्ट्रवाद की पैरवी की तथा कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भिक्षावृत्ति के लिए उनकी आलोचना कर भारतीयों में आत्म-सम्मान के भाव को पुनर्जागृत किया। उन्होंने समाज सुधार के लिए सरकार पर निर्भर होने की बजाय समाज को ही तैयार करने के लिए कार्य किया।

पाश्चात्य संस्कृति को वे भारत के लिए अनुकरणीय नहीं मानते थे। उन्होंने 19वीं एवं 20वीं सदी के भारत की जनता को भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का भान कराया। यदि तत्कालीन समालोचकों ने उन्हें भारतीय लोकशक्ति की गंगोत्री‘, ‘लोकमान्य’ तथा ‘भारतीय उग्र राष्ट्रवाद के पिता’ कहा जाता है तो यह सर्वथा उचित ही है। यदि अंग्रेज उन्हें ‘भारतीय अशान्ति का पिता’ कहते हैं तो भी यह उनके कार्य का सबसे बड़ा मूल्यांकन है। उन्होंने वास्तव में सदियों से सोए पड़े भारतीय समाज में उद्वेलन पैदा करके अंग्रेज सरकार के सामने जबर्दस्त चुनौती खड़ी कर दी।

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