Saturday, July 27, 2024
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127. खीरा सिर से काटिये!

खानखाना के बेटे दाराबखाँ की पुत्री नूरजहाँ के भाई आसिफखाँ के बेटे शायस्ताखाँ को ब्याही गयी थी। चूंकि दाराबखाँ और दाराबखाँ के बेटे को महावतखाँ ने मार डाला था इसलिये खानखाना की यह पौत्री महावतखाँ से बड़ी क्रुद्ध रहा करती थी। महावतखाँ का कोई भी परिचित आदमी जब भी उससे मिलता तो वह एक ही बात कहा करती थी कि जिस दिन मुझे महावतखाँ दिखेगा, उसे मैं बन्दूक से मार दूंगी।

जब बाबा अब्दुर्रहीम खानखाना की पदवी ठुकराकर चित्रकूट में जा बैठा तो दाराबखाँ की बेटी को बड़ी चिंता हुई। उसे लगा कि महावतखाँ को दण्ड देने का अवसर हाथ से निकला जा रहा है। खानखाना के अतिरिक्त किसी और में महावतखाँ को दण्डित करने की सामर्थ्य नहीं थी। जब उसने सुना कि महावतखाँ बादशाह को कैद करके काबुल ले गया है और उसने खानखाना को चुनौती दी है कि यहाँ आकर बादशाह को छुड़ा लेवे तो वह स्वयं अपने बाबा के पास चित्रकूट गयी ताकि अपने पितामह को इस कार्य के लिये तैयार कर सके।

खानखाना ने अपनी पौत्री का स्वागत तो किया किंतु उसके आने का उद्देश्य जानकर वह दुविधा में पड़ गया। उसे बादशाह के अपहरण किये जाने का समाचार  पहले ही मिल गया था किंतु वह अपने आप को यह चुनौती स्वीकार करने में असमर्थ जानकर चुप लगा गया था। पौत्री के हठ ने उसे फिर से सोचने पर विवश कर दिया था।

– ‘बाबा हुजूर! आप ही ने हमें सिखाया था कि खीरा मुख से काटिये मलिये नमक लगाय। रहिमन कड़ुए मुखन को चहिये यही सजाय। क्या महावतखाँ के अपराध कड़ुए खीरे से भी कम हैं? उसका मुख काटकर उसमें नमक कौन भरेगा? आपके पुत्रों में से कोई जीवित न रहा। नहीं तो मैं इस काम के लिये उनके सामने दामन फैलाती। आप ही इस खानदान की डूबती हुई नैया के खेवनहार हैं। इस समय यदि आपने कोई उद्यम नहीं किया तो बैरामखाँ का वंश हमेशा के लिये डूब जायेगा। यदि आपने इस बार बादशाह को छुड़ा लिया तो आपका बचा-खुचा वंश पेट पालने के लिये किसी का मोहताज नहीं रहेगा।’

बेटी जाना भी इसी पक्ष में थी कि जीवन के इस पड़ाव पर भी खानखाना को खानदान के भविष्य के लिये उद्यम करना चाहिये। इस सब सोच-विचार के बाद खानखाना ने अपने लिये घोड़ा मंगावाया और उसकी जीन कस कर उस पर सवार होते हुए बोला- ‘सर सूखे पंछी उड़े, और कहीं ठहरायं। कच्छ-मच्छ बिन पच्छ के कह रहीम कहँ जायं?’[1]

बेटी जाना ने बूढ़े बाप को एक हाथ में नंगी तलवार घुमाते हुए और दूसरे हाथ से घोड़े की लगाम खींचते हुए देखा तो आँखों में आँसू भरकर बोली- ‘याद रखना बाबा। खीरा मुख से काटिये मलिये नमक लगाय। रहिमन कड़ुए मुखन को चहिये यही सजाय।’ अपनी बात पूरी करते करते जाना फफक-फफक कर रो पड़ी। कौन जाने यह चेहरा फिर से दिखायी भी दे या नहीं।

जाना को रोते देखकर खानखाना ने घोड़े को ऐंड़ लगाते हुए कहा-

‘रहिमन मैन तुरंग चढ़ि चलिबो पावक माँहि।

प्रेमपंथ ऐसा कठिन सबसों निबहत नाँहि। ‘[2]

जाना जानती थी कि अब खानखाना वह पुराना वाला खानखाना न था जिसके घोड़े पर सवार होते ही शत्रुओं की छाती फट जाती थी ओर उनके मस्तिष्क की नसें काम करना बंद कर देती थीं। उसकी आयु बीत गयी थी। उसके आदमी बिखर गये थे। उसकी फौज नष्ट हो गयी थी। उसके बेटे काल के मुँह में समा गये थे। उसके सिर पर हुमा का पंख नहीं था। उसके चंवर और छत्र जाने कहाँ चले गये थे! अब तो भग्न हृदय, जर्जर देह और श्वेत केश ही उसके हिस्से में थे। उस पर भी मुसीबत यह कि बादशाह महावतखाँ की कैद में था और नूरजहाँ बेबस। ऐसे में महावतखाँ पर विजय हासिल करना आकाश में कुसुम खिलाने जैसा ही था किंतु यह कमजोर खानखाना भी बेटी जाना की दृष्टि में धन्य था जो पोती के अनुरोध पर असाध्य को भी साधने के लिये उठ खड़ा हुआ था।

जो खुर्रम हिन्दुस्तान का शंहशाह होने का ख्वाब देखते न थकता था, वह अपने बाप पर मुसबीत आई देखकर ठठ्ठे को भाग खड़ा हुआ था, जो परवेज हिन्दुस्थान का तख्त पाने के लिये दाराबखाँ का सिर काटने में जरा भी देर करने को तैयार नहीं था, वही परवेज अपने बाप पर मुसबीत आई जानकर दक्षिण से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा। उन्हीं खुर्रम और परवेज के बाप को महावतखाँ की कैद से छुड़ाने के लिये बूढ़ा खानखाना फिर से तुरंग पर सवार हुआ।

चित्रकूट से चलकर खानखाना सीधा आगरा आया। उसके आदमी और कबूतर आज भी उन्हीं गलियों, कूँचों, बारामदों और बाजारों में डटे हुए थे। उसने अपने खबरचियों और कबूतरों के जरिये अपने जानने वालों और बादशाह के शुभेच्छुओं को सूचना भिजवाई कि वह सेना लेकर काबुल जा रहा है, जिसे भी बादशाह को छुड़वाने के लिये चलना हो, उसके पास आ जाये।

जिसने भी यह संदेश पाया, उसे विश्वास नहीं हुआ। खानखाना फिर से घोड़े पर बैठकर बादशाह को छुड़ाने के लिये काबुल जा रहा था! देखते ही देखते लोग जुड़ने लगे। बात की बात में हजारों युवक खानखाना की हवेली के सामने इकठ्ठे होने लगे। सब कुछ सपने जैसा था किंतु सब अपनी आँखों से उस सपने को घटित होता हुआ देख रहे थे। खानखाना ने कुछ ही दिनों में विशाल सेना खड़ी कर ली और उसने काबुल की ओर कूच किया।

खानखाना को फिर से मैदान में आया देखकर खुर्रम हिन्दुस्थान छोड़कर ईरान भागने की तैयारी करने लगा लेकिन जब दक्षिण से समाचार आया कि परवेज मर गया तो खुर्रम ने ईरान जाने का निश्चय त्यागकर गुजरात के रास्ते दक्षिण को चले जाने की तैयारी की किंतु बूंदी नरेश राव रतनसिंह ने मौका पाकर बुरहानपुर में खुर्रम को गिरफ्तार कर लिया।

बाबर के वंशजों के लिये वक्त एक दिन इतना बेरहम हो जायेगा, इसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। बादशाह महावतखाँ की कैद में था तो शहजादा खुर्रम राव रतनसिंह के शिकंजे में। यह अलग बात थी कि सियासत की चतुर खिलाड़ी नूरजहाँ को लगा कि उसकी योजनाओं के फलीभूत होने का समय आ गया। अब वह बेखटके अपने जंवाई शहरयार को बादशाह बना सकती थी।


[1]  तालाब के सूखने पर पक्षी उड़कर दूर चले जाते हैं किंतु कछुओं और मछलियों के पंख नहीं होते, वे तो उसी सूखे सरोवर का साथ निभाते हैं।

[2] घोड़े पर सवार होकर आग के भीतर चलना, ऐसी कठिन राह सबसे नहीं निभती। यह राह एक जलन है, दूसरी ओर बड़ी फिसलन। एक ओर चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं और संसार में लोग हैं कि उस पर स्वार्थ रूपी बोझ लादकर ले जाना चाहते हैं।

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