यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है कि जब मुसलमान उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तब उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्तों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की धारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में, फिर उत्तरभारत में, प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में।
– आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी।
भगवद्-भक्ति की अवधारणा
आर्यों के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में ईश्वर की स्तुतियां लिखी गई थीं। इस प्रकार भक्ति की अवधारणा का बीज वेदों में उपलब्ध था जो उपनिषद काल में हरे-भरे पौधे में बदलने लगा। बादरायण के ब्रह्मसूत्र ने इस कार्य को भलीभांति आगे बढ़ाया। श्रीमद्भगवतगीता ने भक्ति रूपी पौधे को वैचारिक एवं दार्शनिक खाद-पानी देकर विशाल वटवृक्ष बन जाने का अवसर प्रदान किया।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है- ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् व्रज।’ अर्थात् सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ। अर्थात् मेरी भक्ति कर। गीता के बारहवें अध्याय में भक्ति का अत्यन्त सौम्य निरूपण किया गया है।
छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में बौद्धों तथा जैनियों के धार्मिक आंदोलनों के उठ खड़े होने से भक्ति रूपी वृक्ष कूछ सूखने लगा किंतु शुंग, कण्व, सातवाहन तथा गुप्त शासकों के काल में भक्ति रूपी इस वृक्ष का फिर से उद्धार हुआ। यही कारण था कि शुंग काल (ई.पू.184-ई.पू.72) से लेकर गुप्त काल (ई.320-495) तक विविध धार्मिक साहित्य की रचना हुई और भक्ति रूपी विशाल वटवृक्ष फिर से पूरे उत्साह के साथ लहराने लगा।
शुंगकाल में सूत्र-ग्रंथों एवं स्मृतियों की रचना हुई जबकि गुप्तकाल में विविध पुराणों को लिखा गया जो मूल रूप से भक्ति-ग्रंथ हैं और विष्णु एवं उसके विविध रूपों अर्थात् भगवान एवं उसके अवतारों की भक्ति का उपदेश देते हैं। भागवत पुराण के अनुसार भगवान को पूर्ण आत्मसमर्पण करके हम ब्रह्म को आनन्दमय अवस्था में प्राप्त कर सकते हैं।
विभिन्न पुराणों के माध्यम से भगवत्-भक्ति के विशाल वटवृक्ष पर वैष्णव धर्म की विविध शाखाओं ने आकार लिया। पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के जन्म एवं विकास की चर्चा हम ‘पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का उदय एवं विकास’ नामक अध्याय में विस्तार से कर चुके हैं। पुरुगुप्त से लेकर विष्णुगुप्त तक (ई.467-550) के परवर्ती-गुप्त शासकों ने पुनः बौद्ध धर्म को आश्रय दिया जिससे भक्ति-धर्म का पौधा एक बार फिर मुरझाने लगा।
आठवीं शताब्दी ईस्वी में शंकराचार्य ने बौद्धों के मत का खण्डन करके ब्रह्म को जगत् का आधार बताया तथा ‘भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, गोविन्दम् भज मूढ़मते’ का उद्घोष करके उन्होंने भक्ति के अवरुद्ध प्रवाह को पुनः खोल दिया। चूंकि शंकराचार्य का ‘ब्रह्म’ भक्तों की करुण-पुकार सुनने के लिए उपलब्ध नहीं था इसलिए शंकराचार्य के बाद के लगभग सभी आचार्यों ने शंकराचार्य के अद्वैतमत का खण्डन एवं मण्डन करके भक्ति को ज्ञान की काराओं से मुक्त कर दिया।
शंकराचार्य के बाद दक्षिण भारत में ‘सगुण वैष्णव-भक्ति’ की धारा प्रकट हुई। वेदों से लेकर, उपनिषदों, सूत्र ग्रंथों, स्मृतियों, पुराणों आदि में भक्ति के जितने भी सिद्धांत एवं स्वरूप प्रस्तुत किए गए थे, आलवार एवं नयनार संतों ने उन सिद्धांतों को लोकभाषा में गीत लिखकर भगवत्-भक्ति को सहज रूप से जन-सामान्य के लिए उपलब्ध करा दिया। उन्होंने भक्ति का अत्यंत सरस स्वरूप तैयार किया जिसकी दार्शनिक भावभूमि अत्यंत उच्च कोटि की थी।
यद्यपि आलवार एवं नयनार संतों का यह काल लगभग आठ सौ से नौ सौ वर्ष लम्बा है। ये संत कम शिक्षित थे और साधारण जीवन व्यतीत करते थे। इनकी संख्या तय करना कठिन है। आलवार सन्तों ने भगवान विष्णु को अराध्य देव मानकर गीतों और भजनों के माध्यम से भक्ति की धारा प्रवाहित की तो नयनार संतों ने शिव की उपासना का मार्ग प्रस्तुत किया। नयनार संत भगवान शिव को प्रेमपात्री के रूप में तथा स्वयं को प्रेमी के रूप में प्रदर्शित करते हुए गम्भीर भक्तिमय उद्गार प्रकट करते थे।
इस प्रकार दक्षिण से आई भक्ति की फुहारों का सहारा पाकर ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास हिन्दू-धर्मरूपी वटवृक्ष फिर से लहलहा उठा। भक्ति रूपी यह विशाल वटवृक्ष आज भी पूरी ऊर्जा के साथ खड़ा है और मनुष्य मात्र को शीतल छाया प्रदान कर रहा है।
भक्ति आन्दोलन के पुनरुद्धार के कारण
दिल्ली सल्तनत काल (ई.1206-1526) में, हिन्दू-धर्म को इस्लाम से बचाने के लिए भारत भूमि पर भक्ति आंदोलन का पुनरुद्धार हुआ। भक्ति आंदोलन तब तक वेगवती नदी के समान प्रवाहरत रहा जब तक कि पंद्रहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत कमजोर न पड़ गई। इस भक्ति आंदोलन के प्रभाव से हिन्दुओं को नवीन मनोबल प्राप्त हुआ तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रांतीय राज्यों का उदय हुआ। इनमें से अनेक राज्य हिन्दू राजपूतों द्वारा शासित थे। उनके सरंक्षण में हिन्दू-धर्म के भीतर भक्ति आंदोलन अपने चरम को पहुँच गया। भक्ति आन्दोलन के पुनरुद्धार के निम्नलिखित कारण प्रतीत होते हैं-
(1.) राष्ट्रीय आवश्यकता: भारत में जिस समय दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई, उस समय देश में प्रचलित वैष्णव धर्म, शैव धर्म, शाक्त धर्म, बौद्ध धर्म तथा जैन-धर्म तो उपस्थित थे ही, साथ ही इन धर्मों के भीतर भी बड़ी संख्या में मत-मतांतर एवं सम्प्रदाय बने हुए थे। राजाओं-महाराजाओं एवं साधु-संतों से लेकर साधारण प्रजा तक दिग्भ्रमित होकर इन सम्प्रदायों में टूटी और बिखरी हुई थी।
प्रत्येक सम्प्रदाय स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ एवं एकमात्र सत्य घोषित करता था तथा दूसरे सम्प्रदाय को पूरी तरह नकारता था। ऐसी स्थिति में भारत भूमि पर जब इस्लाम का आक्रमण हुआ तो इन सम्प्रदायों को एक ही दार्शनिक भावभूमि में पिरोकर एक सर्व-स्वीकार्य धर्म की छतरी के नीचे लाने की आवश्यकता हुई। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो खण्ड-खण्ड हुआ हिन्दू-धर्म इस्लाम की चपेट खाकर पूरी तरह से नष्ट हो जाता।
इस काल में बौद्ध धर्म नष्ट-प्रायः था तथा जैन-धर्म का प्रभाव अत्यंत सीमित था किंतु हिन्दू-धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों को समेट कर एक करने की आवश्यकता थी। शंकर के अद्वैतवाद और मायावाद, हिन्दुओं को इस्लाम के समक्ष टिकाए रखने में समर्थ नहीं थे। इसलिए हिन्दू-धर्म को ऐसे दार्शनिक आधार की आवश्यकता थी जो भगवान के सर्व-सामर्थ्यवान एवं भक्त-वत्सल होने का भरोसा दे सके ताकि लोग अपने धर्म की श्रेष्ठता में विश्वास करें और विदेशी धर्म को स्वीकार नहीं करें।
(2.) हारे को हरि नाम: मुस्लिम शासन काल में हिन्दू किसानों पर समस्त कर लाद दिए गए तथा मुसलमान बनने वाले किसानों के कर माफ कर दिए गए। इसी प्रकार हिन्दुओं के लिए राजकीय सेवा के द्वार बंद कर दिए गए थे किंतु मुसलमान बनने वालों को राजकीय सेवा में रखा जाता था और उन्हें सम्मानित किया जाता था।
जब हिन्दुओं का पेट भरना कठिन हो गया तो वे स्वतः ही मुसलमान बनने लगे। बहुत से लोग ऐसे भी थे जो मरना पंसद करते थे किंतु मुसलमान नहीं बनते थे। ऐसे लोगों ने हारे को हरिनाम कहावत को सार्थक करते हुए ईश्-भक्ति का सहारा लिया।
बर्नीयर ने तारीखे फीरोजशाही में लिखा है- ‘हिन्दुओं के पास धन अर्जित करने के साधन नहीं रह गये थे। उनमें से अधिकांश को निर्धनता एवं अभावों का जीवन-यापन करते हुए अजीविका के लिये निरंतर संघर्ष करना पड़ता था। हिन्दू प्रजा के रहन-सहन का स्तर अत्यंत निम्न कोटि का था। करों का समस्त भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्य थे। अल्लाउद्दीन खिलजी ने दोआब के हिन्दुओं से उपज का 50 प्रतिशत भाग बड़ी कठोरता से उगाहा था।’
इन विकट परिस्थतियों में हिन्दुओं में हारे को हरिनाम अर्थात् परास्त एवं कमजोर व्यक्ति का आसरा स्वयं परमेश्वर है, की भावना ने जन्म लिया तथा हिन्दुओं ने अपने कष्टों को कम करने के लिये ईश्वर की शरण में जाने का मार्ग पकड़ा। फलतः सल्तनत काल में हिन्दू-धर्म में भक्ति आंदोलन का पुनरुद्धार हुआ।
(3.) क्रियात्मक शक्ति के नियोजन की आवश्यकता: जब हिन्दुओं को बड़ी संख्या में राजकीय सेवाओं से निकाल दिया गया, उनकी खेती बाड़ी चौपट हो गई, खेत एवं घर मुसलमानों द्वारा छीन लिये गये, उन्हें सम्पत्ति कमाने तथा रखने के अधिकारों से वंचित कर दिया गया तब हिन्दुओं के पास अपनी क्रियात्मक शक्ति को नियोजित करने का कोई माध्यम नहीं रहा। ऐसी स्थिति में संकटापन्न एवं विपन्न हिन्दुओं ने स्वयं को भगवद्-भक्ति में नियोजित किया। इस प्रकार भक्ति भावना की अपार धारा प्रवाहित हो चली।
(4.) सबके लिये सुलभ मार्ग की आवश्यकता: मुस्लिम शासन काल में हिन्दू-धर्म के बाह्याडम्बरों एवं जाति प्रथा से तंग आकर बहुत से हिन्दू स्वेच्छा से मुसलमान बनने लगे। तब हिन्दू-धर्म-सुधारकों ने इस बात को अनुभव किया कि हिन्दू-धर्म को सब लोगों के लिये सुगम बनाना होगा ताकि लोग इसे छोड़कर अन्य धर्म न अपनायें। इसलिये ईश्वर की सरल भक्ति का मार्ग विस्तारित किया गया जो सबके लिये सुलभ थी और सबको बराबर स्थान देती थी।
(5.) पराधीनता के कष्टों को भूलने का साधन: दिल्ली सल्तनत के शासकों द्वारा हिन्दुओं को आभूषण पहनने, घोड़े पर चढ़ने, राजकीय सेवा करने, सम्पत्ति रखने आदि अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। यह पराधीनता उन्हें सालती थी। भक्ति-मार्ग उनकी पराधीनता के विस्मरण का अच्छा साधन सिद्ध हुआ। ईश्वर की प्राप्ति तथा मोक्ष को सर्वप्रधान मानकर यह प्रचारित किया जाने लगा कि ईश्वर की प्राप्ति केवल ईश्वर की दया एवं भक्ति से हो सकती है।
(6.) परस्पर सहयोग की आवश्यकता: मनुष्य सामाजिक प्राणी है, साथ-साथ रहने से उसे एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। यह तभी संभव है जब समाज में कटुता नहीं हो। भगवद्-भक्ति का आधार भी समस्त प्राणियों को ईश्वर की संतान मानकर उनसे प्रेम करने की प्रेरणा ही है। इस भावना को निरंतर विस्तारित करने की आवश्यकता थी, इसलिये भक्ति आंदोलन निरंतर आगे बढ़ता रहा।
मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदायों की विशेषताएँ
मध्य-युगीन भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों ने जिस भक्ति पर जोर दिया, उसका स्वरूप सरल एवं पवित्र था। उसका कोई पुरोहित तथा कर्मकाण्ड नहीं था। भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों ने हिन्दू-धर्म के आडम्बरों तथा जटिलताओं को दूर करके उसे सरल तथा स्पष्ट बनाने के प्रयास किए।
इन लोगों ने एकेश्वरवाद एवं अवतारवाद का सहारा लिया तथा ईश्वर की भक्ति विष्णु तथा उनके अवतारों अर्थात् राम एवं कृष्ण के रूप में की गई। हिन्दू-धर्म सुधारकों का विश्वास था कि मोक्ष केवल ईश्वर की कृपा से प्राप्त हो सकता है। भक्ति-मार्गी सुधारकों ने ‘नाम’ तथा ‘गुरु’ की महत्ता पर बल दिया। उनके उपदेशों में ‘समर्पण’ की प्रधानता है तथा ‘अहंकार’ का अभाव है।
इन सन्तों में से कुछ मूर्तिपूजक थे जबकि कुछ मूर्ति-पूजा को निरर्थक मानते थे परन्तु समस्त संतों ने एक स्वर से जाति-पाँति का विरोध किया तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुझाया। कुछ संतों ने भक्ति के साथ-साथ प्रपत्ति एवं शरणागति का मार्ग भी सुझाया।
समस्त संतों की मान्यता थी कि ईश्वर किसी स्थान विशेष में नहीं रहकर कण-कण में समाया हुआ है तथा प्रत्येक प्राणी के भीतर निवास करता है। ईश्वर को भक्ति से प्रसन्न एवं अपने वश में किया जा सकता है। प्रायः प्रत्येक संत ने साधक के लिए सच्चे गुरु का होना आवश्यक माना। भक्तिमार्गी सन्तों ने अपने दार्शनिक ग्रंथों की भाषा संस्कृत रखी किंतु उपदेशों एवं भजनों के लिए हिन्दी एवं लोकभाषा को स्वीकार किया।
भक्ति आन्दोलन की प्रमुख धाराएँ
श्रीमद्भगवत्गीता में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताये गये हैं- ज्ञान, कर्म एवं भक्ति। इनमें से ज्ञान-मार्ग सर्वाधिक कठिन और भक्ति-मार्ग सर्वाधिक सरल है। भक्ति अपने उपास्यदेव के प्रति भक्त की अपार श्रद्धा तथा असीम प्रेम है। भक्ति करने से भक्त को ईश्वर का प्रसाद अर्थात् विशेष कृपा प्राप्त होती है जिससे मोक्ष मिलता है। ईश्वर भक्ति के तीन प्रधान मार्गों- ज्ञान, प्रेम तथा उपासना को आधार बनाकर भक्ति की तीन धाराएं प्रवाहित हुईं- ज्ञान-मार्गी धारा, प्रेम-मार्गी धारा तथा भक्ति-मार्गी धारा।
ज्ञान-मार्गी धारा
ज्ञान-मार्गी धारा के संतों ने हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बाह्याडम्बरों तथा मिथ्याचारों की आलोचना करके दोनों को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयत्न किया। इस धारा के प्रधान प्रवर्तक कबीर थे। वे एकेश्वरवादी तथा निर्गुण-निराकार ब्रह्म के उपासक थे। उन्होंने नाम तथा गुरु दोनों की महत्ता को स्वीकार किया।
प्रेम-मार्गी धारा
प्रेम-मार्गी धारा के सन्तों ने ईश्वर के विभिन्न रूपों से प्रेम करने का मार्ग अपनाया। इन सन्तों ने ईश्वर को स्वामी, पिता, पति एवं सखा आदि सम्बन्धों से स्वीकार किया तथा उसी भाव से उन्हें भजने का मार्ग पुष्ट किया। तुलसी के लिए वे स्वामी थे, सूर के लिए सखा थे, मीरां के लिए पति थे और नामदेव के लिए वे पिता थे। प्रेम-मार्गी भक्तों की हरिदासी आदि धाराओं के संतों ने स्वयं को अपने उपास्य देव की प्रेयसी घोषित किया।
भक्ति-मार्गी धारा
भक्ति-मार्गी धारा के सन्त अपने इष्टदेव की पूजा तथा उपासना में लीन रहते थे। वे ईश्-भजन को जीवात्मा के कल्याण का सर्वोत्तम उपाय मानते थे। भक्ति-मार्गी सन्तों को राज-दरबार के ऐश्वर्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। इन सन्तों ने विष्णु एवं उनके अवतारों राम तथा कृष्ण के सगुण-साकार स्वरूप की भक्ति की। वे दुर्गा, लक्ष्मी एवं सरस्वती आदि ईश्वरीय शक्तियों की भी उपासना करते थे।
इन सन्तों ने अपने कर्मों तथा गुणों की अपेक्षा भगवत् कृपा को अधिक महत्व दिया। इस युग के संतों ने जिस धार्मिक धारा का आह्वान किया वह पूर्णतः आस्तिक थी, वेदों की सर्वोच्चता में विश्वास रखती थी एवं श्रीराम और श्रीकृष्ण को वैदिक देवता ‘विष्णु’ का अवतार मानती थी। भक्ति-मार्गी सन्तों की दो धाराएं हैं- राम-भक्ति धारा एवं कृष्ण-भक्ति धारा-
(1.) राम-भक्ति धारा: राम-भक्ति धारा के सन्तों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी अतिशय विनयशीलता तथा मर्यादाशीलता है। रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य तथा तुलसीदास, राम-भक्ति मार्गी सन्त थे। इन सन्तों ने विभिन्न मत-मतान्तरों, उपासना-पद्धतियों तथा विचार-धाराओं में समन्वय स्थापित किया तथा हिन्दू जाति को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया।
(2.) कृष्ण-भक्ति धारा: कृष्ण-भक्ति धारा के सन्तों ने श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का गुणगान किया और श्रीकृष्ण की उपासना पर बल दिया। निम्बार्काचार्य, चैतन्यमहाप्रभु तथा सूरदास, मीराबाई आदि कृष्ण-भक्ति मार्गी सन्त थे।
मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदाय
मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदायों में रामानुजाचार्य का श्री सम्प्रदाय, विष्णु गोस्वामी का रुद्र सम्प्रदाय, निम्बार्काचार्य का निम्बार्क सम्प्रदाय, माधवाचार्य का द्वैतवादी माध्व सम्प्रदाय, रामानंद का विशिष्टाद्वैतवादी रामानन्द सम्प्रदाय, वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैतवादी पुष्टि सम्प्रदाय, चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय सम्प्रदाय अथवा चैतन्य सम्प्रदाय, हितहरिवंश का राधावल्लभी सम्प्रदाय तथा हरिदासी सम्प्रदाय महत्वपूर्ण हैं।