Monday, October 7, 2024
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अध्याय -16 – बौद्ध धर्म तथा भारतीय संस्कृति पर उसका प्रभाव (ब)

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त

बौद्ध धर्म के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार थे-

चार आर्य सत्य (चत्वारि आर्य सत्यानि)

बौद्ध धर्म की आधारशिला है, उसके चार आर्य सत्य। उसके अन्य समस्त सिद्धान्तों का विकास इन्हीं चार आर्य-सत्यों के आधार पर हुआ है। ये चार आर्य सत्य निम्नलिखित प्रकार से हैं-

(1.) सर्वं दुःखम्: सर्वं दुःखम् अर्थात् हर जगह दुःख है। महात्मा बुद्ध ने सम्पूर्ण मानवता को ना-ना प्रकार के दुःखों से संत्रस्त देखा। इसलिए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानव तथा मानवेतर जीवन ही दुःख है। जन्म के साथ कष्ट होता है, नाश भी कष्टमय है, रोग कष्टमय है, मृत्यु कष्टमय है, अरुचिकर से संयोग कष्टमय है, सुखकर से वियोग कष्टमय है, जो भी वासना असंतुष्ट रह जाती है, वह भी कष्टप्रद है।

राग से उत्पन्न पंचस्कंध ही कष्टमय है। समस्त संसार में आग लगी है तब आनंद मनाने का अवसर कहाँ है! सुख मनाने से दुःख उत्पन्न होता है। इन्द्रिय-सुख के विषयों में खो जाने से भी दुःख उत्पन्न होता है। महासागरों में जितना जल है उससे अधिक आंसू तो मानवों ने बहाए होंगे। पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ मनुष्य पर मृत्यु हावी न हो। दुःख के तीर से घायल मनुष्य को उसे निकाल देना चाहिए।

जीवन दुःखों से परिपूर्ण ळै। सभी उत्पन्न वस्तुएं दुःख और कष्ट हैं। जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, शोक, क्लेश, आकांक्षा और नैराश्य सभी आसक्ति से उत्पन्न होते हैं। अतः ये सब भी दुःख हैं। इस प्रकार हर ओर दुःख है।

(2.) दुःख समुदयः- दुःख समुदयः अर्थात् दुःख का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार जन्म-मरण के चक्र को चलाने वाली तृष्णा दुःखों का मूल कारण है। यह तृष्णा तीन प्रकार की है- (1.) काम-तृष्णा- इन्द्रिय सुखों के लिए, (2.) भव-तृष्णा- जीवन के लिए,

(3.) विभव-तृष्णा- वैभव के लिए। उनका कहना था कि यह तृष्णा पुनर्भव को करने वाली, आसक्ति और राग के साथ चलने वाली और यत्र-तत्र रमण करने वाली है। यह वैसे ही है जैसे कि काम-तृष्णा या भव तृष्णा। इस तृष्णा का जन्म कैसे होता है?

इसका समाधान करते हुए बुद्ध ने कहा- ‘रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श तथा मानसिक वितर्क और विचारों से जब मनुष्य आसक्ति करने लगता है तो तृष्णा का जन्म होता है। सभी दुःख उपाधियों से उत्पन्न होते हैं जो कि अविद्या के कारण हैं। अविद्या, दुःखों का मूल है और जीवैष्णा के कारण है।’

(3.) दुःख निरोध- दुःख निरोध अर्थात् दुःखों का नाश संभव है।  जिस प्रकार संसार में दुःख हैं और दुःखों के कारण हैं, उसी प्रकार, दुःखों का नाश भी सम्भव है। बुद्ध की दृष्टि में तृष्णाओं के मूलोच्छेदन से दुःखों से छुटकारा मिल सकता है। उनका कहना था- ‘संसार में जो कुछ भी प्रिय लगता है, संसार में जिससे रस मिलता है उसे जो दुःखस्वरूप समझेंगे और उससे डरेंगे वे ही तृष्णा को छोड़ सकेंगे। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का विरोध ही दुःख निरोध है।’

(4.) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् (दुःखनिरोध मार्ग): दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् अर्थात् दुःखों के नाश के उपाय भी हैं। बुद्ध के अनुसार ‘अष्टांगपथ’ अथवा ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ पर चलकर कोई भी व्यक्ति दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसमें आठ अंगों की व्यवस्था है। इस मार्ग को ‘दुःख निरोधगामिनि प्रतिपद्’ तथा ‘दुःख निरोध मार्ग’ भी कहा जाता है।

आर्य अष्टांगिक मार्ग

इसे अष्टांग पथ भी कहते हैं। अष्टांग पथ ‘बौद्ध धर्म का नीति-शास्त्र’ है। यह मध्यम मार्ग है। इसमें आत्मासक्ति रखना और स्वयं को कष्ट देना दोनों का ही निषेध है। इस प्रकार महात्मा बुद्ध ने आध्यात्मिक और नैतिक दोनों दृष्टि से मध्यम मार्ग अपनाया। दो ऐसी सीमाएं हैं जिनका अनुसरण कभी नहीं करना चाहिए- (1.) इन्द्रिय विषयों के सुखों और वासनाओं की पूर्ति का निम्नतम मार्ग। (2.) दूसरा आत्मा को कष्ट देने की आदत। ये दोनों ही त्याज्य एवं कष्टमय हैं।

बुद्ध के अनुसार ‘अष्टांग मार्ग मनुष्य की आंख खोलता है और बुद्धि प्रदान करता है, जो शांति, अन्तर्दृष्टि, उच्च प्रज्ञा और निर्वाण की ओर ले जाता है।’ अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग इस प्रकार से हैं-

(1.) सम्मादिट्ठि (सम्यक् दृष्टि): अविद्या के कारण संसार तथा आत्मा के सम्बन्ध में मिथ्या दृष्टि प्राप्त होती है। सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, सदाचार और दुराचार में भेद करना ही सही सम्यक् दृष्टि है। इसी से चार आर्य सत्यों का सही ज्ञान प्राप्त होता है। यह ज्ञान श्रद्धा और भावना से युक्त होना चाहिए। सम्यक् दृष्टि चारों आर्य सत्यों का ‘सत्’ ध्यान है जो निर्वाण की ओर ले जाता है।

(2.) सम्मा संकप्प (सम्यक संकल्प): सम्यक् संकल्प का अर्थ इन्द्रिय सुखों से लगाव तथा दूसरों के प्रति बुरी भावनाओं और उनको हानि पहुँचाने वाले विचारों का मूलोच्छेदन करने का निश्चय है। कामना और हिंसा से मुक्त आत्म-कल्याण का पक्का निश्चय ही सम्यक संकल्प है। सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प में परिवर्तित होनी चाहिए।

(3.) सम्मा वाचा (सम्यक वाणी): सम्यक् संकल्प से हमारे वचनों का नियंत्रण होना चाहिए। सत्य, विनम्र और मृदु वचन तथा वाणी पर संयम ही सम्यक वाणी है। प्रत्येक को अधम्म (अशुभ) से बचकर धम्म (शुभ) ही बोलाना चाहिए। शत्रुता को कठोर शब्दों से नहीं अपितु अच्छी भावनाओं से दूर किया जा सकता है। मन को शांत करने वाला एक हितकारी शब्द हजारों निरर्थक शब्दों से अच्छा है।

(4.) सम्मा कम्मन्त (सम्यक् कर्मान्त): सब कर्मों में पवित्रता रखना। हिंसा, द्रोह तथा दुराचरण से बचते रहना और सत्कर्म करना ही सम्यक् कर्मान्त है। जीवनाश, चोरी, कामुकता, झूठ, अतिभोजन, सामाजिक मनोरंजन, प्रसाधन, आभूषण धारण करना, आरामदेह बिस्तरों पर सोना तथा सोना चांदी उपयोग में लाना आदि दुराचरणों से बचना ही सम्यक् कर्मान्त है।

(5.) सम्मा आजीव (सम्यक् आजीव): न्यायपूर्ण मार्ग से आजीविका चलाना। जीवन-निर्वाह से निषिद्ध मार्गों का त्याग करना ही सम्यक् आजीव है। अस्त्र-शस्त्र, पशु, गोश्त, शराब और जहर आदि का व्यापार नहीं करना चाहिए। दबाव, धोखा, रिश्वत, अत्याचार, जालसाजी, डकैती, लूट, कृतघ्नता आदि से जीविकोपार्जन नहीं करना चाहिए।

(6.) सम्मा वायाम् (सम्यक् व्यायाम): इसे सम्यक् प्रयत्न भी कहते हैं। इसका अर्थ है सत्कर्मों के लिए निरन्तर उद्योग करते रहना। इसमें आत्म संयम्, इन्द्रिय निग्रह, शुभ विचारों को जाग्रत करने और मन को सर्वभूतहित पर जमाए रखने का ‘सत्’ प्रयत्न करना शामिल है।

(7.) सम्मासति (सम्यक स्मृति): सम्यक् समाधि के लिए सम्यक् स्मृति आवश्यक है। इसमें शरीर की अशुद्धियों, संवेदना, सुख, दुःख और तटस्थ वृत्ति का स्वभाव, लोभ, घृणा और भ्रमयुक्त मन का स्वभाव, धर्म, पंचस्कंधों, इन्द्रियों, इन्द्रियों के विषयों, बोधि के साधनों तथा चार आर्यसत्यों का स्मरण सम्मिलित है। सम्यक् स्मृति का अर्थ शरीर, चित्त, वेदना या मानसिक अवस्था को उनके यथार्थ रूप में स्मरण रखना है।

 उनके यथार्थ स्वरूप को भूल जाने से मिथ्या विचार मन में घर कर लेते हैं और उनके अनुसार क्रियाएं होने लगती हैं, आसक्ति बढ़ती है और दुःख सहन करना पड़ता है। सम्यक् स्मृति से आसक्ति नष्ट होकर दुःखों से छुटकारा मिलता है तथा मनुष्य सम्यक् समाधि में प्रवेश के योग्य हो जाता है।

(8.) सम्मा समाधि (सम्यक् समाधि): राग-द्वेष से रहित होकर चित्त की एकाग्रता को बनाए रखना ही सम्यक् समाधि है। निर्वाण तक पहुँचने से पूर्व सम्यक् समाधि की चार अवस्थाएं आती हैं-

(i.) पहली अवस्था में शांत चित्त से चार आर्य सत्यों पर विचार किया जाता है। विरक्ति तथा शुद्ध विचार अपूर्व आनंद प्रदान करते हैं।

(ii.) दूसरी अवस्था में मनन आदि प्रयत्न दब जाते हैं, तर्क-वितर्क अनावश्यक हो जाते हैं, संदेह दूर हो जाते हैं और आर्य-सत्यों के प्रति निष्ठा बढ़ती है। इस अवस्था में आनंद तथा शांति का अनुभव होता है।

(iii.) तीसरी अवस्था में तटस्थता आती है। मन को आनंद तथा शांति से हटाकर उपेक्षाभाव लाने का प्रयत्न किया जाता है। इससे चित्त की साम्यावस्था रहती है परन्तु समाधि में आनंद के प्रति उदासीनता आ जाती है।

(iv.) चौथी अवस्था पूर्ण शांति की है जिसमें सुख-दुःख नष्ट हो जाते हैं। चित्त की साम्यावस्था, दैहिक सुख और ध्यान का आनंद आदि किसी बात का ध्यान नहीं रहता अर्थात् चित्त-वृत्तियों का निरोध हो जाता है। यह पूर्ण शांति, पूर्ण विराग और पूर्ण निरोध की अवस्था है। इसमें दुःखों का सर्वथा निरोध होकर अर्हंत पद अथवा निर्वाण प्राप्त हो जाता है। यह पूर्ण प्रज्ञा की अवस्था है।

मध्यमा प्रतिपदा

दुःख से छुटकारा पाने के लिए महात्मा बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग बताया। वह विशुद्ध आचार-तत्त्वों पर आधारित था। उसमें न तो शारीरिक कष्ट एवं क्लेश से युक्त कठोर तपस्या को उचित बताया गया और न ही अत्यधिक सांसारिक भोग विलास को। वस्तुतः वह दोनों अतियों के बीच का मार्ग था। इसलिए उसे मध्यमा-प्रतिपदा भी कहा गया है। इसके पालन से मनुष्य निर्वाण-पथ की ओर अग्रसर हो सकता है।

शील, समाधि और प्रज्ञा

अष्टांग-पथ का अनुसरण करने से मनुष्य के भीतर शील, समाधि और प्रज्ञा का उदय होता है जो कि बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग के तीन प्रधान अंग हैं। अखण्ड समाधि से ‘प्रज्ञा’ का उदय होता है। ‘प्रज्ञा’ पदार्थ ज्ञान है। प्रज्ञा का स्थान बौद्धिक स्थान से बहुत ऊँचा है। प्रज्ञा से कामासव, भवासव और अविद्यासव का नाश होता है तथा यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है जिसके बिना सदाचार असम्भव है और सदाचार के बिना ज्ञान की पूर्णता असम्भव है।

दस शील

 महात्मा बुद्ध ने शील या नैतिकता पर अत्यधिक बल दिया। उन्होंने अपने अनुयाइयों को मन, वचन और कर्म से पवित्र रहने को कहा। इसके लिए उन्होंने दस शील का पालन करने को कहा। इन्हें हम सदाचार के नियम भी कह सकते हैं। दस शील इस प्रकार से हैं-

(1.) अहिंसा व्रत का पालन करना,

(2.) सदा सत्य बोलना,

(3.) अस्तेय अर्थात् चोरी न करना,

(4.) अपरिग्रह अर्थात् वस्तुओं का संग्रह न करना,

(5.) ब्रहाचर्य अर्थात् भोग विलास से दूर रहना,

(6.) नृत्य का त्याग, 

(7.) सुगन्धित पदार्थों का त्याग, 

(8.) असमय में भोजन का त्याग,

(9.) कोमल शय्या का त्याग,

(10.) कामिनी एवं कंचन का त्याग।

सदाचार के दस नियमों में से प्रथम पाँच नियम, महावीर स्वामी के पाँच अणुव्रतों के समान हैं। बुद्ध के अनुसार इन पाँच नियमों का पालन करना गृहस्थ, साधु तथा उपासकों आदि सबके लिए आवश्यक है। इनका पालन करते हुए सांसारिक रहकर भी मनुष्य सन्मार्ग की ओर बढ़ सकता है। अर्थात् बुद्ध ने गृहस्थ लोगों को भी उज्जवल भविष्य का आश्वासन दिया किंतु जो व्यक्ति संसार की मोह-माया छोड़कर भिक्षु-जीवन बिताता है, उसके लिए शील के समस्त दस नियमों का पालन करना आवश्यक है। इस प्रकार, शील के नियमों का पालन करने में गृहस्थों की अपेक्षा भिक्षुओं के लिए कड़े नियम बनाए गए थे।

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