Thursday, April 18, 2024
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मिर्जा राजा जयसिंह का अभियान (8)

जब शिवाजी के विरुद्ध औरंगजेब के सारे बाण खली चले गए तो उसने मिर्जा राजा जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजने का निर्णय लिया। इस समय हिन्दू राजाओं में केवल कच्छवाहे ही मुगलों के सच्चे हितैषी बने हुए थे।

सूरत से लौटने के एक सप्ताह बाद रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी को अपने पिता शाहजी के निधन का समाचार मिला। शाहजी 23 जनवरी 1664 को शिकार खेलते हुए आकस्मिक दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त हुआ था। शाहजी के निधन का समाचार सुनकर जीजाबाई ने सती होने का निर्णय लिया किंतु शिवाजी और समर्थ गुरु रामदास ने बड़ी कठिनाई से जीजा को सती होने से रोका।

स्वर्गीय पिता की अंतिम क्रियाओं से निवृत्त होकर शिवाजी ने फिर से मुगलों पर धावा बोल दिया। सूरत के बाद शिवाजी ने औरंगाबाद तथा अहमदनगर के बीच स्थित मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण किए तथा अपने कई दुर्ग मुगलों से वापस छीन लिए।

दक्षिण का मुगल सूबेदार मुअज्जम, औरंगजेब का पुत्र था किंतु वह शिवाजी के विरुद्ध कुछ नहीं कर पा रहा था। शिवाजी के जहाजी बेड़े ने सूरत से मक्का जाने वाले यात्री जहाजों से भी छेड़छाड़ आरम्भ कर दी तथा मुगलों के क्षेत्र उजाड़ने आरम्भ कर दिए क्योंकि पूना का लालमहल अब भी मुगलों के अधिकार में था। अक्टूबर 1664 में शिवाजी ने बीजापुर के अधीन वेंगुर्ला नगर को लूट लिया।

इसके बाद उसने खवास खाँ पर हमला किया तथा उसे भी क्षति पहुंचाई। मुधौल का जागीरदार बाजी घोरपड़े सेना और धन लेकर खवास खाँ की सहायता के लिए आया। शिवाजी ने प्रत्यक्ष युद्ध में घोरपड़े को मार डाला। यह वही बाजी घोरपड़े था जिसने ई.1648 में शिवाजी के पिता शाहजी को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करके शाहजी को बंदी बनाया था और आदिलशाह को सौंप दिया था।

ज्ञातव्य है कि शिवाजी का पूर्वज सज्जनसिंह अथवा सुजानसिंह चौदहवीं शताब्दी में मेवाड़ से चलकर दक्षिण में आया था, उसकी सातवीं पीढ़ी के वंशज भीमसिंह को बहमनी राज्य के सुल्तान ने राजा घोरपड़े की उपाधि एवं मुधौल में 84 गांवों की जागीर प्रदान की थी।

शाहजी एवं मुधौल का वर्तमान जागीरदार बाजी, उसी घोरपड़े जागीरदार के वंशज थे किंतु राजनीति की टेढ़ी चाल ने दोनों को एक दूसरे का घोर शत्रु बना दिया था। बाजी घोरपड़े जो धन खवास खाँ को देने लाया था, वह धन शिवाजी ने छीन लिया।

मुगलों को अपनी शक्ति का अनुमान कराने के पश्चात् ई.1664 में शिवाजी ने औरंगजेब को पत्र लिखा

”बादशाह ने अकारण ही अपने सेनापतियों को मेरा देश उजाड़ने के लिए भेजा और मेरे दुर्ग तथा महलों पर अधिकार कर लिया। आपके सेनापति अफजल खाँ को नष्ट कर दिया गया है तथा शाइस्ता खाँ को अपमनाति करके लौटा दिया गया है। मैं अपने देश की रक्षा कर रहा हूँ जो कि मेरा धर्म है। मेरे देश के आक्रांताओं को सदैव ही पराजय का मुख देखना पड़ा है।

इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद है। मैं आपका सूचित करना चाहूंगा कि मेरा घर (राज्य) पहले जैसा असुरक्षित नहीं है, जब आपकी सेनाओं ने इसे अपने अधिकार में ले लिया था। आज मेरे देश (राज्य) में 600 मील लम्बी और 120 मील चौड़ी, ऊंची पर्वतमाला है तथा 60 अेजय दुर्ग इसकी रक्षा करते हैं। मेरा सुझाव है कि आप मुझे या किसी अन्य को अकारण ही युद्ध में न घसीटें।

आपका हितैषी- शिवाजी।”

औंरंगजेब ने मुस्लिम सूबेदारों के विफल हो जाने पर, एक हिन्दू राजा को, दूसरे हिन्दू राजा के विरुद्ध कार्यवाही करने के उद्देश्य से दक्षिण के सूबेदार मुअज्जम के स्थान पर आम्बेर नरेश जयसिंह को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया तथा दिलेर खाँ को उसका सहायक बनाकर भेजा। जयसिंह के साथ बुंदेला राजाओं को भी दक्षिण में भेजा गया।

मार्च 1664 में महाराजा जयसिंह ने पूना पहुंचकर अपना शिविर लगाया तथा शिवाजी पर शिकंजा कसना आरम्भ किया। 30 मार्च 1665 को जयसिंह ने पुरंदर का दुर्ग सहित अनेक दुर्ग घेर लिए। जयसिंह ने शिवाजी के पास संदेश भिजवाया कि वह मुगलों से संधि कर ले। इससे शिवाजी के रुतबे में भारी वृद्धि होगी।

इस समय पुरंदर के दुर्ग में 4000 सैनिक और 3000 किसान शरण लिए हुए थे। 27 अप्रेल 1665 को मुगल सेना ने रोहिड़ा दुर्ग के आस पास के लगभग 50 गांवों में आग लगा दी। पहाड़ों में स्थित चार गांवों को मिट्टी में मिला दिया तथा बहुत से निरीह लोगों को बंदी बना लिया।

जयसिंह की सेनाओं ने 2 मई 1665 को कोंडाणा दुर्ग के निकटवर्ती गांवों को जला दिया। 5 मई 1665 को कुतुबुद्दीन खां ने किमवारी दुर्ग के निकटवर्ती गांवों को जलाकर राख कर दिया। उसी दिन मुगलों ने लौहगढ़ के नीचे बसी घनी बस्ती वाले गांवों में भी आग लगा दी। मुगलों ने रुद्रमल पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार शिवाजी की प्रजा में चारों ओर हा-हाकार मच गया। शिवाजी का विश्वस्त सेनानायक मुरार बाजी, मुगलों से लड़ता हुआ काम आया।

एक तरफ से मुगल सेनाएं प्रजा पर कहर बरपा रही थीं और दूसरी ओर जयसिंह ने शिवाजी के कुछ सहायकों को धन देकर अपनी तरफ मिला लिया। इससे पुरंदर दुर्ग में रह रहे लोगों के भीषण रक्तपात की आशंका उत्पन्न हो गई। शिवाजी ने जयसिंह को कई बार पत्र लिखकर संधि के प्रस्ताव भिजवाए किंतु जयसिंह, शिवाजी के पूर्ण समर्पण से कम पर बात नहीं करना चाहता था।

जयसिंह की कूटनीतिक चालों और सैन्य दबाव के चलते 11 मई 1665 को शिवाजी पांच-छः ब्राह्मण मंत्रियों को लेकर अचानक निहत्था ही जयसिंह के सैन्य शिविर के निकट प्रकट हुआ। उसके आने की सूचना मिलते ही मुगलों में बेचैनी छा गई और वे किसी अनहोनी के घटने की प्रतीक्षा करने लगे। शिवाजी ने अपने मंत्रियों के हाथों, जयसिंह से मिलने का अनुरोध भिजवाया।

जयसिंह ने दिलेर खाँ के भय से शिवाजी से भेंट नहीं की तथा उसे अपने पुत्र के साथ, दिलेर खाँ के पास भेज दिया। यद्यपि दिलेर खाँ, महाराजा के अधीन काम कर रहा था किंतु यह चुगलखोर कभी भी कोई झूठी सूचना भेजकर महाराजा की तरफ से बादशाह का दिल फेर सकता था। दिलेर खाँ जयसिंह के इस कार्य से प्रसन्न हुआ तथा स्वयं ही शिवाजी को लेकर जयसिंह के डेरे पर पहुंचा। जयसिंह के कहने पर दिलेर खाँ ने शिवाजी को जयसिंह की सुरक्षा में सौंप दिया।

एकांत होने पर शिवाजी ने जयसिंह से कहा

”मैं ये समस्त कार्यवाहियां हिन्दुत्व की रक्षा के लिए कर रहा हूँ तथा महाराजा जयसिंह को चाहिए कि राष्ट्रीय महत्व के इस कार्य में वह भी मेरा साथ दे। बादशाह की सेनाओं ने प्राचीन हिंदू मंदिरों को तोड़ डाला है तथा देव मूर्तियों को अपमानित एवं खण्डित करके हिन्दू जाति पर जजिया लाद दिया है। तीर्थ यात्राओं को तंग किया जाता है।”

जयसिंह ने कहा कि कुछ भी हो बादशाह हमारा स्वामी है, हमें उसकी अधीनता स्वीकार करनी चाहिए। इस पर शिवाजी ने जयसिंह से कहा-

”क्या शाहजहाँ और उसका पुत्र दारा शिकोह आपके स्वामी नहीं थे! क्या उनकी रक्षा करना आपका धर्म नहीं था! उन दोनों ने सारी उम्र आपसे प्रेम किया था किंतु आप उन्हें त्यागकर औरंगजेब के पक्ष में क्यों हो गए! आज मुगलों का राज्य, राजपूतों के भरोसे ही चल रहा है। आप हिन्दुओं का उत्पीड़न करने वाले बादशाह का साथ छोड़ दें। इससे देश का भला होगा।”

इन बातों का जयसिंह पर कोई प्रभाव नहीं हुआ तथा वह शिवाजी पर संधि करने के लिए दबाव डालता रहा। उसने शिवाजी को मराठों के रक्तपात से बचाने का यही एकमात्र उपाय बताया। शिवाजी के बहुत से दुर्ग इस समय मुगलों के घेरे में थे। स्वयं शिवाजी निहत्थे मुगलों के शिविर में थे।

एक तरह से इस समय वे जयसिंह के बंदी थी। इसलिए शिवाजी को अपमानजनक शर्तों पर संधि करने के लिए तैयार होना पड़ा। भारत के इतिहास में इसे पुरन्दर की संधि कहा जाता है। इस संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं-

1. शिवाजी अपने 23 प्रसिद्ध दुर्ग बादशाह को समर्पित करेगा जिनका राजस्व लगभग 4 लाख होन अर्थात् 16 लाख रुपए था।

2. शिवाजी का पुत्र सम्भाजी, बादशाह की सेवा में उपस्थिति देगा तथा नियमित सेवा करेगा। इसके बदले में उसे पांच हजारी मनसब प्राप्त होगा।

3. शिवाजी मुगलों को बीजापुर से युद्ध करने में अपनी सेना सहित पूर्ण सहयोग करेगा।

4. बादशाह की सेवा और वफादारी की शर्त पर शिवाजी राजगढ़ सहित केवल 12 दुर्ग और एक लाख रुपए का राजस्व अपने पास रखेगा

5. शिवाजी को बादशाह की खिदमत एवं मनसब से छूट होगी।

यह संधि पत्र औरंगजेब को स्वीकृति के लिए भिजवा दिया गया। औरंगजेब इस संधि से प्रसन्न नहीं हुआ। वह शिवाजी के समस्त दुर्गों का प्रत्यर्पण चाहता था किंतु जयसिंह ने इसके लिए मना कर दिया। अतः औरंगजेब ने स्वीकृति भिजवा दी। शिवाजी उस स्वीकृति पत्र को लेने के लिए अपने डेरे से 6 मील दूर तक पैदल चलकर गया तथा संधि पत्र लेकर 23 किलों की चाबियां जयसिंह को सौंप दीं।

जयसिंह ने वे चाबियां औरंगजेब को भेज दीं। इस प्रकार दोनों पक्षों ने चैन की सांस ली किंतु कुछ समय बाद ही औरंगजेब, जयसिंह पर दबाव बनाने लगा कि वह शिवाजी को लेकर दिल्ली आए। जयसिंह ने शिवाजी को दिल्ली चलकर बादशाह से व्यक्तिगत भेंट करने के लिए कहा किंतु शिवाजी ने हर बार मना कर दिया।

स्टोरिआ द मोगोर के लेखक मनूची ने जयसिंह के शिविर में ही शिवाजी से भेंट की तथा उसके साथ कुछ समय व्यतीत किया। मनूची ने लिखा है कि जब शिवाजी जयसिंह के शिविर में था, तब दिलेर खाँ ने कई बार जयसिंह से अनुरोध किया कि वह दिलेर खाँ को शिवाजी की हत्या करने दे या फिर जयसिंह ही उसकी हत्या कर दे किंतु जयसिंह इसके लिए तैयार नहीं हुआ।

दिलेर खाँ बार-बार कहता रहा कि शिवाजी की हत्या करने से बादशाह औरंगजेब बहुत प्रसन्न होगा किंतु जयसिंह ने शिवाजी को वचन दिया था कि शिवाजी की सुरक्षा की जाएगी तथा बादशाह की तरफ से उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाएगा।

कुछ समय पश्चात् जयसिंह ने बीजापुर राज्य पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में शिवाजी को अपनी सेना लेकर जयसिंह के साथ जाना पड़ा। शिवाजी का सहयोगी नेताजी पाल्कर भी इस युद्ध में शिवाजी के साथ गया। नेताजी पाल्कर को द्वितीय शिवाजी कहा जाता था।

जयसिंह तथा शिवाजी की सेनाओं ने मिलकर बीजापुर पर प्रबल आक्रमण किया जिससे बीजापुर की सेना अपनी सीमा से पीछे हटती हुई बीजापुर के दरवाजे तक सिमट गई। जयसिंह की जीत स्पष्ट दिखाई दे रही थी किंतु शिवाजी और नेताजी पाल्कर में मतभेद हो गया और नेताजी, शिवाजी का साथ छोड़कर बीजापुर की तरफ हो गया।

इसी समय जयसिंह तथा दिलेर खाँ में भी मतभेद हो गया। इस कारण जयसिंह की कार्यवाही कमजोर पड़ गई। उधर गोलकुण्डा की सेनाएं, बीजापुर की सहायता के लिए आ गईं। इस कारण जयसिंह को पीछे हटना पड़ा और इस आक्रमण का कोई परिणाम नहीं निकला।

जयसिंह, नेताजी पाल्कर की वीरता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने बहुत सारा धन देकर नेताजी पाल्कर को अपने पक्ष में मिला लिया। अब वह शिवाजी का सहायक न रहकर मुगलों का सेनापति हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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