Monday, October 7, 2024
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बेगम हजरत महल

बेगम हजरत महल एक तवायफ थी जिसे वाजिद अली शाह ने अपनी परी बनाया और बाद में बेगम बना लिया। वह अपने बेटे को अवध का नवाब बनाना चाहती थी किंतु जब अंग्रेजों ने उसकी बात नहीं मानी तो वह हाथ में हथियार लेकर हाथी पर चढ़ गई और अंग्रेजों के मारने के लिए निकल पड़ी। बेगम हजरत महल ने हाथी पर बैठ कर अंग्रेजों को मारा!

बैरकपुर, कानपुर, कलकत्ता, मेरठ, बिठूर, झांसी तथा राजपूताने में हो रही हलचलों के समचार तेजी से पूरे देश में फैल रहे थे। लखनऊ की बेगम हजरत महल आरम्भ से ही पेशवा नाना साहब के सम्पर्क में थी। इसलिए उसने भी क्रांति की तैयारी की। इतिहासकारों का मानना है कि अवध में क्रांति की तैयारी अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक अच्छी थी।

बेगम हजरत महल का वास्तविक नाम हजमती महल था जिसे बचपन में मुहम्मदी ख़ानुम कहा जाता था। बेगम हज़रत महल का जन्म अवध रियासत के फ़ैज़ाबाद कस्बे में हुआ था। वह पेशे से तवायफ़ थी और अपने माता-पिता द्वारा बेचे जाने के बाद खवासीन के रूप में अवध के शाही हरम में ले ली गई थी।

तब उसे शाही आधिकारियों के पास बेचा गया था, बाद में वह परी के पद पर पदोन्नत हुई और उसे महक परी के नाम से जाना गया। अवध के नवाब की शाही रखैल के तौर पर स्वीकार किए जाने पर उसे बेगम का खि़ताब हासिल हुआ। उसके पुत्र बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद उसे हज़रत महल का खिताब दिया गया था।

ईस्वी 1856 में जब अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया और वाजिद अली शाह को निर्वासित करके कलकत्ता भेज दिया तब बेगम हजरत महल वाजिद अली शाह के साथ कलकत्ता नहीं गई। उसने अपने अवयस्क पुत्र बिरजिस कद्र को गद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उसके रीजेंट के रूप में शासन करने लगी।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

बेगम हजरत महल ने अपना जीवन एक तवायफ अथवा नृत्यांगना के रूप में आरम्भ किया था किंतु राजनीति में वह नवाब वाजिद अली शाह से भी अधिक चतुर थी। नवाब तो अपनी रियासत खोकर कलकत्ता में निर्वासन भोग रहा था किंतु बेगम ने अवध रियासत को अपने पुत्र के हक में नष्ट होने से बचा लिया था।

बेगम हजरत महल अंग्रेजों से सम्बन्ध नहीं बिगाड़ना चाहती थी किंतु वह इस बात से नाराज थी कि अंग्रेज़ों ने लखनऊ और अवध के अधिकांश स्थानों पर अधिकार कर लिया था तथा वे रियासत को तेजी से हड़पते जा रहे थे। अपने बेटे बिरजिस क़द्र के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए बेगम हज़रत महल को कम्पनी सरकार के विरुद्ध बगावत करने पर विवश होना पड़ा।

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7 जून 1857 को राणा बेनीमाधव सिंह तथा आजमगढ़ के नाजिम राजा जयलाल सिंह की सहायता से बेगम हजरत महल ने अवध के शासन की बागडोर अपने हाथ में ली। 10 जून 1857 को अवध में आजादी का झंडा फहराने लगा। हज़रत महल ने अवध के जमींदारों, किसानों एवं जनसामान्य का आह्वान किया कि वे अवध को विदेशियों से मुक्त कराने में सहयोग दें।

बेगम हजरत महल ने आजमगढ़ के नाजिम राजा जयलाल सिंह को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया। राजा जयलाल सिंह ने अवध के युवकों की एक सेना तैयार की तथा 24 जून 1857 को अंग्रेजी सेना की दो टुकड़ियों को पूरी तरह नष्ट कर दिया। राजा जयलाल सिंह ने 30 जून 1857 को लखनऊ से 6 मील दूर चिनहट नामक स्थान पर अंग्रेजों को भारी शिकस्त दी। बेगम हज़रत महल ने लखनऊ पर फिर से अधिकार कर लिया और अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का वली अर्थात् शासक घोषित कर दिया।

बेगम हज़रत महल की महिला सैनिक दल का नेतृत्व रहीमी नामक औरत के हाथों में था, जिसने फ़ौजी भेष में महिलाओं को तोप और बन्दूक चलाना सिखाया। उन दिनों लखनऊ की एक प्रसिद्ध तवायफ़ हैदरी बाई के यहाँ बहुत से अंग्रेज़ अधिकारी मुजरा देखने आया करते थे। वे क्रांतिकारियों के विरुद्ध़ की जाने वाली कार्यवाहियों पर भी चर्चा किया करते थे। हैदरीबाई ने इन सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुँचाया और बाद में वह भी रहीमी के सैनिक दल में शामिल हो गयी।

आलमबाग़ की लड़ाई में बेगम ने हाथी पर सवार होकर सशस्त्र युद्ध में भाग लिया। लखनऊ में रहीमी के नेतृत्व में महिलाओं ने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया। इस युद्ध में पराजित होकर बेगम अवध के देहातों में चली गई और वहाँ भी क्रांति की चिंगारी सुलगाने लगी। 4 जुलाई 1857 को एक भीषण विस्फोट में अवध के कमिशनर हेनरी लॉरेन्स की मृत्यु हो गई। यह अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ा सदमा था।

25 सितंबर 1857 को अंग्रेजों सेना ने आलमबाग से हटकर रेजिडेंसी की तरफ बढ़ना चाहा किंतु क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना में कसकर मार लगाई। इस युद्ध में जनरल नील मारा गया। जनरल नील की मृत्यु भी अंग्रेजी सेना के लिए जबरदस्त सदमा था किंतु अंग्रेजी सेना रेजिडेंसी पहुंचने में सफल हो गई।  

अवध के क्रांतिकारियों ने फिर से रेजिडेंसी को घेर लिया। हैवलॉक और उसकी सेना रेजीडेंसी के अंदर कैद हो गई। हैवलॉक और आउटरम की सेनाओं की सहायता के लिए 27 अक्टूबर अट्ठारह सौ सत्तावन को कोलकाता से नया कमाण्डर इन चीफ सर कॉलिन कैम्पबेल विशाल सेना लेकर रवाना हुआ।

कॉलिन कैंपबेल 3 नवंबर 1857 को कानपुर पहुंचा। उसने देखा कि सम्पूर्ण अवध बागी बन गया है। भारी तैयारी जगह-जगह नजर आ रही थी और उनको स्थानीय लोगों का खुला समर्थन था। कैंपबेल तथा जनरल ग्रांट अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आलमबाग पहुंचे। अब कंपनी के पास विशाल सेना थी। 8 नवंबर 1857 को लखनऊ में क्रांतिकारियों की सेना में एक लाख लोग थे और अंग्रेजों के पास 1.20 लाख।

14 नवंबर 1857 को कैंपबेल अपनी विशाल सेना के साथ रेजीडेंसी की तरफ बढ़ने लगा। यह सेना पहले दिलखुश बाग पहुंची तथा उसने 16 नवम्बर 1857 को सिकंदर बाग पर चढ़ाई की। दोनों पक्षों के बीच दिलखुश बाग, आलमबाग और शाहनजफ में घमासान लड़ाई होती रही जो 9 दिन तक अर्थात 23 नवंबर तक जारी रही।

इसी बीच क्रांतिकारियों को सूचना मिली कि अंग्रेजों ने दिल्ली से फिर से अधिकार कर लिया है किंतु इस पर भी लखनऊ के क्रांतिकारी सैनिक मैदान में डटे रहे। शहर अभी तक क्रांतिकारियों के हाल में था। अंग्रेजों ने पुनः अपनी सेनाओं को रेजीडेंसी मोर्चे से हटाकर आलमबाग में जमा करना पड़ा। आउट्रम को वहाँ का सेनापति नियुक्त किया गया।

इसी बीच अंग्रेजों को सूचना मिली कि नाना साहब के सेनापति तात्या टोपे ने कानपुर की अंग्रेजी सेना को फिर से हराकर कानपुर पर कब्जा कर लिया है। इस पर कैम्पबेल, आउट्रम को लखनऊ छोड़कर कानपुर चला गया।

जब दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे प्रमुख केंद्रों में क्रांतिकारी सेनाओं की पराजय हो गई तो भी अवध के कई क्षेत्रों में क्रांतिकारी युद्ध जारी रखे हुए थे। कुछ दिनों की लड़ाई के बाद ये क्रांतिकारी सैनिक भी परास्त होने लगे। अवध का क्रांतिकारी जागीरदार जयलाल सिंह अंग्रेजों से परास्त होकर बाराबंकी के जंगलों में चला गया तथा वहाँ से गुरिल्ला युद्ध करके अंग्रेजी सेना को नुकसान पहुंचाने लगा।

अवध के देहाती इलाकों में ग्रामीणों ने जंग जारी रखी। बाराबंकी में 1 साल 7 माह और 5 दिन जंग चली। इस दौरान अंग्रेज केवल 10 रुपए का ही राजस्व संग्रह कर पाये। अंग्रेजों ने राणा बेनीमाधव, नरपत सिंह, देवीबख्श और गुलाब सिंह को अपने साथ मिलाने के प्रयास किए किंतु वे नहीं माने और लड़ते रहे। उनके पास साधन कम थे किंतु हिम्मत अटूट थी!

अथक प्रयासों के बाद अंततः 14 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने लखनऊ पर अधिकार कर लिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह तिथि 31 मार्च 1858 थीं।

1 नवम्बर 1858 को लॉर्ड केनिंग ने इलाहाबाद में भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उसमें इंग्लैंड की महारानी की घोषणा पढ़कर सुनायी जिसमें कहा गया था कि जो लोग हथियार डाल देंगे उनको क्षमा कर दिया जाएगा और उनकी जागीरें लौटा दी जाएंगी, किंतु अवध के बहुत से स्वाभिमानी राजाओं एवं जागीरदारों पर इस घोषणा का असर नहीं पड़ा। उन्होंने लगभग एक साल तक जंग जारी रखी। यमुना, गोमती, घाघरा तथा गंगा के तटीय इलाकों की बगावत को दबाने के लिए अंग्रेजों को नौसेना का उपयोग करना पड़ा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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