एक दिन शाहजादा सुल्तानम ने हमीदा बानू बेगम का आतिथ्य किया। शाह ने अपनी बहिन से कहा कि हिंदुस्तान की मलिका के सम्मान में राजधानी से बाहर उत्सव रखना। ईरान की बेगम ने हमीदा बानू बेगम का शानदार स्वागत किया।
हुमायूँ अपनी पत्नी हमीदा बानू बेगम तथा तीस लोगों के साथ एक ऐसे बलूच कबीले में पहुंच गया जिसके लोग पिशाचों जैसी भाषा बोलते थे। हसन अली एशक आगा की बलूच पत्नी ने हुमायूँ को बताया कि ये लोग हमें पकड़कर मिर्जा अस्करी को सौंपने की बात कर रहे हैं।
जब हुमायूँ और उसके साथी वहाँ से चलने लगे तो बलूचों ने शाही काफिले को यह कहकर रोक लिया कि उनका सरदार आने वाला है, उससे पहले तुम लोग यहाँ से नहीं जा सकते। हुमायूँ और उसके साथियों ने विचार किया कि इस समय लड़ने में नुक्सान है। इसलिए रात होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए और रात के अंधेरे में चुपचाप निकलना चाहिए किंतु आधी रात से पहले ही उस कबीले का सरदार आ गया।
बलूच सरदार ने हुमायूँ के समक्ष उपस्थित होकर कहा कि मेरा विचार आपको पकड़कर मिर्जा अस्करी एवं कामरान को सौंपने का था किंतु अब मैंने आपके दर्शन कर लिए हैं इसलिए मेरे मन के भाव बदल गए हैं। जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं तथा मेरे छः पुत्र जीवित हैं, तब तक हम आपके एक-एक बाल पर निछावर हैं। भले ही मिर्जा अस्करी और कामरान मेरी खाल ही क्यों न खिंचवा लें।
बलूच सरदार की बात सुनकर हुमायूँ ने अपने कपड़ों से निकालकर एक मोती तथा एक लाल बलूच सरदार को दिए ओर अगले दिन बाबा हाजी दुर्ग की ओर चल दिया। वह बलूच सरदार भी अपने लड़ाकों के साथ लेकर हुमायूँ को वहाँ तक पहुंचाने गया। दो दिन तक चलते रहने के बाद हुमायूँ तथा उसके साथी गर्मसीर प्रांत में स्थित नदी के तट पर पहुंचे।
जब गर्मसीर क्षेत्र में रहने वाले सैयदों को ज्ञात हुआ कि बादशाह हुमायूँ अपनी बेगम सहित आया है तो बहुत से सैयदों ने एकत्रित होकर हुमायूँ का स्वागत किया। अगले दिन प्रातः काल में ख्वाजा अलाउद्दीन महमूद नामक एक अमीर मिर्जा अस्करी के यहाँ से भागकर हुमायूँ की शरण में आया और उसने बहुत से खच्चर, घोड़े, शामियाने आदि बादशाह हुमायूँ को भेंट किए। दूसरे दिन हाजी मुहम्मद खाँ कोकी अपने तीस-चालीस घुड़सवारों सहित आया और उसने भी हुमायूँ को बहुत से खच्चर तथा रसद सामग्री भेंट की।
यहाँ से हुमायूँ ने खुरासान जाने का निश्चय किया। उस काल में खुरासान अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित सीस्तान तथा फारस राज्यों के बीच स्थित था। फारस को आजकल ईरान कहते हैं तथा वर्तमान समय में खुरासान तथा सीस्तान दोनों ही ईरान में हैं। हुमायूँ का विचार खुरासान पहुंचकर फारस के शासक से सम्पर्क करने का था। पाठकों को स्मरण होगा कि जब ई.1501 में उज्बेगों के नेता शैबानी खाँ ने बाबर को समरकंद से बाहर निकाल दिया था तब फारस के सफवी शासक शाह इस्माइल ने इस शर्त पर बाबर की सहायता की थी कि यदि बाबर शिया हो जाए तो उसे समरकंद विजय के लिए फारस की सेना उपलब्ध कराई जा सकती है। इस समय उसी इस्माइल का पुत्र तहमास्प फारस का शाह था। हुमायूँ को आशा थी कि फारस का शाह एक बार पुनः उसी शर्त पर हुमायूँ को अपनी सेना दे सकता है। इस समय ई.1543 का दिसम्बर महीना लग चुका था। हुमायूँ ने मार्ग में ही एक पत्र फारस के शाह तहमास्प को भिजवाकर अपने फारस आने की सूचना भिजवाई। इस पर तहमास्प ने अपने सूबेदारों को आदेश भिजवाया कि हूमायू का फारस राज्य में हर स्थान पर स्वागत किया जाए।
फलतः जब हुमायूँ सीस्तान पहुँचा तब वहाँ के गवर्नर ने हुमायूँ का बड़ा स्वागत किया। हुमायूँ सीस्तान से हिरात (हेासत) तथा नशसीमा होता हुआ फारस पहुँचा। पहाड़ियों एवं रेगिस्तानी क्षेत्र में कठिन सर्दियां झेलता हुआ हुमायूँ का काफिला कई महीनों की यात्रा के बाद जुलाई 1544 में खुरासान के निकट हलमंद नदी के तट पर पहुंचा। जब फारस के शाह के पास यह समाचार पहुंचा कि हुमायूँ का काफिला हलमंद नदी के तट पर डेरा डाले हुए है तो फारस के शाह ने अपने मंत्रियों, अमीरों एवं भाइयों को हुमायूँ का स्वागत करने भेजा।
ये लोग बड़े आदर से हुमायूँ तथा उसके साथियों को राजधानी कजवीन की ओर ले गए। जब यह काफिला राजधानी के निकट पहुंचा तो फारस के शाह तहमास्प ने अपने पिता इस्माइल तथा हुमायूँ के पिता बाबर के बीच रही मित्रता का स्मरण करके अपनी राजधानी कजवीन से थोड़ा आगे आकर हुमायूँ का स्वागत किया और उसे अपने महलों में लिवा लाया।
आजकल कजवीन को तेहरान कहा जाता है। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि फारस के महलों में हुमायूँ और तहमास्प के बीच ऐसी दोस्ती हो गई मानो एक बादाम के भीतर दो बीज हों। जितने दिनों तक हुमायूँ वहाँ रहा, उतने दिनों तक या तो तहमास्प हुमायूँ से मिलने के लिए उसके निवास पर आया, या फिर हुमायूँ तहमास्प से मिलने उसके महल में गया।
तहमास्प कई बार हुमायूँ को अपने साथ शिकार खेलने ले गया। इस दौरान हमीदा बानू बेगम कभी पालकी में बैठकर तो कभी ऊंट पर सवार होकर शिकार देखने जाती थी। इस दौरान ईरान के शाह की बहिन शाहजादा सुलतानम भी घोड़े पर सवार होकर फारस के शाह के पीछे खड़ी रहती थी।
हुमायूँ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि शाह के पीछे एक स्त्री घोड़े पर सवार रहती थी जिसकी बाग एक सफेद दाढ़ी वाले मनुष्य के हाथ में रहती थी। वह शाह की बहिन शाहजादा सुल्तानानम थी। हुमायूँ तथा गुलबदन ने शाह की बहिन का नाम ईरानी परम्परा के अनुसार शाहजादा सुल्तानम लिखा है जबकि मुगल परम्परा के अनुसार यह शाहजादी सुल्तानम होना चाहिए था।
एक दिन शाहजादा सुल्तानम ने हमीदा बानू बेगम का आतिथ्य किया। शाह ने अपनी बहिन से कहा कि हिंदुस्तान की मलिका के सम्मान में राजधानी से बाहर उत्सव रखना। सुल्तानम के आदेश से नगर से दो कोस की दूरी पर एक अच्छे मैदान में खेमा, तंबू, बारगाह, छत्र, मेहराब आदि खड़े किए गए तथा शाह के हरम की औरतें सजधज कर उस खेमे में उपस्थित हुईं।
गुलबदन ने लिखा है कि ये सब शाह की आपसवाली, बुआएं, बहिनें, हरमवालियां और खानों तथा सरदारों की स्त्रियां थीं जिनकी संख्या एक हजार के आसपास थी और वे सब बहुत सज-धज कर आई थीं।
फारस की शाही औरतों ने हमीदा बानू का भव्य स्वागत-सत्कार किया। दिन भर उत्सव चलता रहा तथा शाम होने पर खानों एवं सरदारों की स्त्रियों ने स्वयं खड़े होकर हमीदा बानू बेगम एवं शाह की औरतों, बहिनों एवं बुआओं को भोजन करवाया। इस दौरान ईरान का शाह तहमास्प भी हुमायूँ को अपने साथ लेकर इस उत्सव में भोजन करने आया।
इस दौरान तहमास्प की बुआ ने हमीदा बानू से पूछा- ‘हिंदुस्तान के खेमे और तम्बू सुंदर हैं या फारस के?’
इस पर हमीदा बानू ने कहा- ‘जो वस्तु फारस में दो दांग में मिलती है, वह हिंदुस्तान में चार दांग में मिलती है और वहाँ के खेमे तथा तम्बू सहित प्रत्येक वस्तु सुंदर है।’
संभवतः शाह की बुआ को हमीदा का यह उत्तर अच्छा नहीं लगा किंतु ईरान की बेगम शाहजादा सुल्तानाम ने हमीदा की बात का समर्थन किया। देर रात में यह उत्सव समाप्त हुआ।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता