Saturday, October 12, 2024
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128. बेरहम वक्त

– ‘इस कुतिया के बच्चे को कह कि हुक्का भर कर लाये नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूंगा।’ शराब के नशे में धुत्त कुंवर हरिसिंह ने चिल्लाकर कहा तो खुर्रम की रूह कांप गयी। हुक्का लाने वाली दासी भी कुंवर का यह रौद्र रूप देखकर सहम गयी।

ऐसा घनघोर अपमान! खुर्रम तो स्वप्न में भी इस स्थिति की कल्पना नहीं कर सकता था कि उसके इशारों पर नाचने वाले एक अदने से राव का लड़का एक दिन उसके साथ ऐसा दुर्व्यवहार करेगा।

– ‘कमबख्त, जुबान को लगाम दे नहीं तो………।’ खुर्रम गुर्राया।

– ‘नहीं तो क्या? क्या करेगा तू?’ खाल खिंचवा लेगा?’ कुंवर हरिसिंह ने घूंसा तान कर पूरे जोर से खुर्रम की नाक पर दे मारा। खुर्रम की आँखों में लाल-पीले सितारे से झिलमिला आये। वह कराह कर नीचे बैठ गया। उसकी नाक से रक्त बहने लगा था।

दासी ने कुंवर का यह रूप देखा तो हुक्का शहजादे की ओर बढ़ा दिया- ‘शहजादे के लिये उचित यही है कि कुंअरजू जो कहते हैं, आप वही करें।’

खुर्रम ने दासी के हाथ से हुक्का ले लिया। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचा था। किसी तरह खड़ा होकर वह डेरे से बाहर आया। उसके कदम अपमान और चोट से लड़खड़ा रहे थे। दासी मशाल लेकर उसके पीछे चली।

खुर्रम ने बाहर आकर देखा कि एक तरफ बड़े से घेरे में अंगारे दहक रहे हैं जिनका लाल प्रकाश चारों तरफ फैला हुआ है। इससे पहले खुर्रम ने कभी अंगारों को इतने ध्यान से नहीं देखा था। उसका जी हुआ कि हरिसिंह को बालों से पकड़ कर घसीटता हुआ लाये और इन अंगारों में झौंक दे। पहले के से दिन होते तो खुर्रम निस्संदेह यही करता किंतु भाग्य ने वे दिन खुर्रम से छीन लिये थे। शहजादा होते हुए भी अब वह शहजादा नहीं था, बादशाह द्वारा घोषित भगोड़ा था जिसे बादशाह के सेनापतियों ने पकड़ लिया था। यह एक अलग बात थी कि बादशाह स्वयं इन दिनों महावतखाँ की कैद में था।

तो क्या महावतखाँ भी बादशाह हुजूर के साथ यही बर्ताव कर रहा होगा! यह विचार मन में आते ही खुर्रम की रही-सही हिम्मत भी पस्त हो गयी। उसने किसी तरह चीमटे से अंगारे उठाकर हुक्के में डाले और डेरे के भीतर चला गया। उसका मन हुआ कि वह हरिसिंह के पैरों में अपना सिर रख कर कहे कि उसे छोड़ दे और चलकर महावतखाँ पर आक्रमण करे नहीं तो महावतखाँ बादशाह हुजूर को मार डालेगा।

कुंवर हरिसिंह क्रोध से आँखें चढ़ाये बैठा था। उसके भय से खुर्रम के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। उसने चुपचाप हुक्का हरिसिंह के सामने रख दिया।

– ‘चल पैर दबा।’ हरिसिंह ने अपने दोनों पैर ढोलिये[1]  पर लम्बे कर दिये।

खुर्रम तिलमिला कर रह गया किंतु बाहर से वह शांत ही बना रहा। उसने किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं की। खुर्रम को अपनी जगह से न हिलते देखकर कुंवर हरिसिंह का क्रोध फिर से भड़क गया।

– ‘अरे गोले ![2] तुझे सुनाई नहीं देता क्या?’

– वक्त से डर हरिसिंह। मैं तेरा गुलाम नहीं हूँ। तैमूरी खानदान का मुगल शहजादा हूँ, खुदा ने चाहा तो मैं एक दिन हिन्दुस्थान के तख्त पर बैठूंगा। मुझसे गुलामों की तरह सेवा लेते हुए तुझे लज्जा नहीं आती?’

– ‘तो जनाब अब भी हिन्दुस्थान के तख्त पर बैठने का सपना पाले हुए हैं।’ कुंवर हरिसिंह ने हुक्के की नली मुँह से निकालते हुए कहा।

– ‘वक्त की चाल बड़ी बेरहम होती है हरिसिंह। कौन जाने कल क्या हो?’

– ‘कल जो होगा, वो न तुझे पता है और न मुझे किंतु आज जो होगा, वो केवल मुझे पता है। जानना चाहता है कि आज क्या होगा?’

खुर्रम ने हरिसिंह की बात का कोई जवाब नहीं दिया।

– ‘अच्छा-अच्छा। तू नहीं जानना चाहता तो मत पूछ। मैं ही तुझे बताये देता हूँ कि आज क्या होगा!’ अपनी बात कहते-कहते हरिसिंह नशे के कारण हांफने लगा। एक क्षण को विराम लेकर उसने हुक्के का कश खींचा और मुँह से नली निकाल कर बोला- ‘आज जब मैं डावड़ियों[3]  का मुजरा देखूंगा तो तू मेरे पैर दबायेगा और पंखा लेकर मेरी हवा करेगा। तू मेरी गिलास में शराब भरेगा और मेरी चिलम पकड़ कर खड़ा रहेगा। और जो तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं डावड़ियों के साथ तुझसे भी मुजरा करवाऊंगा।’

खुर्रम के जीवन में इतनी खराब शाम अब से पहले कभी नहीं आयी थी। परिस्थिति के आगे वह लाचार था। मुजरा न करना पड़े इसलिये उसने किसी तरह का प्रतिरोध नहीं किया। वह चुपचाप वही करता चला गया, जो भी कुछ भी करने को उससे कहा गया।

खुर्रम वक्त की इस बेरहमी पर हैरान था किंतु कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं था। कई दिनों तक यह तमाशा चलता रहा। जब यह बात राव रतनसिंह को मालूम हुई तो उसने कुंवर हरिसिंह को बुला कर बहुत बुरा-भला कहा और यह कहकर शहजादे को मुक्त कर दिया कि जब इसे गिरफ्तार करने वाला बादशाह खुद ही अपने मातहतों की कैद में है तो इसे कैद में रखने का क्या लाभ है!

कुंवर हरिसिंह की कैद से छूटकर खुर्रम सिर पर पैर रखकर ठठ्ठे की ओर ऐसे भागा मानो साक्षात मौत ही पीछे लगी हुई हो। उसका विचार ठठ्ठे से नीचे उतर कर सिंध होते हुए गुजरात की ओर जाने का था। वह कतई नहीं चाहता था कि हरिसिंह के शिकंजे से निकलने के बाद वह अब्दुर्रहीम के शिकंजे में जा फंसे।


[1] बड़ी चारपाई।

[2] गुलाम।

[3] नृत्यांगनाओं।

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