Sunday, December 8, 2024
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31. धर्म एवं विज्ञान के बीच संघर्ष

यद्यपि इटली में पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में रिनेंसाँ नामक आंदोलन आरम्भ हो चुका था तथा लोग नए तरीके से सोचने लगे थे तथापि रोमन चर्च ने स्वयं को इतना परिपक्व एवं अपरिवर्तनीय मान लिया था कि उसमें नवीन विचारों, दार्शनिक मीमांसाओं एवं वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर उद्घाटित तथ्यों, प्रश्नों एवं बहसों की स्वीकार्यता ही नहीं थी।

ईसाई धर्म ने न केवल पुराने रोमन धर्म एवं यूनानी धर्म के ग्रंथों, प्रतिमाओं, मंदिरों, प्रतीकों, उपदेशकों, दार्शनिकों एवं संतों को ढूंढ-ढूंढकर नष्ट किया था अपितु स्वयं को ऐसे लौह-पिंजर में बंद कर लिया जिसमें नवीन वायु के प्रवेश के लिए कोई छिद्र ही उपलब्ध नहीं था।

चर्च हर समय और हर बार विज्ञान एवं दार्शनिक विचारों को न केवल संदेहयुक्त दृष्टि से देखता था अपितु उन्हें धर्म-विरोधी घोषित कर देता था। इस कारण पंद्रहवीं शताब्दी के बाद न केवल रोम अथवा इटली में अपितु सम्पूर्ण यूरोप में धर्म और विज्ञान के बीच संघर्ष छिड़ गया।

शीघ्र ही यह संघर्ष खूनी जंग में बदल गया। दुर्भाग्य से यह जंग लम्बी चली। इस जंग में प्रायः विज्ञान एवं दर्शन हार जाता था तथा उसके प्रतिपादकों को चर्च द्वारा पकड़ कर जीवित ही आग में जला दिया जाता था।

बाइबिल के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से ठीक 4004 साल पहले हुई थी, प्रत्येक वृक्ष एवं पशु अलग-अलग उत्पन्न किया गया था तथा सबसे अंत में मनुष्य बनाया गया था। ईसाई-संघ मानता था कि जल-प्रलय हुआ था और नूह की नाव में सारे जानवरों के जोड़े रखे गए थे ताकि किसी भी जाति का लोप न हो जाए।

बाइबिल के बहुत से विचार, संसार भर में विभिन्न स्थानों पर ‘प्रकट हो चुके’ तथा ‘प्रकट हो रहे’ ज्ञान से मेल नहीं खाते थे।

चीन में ईसा से लगभग 600 साल पहले ‘त्सोन त्से’ नामक एक दार्शनिक हुआ। उसने बताया कि समस्त प्राणियों की उत्पत्ति एक ही प्रजाति के जीवों से हुई है। इस अकेली प्रजाति के जीवों में समय के साथ लगातार परिवर्तन होते गए जिससे अलग-अलग तरह के प्राणी बन गए। इन परिवर्तनों में हजारों-लाखों साल का समय लगा। यह बात ईसाई धर्म के सिद्धांत से मेल नहीं खाती थी, इसलिए यदि यूरोप में कोई व्यक्ति इस तरह की बातें करता था तो उसे धर्म-द्रोही घोषित कर दिया जाता था।

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चर्च का मानना था कि पाप और दुःख सभी मनुष्यों को अनिवार्यतः भोगने पड़ते हैं। इस धारणा के माध्यम से संसार में निर्धनता एवं संकट को एक स्थाई सम्मान प्रदान करने का प्रयास किया गया था। संसार के लगभग सभी धर्म इस मामले में ईसाई मत का समर्थन एवं पुष्टि करते हुए दिखाई देते हैं।

महाभारत में महारानी कुंती भगवान श्रीकृष्ण से वरदान के रूप में अपने लिए विपत्तियों एवं दुःखों की मांग करती हैं ताकि संकट में उसे परमात्मा याद आएं और वह परमात्मा को कभी भूले नहीं। ईसाई धर्म सहित संसार के किसी भी धर्म में यह विचार नहीं के बराबर है कि मानव सभ्यता से गरीबी, दुःख एवं संकट के स्थाई निष्कासन की बात सोची जाए किंतु विज्ञान ने ऐसा सोचने का साहस निरंतर दिखाया है। हालांकि रामराज्य में समस्त मनुष्यों एवं प्राणियों के सुखी होने की कल्पना की गई है।

निकोलस कोपर्निकस

ई.1543 में पोलैंड का रहनेवाला एक कैथोलिक वृद्ध अपनी चारपाई पर लेटा हुआ अपनी अंतिम साँसें ले रहा था और बड़ी कठिनाई से कुछ कागज पढ़ने का प्रयास कर रहा था। ये कागज उसी ने लिखे थे और अब मुद्रण के लिए तैयार थे। इस समय इस वृद्ध की आयु सत्तर साल थी और आने वाली दुनिया उसे महान् खगोल-विज्ञानी कोपर्निकस के नाम से जानने वाली थी।

अपनी मृत्यु शैय्या पर कोपर्निकस को संभवतः यह अनुमान नहीं था कि उसकी लिखी यह पुस्तक विश्व-मंडल के बारे में मानवीय दृष्टिकोण में एक महान् परिवर्तन लाने जा रही थी। इससे यूरोप के ईसाई जगत् में भी एक जोरदार बहस छिड़ जाने वाली थी।

निकोलस कोपर्निकस की पुस्तक का नाम है- ‘आकाश मंडल के दृष्टिकोण की कायापलट।’ इस पुस्तक में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया कि- ‘सौर मंडल का केंद्र पृथ्वी नहीं अपितु सूर्य है।’

इस सिद्धांत से ईसाई जगत् में इतनी बड़ी जंग छिड़ेगी, इसका पहले-पहल किसी को अनुमान नहीं था। यद्यपि कैथोलिक चर्च, पृथ्वी को सौर मंडल का केंद्र मानता था किंतु कोपर्निकस के सिद्धांत को आसानी से नकारा नहीं जा सकता था क्योंकि कोपर्निकस की अपनी प्रतिष्ठा थी। ईसाई संघ ने इस सिद्धांत पर बहुत आपत्तियां खड़ी कीं किंतु जब तक यह पुस्तक उनके हाथों में आती, कोपर्निकस इस नश्वर दुनिया से सदा के लिए निकल चुका था।

जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तो भयभीत संपादक ने इसकी प्रस्तावना में लिखा- ‘सूर्य-केंद्र के सिद्धांत का अर्थ यह नहीं कि विश्व-मंडल में सचमुच ऐसा है, यह सिर्फ गणित के हिसाब से निकाला गया परिणाम है।’

चर्च द्वारा दार्शनिक ब्रूनो को दर्दनाक मृत्युदण्ड

जैसे-जैसे मानवता आगे बढ़ रही थी, ऐशिया की भांति यूरोप में भी ज्ञान एवं विज्ञान प्रकट होना चाहता था किंतु रोम की धार्मिक व्यवस्था ज्ञान एवं विज्ञान के प्राकट्य को मानवता के लिए अत्यंत खतरनाक समझती थी।

कोपरनिकस की मृत्यु के केवल पाँच साल बाद ई.1548 में इटली के नेपल्स राज्य में जियोर्डानो ब्रूनो नामक विश्व-प्रसिद्ध दार्शनिक का जन्म हुआ। उसने कहा कि– ‘तारे दूर-दूर स्थित सूर्य ही हैं जिनके अपने ग्रह हैं। ब्रह्माण्ड अनंत है तथा उसका कोई केन्द्र नहीं है।’

ब्रूनो की ये बातें कैथोलिक चर्च की धार्मिक मान्यताओं से उलटी थीं। इसलिए बू्रनो को पकड़कर रोम के टॉवर ऑफ नोना में बंद कर  दिया गया तथा उस पर धर्म-विरोधी बातों के लिए मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा सात साल तक चला।

ब्रूनो पर आरोप लगाया गया कि उसके विचार अरब के दार्शनिकों पर आधारित हैं। उसने कैथोलिक मान्यताओं के विरुद्ध बातें कही हैं, ईसा मसीह की दिव्यता, उनके अवतार तथा जीसस की माता मैरी की पवित्रता एवं सरकारी मंत्रियों के विरुद्ध विचार व्यक्त किए हैं तथा उन्हें जनता में फैलाया है।

उसने कई ब्रह्मण्डों के अस्तित्व में होने एवं उनकी शाश्वतता का दावा किया है जबकि संसार तो एक ही है तथा वह नश्वर है। ब्रूनो पर आरोप लगाया गया कि उसने ईसाई मत की इस बात को गलत बताया है कि- ‘पशुओं में आत्मा नहीं होती।’

ब्रूनो ने अपना बचाव किया कि वह वेनिस में चर्च की शिक्षाओं को स्वीकार कर चुका है तथा वह तो केवल दार्शनिक बात कहने का प्रयास कर रहा है। उसका पक्का विश्वास है कि- ‘ब्रह्माण्ड अनेक हैं।’

रोम के कैथोलिक चर्च ने ब्रूनो के विचारों के लिए उसकी भर्त्सना की तथा उससे कहा कि वह अपने विचारों का पूर्ण परित्याग करके क्षमा याचना करे। ब्रूनो ने ऐसा करने से मना कर दिया। एक प्राचीन पुस्तक ‘जैस्पर शूप ऑफ ब्रेसलाओ’ के अनुसार ब्रूनो पर यह आरोप लगाया गया कि उसने अपने मुकदमे के न्यायाधीश को धमकी देते हुए कहा कि- ‘संभवतः तुम्हें मेरे विरुद्ध यह वाक्य बोलने पर उससे अधिक भय लगता है जिस भय के साथ मैं उसे सुनता हूँ।’ अर्थात् मुझसे ज्यादा तो तुम डरे हुए हो!

20 जनवरी 1600 को पोप क्लेमेंट (अष्टम्) ने ब्रूनो को धर्म विरोधी घोषित करके  उसे मृत्यु-दण्ड सुनाया। 17 फरवरी 1600 के दिन बू्रनो को रोम के मुख्य बाजार में स्थित चौक ‘कैम्पो डे फियोरी’ में नंगा करके सूली पर उलटा लटकाया गया। उस समय उसकी जीभ बंधी हुई थी क्योंकि उसने धर्म के विरुद्ध शैतानियत भरे शब्द उच्चारित किए थे। उसी हालत में ब्रूनो को जीवित जला दिया गया। उसकी राख टिबेर नदी में फैंक दी गई।

ब्रूनो के विरुद्ध मुकदमे का फैसला करने वाले पैनल में उस समय के अनेक विख्यात कार्डिनल शामिल किए गए थे जो विभिन्न यूरोपीय देशों के विख्यात चर्चों के बिशप थे। इनमें से कार्डिनल कैमिलो बोर्गसे आगे चलकर रोम के पोप भी बने तथा उन्हें पोप पॉल (पंचम्) के नाम से जाना गया।

गैलीलियो गैलिली

चर्च द्वारा ब्रूनो को सूली पर चढ़ाए जाने के कुछ समय बाद, धर्म और विज्ञान की खूनी-जंग में हिस्सा लेने वाला एक और युवा वैज्ञानिक सामने आया। वह था, इटली का खगोल-विज्ञानी, गणित-शास्त्री और भौतिक-विज्ञानी गैलिलियो गैलिली। इस महान् विचारक का जन्म 15 फरवरी 1564 को इटली के पीसा नामक नगर में एक संगीतज्ञ परिवार में हुआ था। वह एक कैथोलिक ईसाई था तथा धार्मिक प्रवृत्ति का वैज्ञानिक था।

उसके प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों ने ईसाई धर्म की कई पुरानी मान्यताओं को नए सिरे से चुनौती दी तथा अपने पूर्ववर्ती चिंतकों, दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों द्वारा बताई गई बातों का वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर समर्थन किया। इसे आधुनिक विज्ञान का पिता कहा जाता है क्योंकि उसने भौतिक यंत्रों से किए जाने वाले प्रयोगों की आवृत्ति को दुहराने एवं उनसे प्राप्त परिणामों की सफलताओं एवं असफलताओं का विष्लेषण करके अंतिम निष्कर्ष प्राप्त करने की विधि निकाली थी।

ईश्वर की भाषा गणित है!

गैलीलियो ने अनुभव किया कि प्रकृति के नियम विभिन्न कारकों से प्रभावित होते हैं और किसी एक के बढ़ने और घटने के बीच गणित के समीकरणों जैसे ही सम्बन्ध होते हैं। इसलिए उसने कहा कि- ‘ईश्वर की भाषा गणित है।’

प्रकाश की गति का मापन

इस महान् गणितज्ञ और वैज्ञानिक ने प्रकाश की गति को नापने का साहस किया। इसके लिए गैलीलियो और उसका एक सहायक अंधेरी रात में कई मील दूर स्थित पहाड़ की दो अलग-अलग चोटियों पर जा बैठे।

गैलीलियो ने अपने पास एक लालटेन रखी, अपने सहायक का संकेत पाने के बाद उन्हें लालटेन और उसके खटके के माध्यम से प्रकाश का संकेत देना था। दूसरी पहाड़ी पर स्थित उनके सहायक को लालटेन का प्रकाश देखकर अपने पास रखी दूसरी लालटेन का खटका हटाकर पुनः संकेत करना था।

इस प्रकार दूसरी पहाड़ की चोटी पर चमकते प्रकाश को देखकर गैलीलियो को प्रकाश की गति का आकलन करना था। इस प्रकार गैलीलियो ने जो परिणाम पाया वह बहुत सीमा तक वास्तविक तो नहीं था परन्तु प्रयोगों की आवृत्ति और सफलता-असफलता के बाद ही अभीष्ट परिणाम पाने की जो शृंखला उनके द्वारा प्रारंभ की गयी वह अद्वितीय थी। कालान्तर में प्रकाश की गति और उर्जा के संबंधों की जटिल गुत्थी को सुलझाने वाले महान् वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने इसी कारण गैलीलियो को ‘आधुनिक विज्ञान का पिता’ कहकर संबोधित किया।

सूर्य भी बदलता है

गैलिलियो ने कुछ ही समय पहले आविष्कार किए गए एक लैन्स का प्रयोग करके ‘टेलीस्कोप’ नामक यंत्र बनाया। गैलिलियो पहला मनुष्य था जिसने टेलीस्कोप के जरिए इतनी सूक्ष्मता से अंतरिक्ष का अवलोकन किया। उसे पक्का विश्वास हो गया कि कोपर्निकस की बातें सच हैं। गैलिलियो ने सूरज में काले धब्बे भी देखे, जिन्हें अब सूर्य-धब्बे कहा जाता है। इस तरह उसने ‘धर्म’ की एक और प्रमुख धारणा पर वार किया कि ‘सूर्य कभी नहीं बदलता और ना ही उसका तेज कम होता है।’

पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है

ई.1609 में गैलीलियो को एक ऐसी दूरबीन का पता चला जिसका आविष्कार हॉलैंड में हुआ था। इस दूरबीन की सहायता से दूरस्थ खगोलीय पिंडों को देख कर उनकी गति का अध्ययन किया जा सकता था। गैलीलियो ने इसका विवरण सुनकर स्वयं ऐसी दूरबीन का निर्माण कर लिया जो हॉलैंड में आविष्कृत दूरबीन से कहीं अधिक शक्तिशाली थी।

इसके आधार पर किए गए प्रयोगों के माध्यम से गैलीलियो ने यह पाया कि पूर्व में व्याप्त मान्यताओं के विपरीत ब्रह्माण्ड में स्थित पृथ्वी समेत सभी ग्रह, सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इससे पूर्व कॉपरनिकस ने भी यह कहा था कि ‘पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते है ‘ जिसके लिए उसे चर्च का कोपभाजन बनना पड़ा था।

यहाँ तक कि ईसा से लगभग साढ़े पाँच सौ साल पहले स्वयं पाइथोगोरस यह कह चुका था ‘कि पृथ्वी और अन्य खगोलीय पिण्ड किसी अग्नि के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। ‘

हालांकि पाइथोगोरस इस अग्नि की पहचान सूर्य के रूप में नहीं कर सका था। पाइथोगोरस को दिव्य शक्ति प्राप्त थी जिसके आधार पर पाइथोगोरस ने यह बात कही थी जबकि कोपरनिकस नक्षत्रों की गति का अध्ययन करके और गैलीलियो दूरबीन से देखकर यह बात कह रहा था।

चर्च का कोपभाजन

गैलिलियो का स्वभाव कोपर्निकस से बिलकुल अलग था। वह पूरे जोश के साथ और बेधड़क होकर अपने विचार व्यक्त करता था। दुर्भाग्य से इस युग का धार्मिक वातावरण मैत्रीपूर्ण नहीं था। कैथोलिक चर्च कोपर्निकस के विचारों का प्रबल विरोध करता था। इसलिए जब गैलिलियो ने दावा किया कि सूर्य-केंद्र का सिद्धांत सिर्फ वैज्ञानिक तौर पर ही सही नहीं, अपितु बाइबिल से भी मेल खाता है, तो चर्च को उसकी बातों में धर्म-द्रोह की गंध आई।

जब गैलीलियों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि सूर्य-केंद्र का सिद्धांत बाइबल से मेल खाता है, तो उसने यह दिखाया मानो धर्म के बारे में उसे बहुत जानकारी है। इससे चर्च के अधिकारी और भी भड़क उठे। गैलिलियो अपने सिद्धांत का स्पष्टीकरण देने के लिए पीसा से रोम आया किंतु कुछ लाभ नहीं हुआ। ई.1616 में चर्च ने उसे आदेश दिया कि वह कोपर्निकस के विचारों को फैलाना बंद करे।

कुछ समय के लिए गैलिलियो चुप होकर बैठ गया किंतु ई.1632 में उसने कोपर्निकस के विचारों को पुनः सही ठहराते हुए एक और पुस्तक प्रकाशित की। उसके ठीक एक साल बाद रोमन कैथोलिक अदालत ने उसे उम्रकैद की सजा दी किन्तु बाद में गैलीलियो के माफी मांग लेने पर उसकी वृद्धावस्था को देखते हुए उसकी सजा को ‘नजरबंदी’ में बदल दिया ताकि वह धर्म विरुद्ध वैज्ञानिक प्रयोगों को आगे जारी नहीं रख सके।

बहुत से लोगों का मानना है कि चर्च के विरुद्ध गैलिलियो का यह संघर्ष वास्तव में विज्ञान और धर्म के बीच की लड़ाई थी जिसमें विज्ञान की जीत हुई। क्योंकि समय के साथ लोगों ने मान लिया कि गैलीलियो जो कुछ भी कह रहा था, वह सही था। ई.1642 में गैलीलियो की मृत्यु हो गई।

चर्च द्वारा गलती सुधार

गैलीलियो की मृत्यु के ठीक साढ़े तीन सौ वर्ष बाद ई.1992 में वेटिकन सिटी स्थित कैथोलिक चर्च ने स्वीकार कर लिया कि गैलीलियो के मामले में निर्णय लेने में उनसे चूक हुई थी। यह संभवतः पहली बार था अन्यथा चर्च का यह दावा था कि वह सत्य की व्याख्या अचूक ढंग से करने में सक्षम है।

विज्ञान को आजादी

यूरोप में रोम के कैथोनिक चर्च के नेतृत्व में धर्म और विज्ञान की इस खूनी-जंग में प्राण गंवाने वाले वैज्ञानिकों की सूची अभी पूरी नहीं हुई है किंतु चूंकि हमारा केन्द्र-बिंदु रोम तथा इटली है, इसलिए हमें इस विषय को यहीं विराम देना पड़ेगा। अठारहवीं शताब्दी आते-आते यूरोप में ईसाई संघ की कट्टरता कम होने लगी तथा यूरोप में बुद्धिवाद का प्रचार हुआ जिससे विज्ञान को खुलकर सोचने की शक्ति मिल गई।

अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेज विज्ञानी आइजक न्यूटन (ई.1642-1727) ने गुरुत्वाकर्षण के नियमों की व्याख्या की तथा बताया कि चीजें पृथ्वी पर क्यों गिरती हैं। उसने सूर्य एवं ग्रहों की चालों के भेद को भी समझाया। इस वैज्ञानिक को पूरे संसार में बहुत आदर मिला।

इसी प्रकार उन्नीसवीं सदी के मध्य में ई.1859 के आसपास चार्ल्स डार्विन की पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ स्पीसीज’ प्रकाशित हुई। उसने बताया कि पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियों के प्राणियों का उद्भव एवं विकास कैसे हुआ है!

इस प्रकार चीनी दार्शनिक ‘त्सोन त्से’ की बात को स्वीकार करने में यूरोप ने चार हजार साल लगा दिए। डार्विन ने सम्पूर्ण मानव जाति का सोचने का तरीका बदल दिया तथा अब धर्म नामक संस्था, अपनी मनमर्जी से विज्ञान को धर्म-विरोधी कहकर विज्ञान के उपासकों को आग या जेल में नहीं झौंक सकती थी।

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