Saturday, July 27, 2024
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अध्याय-32 – भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन (ब)

भक्ति मार्गी सन्त

रामानुजाचार्य

ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी से भारत में वैष्णव आचार्यों की एक नवीन परम्परा आरम्भ हुई। इस परम्परा में आलवार संत यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य रामानुजाचार्य (ई.1016-1137) को विशेष सफलता प्राप्त हुई। रामानुजाचार्य को मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का जन्मदाता कहा जाता है। उनका जन्म ई.1016 में श्रीरंगम् के आचार्य परिवार में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्हें कांजीवरम् के यादव प्रकाश के पास वेदान्त की शिक्षा के लिए भेजा गया।

वेद की ऋचाओं के अर्थ निकालने में उनका अपने गुरु से मतभेद हो गया और उन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपने विचारों का प्रचार आरम्भ किया। कुछ दिनों तक गृहस्थ जीवन बिताने के बाद उन्होंने सन्यास ले लिया। उन्होंने दक्षिण तथा उत्तर भारत के धार्मिक स्थानों का भ्रमण किया तथा विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया।

उन्होंने अपने विचारों की पुष्टि के लिए पाँच ग्रन्थों की रचना की-(1.) वेदान्त सारम् (2.) वेदान्त संग्रहम्, (3.) वेदान्त दीपक, (4.) भगवद्गीता की टीका और (5.) ब्रह्मसूत्र की टीका जो ‘श्रीभाष्य’ के नाम से प्रसिद्ध है।

रामानुजाचार्य ने 120 वर्ष के दीर्घ आयुकाल में ‘श्री सम्प्रदाय’ की स्थापना की तथा शंकर के ‘अद्वैतवाद’ एवं ‘मायावाद’ का खण्डन करके ‘विशिष्टाद्वैत दर्शन’ का प्रतिपादन किया। शंकर का ब्रह्म शुद्ध, बुद्ध और निराकार था। उसका मनुष्य से कोई सीधा सम्पर्क नहीं है। साधारण मनुष्य उसकी कल्पना भी नहीं कर पाता था।

इसी ब्रह्म में ईश्वरत्व का आरोपण कर रामानुज ने उसे साधारण मनुष्य की बुद्धि की पकड़ में लाने का प्रयास किया। रामानुज ने ईश्वर, जगत् और जीव, तीनों को सत्य, नित्य और अनादि माना तथा जीव और जगत् को अनिवार्य रूप से ईश्वर पर आश्रित माना। रामानुज का ईश्वर सगुण, सर्वगुण सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वत्र है।

वह इस सृष्टि का निर्माता है और उसकी रचना सीमित अर्थ में सृष्टि से अलग है। ईश एवं सृष्टि का यही द्वैध, भक्ति के सिद्धान्त का आधार है। भक्ति के माध्यम से जीव ईश्वर से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

रामानुजाचार्य को ‘शेष’ अर्थात् लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। उनके शिष्यों की मान्यता है कि शेष ही राम के साथ लक्ष्मण के रूप में तथा श्रीकृष्ण के साथ बलराम के रूप में अवतरित हुए तथा कलियुग में उन्होंने रामानुज के रूप में अवतार लेकर विष्णु-धर्म की रक्षा की। रामानुज ने विष्णु एवं लक्ष्मी को एक ही घोषित किया तथा उनकी सगुण भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुझाया।

वे ईश्वर को प्रेम तथा सौन्दर्य के रूप में मानते थे। उनका मानना था कि विष्णु सर्वेश्वर हैं। वे मनुष्य पर दया करके इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। रामानुज ‘राम’ को विष्णु का अवतार मानते थे और राम की पूजा पर जोर देते थे। उनका कहना था कि पूजा तथा भक्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।

रामानुज के प्रयासों से, सगुणोपासना करने वाले वैष्णव धर्म को सम्पूर्ण दक्षिण भारत में लोकप्रियता प्राप्त हुई एवं जनसाधारण तेजी से इस ओर आकर्षित होने लगा। उन्हें न केवल अपने धर्म की श्रेष्ठता में विश्वास हुआ अपितु भगवान के भक्त-वत्सल होने तथा भगवान द्वारा भक्तों की रक्षा करने के लिए दौड़कर चले आने में भी विश्वास हुआ।

रामानुज ने भक्ति के साथ-साथ ‘प्रपत्ति’ का मार्ग भी सुझाया। मोक्ष प्राप्ति के लिए यह मार्ग सबसे सरल है, क्योंकि इसमें ज्ञान, विद्याभ्यास तथा योग साधना की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर में पूर्ण विश्वास करके स्वयं को उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर देना ही ‘प्रपत्ति’ है। ईश्वर प्राप्ति का यह मार्ग समस्त मनुष्यों के लिए खुला था। इससे लाखों शूद्रों और अन्त्यजों के लिए भी हिन्दू-धर्म में बने रहने के लिए नवीन आशा का संचार हुआ। अब उन्हें धार्मिक तथा आध्यात्मिक सन्तोष के लिए दूसरा मार्ग ढूँढने की आवश्यकता न रही।

माधवाचार्य (मध्वाचार्य)

दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में माधवाचार्य (ई.1197-1278) वैष्णव परम्परा के बड़े आचार्य हुए। उनका जन्म ई.1197 में कन्नड़ जिले के उडिपी नगर के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपनी शारीरिक शक्ति के कारण वे भीम समझे जाते थे। उन्होंने युवावस्था में ही सन्यास ले लिया। वे भी रामानुज की भांति विष्णु के उपासक थे। उन्हें आनंदतीर्थ भी कहा जाता है तथा वायुदेव का अवतार माना जाता है।

उन्होंने शंकर के अद्वैतवाद का खण्डन करके वैष्णव-भक्ति परम्परा में ‘द्वैतवाद’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार ब्रह्म, जीव एवं माया तीनों के पृथक् अस्तित्व हैं और तीनों ही अक्षर हैं अर्थात् इनका कभी क्षरण नहीं होता। उन्होंने वेदान्त के निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर ‘विष्णु’ की प्रतिष्ठा की।

मध्वाचार्य में वाद-विवाद करने की अद्भुत योग्यता थी। अपने विचारों की पुष्टि के लिए उन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। मध्वाचार्य का ‘द्वैतवाद’ का सिद्धान्त रामानुज के ‘विशिष्टाद्वैत’ के सिद्धान्त से काफी मिलता-जुलता है। दोनों ईश्वर की भक्ति में विश्वास रखते हैं और विष्णु को ही ईश्वर मानते हैं।

अन्तर केवल इतना ही है कि रामानुज ने ईश्वर, जगत् और जीव, तीनों को सत्य, नित्य और अनादि माना तथा जीव और जगत् को अनिवार्य रूप से ईश्वर पर आश्रित माना। अर्थात् इनमें विशिष्ट प्रकार का द्वैत है। जबकि मध्वाचार्य जीव और जगत् को ईश्वर से सर्वथा भिन्न मानते हैं। मध्वाचार्य के विचार से अन्य समस्त तत्त्व ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उस पर आधारित हैं। केवल ईश्वर की ही अपनी स्वतन्त्र सत्ता है।

मध्वाचार्य का ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न है और उसका सम्पूर्ण ज्ञान मानव की शक्ति एवं समझ से परे है। ज्ञान द्वारा ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती। ईश्वर की प्राप्ति केवल भक्ति से हो सकती है। इसके लिए निष्काम कर्म, योग्य गुरु का मार्गदर्शन और ईश्वर की उपासना आवश्यक है। उनके विचार में मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य ‘हरि-दर्शन’ प्राप्त करना है। हरि-दर्शन से मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

निम्बार्काचार्य

रामानुज तथा माधवाचार्य के बाद निम्बार्क स्वामी ने बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म को नवीन गति दी। उनका जन्म मद्रास प्रान्त के वेलारी जिले में हुआ था। वे रामानुज के समकालीन थे। रामानुज की भांति निम्बार्क ने भी शंकाराचार्य के अद्वैतवाद का खण्डन किया किंतु निम्बाकाचार्य मध्यम मार्गी थे। वे द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद दोनों में विश्वास करते थे।

इस कारण उनका मत ‘द्वैताद्वैतवाद’ तथा ‘भेदाभेदवाद’ कहा जाता है। निम्बार्क के अनुसार जीव तथा ईश्वर व्यवहार में भिन्न हैं किन्तु सिद्धान्त्तः अभिन्न (एक) हैं। ब्रह्म इस विश्व का रचयिता है। निम्बार्काचार्य ‘कृष्ण-मार्गी’ थे और कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानते थे। उनके विचार से राधा-कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति एवं आत्मसमर्पण से मोक्ष मिल सकता है। निम्बार्क के मत को ‘सनक सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है।

सनक सम्प्रदाय में शरणागति का भाव तो स्वीकार्य था परन्तु ध्यान एवं योग आदि को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। निम्बार्क का कृष्ण समस्त अच्छे गुणों से युक्त तथा समस्त विकारों से परे है। उनका अवतारवाद में भी विश्वास था। उन्होंने नैतिकता के नियमों के पालन पर जोर दिया। निम्बार्क सम्प्रदाय ने जन साधारण को चमत्कार दिखाकर भक्ति में शक्ति होने का विश्वास दिलाया।

संत नामदेव

महाराष्ट्र के सन्तों में नामदेव का नाम अग्रणी है। उनका जन्म ई.1270 में एक दर्जी परिवार में हुआ। उनका विवाह बाल्यावस्था में ही कर दिया गया तथा पिता की मृत्यु के बाद परिवार का बोझ भी उनके कन्धों पर आ पड़ा। माता और पत्नी ने उन पर पैतृक व्यवसाय करने के लिए जोर डाला परन्तु नामदेव केवल हरि-कीर्तन करते रहे। कुछ समय बाद वे पण्ढरपुर में जाकर बस गए। यहाँ से वे भारत भ्रमण के लिए निकले। पंजाब आदि प्रान्तों में भक्ति का प्रचार करके वे पुनः पुण्ढरपुर आ गए।

नामदेव ने जनसाधारण को प्रेममयी-भक्ति का उपदेश दिया और परम्परागत रीति-रिवाज तथा जाति-पाँति के बन्धनों को हटाने का प्रयास किया। उनके शिष्यों में समस्त जातियों और वर्गों के लोग थे। नामदेव भी अन्य सन्तों की भाँति एकेश्वरवादी थे और मूर्ति-पूजा तथा पुरोहितों के नियन्त्रण के विरुद्ध थे। उनकी मान्यता थी कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। दक्षिण भारत की जनता पर नामदेव के उपदेशों का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों से अपनी बुराइयां त्यागने को कहा-

हिन्दू अन्धा, तुरको काना।

दूवौ तो ज्ञानी सयाना।

हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद,

नामा सोई सेविया जहं देहरा न मसीद।।

रामानन्दाचार्य

रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में 14वीं शताब्दी ईस्वी में रामानंद हुए जिन्हें वैष्णव परम्परा की धार्मिक क्रांति को दक्षिण से उत्तर भारत में ले आने का श्रेय प्राप्त है- ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानन्द।’ कुछ विद्वानों के अनुसार रामानंद का जन्म ई.1299 में प्रयाग के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ। उन्होंने बनारस में शिक्षा प्राप्त की तथा वहाँ स्वामी राघवानन्द से श्री सम्प्रदाय की दीक्षा ली।

रामानन्द ने बैकुण्ठवासी विष्णु के स्थान पर मानव शरीरधारी और राक्षसों का संहार करने वाले भगवान् राम को अपना आराध्य बनाया। उस समय हिन्दू समाज को एक ऐसे धर्म की आवश्यकात थी जो वीरत्व, त्याग एवं बलिदान के लिए प्रेरित कर सके। यद्यपि विष्णु के अवतार के रूप में भगवान राम को पहले से ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी परन्तु राम की भक्ति और उपासना का व्यापक प्रचार रामानन्द ने ही किया।

रामानन्द ने ‘ब्रह्मसूत्र’ पर ‘आनन्द भाष्य’ लिखा जिसमें ब्रह्म के रूप में श्रीराम को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ईश्वर के सगुण और निर्गुण, दोनों रूपों का समर्थन किया। उनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय ‘रामावत सम्प्रदाय’ कहलाता है। रामानन्दी लोग राम तथा सीता की पूजा करते हैं।

रामानंद रामानुज के ‘विशिष्ठ दर्शन’ में आस्था रखते थे और उन्होंने रामानुज के विचारों का समस्त उत्तर भारत में प्रचार किया। रामानुज, निम्बार्क और मध्वाचार्य के उपदेशों की भाषा संस्कृत थी किंतु रामानंद ने अपने उपदेश हिन्दी में दिए।

रामानन्द के विचार रामानुज के विचारों से भी अधिक क्रान्तिकारी थे। रामानुज चारों वर्णों और अनेक जातियों की एकता में विश्वास नहीं करते थे परन्तु रामानन्द जाति-प्रथा को नहीं मानते थे। रामानन्द ने जाति-पाँति और ऊँच-नीच का भेद नहीं माना और शूद्रों, मुसलमानों तथा स्त्रियों को भी अपना शिष्य बनाया। उनके पूर्व स्त्रियों को सार्वजनिक रूप से धार्मिक विचार-विमर्षों में भाग नहीं लेने दिया जाता था।

रामानन्द ने इस प्रतिबन्ध को नहीं माना। उनकी मान्यता थी कि राम के भक्त बिना भेदभाव के एक साथ खा-पी सकते हैं। भगवान के भक्तों के लिए वर्णाश्रम का बन्धन व्यर्थ है। परमेश्वर का एक ही गोत्र है और एक ही परिवार है। अतः समस्त विष्णु-भक्त भाई-भाई हैं और सबकी जाति एक है।

रामानंद के 12 शिष्यों में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित थे- अनन्तानन्द, सुखानन्द, योगानन्द, सुरसुरानन्द, गालवानन्द, नरहरि आनन्द, भावानन्द (सभी ब्राह्मण), कबीरदास (जुलाहा), पीपा (क्षत्रिय), रैदास (चमार), धन्ना (जाट) तथा सेन (नाई)। कुछ सूचियों में योगानंद तथा गालवानंद के स्थान पर पद्मावती तथा सुरसुरी नामक महिला शिष्याओं के नाम मिलते हैं।

कहा जाता है कि गंगा नामक एक वेश्या ने भी रामानंद से दीक्षा प्राप्त की। रामानंद के शिष्यों में से कुछ सगुणोपासक हुए तथा कुछ निर्गुणोपासक। ये सभी शिष्य मुस्लिम शासन काल में हिन्दू-धर्म को दृढ़ता देने वाले सिद्ध हुए। इनकी प्रेरणा से समाज के विभिन्न वर्गों एवं जातियों के करोड़ों लोग, अनेक विपत्तियां सहकर भी वैष्णव धर्म में बने रहे।

चूंकि रामानंद ने स्वर्ग में रहने वाले विष्णु के स्थान पर धरती पर विचरने वाले राम एवं सीता को अपना आराध्य बनाया, संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को उपदेशों का माध्यम बनाया तथा ब्राह्मण की जगह हर जाति के व्यक्ति को अपना शिष्य बनाया इसलिए उन्हें अपने पूर्ववर्ती वैष्णव आचार्यों अर्थात् रामानुज, माधवाचार्य तथा निम्बार्क से अधिक सफलता मिली। इस सफलता के आधार पर कई बार यह भी कह दिया जाता है कि मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन का सूत्रपात रामानन्द ने किया।

वल्लभाचार्य

महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म ई.1479 में दक्षिण भारत के एक तैलंग ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता एक उच्चकोटि के विद्वान् थे और उन्होंने बनारस को अपना कार्यक्षेत्र बना रखा था। 13 वर्ष की आयु में ही वल्लभाचार्य समस्त धर्मग्रन्थों में पारंगत हो गए। उनके विचारों पर विष्णु स्वामी के भक्ति-सिद्धान्तों का विशेष प्रभाव पड़ा। वल्लभाचार्य ने उनके विचारों को अधिक सुस्पष्ट करके उनका प्रचार किया। उन्हें अग्निदेव का अवतार माना जाता है।

उन्होंने सनातन धर्म के समक्ष ‘शुद्धाद्वैत’ सिद्धांत की संकल्पना प्रस्तुत की तथा पुष्टि सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्होंने अणुभाष्य, सिद्धान्त रहस्य और भागवत टीका सुबोधिनी आदि अनेक ग्रंथों की रचना करके अपने मत के समर्थन में दार्शनिक भावभूमि तैयार की तथा ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत् और श्रीमद्भगवद्गीता को पुष्टि मार्ग का प्रमुख साहित्य घोषित किया।

वल्लभाचार्य की मान्यता थी कि सृष्टि में तीन तत्व विद्यमान हैं- ब्रह्म, जगत् एवं जीव। आत्मा और जड़-जगत् ब्रह्म के ही स्वरूप हैं। ब्रह्म बिना किसी वस्तु अथवा शक्ति की सहायता से विश्व का निर्माण करता है, वह सगुण और सच्चिदानन्द है किंतु हमारी अविद्या के कारण वह हमें जगत् से अलग जान पड़ता है। इस अविद्या से मुक्ति पाने का मार्ग भक्ति है।

वल्लभाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद का विरोध करके यह सिद्ध किया कि जीव उतना ही सत्य है जितना कि ब्रह्म। फिर भी, वह ब्रह्म का अंश और सेवक ही है। उन्होंने कहा कि जीव भगवान् की भक्ति के बिना शान्ति नहीं पा सकता। भगवान का अनुग्रह होने पर जीव का पोषण होता है। व

ल्लभाचार्य के अनुसार ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं- आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी। अनंत दिव्य गुणों से युक्त पुरुषोत्तम श्री कृष्ण ही परमब्रह्म हैं। उनका मधुर रूप एवं लीलाएं, जीव में आनंद का आविर्भाव करने वाला अक्षय स्रोत है। सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म का विलास है तथा सम्पूर्ण जगत लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्मकृति है। उन्होंने प्रेम-लक्षणा-भक्ति पर विशेष बल दिया और वात्सल्य-रस से ओत-प्रोत भक्ति की शिक्षा दी।

वल्लभाचार्य का भगवत्-कृपा में अटूट विश्वास था। उनके अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं। उनकी सेवा एवं भक्ति ही जीव का परम कर्त्तव्य है। मनुष्य संसारिक मोह और ममता का त्याग करके एवं श्रीकृष्ण के चरणों में सर्वस्व समर्पण करके भक्ति के द्वारा ही उनका अनुग्रह प्राप्त कर सकता है।

उन्होंने भारत में कृष्ण-भक्ति का व्यापक प्रचार किया तथा भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को भक्ति का आधार बनाया ताकि जन साधारण, बाल-लीलाओं के गुणगान में रस का अनुभव कर सके और बालक के रूप में विहार करने वाले सहज-सरल ईश्वर के साथ अधिक तादात्म्य स्थापित कर सके। वल्लभाचार्य का लक्ष्य मुक्ति नहीं है। वह तो अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण के निकट पहुँचकर सदैव के लिए उनकी सेवा में रत रहना चाहते हैं।

वल्लभाचार्य के जीवन का अधिकांश समय ब्रज में व्यतीत हुआ। उन्होंने मथुरा के निकट गोवर्द्धन पर्वत से भगवान श्रीकष्ण का विग्रह प्राप्त कर उसकी स्थापना की। भगवान के इस प्राकट्य को उस काल की विलक्षण घटना माना गया तथा देश भर से विष्णु-भक्त, भगवान के इस विग्रह के दर्शनों के लिए गोवर्द्धन पर्वत पहुँचने लगे।

वल्लभाचार्य की प्रेरणा से देश भर में श्रीमद्भागवत् का पारायण होने लगा। वल्लभाचार्य के सैंकड़ों शिष्य थे जिनमें सूरदास भी सम्मिलित थे। वल्लभाचार्य के शिष्य पूरे देश में फैल गए और उन्होंने भजन-कीर्तन एवं अपनी रचनाओं के माध्यम से देश भर में कृष्ण-भक्ति का प्रचार किया। यद्यपि वल्लभाचार्य ने संसार के भोग-विलास  त्याग कर विरक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश दिया था परन्तु उनके अनुयायी इसका अनुसरण नहीं कर सके। ई.1531 में महाप्रभु वल्लभाचार्य का निधन हुआ।

सूरदास

सूरदास का जन्म सोलहवीं सदी में हुआ। वे वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे तथा भक्ति आंदोलन के महान संत थे किंतु वे उपदेशक अथवा सुधारक नहीं थे। उन्होंने अपने गुरु वल्लभाचार्य के निर्देश पर भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया तथा भागवत् पुराण में वर्णित लीलाओं को आधार बनाते हुए कई हजार सरस पदों की रचना की। इन पदों में भगवान कृष्ण के यशोदा माता के आंगन में विहार करने से लेकर उनके दुष्ट-हंता स्वरूप का बहुत सुंदर एवं रसमय वर्णन किया गया।

 सूरदास ने भ्रमर गीतों के माध्यम से निर्गुण भक्ति को नीरस एवं अनुपयोगी घोषित किया तथा न केवल सगुण भक्ति करने अपितु भक्त-वत्सल भगवान की रूप माधुरी का रसपान करने वाली भक्ति करने का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी रचनाएँ- सूरसागर, सूरसारावली एवं साहित्य लहरी में संकलित हैं। उनकी रचनाएं ब्रज भाषा में हैं। ब्रजभाषा में इतनी प्रौढ़ रचनाएं सूरदास के अतिरिक्त अन्य कोई कवि नहीं कर सका।

सूरदास की रचनाओं में भक्ति, वात्सल्य और शृंगार रसों की प्रधानता है। पुष्टि मार्ग में दीक्षित होने से सूरदास की भक्ति में दास्य भाव एवं सखा भाव को प्रमुखता दी गई है। उन्होंने सूरसागर का आरम्भ ‘चरण कमल बन्दौं हरि राई’ से किया है। इन पदों को देश-व्यापी लोकप्रियता अर्जित हुई तथा जन-सामान्य को अनुभव हुआ कि भक्ति के बल पर भगवान को अपने आंगन में बुलाया जा सकता है। उन्हें संकट के समय पुकारा जा सकता है और अपने शत्रु से त्राण पाने में सहायता ली जा सकती है। परमात्मा की शक्ति से ऐसे नैकट्य भाव का अनुभव इससे पूर्व किसी अन्य सम्प्रदाय द्वारा नहीं कराया गया था।

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