Saturday, April 20, 2024
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215. अंग्रेज अधिकारियों ने शहजादों एवं सलातीनों को ढूंढ-ढूंढकर मारा!

जब दिल्ली शहर की तलाशी का काम पूरा हो गया तो दिल्ली से बाहर निकलकर शहजादों एवं सलातीनों को ढूंढा जाने लगा। अक्टूबर और नवम्बर में शहजादों और सलातीनों की तलाश तेज कर दी गई। सबसे पहले जफर के दो छोटे बेटों अठारह साल के मिर्जा बख्तावर शाह और सत्रह साल के मिर्जा मियादूं को पकड़ा गया। इन दोनों ने मेरठ के दस्ते और एलेक्जेंडर पलटन का नेतृत्व किया था। उन पर जे. एफ. हैरियेट ने मुकदमा चलाया और उनको सजा-ए-मौत दी गई।

ओमैनी ने 12 अक्टूबर को अपनी डायरी में लिखा कि जब वाटरफील्ड नामक सैनिक ने उन दोनों शहजादों को बताया कि कल तुम्हें मौत की सजा दी जाएगी तो उन दोनों को कोई फर्क ही नहीं पड़ा। अगले दिन उन्हें एक बैलगाड़ी में बाहर मैदान में एक तोपचियों के दस्ते के पीछे ले जाया गया। जब वे किले के सामने रेत के मैदान में सजा ए मौत की जगह पहुंचे तो सिपाहियों ने कतार बांध ली। उन दोनों को गाड़ी से निकाला गया और उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई और बारह राइफल वाले सिपाहियों को आदेश मिला के वे बारह हाथ के फासले पर खड़े हो जाएं।

लेकिन फायरिंग दल के गोरखा सिपाहियों ने जानबूझकर राइफल नीची करके गोली चलाई ताकि मौत आहिस्ता-आहिस्ता और तकलीफ देह हो, जब दोनों शहजादे गोली लगने से तड़पने लगे तो सिपाहियों के इंचार्ज ऑफीसर से शहजादों की तकलीफ देखी नहीं गई और उसने अपनी पिस्तौल से उन दोनों शहजादों को गोली मारकर खत्म कर दिया।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

बहादुरशाह जफर के अधिकतर बेटों और पोतों के साथ देर-सवेर यही होना था। मेजर विलियम आयरलैण्ड का कहना था कि शहजादों के पास भागने के काफी अवसर थे किंतु वे दिल्ली के आसपास के इलाकों में ही घूमते हुए पकड़े गए। कुल मिलाकर शाही परिवार के उन्तीस बेटे पकड़े गए और मार डाले गए। शाही परिवार के इतने सदस्यों का सफाया हो गया कि मिर्जा गालिब ने लाल किले का नाम किला ए मुबारक के स्थान पर किला ए नामुबारक रख दिया।

जफर के केवल दो बेटे भागने में सफल रहे। जिस समय मिर्जा बख्तावर शाह और मिर्जा मियादूं पकड़े गए थे उसके कुछ समय बाद ही मिर्जा अब्दुल्लाह और मिर्जा क्वैश को भी बंदी बना लिया गया। ये दोनों शहजादे यह सोचकर हुमायूँ के मकबरे में जाकर छिप गए थे कि यहाँ की तलाशी दो बार ली जा चुकी है और अब अंग्रेज सिपाही यहाँ नहीं आएंगे किंतु एक दिन विलियम हॉडसन, हॉडसन्स हॉर्स के सिक्ख सिपाहियों को लेकर शाही परिवार के सदस्यों एवं बागियों की खोज करता हुआ फिर से वहाँ आ पहुंचा और उसने इन दोनों शहजादों को पहचान लिया।

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उर्दू के लेखक अर्श तैमूरी ने ‘दिल्ली की जबानी बयान की रवायत’ में इन शहजादों की गिरफ्तारी का उल्लेख करते हुए लिखा है- ‘एक सिक्ख रिसालदार को उन नौजवान लड़कों पर तरस आ गया और उसने अंग्रेज अधिकारी की दृष्टि बचाकर उन दोनों शहजादों को भगा दिया। मिर्जा क्वैश निजामुद्दीन में अपने बहनोई के पास गया और उसे बताया कि वह हॉडसन की कैद से भाग कर आया है। इस पर उसके बहनोई ने कहा कि आप यहाँ से तुरंत भाग जाओ।’

विलियम हॉडसन ने लिखा है कि शहजादे मिर्जा क्वैश ने अपना सिर मुंडवा लिया और अपने शाही कपड़े उतार कर एक लुंगी बांध ली। वह एक फकीर का भेस बनाकर किसी तरह उदयपुर पहुंच गया। वहाँ उसे महाराणा के महल का एक मुसलमान कर्मचारी मिला जो पहले दिल्ली के लाल किले में ख्वाजासरा का काम कर चुका था। इसके बाद मिर्जा क्वैश जीवन भर इसी भेस में उदयपुर में रहा।

उस ख्वाजासरा ने उदयपुर के शासक से यह कहकर मिर्जा क्वैश की तन्ख्वाह बंधवा दी कि यह फकीर यहीं रह जाएगा तथा आपकी जानो-माल के लिए दुआ करेगा। महाराणा ने उस कर्मचारी की बात मान ली और उसकी दो रुपए प्रतिदिन की तन्खवाह बांध दी। हॉडसन ने मिर्जा क्वैश की खोज में विज्ञापन छपवाए जिससे कुछ लोगों को उस फकीर पर संदेह हो गया और उसकी जानकारी हॉडसन तक पहुंच गई किंतु जब हॉडसन के सिपाही मिर्जा क्वैश की खोज में उदयपुर आए तो क्वैश कुछ समय के लिए वहाँ से गायब हो गया।

शहजादा मिर्जा अब्दुल्लाह टोंक रियासत में भाग गया। वहाँ अंग्रेजों के विश्वस्त मुस्लिम नवाब का शासन था फिर भी मिर्जा अब्दुल्लाह भेस बदलकर अपनी पहचान छिपाने में सफल रहा। शहजादों के पकड़े जाने पर उन्हें दी जाने वाली सजा निश्चित नहीं थी। प्रत्येक शहजादे अथवा शाही परवार के सदस्य पर अगल-अलग मुकदमा चलता था और उन्हें अलग-अलग सजा सुनाई जाती थी। जिनके बारे में किंचित् भी संदेह होता था कि ये क्रांति से सम्बद्ध रहे थे, उन्हें तुरंत मौत की सजा दे दी जाती थी। उनमें से बहुतों का इस क्रांति से कोई लेना-देना नहीं था, फिर भी उनका इतना दोष अवश्य था कि वे बाबर के खानदान में पैदा हुए थे!

अब तक बाबर तथा उसके बेटे-पोते ही भारत के लोगों पर अत्याचार करते आए थे किंतु यह पहली बार था जब बाबर के खून को बाबर की ही राजधानी में जी भर कर दण्डित किया जा रहा था। कुछ शहजादों को फांसी दी गई और कुछ को अंडमान द्वीप की जेल में काला पानी भुगतने के लिए भेज दिया गया। कुछ को हिन्दुस्तान में ही देश-निकाला दे दिया गया। अर्थात् वे भारत में कहीं भी रह सकते थे किंतु अपने जीवन में फिर कभी दिल्ली में प्रवेश नहीं कर सकते थे। किसी भी शहजादे या सलातीन को दिल्ली में रहने की अनुमति नहीं दी गई चाहे उसने अपने निर्दोष होने के कितने ही प्रमाण क्यों न प्रस्तुत किए हों!

हालांकि अंग्रेजों के गुप्तचर विभाग के अधिकारियों का मानना था कि कम से कम पांच शहजादे भेस बदल कर कुछ दिन बाद ही दिल्ली में लौट आए और दिल्ली की जनता के बीच छिपकर रहने लगे। उन्हें पहचाना नहीं जा सका।

शाही परिवार के उन सदस्यों को जिनका कि कोई दोष नहीं था, आगरा, कानपुर और इलाहाबाद की जेलों में भेज दिया गया। बहुत से शहजादों को बर्मा के मौलामेन नामक शहर की जेलों में भेज दिया गया। इनमें एक शहजादा या सलातीन तो निरा बालक ही था और एक शहजादा या सलातीन नितांत बूढ़ा था। एक सलातीन विकलांग भी था किंतु इनमें से किसी पर दया नहीं की गई। शाही परिवार के बहुत से सदस्य आराम की जिंदगी जीने के अभ्यस्त थे। इसलिए उनमें से बहुत से सदस्य साल दो साल में ही जेलों में मर गए। पंद्रह शहजादे तो केवल 18 महीनों की अवधि में ही मर चुके थे।

वर्ष 1859 में दिल्ली के तत्कालीन कमिश्नर चार्ल्स साण्डर्स ने इन शहजादों एवं सलातीनों के बारे में एक जांच रिपोर्ट तैयार की जिसमें उसने लिखा कि अधिकांश शहजादों और सलातीनों का कोई दोष नहीं था किंतु बहुत से अंग्रेजों का मानना था कि उन्हें इसलिए कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी कि वे तैमूरी खानदान के थे। साण्डर्स की जांच रिपोर्ट में यह भी पता चला कि जिन शहजादों या सलातीनों को कोर्ट ने बर्मा भेजने के आदेश दिए थे, उन्हें कुछ जालिम अंग्रेज अधिकारियों ने अण्डमान भेज दिया था।

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