Friday, March 29, 2024
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30. इटली में रिनेंसाँ नामक युग का प्रारम्भ

पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी पर ईसाइयों का शासन समाप्त होने की घटना के साथ ही यूरोप के इतिहास में मध्य-युग की समाप्ति होती है तथा यूरोप में अंधकार का युग समाप्त होकर ज्ञान एवं चेतना के नवीन युग की शुरुआत होती है। मानो बड़ी ठोकर खाकर यूरोप नींद से जागकर खड़ा हो गया हो और अपने अस्तित्व को बचाने तथा खोए हुए गौरव को फिर से प्राप्त करने के लिए कमर कस कर सन्नद्ध हो गया हो।

इसे ‘रिनेंसाँ’ (Renaissance) अर्थात् ‘कला एवं विद्या के युग का पुनर्जन्म’ भी कहते हैं। पुराने यूनानियों का सौन्दर्य प्रेम फिर प्रकट होता है और पूरा यूरोप मूर्तिकला एवं चित्रकला का सम्बल पाकर फिर से किसी सुंदर पुष्प की तरह खिल उठता है। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह था कि जब कुस्तुंतुनिया गिर रहा था तो बहुत से विद्वान एवं मनीषी अपनी-अपनी पुस्तकों, चित्रों एवं मूर्तियों का खजाना लेकर पश्चिमी यूरोप एवं इटली भाग आए ताकि उन्हें मुसलमानों के हाथों से नष्ट होने से बचाया जा सके।

इन्हीं विद्वानों, मूर्तिकारों एवं चित्रकारों ने इटली एवं रोम सहित यूरोप के बहुत से देशों को चित्रकला, मूर्तिकला एवं ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध कर दिया। इन लोगों के पुरखे पिछले सैंकड़ों सालों में अपनी पुस्तकों, चित्रों एवं मूर्तियों को लेकर रोम से कुस्तुंतुनिया भागे थे क्योंकि कैथोलिक ईसाई संघ, प्राचीन रोमन धर्म एवं प्राचीन यूनानी धर्म की इन पुस्तकों, मूर्तियों एवं चित्रों को नष्ट करने पर तुल गया था। समय का चक्र घूमकर फिर से वहीं आ गया था, जहाँ से वह चला था। रोम की मूर्तियां, पुस्तकें एवं चित्र फिर से रोम लौट आए थे।

‘रिनेंसाँ’ सबसे पहले इटली में आरम्भ हुआ। फ्लोरेंस ने इस मामले में इटली का नेतृत्व किया। पिछले एक हजार साल में इटली के लोग प्राचीन रोमन धर्म एवं यूनानी धर्म की महान् बातों को भूल चुके थे। उन्हें इन पुस्तकों में लिखी बातों को समझने एवं स्वीकार करने में थोड़ी कठिनाई हुई किंतु शीघ्र ही उन्होंने इन पुस्तकों को गले लगा लिया। उन्हें पुराने धर्म पर आधारित चित्रों एवं मूर्तियों के महत्त्व को समझा और उन्हें अपना गौरव घोषित कर दिया।

पोप के रोम में, पोप की नाक के नीचे पुराना रोमन धर्म फिर से लौट आया था किंतु इस बार पोप कुछ नहीं कर सका। इनक्विजिशन का युग समाप्त हो रहा था, पुराना खोया हुआ उजाला पूरब से, फिर पश्चिम को लौट आया था। इटली के लोगों की तरह इंग्लैण्ड एवं फ्रांस ने भी ‘रिनेंसाँ’ को अत्यंत हर्ष के साथ स्वीकार कर लिया।

हृदय एवं मस्तिष्क का संघर्ष

 लोगों का हृदय अब भी ईसाई धर्म में श्रद्धा रखता था किंतु उनका मस्तिष्क इससे आगे की बात अर्थात् विज्ञान की बात भी करना चाहता था। यद्यपि रोमवासियों के मस्तिष्क पर ईसाई-संघ का कब्जा ढीला पड़ने लगा था किंतु उनका हृदय अब भी यह सोचने का साहस नहीं कर पा रहा था कि धरती गोल है या धरती ब्रह्माण्ड के केन्द्र में नहीं है या सूरज धरती के चारों ओर चक्कर नहीं काट रहा है या तारे अपने स्थान पर जड़े हुए नहीं हैं।

उन्हें खगोल के बारे में अब भी वही बातें माननी थीं जो लगभग डेढ़ हजार साल पहले उनके धर्म-ग्रन्थ में लिख दी गई थीं। इस काल में भी ईसाई संघ, धर्म-ग्रन्थ में लिखी गई बातों को मानने से अस्वीकार करने वालों को जिंदा जला सकता था। ब्रूनो और गैलीलियो को इन्हीं अपराधों में सजा दी जानी अभी शेष थी।

‘रिनेंसाँ’ को कई तरह से व्याख्यायित किया जा सकता है। ‘रिनेंसाँ’ रोमन ईसाई-संघ के विरुद्ध ‘विद्रोह’ था। ‘रिनेंसाँ’ यूरोप के राजाओं का पोप के उस दावे के विरुद्ध ‘विद्रोह’ था जिसमें पोप को यूरोप के समस्त राजाओं से ऊपर मान लिया गया था। ‘रिनेंसाँ’ ईसाई संघ को भीतर से सुधारने का ‘प्रयास’ था।

पुस्तकों का चमत्कार

‘रिनेंसाँ’ में सबसे बड़ी भूमिका छापाखाने के आविष्कार ने निभाई थी। बड़ी संख्या में लोगों को अब किताबें उपलब्ध हो रही थीं और लोग उन्हें पढ़कर वैचारिक क्रांति के युग में पहुँचने लगे थे। अब तक लोग बाइबिल को केवल लैटिन भाषा में सुनते आए थे किंतु उसे समझ नहीं सकते थे।

जबकि छापाखाने ने बाइबिल को यूरोपीय देशों की स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध कराना आरम्भ कर दिया। लोग बाइबिल के मूल संदेश को स्वयं समझ सकते थे, उन्हें पादरियों द्वारा की जा रही व्याख्याओं पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं थी।

चंचल फ्लोरेंस के चित्रकार और मूर्तिकार

उत्तरी इटली में एक प्राचीन शहर है- फ्लोरेंस। इसे चंचल फ्लोरेंस भी कहा जाता है। मध्यकाल में यह यूरोप की आर्थिक राजधानी बन गया था जहाँ यूरोप के बड़े-बड़े सेठ-साहूकार एकत्रित होते थे। यह धनवानों एवं बुद्धिजीवियों का छोटा सा गणराज्य था।

चूंकि इस शहर के गणतंत्र को सेठों द्वारा चलाया जाता था, इसलिए साम्यवादी विचारों से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू ने इस गणतंत्र को हिकारत की दृष्टि से देखा है किंतु वास्तविकता यह है कि यह दुनिया के श्रेष्ठ गणतंत्रों में से एक था तथा इसमें सेठों के साथ-साथ बुद्धिजीवियों की भी पूरी भूमिका थी।

यही कारण था कि इस शहर में कला एवं चिंतन का विकास इटली के अन्य देशों की तुलना में अधिक हुआ था। इटली के दो महान् कवि दान्ते (ई.1265-1321) तथा पेत्रार्क (ई.1304-74) इसी नगर में पैदा हुए थे।

मैकियावेली

निकोलो मैकियावेली का जन्म 3 मई 1469 को फ्लोरेंस में हुआ। वह फ्लोरेंस रिपब्लिक का अधिकारी था किंतु उसकी ख्याति इटली के राजनैतिक दार्शनिक, संगीतज्ञ, कवि एवं नाटककार के रूप में थी। वह पुनर्जागरण काल के इटली का एक प्रमुख व्यक्तित्व था।

मैकियावेली की ख्याति उसकी रचना ‘द प्रिंस’ के कारण है जिसे व्यावहारिक राजनीति का महान् ग्रन्थ स्वीकार किया जाता है। मैकियावेली को आधुनिक राजनीति विज्ञान के प्रमुख संस्थापकों में से एक माना जाता है। ई.1498 में गिरोलामो सावोनारोला के निर्वासन और फांसी के बाद मैकियावेली को फ्लोरिडा चांसलेरी का सचिव चुना गया। लियोनार्डो द विंची की तरह, मैकियावेली भी इटली में पुनर्जागरण का पुरोधा था।

मैकियावेली ने ‘द डिसकोर्स’ और ‘द हिस्ट्री’ नामक पुस्तकें भी लिखीं जिनका प्रकाशन उसकी मृत्यु के पाँच साल बाद, ई.1532 में हुआ। हालांकि मैकियाविली ने अपने जीवन काल में इन पुस्तकों को निजी रूप अपने दोस्तों में बांटा था। उसकी एकमात्र रचना जो उसके जीवनकाल में छपी, वह थी- ‘द आर्ट ऑफ वार’। यह रचना युद्ध-कौशल पर आधारित थी।

आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कुटिल राजनीति को ‘मैकियावेलीवाद’ कहा जाता है। उसके विचारों ने इटली के लोगों को राजनीतिक एवं धार्मिक नींद से जगाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उसने ‘द प्रिंस’ में लिखा है- ‘सरकार के लिए धर्म की आवश्यकता है, इसलिए नहीं कि जनता को सदाचारी बनाए, अपितु इसलिए कि उस पर शासन करने में सहायता मिले और उसे दबाकर रखा जा सके। शासक का यह कर्त्तव्य भी हो सकता है कि वह ऐसे धर्म का समर्थन करे जिसे वह झूठा समझता हो।’

मैकियाविली ने एक स्थान पर लिखा है- ‘राजा को जानना चाहिए कि एक ही साथ मनुष्य और पशु का, शेर और लोमड़ी का नाटक कैसे खेला जा सकता है। उसे न तो अपने वादे का पालन करना चाहिए और न ही वह कर सकता है, जबकि वैसा करने से उसका नुकसान होता हो…..। मैं साहस के साथ कह सकता हूँ कि हमेशा ईमानदार होना बहुत हानिकारक होता है किंतु इसके विपरीत ईश्वर के प्रति अनुगत, धार्मिक, दयालु और भक्त होने के स्वांग रचना, लाभदायक हैं। नेकी के आडम्बर से अधिक लाभदायक और दूसरी वस्तु नहीं है।’

आसानी से समझा जा सकता है कि मैकियाविली अपनी पुस्तकों में आग उगल रहा था और जनता के समक्ष राजाओं के ढोंग की पोल खोल रहा था। यही कारण था कि उसने अपने जीवन काल में अपनी पुस्तकों को नहीं छपवाया। इसलिए वह इन पुस्तकों के असर को अपनी आंखों से नहीं देख सकता था किंतु वह जानता था कि जब ये पुस्तकें छपकर जनता के हाथों में पहुँचेंगी तो यूरोप के राजाओं की क्या हालत होगी!  21 जून 1527 को मात्र 58 साल की आयु में उसका निधन हो गया।

मध्यकाल की तिकड़ी

पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में लियोनार्डो दा विंची (ई.1452-1519), माइकेल एंजिलो (ई.1475-1564) तथा  राफिएलो सैंजिओ (ई.1483-1530) नामक तीन बड़े चित्रकार पैदा हुए। इन तीनों को ‘मध्यकाल की तिकड़ी’ भी कहा जाता है। ये चित्रकार होने के साथ-साथ मूर्तिकार, आर्चिटैक्चर,  कवि तथा दार्शनिक भी थे।

ये तीनों ही पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुंतुनिया के पतन के बाद के युग में पैदा हुए थे तथा ठीक उस काल में मौजूद थे जब पूर्वी रोमन साम्राज्य के कवि, लेखक, बुद्धिजीवी, मूर्तिकार एवं चित्रकार अपनी-अपनी कला-सम्पदा को मुसलमानों से बचाने के लिए रोम तथा इटली के अन्य शहरों की ओर भागे चले आ रहे थे।

इस कारण फ्लोरेंस के इन तीनों चित्रकारों ने दुनिया को ईसाई-संघ की आँख से न देखकर प्राचीन रोमन एवं प्राचीन यूनानी ज्ञान की आँख से देखा और ईसाई संघ की परवाह किए बिना, ‘रिनेंसाँ’ को जन्म दिया तथा अपनी कला से पूरे यूरोप में ऐसा वातावरण बना दिया कि ईसाई संघ इनका अधिक विरोध नहीं कर सका।

इनसे प्रेरित होकर गली-गली में चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतकार और कवि पैदा होने लगे। इन कलाकारों की कला के प्रशंसकों की भी कमी नहीं थी। इसी कारण फ्लोरेंस को ‘चंचल फ्लोरेंस’ कहा जाने लगा।

लियोनार्डो दा विंची

लियोनार्डो इन तीनों में सबसे बड़ा था और कई बातों में सबसे अद्भुत था। चित्रकार और मूर्तिकार होने के साथ-साथ वह महान् इंजीनियर भी था। माना जाता है कि आधुनिक विज्ञान की नींव उसी ने रखी। वह सदैव कुछ न कुछ प्रयोग करता रहता था। उसका कहना था- ‘कृपालु प्रकृति इस बात के प्रयास में रहती है कि तुम दुनिया में हर स्थान पर कुछ न कुछ सीखो।’

तीस वर्ष की आयु में उसने लैटिन भाषा एवं गणित का अध्ययन आरम्भ किया। उसी ने सबसे पहले पता लगाया था कि रक्त हर समय शरीर में चक्कर लगाता रहता है। वह मनुष्य शरीर की बनावट पर मुग्ध था। उसका कहना था- ‘बुरी आदतों एवं तंग विचारों के लोग मनुष्य शरीर जैसे सुंदर औजार और हड्डी-चमड़े के जटिल साधन के योग्य नहीं हैं। उन्हें तो खाना भरने और फिर उसे बाहर निकालने के लिए सिर्फ एक थैला चाहिए, क्योंकि वे अन्न-नली के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।’

लियोनार्डो शाकाहारी था और पशु-पक्षियों से बेहद प्रेम करता था। वह बाजार में पिंजरा-बंद पक्षियों को खरीदकर उसी समय स्वतंत्र कर देता था। लियोनार्डो ने हवाई जहाजों के चित्र बनाए तथा हवाई जहाज उड़ाने की दिशा में कई प्रयोग किए। इन प्रयोगों को बड़ी सीमा तक सफलता मिल गई थी किंतु उसकी मृत्यु के बाद कोई ऐसा मनुष्य नहीं हुआ जो उसके प्रयोगों को आगे बढ़ाता। अन्यथा मनुष्य को उड़ने के लिए हवाई जहाज पंद्रहवीं शताब्दी में ही मिल गया होता।

लियोनार्डो के बारे में यूरोप में यह भी लोक-मान्यता है कि उसका सम्पर्क इटली के पहाड़ों में रहने वाले कुछ परग्रही जीवों से हो गया था जिन्होंने उसे अपनी रहस्यमय गुफाओं में ले जाकर तरह-तरह की मशीनें दिखाई थीं। लियोनार्डो ने इन्हीं मशीनों का चित्रांकन अपने चित्रों में किया है किंतु इन बातों की वैज्ञानिक अथवा आधिकारिक स्वीकार्यता नहीं हो पाई है।

माइकिल एंजिलो

माइकिल एंजिलो अद्भुत मूर्तिकार था। वह ठोस संगमरमर से विशाल मूर्तियां गढ़कर निकालता था। वह अपने युग का वास्तु-शिल्पकार भी था। रोम के सेंट पीटर चर्च का वर्तमान नक्शा उसी ने तैयार किया था। वह लगभग 90 साल की आयु तक जिया तथा मृत्यु के दिन भी वह सेंट पीटर चर्च में काम कर रहा था। वह मानवता की बुरी हालत देखकर अंदर से बहुत दुःखी था तथा चीजों की सतहों के नीचे झांककर कुछ ढूंढने का प्रयास करता था। वह हमेशा सोचता रहता था और सदैव अद्भुत कामों की योजना बनाया करता था। एक बार उसने कहा था- ‘आदमी मस्तिष्क से चित्र बनाता है, हाथ से नहीं।’

राफिएलो सैंजिओ

राफिएलो एक चित्रकार था। उसे केवल 37 वर्ष का संक्षिप्त जीवन मिला। इस अवधि में ही उसने इतनी बड़ी संख्या में चित्र बनाए कि उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। इन चित्रों की विषय-वस्तु एवं शैली अत्यंत क्रांतिकारी थी। आश्चर्य इस बात को देखकर भी होता है कि उसके बनाए हुए बहुत से चित्र वेटिकन सिटी के महल के कमरों की दीवारों पर बने हुए हैं।

इन चित्रों की इन महलों में उपस्थिति से कहा जा सकता है कि इन तीनों चित्रकारों के समकालीन पोप जूलियस (द्वितीय) को इन वैचारिक क्रांतिकारियों से कोई दिक्कत नहीं थी। पोप चाहता था कि कला का विकास हो और लोग स्वतंत्र होकर सोचें। हालांकि उसके बाद के पोप उसकी तरह नहीं सोचते थे। राफिएलो के बनाए चित्रों में स्कूल ऑफ एथेंस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जो वेटिकन के स्टेंजा डेला सेग्नेचुरा  (Stanza della Segnatura) नामक चर्च में पाया गया है।

इस चित्र ने रोम में बड़ी क्रांति खड़ी कर दी। इस चित्र में लोगों को एथेंस के स्कूल में पुस्तक पढ़ते, विचार-विमर्श करते तथा एकांत में बैठकर चिंतन करते हुए दिखाया गया है। रिनेंसाँ के यही तीन (अध्ययन, विचार-विमर्श एवं एकांत चिंतन) मुख्य उपकरण थे।

क्या गणतंत्र व्यवस्था ने रिनेंसाँ को जन्म दिया था?

यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि जब सम्पूर्ण यूरोप में ईसाई धर्म हावी था और ईसाई धर्म के विरुद्ध सोचने तक पर मनाही थी, उस युग में फ्लोरेंस ने ‘रिनेंसाँ’ के मामले में इटली का नेतृत्व किया। संभवतः फ्लोरेंस को यह शक्ति गणतंत्र ने प्रदान की थी।

एक बार फिर से वह कहावत सही सिद्ध हो रही थी कि राजतंत्र, ‘धर्म’ को अपनी ढाल बनाकर चलता है और उसकी आड़ में धर्म भी खूब फलता-फूलता है जबकि गणतंत्र को ‘धर्म’ की उतनी परवाह नहीं होती।  फ्लोरेंस को भी नहीं थी, न धर्म की, न पोप की। रोम के महान् संग्रहालयों, ब्रिटिश म्यूजियम तथा यूरोप के सैंकड़ों संग्रहालयों में मूर्तियों, चित्रों एवं पुस्तकों के जो अनंत भण्डार भरे हुए हैं, उनमें से अधिकांश सम्पदा उसी महान् युग की देन है।

आज भी रोम और फ्लोरेंस की गलियां इन मूर्तियों से पटी हुई हैं और इन शहरों की सुंदर गलियों एवं दूर-दूर तक चली गई शांत सड़कों के किनारे बैठे हुए चित्रकारों को चित्र बनाने में डूबे हुए देखा जा सकता है। कहीं किसी झील के शांत किनारे पर या किसी व्यस्त बाजार की गली में या किसी नुक्कड़ पर कहीं कोई लड़की किसी छतरी के नीचे वायलिन या गिटार बजाती हुई दिख जाती है।

यह सब देखकर दर्शक आज भी स्वयं को ‘रिनेसाँ’ के युग में चले जाने का अनुभव करने लगते हैं। इन चित्रकारों एवं मूर्तिकारों को देखकर लगता है कि ये कभी नहीं चाहते कि रिनेसाँ-युग को भूतकाल की बात माना जाए।

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