सिंध के अंतिम छोर पर स्थित सीबी के निकट पहुंचकर हुमायूँ ने कामरान की मनोदशा जानने के लिए अपने कुछ गुप्तचर मीर अलादोस्त के पास भिजवाए। मीर अलादोस्त ने कहलवाया कि यदि कामरान हुमायूँ को आमंत्रित करे तभी हुमायूँ कांधार की तरफ जाए अन्यथा कांधार और काबुल से दूर ही रहे। बादशाह को समझना चाहिए कि उनके पास सेना नहीं है, अतः कामरान उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा! इस विचित्र संदेश को सुनकर हुमायूँ चिंता में डूब गया। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि बादशाह आश्चर्य और विचार में पड़ गए कि क्या करें और कहाँ जाएं!
तर्दी मुहम्मद खाँ एवं बैराम खाँ ने सम्मति दी कि- ‘उत्तर और शाल मस्तान को छोड़कर जो कि कांधार की सीमा पर स्थित है, कहीं और जाने का विचार करना संभव नहीं है। शाल मस्तान में बहुत सारे अफगान रहते हैं, जिन्हें अपनी ओर मिलाया जा सकता है। वहाँ चलने से एक लाभ यह भी है कि जो सैनिक, अमीर और बेग; मिर्जा अस्करी को छोड़कर आएंगे, वे भी हमारी ओर हो जाएंगे।’
इस पर हुमायूँ ने शाल मस्तान के लिए कूच किया। जब शाल मस्तान के निकट पहुंचे तब दोपहर की नमाज के समय एक उजबेग जवान टट्टू पर बैठकर वहाँ आया। उसने चिल्ला कर कहा- ‘बादशाह तुरंत घोड़े पर सवार हों, मैं रास्ते में सारी बात कहूंगा क्योंकि इस समय बात करने का समय नहीं है।’
उसका संदेश सुनते ही हुमायूँ एक घोड़े पर सवार होकर उस सैनिक के साथ चल दिया। ख्वाजा मुअज्जम तथा बैराम खाँ आदि कुछ अमीर एवं बेग भी हुमायूँ के साथ चले। जब दो तीर रास्ता निकल गया तब उस सैनिक ने बताया कि मैं इसलिए आपको कंप से बाहर निकालकर लाया क्योंकि मिर्जा अस्करी दो हजार सैनिकों को लेकर आपके कैंप के बिल्कुल निकट आ गया था। उसका इरादा आपको गिरफ्तार करने का है।
उस सैनिक की बात सुनकर सबको बादशाह के परिवार का ध्यान आया जो पीछे कंप में ही छूट गया था। इस पर हुमायूँ ने ख्वाजा मुअज्जम तथा बैराम खाँ को वापस कंप में भेजा ताकि वे हमीदा बानू बेगम को ले आएं। ये लोग उल्टे पैरों हुमायूँ के शिविर में गए। तब तक अस्करी की सेना काफी निकट पहुंच चुकी थी। इसलिए ख्वाजा मुअज्जम तथा बैराम खाँ ने बेगम को आनन-फानन में घोड़े पर सवार कराया और उसे लेकर शाही शिविर से निकल गए।
उन्हें इतना भी समय नहीं मिला कि एक साल के शिशु अकबर को भी साथ ले लें। जैसे ही बेगम कंप से निकलकर गई वैसे ही मिर्जा अस्कारी अपने दो हजार घुड़सवार सैनिकों के साथ हुमायूँ के शिविर में घुस गया। हुमायूँ के शिविर में उपस्थित अधिकांश लोगों को अब तक ज्ञात नहीं हुआ था कि क्या हो रहा है! इसलिए अस्करी के घुड़सवारों को शाही डेरे में घुसते हुए देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग जोर-जोर से चिल्लाने लगे। चारों ओर भगदड़ मच गई किंतु अस्करी के सिपाहियों ने किसी को भी शिविर से बाहर नहीं निकलने दिया। मिर्जा अस्करी ने शाही तम्बू में घुसकर पूछा कि बादशाह कहाँ है। बादशाह के तम्बू में उपस्थित लोगों ने कहा कि बादशाह सलामत तो बहुत समय हुआ शिकार खेलने गए हैं। अस्करी समझ गया कि बादशाह बच निकला। अस्करी ने कंप में स्थित शिशु अकबर को पकड़ लिया।
शाही डेरे में इस समय शाही परिवार के कई सदस्य थे। अस्करी ने उनसे कहा कि आप सब मेरे साथ कांधार चलें किंतु वे अस्करी के साथ नहीं जाना चाहते थे। इस पर अस्करी उन्हें जबर्दस्ती अपने साथ कांधार ले गया। अस्करी ने एक साल के बालक अकबर को अपनी बेगम सुल्तानम को सौंप दिया।
गुलबदन बेगम ने सोलह अमीरों एवं बेगों के नाम लिखे हैं जो इस समय हुमायूँ के साथ बच गए थे। हमीदा बानू बेगम के हवाले से गुलबदन बेगम ने तीस मनुष्यों के साथ होने की बात लिखी है। गुलबदन ने लिखा है कि बादशाह के साथ इस समय केवल दो ही स्त्रियां चल सकी थीं जिनमें से एक तो हुमायूँ की बेगम हमीदा बेगम थी और दूसरी हसन अली एशक आगा की पत्नी थी।
गुलबदन ने लिखा है कि बादशाह हुमायूँ पहाड़ की ओर चार कोस तक चलते चले गए। जिस समय हमीदा बानू बेगम और हसन अली एशक आगा की पत्नी हुमायूँ के काफिले के पास पहुंचीं तो हुमायूँ ने अपनी गति बढ़ा दी। हुमायूँ के पास खाने के लिए कुछ नहीं था। इस इलाके में बरसात होकर चुकी थी और भारी बर्फबारी हो रही थी।
फिर भी इस कड़कड़ाती हुई ठण्ड में भूखे-प्यासे मुगल अपने ही खानदान के शहजादे अस्करी के डर से रात भर चलते रहे। जब ऐसा लगने लगा कि लोग ठण्ड और भूख से मर जाएंगे, तब एक स्थान पर रुककर आग जलाई गई तथा एक घोड़े को मारकर लोहे की टोपी में उसका मांस उबालकर खाया गया।
हुमायूँ ने मांस का एक टुकड़ा खुद ही आग पर भूना और उससे पेट भरा जिससे शरीर को ठण्ड से कुछ आराम मिला। दिन निकलने पर उन्हें एक विशाल पहाड़ दिखाई दिया जिसके उस पार बलूच लोगों का गांव होने का अनुमान था। उस गांव तक पहुंचने के लिए हुमायूँ के काफिले को दो दिन का समय लग गया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि जब हुमायूँ का काफिला उस गांव के पास पहुंचा तो वहाँ पर बहुत ही कम घर दिखाई दिए जिनमें कुछ जंगली बिलूची पहाड़ के नीचे बैठे हुए थे। उनकी बोली पिशाचों जैसी थी। हुमायूँ के साथियों ने वहीं पर डेरा डाल दिया। इस पर बहुत से बिलूच एकत्रित होकर उनके निकट आ गए और अपनी भाषा में बात करने लगे। उनके शब्द तो मुगलों के समझ में नहीं आ रहे थे किंतु उन्हें सुनकर भय अवश्य लगता था। श्
हुमायूँ के सौभाग्य से हसन अली एशक आगा की पत्नी बलूच थी और वह बलूचों के इस कबीले की भाषा को समझ पा रही थी। उसने हुमायूँ को बताया कि ये लोग आपस में बात कर रहे हैं कि यदि हम बादशाह हुमायूँ को पकड़कर मिर्जा अस्करी को सौंप दें तो वह हमें बहुत सारा ईनाम देगा। हुमायूँ समझ गया कि अस्करी के सिपाही इस क्षेत्र में घूम रहे हैं। उन्होंने ही यह बात इन्हें बताई है।
हुमायूँ ने अपने साथियों से कहा कि रात होने से पहले ही हमें यहाँ से निकल चलना चाहिए। रात में ये लोग हमें नुक्सान पहुंचाएंगे। जब हुमायूँ और उसके साथी वहाँ से चलने लगे तो पिशाच जैसे लोगों ने यह कहकर उन्हें रोक लिया कि उनका सरदार आने वाला है, उससे पहले तुम लोग यहाँ से नहीं जा सकते!
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता