Saturday, July 27, 2024
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अध्याय-49 – राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का योगदान

मोहनदास कर्मचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोबंदर में हुआ। उनके पिता कर्मचंद गांधी पोरबंदर, राजकोट और वंकानेर रियासतों के दीवान रहे। गांधीजी ने ई.1914 के बाद भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और देश के स्वाधीनता आंदोलन को नई दिशा प्रदान की। उन्होंने कांग्रेस के माध्यम से राजनीतिक आंदोलनों की एक क्रमबद्ध शृंखला चलाई तथा देश की जनता को बड़ी संख्या में कांग्रेस के कार्यक्रमों से जोड़ा। यही उनकी सबसे बड़ी सफलता थी।

वे अपने समय के महान समाज सेवी, अर्थशास्त्री एवं राजनीतिक आंदोलनकारी सिद्ध हुए। भारतीय धर्म एवं संस्कृति की बजाय उनके चिन्तन पर पाश्चात्य चिंतन की छाप अधिक थी। वे हिन्दू-धर्म एवं संस्कृति पर गर्व करने की बजाय हिन्दू-मुस्लिम एकता पर अधिक बल देते थे। गांधीजी ने इंग्लैण्ड में कानून की पढ़ाई की जिससे उन्हें अंग्रेजी रीति-नीति, ईसाई धर्म तथा वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों का समुचित ज्ञान हो गया।

जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रथम कारावास की सजा भुगत रहे थे तब उन्होंने अमरीकी लेखक हेनरी डेविड थोरू की पुस्तक ‘ऐसे ऑन सिविल डिसओबीडियेन्स’ का अध्ययन किया। उससे प्रेरित होकर ही गांधीजी ने आगे चलकर भारत में भी सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया। बाद में गांधजी ने सिविल डिसओबीडिएंस के स्थान पर ‘सिविल रेजिस्टेन्स’ शब्द का प्रयोग किया।

गांधीजी को टॉल्सटाय की पुस्तक ‘द किंग्डम ऑफ गॉड इज विदिन यू’ ने अत्यधिक प्रभावित किया। गांधीजी ने स्वयं स्वीकार किया है कि अहिंसा में उनकी निष्ठा टॉल्सटाय की पुस्तक से जागृत हुई। गांधीजी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विचारों में मूलभूत एकता दिखाई देती है। अतः उनके विचार-दर्शन को समग्र रूप से देखना समीचीन होगा। ब्रिटिश साम्राज्य और पाश्चात्य संस्कृति के विरोध में उनके द्वारा चलाये गए अहिंसात्मक आन्दोलनों ने विश्व राजनीति को एक नई दिशा प्रदान की।

अहिंसा का विचार भारतीय उपनिषदों में सदियों से मौजूद था, इसलिए गांधीजी प्रथम व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने अहिंसा को श्रेष्ठ कर्म बताया था किंतु गांधीजी प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने अहिंसा और सत्य के आदर्शों का राजनीति में प्रयोग किया। वे कहते थे कि जिस प्रकार धर्म में सत्य का आग्रह होता है उसी प्रकार राजनीति में भी सत्य का आग्रह होना चाहिए। वे राजनीति में हिंसा, असत्य और षड़यन्त्र को अनुचित मानते थे।

गांधीजी का जीवन-वृत्त

गांधीजी का बाल्यकाल

गांधीजी का जन्म गुजरात में पोरबन्दर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर 1869 को हुआ। वे अपने चार भाई-बहिनों में सबसे छोटे थे। गांधीजी की प्राथमिक शिक्षा राजकोट में हुई। उनका लालन-पालन वैष्णव परिवार में हुआ था, किंतु माता पुतलीबाई का परिवार जैन धर्मावलम्बी था, इसलिए गांधीजी के विचारों में जैन-धर्म का प्रभाव दिखाई देता है।

गांधीजी के बचपन की एक घटना उल्लेखनीय है जो उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखी है। वे लिखते हैं कि किस प्रकार उन्होंने बचपन में चोरी की, छुपकर तथा झूठ बोलकर सिगरेट पी तथा मांस भक्षण किया। इन कृत्यों से उनके मन में बराबर संघर्ष चलता रहा। अन्त में उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखकर इन अपराधों को स्वीकार कर लिया और आग्रह किया कि उन्हें दण्ड दिया जाय।

उन्होंने अपने पत्र में यह भी लिखा कि आगे से वे ऐसा नहीं करेंगे। उनके पिता यह पत्र पढ़कर स्तब्ध रह गए और पिता की आंखों से आंसू छलक आए। ई.1882 अर्थात् 13 वर्ष की आयु में गांधीजी का विवाह कस्तूरबा से हुआ। ई.1887 में गांधीजी ने दसवीं कक्षा उतीर्ण की और कुछ समय बाद कानून की पढ़ाई करने इंग्लैण्ड गए। ई.1891 में वे बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत लौटे।

भारत में उन्होंने वकालात प्रारम्भ की किंतु इसमें उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। वे अब्दुल्ला कम्पनी के कानूनी कार्यों को सम्भालने के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गए। ई.1893 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका ही उनकी कर्मभूमि रही। यहीं पर गांधी चिन्तन और विचारधारा का विकास हुआ।

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी

गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों की रंगभेद नीति को अत्यंत निकट से देखा। प्रथम श्रेणी का टिकट होते हुए भी गांधीजी को सामान सहित डिब्बे से बाहर फैंक दिया गया क्योंकि एशियाई लोग अंग्रेजों के साथ यात्रा नहीं कर सकते थे। ट्रेन चली गई और उन्हें रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म पर सर्दी की रात में खड़े रहना पड़ा। उनके मन में अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की भावना उत्पन्न हुई।

गांधीजी ने स्वयं इस घटना को अन्याय के विरुद्ध अहिंसक प्रतिकार का प्रारम्भ बिन्दु माना है। उस समय दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी सरकार ने एशियाई लोगों पर अनेक प्रतिबन्ध लगा रखे थे। इन प्रतिबन्धों के कारण श्रमिकों की दशा सबसे खराब थी। अतः गांधीजी ने ट्रांसवाल में रजिस्ट्रेशन अधिनियम के विरुद्ध आवाज उठाई।

इस अधिनियम के अनुसार एशियाई मूल के निवासियों को सरकारी रिकॉर्ड में अपना नाम, अंगूठे का निशान, हस्ताक्षर एवं चित्र दर्ज करवाकर रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट प्राप्त करना अनिवार्य था, जबकि गोरे लोगों पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। गांधीजी ने रंगभेद पर आधारित इस कानून का विरोध किया। उन्होंने भारतीयों को संगठित कर उनका एक संघ बनवाया और उन्हें रजिस्ट्रेशन नहीं करवाने की सलाह दी। सरकारी प्रतिनिधियों के समक्ष एक आम-सभा में रजिस्ट्रेशन कार्डों को जलाया गया।

इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी द्वारा सत्याग्रह का पहला प्रयोग किया गया। उन्होंने सत्याग्रह के दौरान स्पष्ट किया कि उनका विरोध किसी व्यक्ति से नहीं अपितु व्यवस्था से है। वे अपने विरोधियों और आलोचकों के प्रति भी सद्भावना रखते थे। सत्याग्रह के संघर्ष के दौरान उन्होंने बाताचीत द्वारा समझौते के द्वार सदैव खुले रखे।

भारत में आन्दोलनों का नेतृत्व

ई.1915 में गांधीजी भारत लौट आए। दक्षिण अफ्रीका में उनके सफल सत्याग्रह से भारतीय परिचित हो चुके थे। भारत में गांधीजी का ध्यान श्रमिकों की दयनीय स्थिति की ओर गया। ई.1917 में उनहोंने ‘चंपारन’ (बिहार) में नील की खेती करने के लिए बाध्य किए जाने वाले किसानों की स्थिति सुधारने हेतु आन्दोलन किया। उनके इस आन्दोलन के फलस्वरूप किसानों को कुछ रियायतें मिलीं।

इस आन्दोलन के फलस्वरूप लोगों की सोच और मानसिकता में परिवर्तन आया। चांपारन के बाद गांधीजी ने ‘खेड़ा’ में किसानों को लगान में छूट दिलवाने के लिए ‘कर नहीं’ आन्दोलन चलाया और सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार ‘अहमदाबाद’ में मिल मजदूरों की मांगों के समर्थन में आमरण-अनशन करके उनकी मांगें पूरी करवाईं।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गांधीजी ने भारतीयों से हर प्रकार से ब्रिटिश सरकार से सहयोग करने की अपील की। सम्भवतः उन्हें आशा थी कि संकट के समय ब्रिटिश सरकार की सहायता करने पर, युद्ध के बाद भारतीयों की मांगों पर उदार दृष्टिकोण अपनाया जाएगा। स्वयं गांधीजी ने भारत सरकार को रंगरूटों की भर्ती तथा घायल व्यक्तियों की देखभाल के लिए अपनी सेवाएं दीं।

इन सेवाओं के कारण सरकार ने उन्हें पदक भी दिया किंतु युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार की नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया। इससे गांधीजी को बड़ी निराशा हुई, फिर भी गांधीजी ने सहयोग की नीति को नहीं छोड़़ा। ई.1919 के सुधार अधिनियम से यद्यपि समस्त राष्ट्रवादी असन्तुष्ट थे तथापि गांधीजी उस अधिनियम को कार्यान्वित कराने के पक्ष में थे किंतु शीघ्र ही कुछ घटनाएं ऐसी घटित हुईं कि गांधीजी ब्रिटिश सरकार के असहयोगी बन गए।

असहयोग आन्दोलन

रॉलेट एक्ट, जलियांवाला बाग नरसंहार, ई.1919 के सुधार अधिनियम की खराब कार्यान्विति से निराश होकर ई.1920 में गांधीजी ने प्रथम देशव्यापी असहयोग आन्दोलन चलाया। गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार से सहयोग नहीं करने के लिए, सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का त्याग करने, विधानसभाओं, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी समितियों का बहिष्कार करने का आह्वान किया।

स्वदेशी आन्दोलन को सशक्त बनाने के लिए गांधीजी ने खादी पहनने, सूत कातने, विदेशी वस्तुओं की दुकानों पर धरना देने, सरकारी नौकरियों एवं सरकारी शिक्षण संस्थाओं का त्याग करने को भी कहा। आन्दोलन में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई, देश भर में जुलूस निकाले गए, प्रार्थना सभाएं व जनसभाएं आयोजित की गईं। इस प्रकार कांग्रेस का आन्दोलन जन-आन्दोलन में परिवर्तित हो गया।

ई.1922 में चौरी-चौरा नामक स्थान पर आन्दोलन ने आचानक हिंसक रूप ले लिया। इससे क्षुब्ध होकर गांधीजी ने आन्दोलन स्थगित करने की घोषणा कर दी। गांधीजी के इस कदम से देश भर में गांधीजी के विरुद्ध नाराजगी व्यक्त की गई।  आन्दोलन आरम्भ करने से पहले गांधीजी ने कहा था कि देश को एक वर्ष में स्वराज्य मिल जाएगा, खिलाफत की समस्या का समाधान होगा तथा अस्पृश्यता का उन्मूलन हो जाएगा किंतु 2 साल के आंदोलन के बावजूद इनमें से एक भी बात पूरी नहीं हुई।

इस आन्दोलन का महत्त्व इस बात में है कि यह विश्व इतिहास में प्रथम अहिंसात्मक जन-आन्दोलन था। गांधीजी के इस प्रयोग से देश में राजनीतिक-जागृति का विस्तार हुआ। गांधीजी खादी के माध्यम से स्वावलम्बन और स्वाभिमान के आदर्शों को प्रतिष्ठित करने में सफल रहे।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन

ई.1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समस्या का समाधान करने के लिए छः सदस्यों का एक दल नियुक्त किया जिसे ‘साइमन कमीशन’ कहते हैं। चूँकि इस कमीशन में एक भी भारतीय नहीं था, इसलिए भारत में इसे ‘व्हाइट कमीशन’ कहा गया और इस आयोग का बहिष्कार किया गया। पूरा देश ‘साइमन वापिस जाओ’ के नारों से गूंज उठा।

देश के प्रत्येक शहर में ‘साइमन गो बैक’ की तख्तियों के साथ जलूस निकाले गए। ई.1929 में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ जिसमें पूर्ण-स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक व्यापक आन्दोलन चलाने का निर्णय लिया गया और गांधीजी को इसका नेतृत्व सौंपा गया। 31 दिसम्बर 1929 को रावी नदी के किनारे राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया तथा 26 जनवरी 1960 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई। 

ई.1930 में गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ किया तथा ‘दाण्डी यात्रा’ का आयोजन करके नमक-कानून तोड़ा। अंग्रेज अधिकारियों को विश्वास था कि नमक-कानून के उल्लंघन का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। एक अंग्रेज अधिकारी ने गांधीजी का उपहास करते हुए कहा- ‘गांधीजी समुद्र के पानी को केतली में उबाल कर ब्रिटिश साम्राज्य को हटाने की सोच रहे हैं।’

6 अप्रैल 1930 को गांधीजी ने दाण्डी के समुद्र-तट पर पहुँचकर नमक-कानून का उल्लंघन किया और इसी के साथ एक भीषण आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। स्थान-स्थान पर नमक-कानून का उल्लघंन किया गया। सरकार ने लगभग 92,000 सत्याग्रहियों को बन्दी बना लिया तथा प्रकाशनों और विभिन्न संगठनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अहिंसात्मक सत्याग्रहियों पर लाठियां और गोलियां चलाई गईं।

5 मई 1930 को गांधीजी को भी बन्दी बना लिया गया। फिर भी आन्दोलन चलता रहा। घरसाना के नमक गोदाम पर शान्तिपूर्ण पिकेटिंग करते हुए अहिंसक जत्थों पर लाठियां बरसाई गईं जिससे अनेक सत्याग्रही घायल हो गए। फिर भी आंदोलनकारी अहिंसक बने रहे। पूर्व के असहयोग आन्दोलन की तुलना में सविनय अवज्ञा आन्दोलन अधिक व्यापक था।

इस आंदोलन में भाग लेने के लिए हजारों स्त्रियों ने पर्दा त्याग दिया। किसान भी इस आन्दोलन से जुड़ गए। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खाँ के ‘खुदाई खिदमतगार’ के पठानों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

आंदोलन के बीच ब्रिटिश सरकार ने ईस्वी 1930 में लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया, कांग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया जिससे सम्मेलन विफल हो गया। जब द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का समय आया तो ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस से समझौते का वातावरण बनाने के लिए गांधीजी को जेल से रिहा कर दिया गया। 5 मार्च 1931 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन और गांधीजी के बीच एक समझौता हुआ जिसे ‘गांधी इरविन पैक्ट’ कहा जाता है।

इसके बाद गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया तथा दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना स्वीकार कर लिया। इस सम्मेलन में सरकार ने भारत में संघीय व्यवस्था को अधार रूप में स्वीकार करते हुए राजनीतिक बन्दियों को रिहा करने का वादा किया।

लोगों में इस बात को लेकर गहरा रोष था कि गांधीजी ने इरविन से हुए समझौते में प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को आजीवन कारारवास में बदलने के लिए कोई बात नहीं की। सविनय अवज्ञा आन्दोलन से स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीय आन्दोलन का आधार अत्यन्त विस्तृत है तथा भारत के संवैधानिक विकास में भारतीयों के सहयोग के बिना कोई कदम उठाना सम्भव नहीं है।

गांधी इरविन समझौते के अनुसार गांधीजी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने लन्दन गए किंतु सम्मेलन भारत की किसी भी समस्या का समाधान करने में असफल रहा। ई.1932 में गांधीजी खाली हाथ लन्दन से लौट आए। गांधीजी ने भारत लौटते ही वैयक्तिक स्तर पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

ई.1932 में ही सरकार ने ‘साम्प्रदायिक पंचाट’ की घोषणा करके हरिजनों एवं मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग करने का प्रयास किया। गांधीजी ने इस पंचाट के विरुद्ध जेल में आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। अन्त में बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ हुए ‘पूना पैक्ट’ के बाद गांधीजी ने अपना आमरण अनशन समाप्त किया। इसके बाद गांधीजी को रिहा कर दिया गया।

इस समय तक गांधीजी का व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन मन्दा पड़ चुका था। इसलिए ई.1934 में यह आन्दोलन समाप्त कर दिया गया। अब गांधीजी ने हरिजनोद्धार कार्यक्रम का नेतृत्व किया। ई.1935 में ब्रिटिश सरकार ने एक सुधार अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना की गई तथा भारत में चुनाव करवाए गए। कांग्रेस ने चुनावों में भाग लिया और ग्यारह में से आठ ब्रिटिश-भारतीय प्रान्तों में कांग्रेस ने अपनी सरकारें बनाईं।

भारत छोड़़ो आन्दोलन

ई.1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के राजनीतिक दलों से पूछे बिना ही भारत को भी युद्ध में धकेल दिया। इसके विरोध में विभिन्न प्रान्तों के कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्याग-पत्र दे दिए। ब्रिटिश सरकार इस समय भारतीयों का सहयोग चाहती थी। अतः भारतीयों को कुछ रियायतें देने के लिए ‘अगस्त प्रस्ताव’ की घोषणा की गई किंतु भारतीयों को अगस्त प्रस्ताव स्वीकार्य न होने के कारण संवैधानिक गतिरोध बना रहा।

देश में साम्प्रदायिक समस्या भी बढ़ती रही। 22 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पारित किया गया तथा सरकार से कहा कि- ‘यदि ब्रिटिश सरकार वास्तव में भारत के लोगों की शान्ति एवं प्रसन्नता चाहती है तो इसका एक मार्ग है कि भारत को स्वतंत्र करने से पहले हिन्दुओं एवं मुसलमानों के लिए दो राष्ट्र बनाए जाएं।’

मार्च 1942 में ब्रिटिश सरकार ने अमेरिका के दबाव के कारण भारतीय समस्या के समाधान के लिए सर-स्टैफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा। इसे क्रिप्स कमीशन कहा जाता है। भारत की एकता को बनाए रखने की दृष्टि से कांग्रेस ने क्रिप्स प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए। मुस्लिम लीग ने पहले तो क्रिप्स-प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किंतु बाद में अस्वीकार कर दिया।

इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर पहुँचने लगा और सुभाषचंद्र बोस को भारत में सफलताएं मिलने लगीं। तब गांधीजी ने अंग्रेजों से भारत छोड़़ देने के लिए कहा। बम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया और उसमें ‘भारत छोड़़ो’ प्रस्ताव स्वीकार किया। इस अधिवेशन में गांधीजी ने भारतीयों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। फिर भी गांधजी ने अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़़ा।

8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़़ो’ प्रस्ताव स्वीकार होते ही 9 अगस्त को सूर्योदय से पूर्व ही सरकार ने गांधीजी तथा कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं को बन्दी बना लिया। जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, सादिक अली आदि कांग्रेस के कई नेता भूमिगत हो गए। नेतृत्व के अभाव में तथा सरकारी दमन के फलस्वरूप आन्दोलन हिंसक हो उठा। कई स्थानों पर हिंसा हुई। फरवरी 1943 तक भारत छोड़ो आंदोलन चलता रहा। इसे अगस्त क्रांति भी कहते हैं।

ई.1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो गया। इसके बाद अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को ढूंढ-ढूंढ कर फांसी पर चढ़ाना आरम्भ कर दिया। कांग्रेस ने सरकार के इस कदम का समर्थन किया किंतु आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों के समर्थन में भारतीय सेनाओं में विद्रोह हो गए। इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय दबावों के चलते ई.1947 में भारत का विभाजन करके उन्हें भारत एवं पाकिस्तान के रूप में स्वतंत्रता दे दी गई।

विभाजन के बाद मुस्लिम जनसंख्या ने पाकिस्तान वाले क्षेत्रों की ओर तथा हिन्दू जनसंख्या ने भारतीय क्षेत्रों की ओर पलायन किया। इस दौरान स्थान-स्थान पर साम्प्रदायिक दंगे, हिंसा, बलात्कार, लूट एवं आगजनी हुई। देश के नेताओं एवं अंग्रेज अधिकारियों ने साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के प्रयास किए किंतु बड़ी संख्या में लोग मारे गए एवं घायल हुए। बड़ी संख्या में औरतों का सतीत्व भंग किया गया। गांधीजी ने देश की आजादी से पहले बनी अन्तरिम सरकार में भाग नहीं लिया। वे साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने का प्रयास करते रहे। 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला भवन में आयोजित प्रार्थना सभा में नाथूराम गोडसे ने गांधजी को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।

गांधीजी का चिन्तन

अहिंसा का सिद्धान्त

गांधीजी ने राजनीति में दो प्रयोग किए- (1.) सत्य का प्रयोग एवं (2.) अहिंसा का प्रयोग।

जब वे धरना-प्रदर्शन करते थे उसे सत्य के प्रति आग्रह अर्थात् सत्याग्रह कहते थे। अपने आंदोलनों को वे पूरी तरह अहिंसक रखते थे। यदि कोई आंदोलन हिंसक होता हुआ दिखाई देता था, तो वे उस आंदोलन को समाप्त कर देते थे। गांधीजी के अनुसार सच्ची अहिंसा सत्य पर आधारित निर्भीकता है। निर्भीक व्यक्ति ही अहिंसक रह सकता है। अहिंसा के अन्तर्गत बुराई के समक्ष अत्मसमर्पण करना नहीं होता अपितु बुराई के विरोध में अपनी समस्त आत्मिक शक्ति का प्रयोग करना होता है।

गांधीजी का कहना था कि अहिंसा, कायरता नहीं, वीरता है। भारतीय संस्कृति अहिंसा का समर्थन करती है न कि कायरता का। क्योंकि कायरता का अपमानपूर्ण जीवन जीने से तो हिंसा का मार्ग कहीं अधिक श्रेष्ठ है। हिंसा के द्वारा व्यक्ति कम-से-कम अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करने का तो प्रयास करता है। गांधजी भी कायरता और दुर्बलता को अनुचित मानते थे।

गांधीजी का कहना था कि हिंसक व्यक्ति किसी दिन अहिंसक बन सकता है किंतु कायर और दुर्बल व्यक्ति कभी अहिंसक नहीं बन सकता। यदि हम अपनी स्त्रियों तथा धार्मिक स्थानों की अहिंसा के द्वारा रक्षा नहीं कर सकते तो हमें लड़ते हुए रक्षा करनी चाहिए।

गांधीजी के अनुसार अहिंसा और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। यदि साधन की चिन्ता रखी जाए तो साध्य को भी किसी दिन प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि अहिंसा और सत्य का मार्ग कठिन है, फिर भी निरन्तर प्रयासों से इसे आत्मसात् किया जा सकता है। मृत्यु से डरने वाला अहिंसा का प्रयोग नहीं कर सकता। सत्याग्रह अथवा अनशन अहिंसा का महत्वपूर्ण उपकरण है। इसके प्रयोग से अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन किया जा सकता है।

गांधीजी का धर्म और दर्शन

गांधीजी यद्यपि भारतीय संस्कृति पर गर्व करने की बजाय साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने में अधिक विश्वास रखते थे तथापि वे वैष्णव धर्म के सत्य एवं अहिंसा के सिद्धांतों पर चलना पसंद करते थे। यद्यपि वे अपनी मेज पर गीता के ऊपर कुरान रखते थे तथापि वे नरसी मेहता के प्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीर पराई जाणे रे’ को भी गाते थे और मुंह से ‘राम’ नाम का उच्चारण करते थे।

उन्होंने वेद, उपनिषद्, गीता, वेदान्त आदि धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। वे ईसाई धर्म से भी प्रभावित थे किंतु हिन्दुओं के मोक्ष-सिद्धांत में भी विश्वास करते थे। वे जीवन में ईश्वर की कृपा को अनिवार्य मानते थे किंतु वे भाग्यवादी नहीं थे।

वे ईश्वर को सृष्टि को रचयिता एवं विश्वव्यापी मानते थे तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भाव रखते थे। गांधीजी के जीवन में ईश्वर की धारणा का बड़ा महत्त्व था। गांधीजी ने सत्य को ही ईश्वर बताया। ऐसा करके वे शायद निरीश्वरवादियों को सनतुष्ट करने का प्रयास करते थे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज के समक्ष वेदों की सर्वोच्चता को स्पष्ट किया तथा ‘वेदों की और लौटो’ तथा ‘वेद समस्त सत्य विद्याओं की पुस्तक है’ जैसे नारे दिए किंतु गांधीजी ने कहा- ‘केवल वेद ही श्रेष्ठ नहीं हैं अपितु बाइबिल, कुरान और जिन्दअवेस्ता भी ईश्वरीय ज्ञान हैं।’ उन्होंने हिन्दुओं की सुप्रसिद्ध रामधुन- ‘रघुपति राघव राजा राम’ में ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ तथा ‘चाहे वेद पढ़ो चाहे पढ़ो कुरान’ जैसे शब्द जुड़वाकर वेद और कुरान को एक जैसा पवित्र ग्रंथ घोषित किया।

ऐसा प्रतीत होता है कि गांधीजी की धार्मिक मान्यताएं उनके राजनीतिक जीवन से प्रेरित थीं। उन्हें सभी लोगों का सहयोग चाहिए था इसलिए वे सभी धर्मों के लोगों को संतुष्ट रखना चाहते थे और उसी कारण किसी धर्म की आलोचना नहीं करते थे तथा कुरान को गीता के ऊपर रखकर मुसलमानों को खुश रखने का प्रयास करते थे।

गांधीजी धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय मानते थे। उनके अनुसार समस्त धर्म सच्चे हैं। कर्मकाण्ड और अन्धविश्वासों के कारण समस्त धर्मों में थोड़ी बहुत बुराइयां विद्यमान हैं। अतः स्वविवेक के अनुसार धर्म की अच्छाइयों को स्वीकार करना चाहिए। वे हृदय परिवर्तन के बिना धर्म परिवर्तन को व्यर्थ मानते थे। धार्मिक सहिष्णुता एवं मैत्रीभाव का अर्थ यह है कि किस प्रकार एक हिन्दू को अच्छा हिन्दू, एक मुसलमान को अच्छा मुसलमान और ईसाई को अच्छा ईसाई बनाया जाए।

गांधीजी के अनुसार धर्म का सार नैतिकता में विद्यमान है। धर्म और नैतिकता एक दूसरे से गुंथे हुए हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। समस्त धर्मों का नैतिक आधार एक जैसा है जिसे हम विश्व-धर्म कह सकते हैं। वे सम्पूर्ण मानवता की आधारभूत एकता में विश्वास करते थे। ईश्वर भक्ति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति मानव सेवा है।

सत्याग्रह का सिद्धान्त

गांधीजी ने ‘सत्याग्रह’ को ‘सत्य के प्रति आग्रह’ कहा जिसकी शक्ति से हम अपने विरोधी को झुकने पर विवश कर सकते हैं। सत्याग्रह का प्रयोग न केवल व्यक्ति के विरुद्ध अपितु शासन के विरुद्ध भी किया जा सकता है। जब भी कोई व्यक्ति, संस्था, समाज या शासन कोई गलत काम करता हुआ प्रतीत हो तब उसके विरुद्ध हिंसा का प्रयोग न करके अहिंसा का प्रयोग करना चाहिए और वह प्रयोग सत्याग्रह के माध्यम से ही हो सकता है।

दूसरे को दण्ड देने की बजाय, व्रत, उपवास, धरना आदि के माध्यम से स्वयं को दण्ड देना चाहिए। यहाँ तक कि इस दौरान विरोधी द्वारा किए जा रहे बलप्रयोग को भी शांति के साथ सहन करना चाहिए। गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह में पराजय का कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह में पराजय का कारण केवल सत्याग्रही की व्यक्तिगत कमजोरी है।

सत्याग्रही को अनिवार्यतः सम्पत्तिहीन होना चाहिए। सत्याग्रही सम्पत्तिशाली हो सकता है, किंतु उसे सम्पत्ति को अपना देवता नहीं मान लेना चाहिए। सत्याग्रही को अपने परिवार से मोह भी त्यागना पड़ता है। सत्याग्रही को यातनाओं से विचलित नहीं होना चाहिए तथा धर्म में पूर्ण आस्था होनी चाहिए। सत्याग्रह अहिंसा का मार्ग है।

हिंसा जंगली पौधों के समान है जो जहाँ-तहाँ स्वयं उग आते हैं किन्तु सत्याग्रह की फसल के लिए स्वयं की प्रेरणा अथवा आत्मप्रवृत्ति रूपी खाद-पानी की आवश्यकता होती है। गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह का अर्थ केवल कानून की सविनय अवज्ञा तक ही सीमित नहीं है। कई बार सत्याग्रह का अर्थ अवज्ञा न करने पर भी प्रकट होता है।

कुछ विद्वानों और विचारकों ने सत्याग्रह को ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ कहा है तथा इसे दुर्बल व्यक्ति का शस्त्र बताया है। जबकि गांधीजी के अनुसार दुर्बल व्यक्ति का शस्त्र हिंसा एवं शारीरिक बल का प्रयोग होता है। बलवान व्यक्ति का शस्त्र ‘सत्याग्रह एवं अहिंसा’ होता है। गांधीजी विरोधी पर प्रहार करने अथवा उसे दुःख पहुँचाने के स्थान पर स्वयं को कष्ट देने में विश्वास करते थे।

निष्क्रिय प्रतिरोध में प्रेम का कोई स्थान नहीं होता जबकि सत्याग्रह प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सत्याग्रही स्वयं को कष्ट पहुँचाकर अपने विरोधी पर विजय प्राप्त कर सकता है। गांधीजी के अनुसार व्यक्तिगत हितों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह नहीं किया जा सकता। गांधीजी ने सत्याग्रह करने से पहले अन्य उपायों को प्रयुक्त करने की सलाह दी है।

जब सारे उपाय विफल हो जाएं तभी सत्याग्रह किया जाना चाहिए। सत्याग्रही अपने हृदय को टटोलने में विश्वास करता है ताकि जिन बुराइयों के विरुद्ध वह संघर्ष कर रहा है, वे बुराईयां उसमें विद्यमान न हों। सत्याग्रही के लिए रचनात्मक कार्य करना आवश्यक है। उसे चरखा, खादी, छुआछूत का अन्त, मद्य निषेध, हिन्दू तथा मुसलमानों के मध्य मैत्री सम्बन्धों के रचनात्मक कार्यों का अनुभव एवं प्रशिक्षण होना अनिवार्य है। आमरण अनशन सत्याग्रही का अन्तिम शस्त्र है।

गांधीजी का सामाजिक चिन्तन

गांधीजी अपने समय के महान सामाजिक चिंतक थे। वे जितने बड़े राजनीतिज्ञ थे, उससे कहीं अधिक बड़े समाज-सुधारक थे। उनका समाज-सुधार केवल वाणी-विलास तक सीमित नहीं था अपितु रचनात्मक-कार्यक्रमों पर आधारित था। उन्होंने भारतीय समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। हिन्दु-मुस्लिम एकता, स्त्री-शिक्षा, स्त्रियों की स्थिति में सुधार, हरिजनोद्धार, मद्य-निषेध, राष्ट्रीय शिक्षा, ग्राम सुधार आदि सभी विषयों ने समय-समय पर अपने विचार व्यक्त किए तथा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से आग्रह किया कि वे गांवों में जाकर लोगों के बीच कार्य करें तथा उनकी सेवा करें।

हरिजन-उद्धार के लिए गांधीजी जीवन भर संकल्पबद्ध रहे। वे हरिजनों के प्रति समाज के व्यवहार को बदलना चाहते थे तथा हरिजनों को हिन्दू समाज का अभिन्न अंग मानते थे। उस काल में हरिजनों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी तथा उन्हें अस्वास्थ्यकर परिवेश में रहना पड़ता था। हिन्दू होते हुए भी उन्हें मन्दिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता था और उनके लिए सार्वजनिक कुओं, धर्मशालाओं एवं स्कूलों का उपयोग करना वर्जित था।

गांधीजी ने हरिजनोद्धार कार्यक्रमों को सवर्णों के बल पर चलाना चाहा, उन्होंने इन कार्यक्रमों में हरिजनों की भागदारी सुनिश्चित नहीं की। गांधीजी का कहना था कि हरिजन इतने कमजोर हैं कि वे स्वयं अपने अधिकारों की मांग नहीं कर सकते। अतः उनके प्रति होने वाले अन्याय का विरोध उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो अन्याय करने वाले समूह के सदस्य हैं। गांधीजी ने सवर्णों के मन से हरिजनों के प्रति घृणा, भेदभाव, अस्पश्र्यता की भावना समाप्त करने का प्रयास किया और हरिजनों के मन से हीनता का भाव मिटाने का प्रयास किया।

गांधीजी ने जाति-व्यवस्था का और साम्प्रदायिकता का विरोध किया तथा इन बुराइयों को मिटाने के लिए अन्तर्जातीय तथा अन्तर्धर्मीय विवाहों का समर्थन किया। गांधीजी के पिता यद्यपि तीन रियासतों के दीवान रहे तथा गांधीजी का पालन-पोषण रियासती परिवेश में हुआ तथापि गांधीजी लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के पक्षधर थे। इस कारण गांधीजी ने जीवन भर राजशाही और सामन्तशाही का विरोध किया।

गांधीजी ने समाज में व्याप्त मद्यपान का बहुत विरोध किया। उनके कार्यकर्ताओं ने स्थान-स्थान पर धरने देकर शराब की दुकानें बंद करवाईं। वे सरकार द्वारा मद्य-विक्रय पर कर लगाने को बुरा मानते थे। क्योंकि इसकी आड़ में सरकार मद्य-सेवन को बढ़ावा देती है। नैतिकता की दृष्टि से गांधीजी आबकारी-राजस्व को सबसे निम्न श्रेणी का राजस्व मानते थे।

गांधीजी ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए रचनात्मक सामाजिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया तथा स्त्रियों को पुरुषों के समान ही देश-सेवा के लिए आगे आने का आह्वान किया। गांधीजी के इस आह्वान को राष्ट्र-व्यापी समर्थन मिला। सहस्रों स्त्रियां स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए आगे आईं तथा उन्होंने पुलिस की लाठी-गोली खाने और जेल जाने से भी परहेज नहीं किया। गांधीजी ने पुरुषों और स्त्रियों के लिए समान अधिकारों एवं समान अवसरों का समर्थन किया।

गांधीजी बाल-विवाह के विरोधी तथा विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे चाहते थे कि 15 वर्ष से कम आयु की लड़कियों का विवाह नहीं करना चाहिए किंतु वे ऐसी वयस्क विधवाओं के पुनर्विवाह के विरोधी थे जिनके बाल-बच्चे हों। गांधीजी प्रौढ़ विधुर के पुनर्विवाह का समर्थन नहीं करते थे।

 गांधीजी ने पर्दा-प्रथा का भी घोर विरोध किया। वे बुर्का पहनने वाली मुस्लिम औरतों से बात करने में संकोच नहीं करते थे। गांधीजी दहेज-प्रथा के भी विरोधी थे। उनके अनुसार दहेज-प्रथा ने मध्यम वर्गीय तथा निम्न आय वाले परिवारों को नारकीय जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया था। अतः उन्होंने विवाह की रीति को सरल एवं सादा बनाने तथा विवाह के भोज पर अधिक धन के अपव्यय को रोकने के सम्बन्ध में भी विचार व्यक्त किए।

गांधीजी अपने पास आने वाले नव-दम्पत्ति को गीता की प्रति भेंट करते थे। गांधीजी कई मामलों में स्त्रियों को पुरुषों से श्रेष्ठ मानते थे। गांधीजी के अनुसार अहिंसक संघर्ष में स्त्रियोचित धैर्य, सहिष्णुता और कष्ट सहने की मूक क्षमता ऐसे गुण थे जिनके कारण स्त्रियां सत्याग्रह आन्दोलन को पुरुषों सें अधिक सफलतापूर्वक संचालित कर सकती थीं। गांधीजी स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले सौन्दर्य-प्रसाधनों के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि इनके माध्यम से स्त्रियों को पुरुषों के मनोरंजन का साधन बनाया जाता है। 

गांधीजी का आदर्श राज्य

गांधीजी मानव समाज के लिए राज्य-विहीन व्यवस्था चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि एक आदर्श समाज को अपने संस्कारों के बल पर जीवित रहना चाहिए न कि राज्य की दण्डात्मक एवं हिंसात्मक व्यवस्था के नीचे दबकर। इसलिए समाज में किसी राजनीतिक संस्था अर्थात् राज्य या सरकार की कोई आश्वयकता नहीं होनी चाहिए। यदि प्रत्येक व्यक्ति सत्य और अहिंसा का पालन करते हुए अपने कत्र्तव्यों का पालन करे तथा दूसरों के साथ सहयोग करे तो किसी को भी सरकार, पुलिस, जेल, दण्ड व्यवस्था आदि की आवश्यकता नहीं होगी।

ऐसी व्यवस्था में सामाजिक जीवन बाह्य नियंत्रणों से मुक्त होगा तथा आन्तरिक नैतिक नियंत्रणों द्वारा संचालित होगा। गांधीजी ने आदर्श समाज की कल्पना को कार्यान्वित करने के लिए एक आदर्श राज्य का स्वरूप भी प्रस्तुत किया। गांधीजी ने आदर्श राज्य व्यवस्था को ‘रामराज्य’ कहा।

रामराज्य में भूमि और राज्य जनता का होता है, न्याय शीघ्र और सस्ता होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपने तरीके से पूजा-प्रार्थना, स्वतंत्र विचाराभिव्यक्ति और लेखन की स्वतंत्रता होती है।

गांधीजी ने कहा- ‘मैं एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए कार्यरत रहूँगा जिसमें गरीब से गरीब व्यक्ति भी यह अनुभव करे कि यह उसका अपना देश है, जिसके निर्माण में उसकी प्रभावशाली भूमिका है, एक ऐसा भारत जिसमें जनता का कोई उच्च वर्ग और कोई नीच वर्ग नहीं होगा, ऐसा भारत जिसमें समस्त जातियाँ परस्पर एकता और सद्भाव के स्नेह-सूत्र में बंधी हुई मिल-जुल कर रहेंगी। ऐसे सुन्दर भारत में अस्पृश्यता, मद्यपान और नशीली वस्तुओं के सेवन के लिए कोई स्थान नहीं होगा। महिलाओं को भी वही अधिकार प्राप्त होंगे जो पुरुषों को प्राप्त हैं। मेरे सपनों के भारत का यही स्वरूप है।’

गांधीजी के आदर्श समाज में भारी वाहनों, न्यायालयों, वकीलों, आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों तथा महानगरों की विसंगतियों का कोई स्थान नहीं था। अहिंसक समाज में बड़े उद्योगों तथा सेना की आवश्यकता न रहने के कारण भारी वाहनों का उपयोग नहीं होगा, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं वाणिज्य नहीं होने के कारण औद्योगीकरण के समस्त उपकरणों को त्यागना होगा।

प्रजा के अहिंसक होने तथा पारस्परिक विवाद नहीं होने के कारण न्यायालयों तथा वकीलों की आवश्यकता नहीं होगी, स्वयं व्यक्ति द्वारा अपने आन्तरिक इन्द्रिय-निग्रह के कारण सामान्य रोगों से मुक्ति मिल जाएगी। यौगिक क्रियाओं द्वारा मानसिक, नैतिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा की जा सकेगी। इन सबके कारण व्यावसायिक चिकित्सकों की आवयकता ही नहीं रहेगी।

इस प्रकार गांधीजी के आदर्श समाज में प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति से लेकर मंत्रियों, उद्योगपतियों, व्यवसाइयों, न्यायाधीशों, वकीलों, थानेदारों एवं डॉक्टरों आदि की आवश्यकता नहीं थी। बहुत से आलोचकों ने इसे अव्यावहारिक कल्पना बताया है।

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