Friday, March 29, 2024
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शिवाजी की आगरा यात्रा (9)

शिवाजी की आगरा यात्रा किसी महानायक की दिग्वजय यात्रा से कम नहीं है। भारतीय इतिहास में इसकी गूंज कई सदियों तक सुनाई देती रहेगी। वस्तुतः इस यात्रा ने ही शिवाजी को महानायक के रूप में स्थापित किया।

22 जनवरी 1666 को आगरा के लाल किले में औरंगजेब के पिता शाहजहाँ की मृत्यु हो गई। औरंगजेब अब तक अपने राज्यारोहण का उत्सव दिल्ली में मनाता आया था किंतु इस बार उसने यह उत्सव आगरा में मनाने का निश्चय किया। बीजापुर की पराजय के बाद जयसिंह के लिए आवश्यक हो गया कि वह औरंगजेब को प्रसन्न करने का दूसरा उपाय ढूंढे।

इसलिए उसने शिवाजी को, औरंगजेब के राज्यारोहण के अवसर पर आगरा ले चलने के लिए दबाव बनाना आरम्भ किया तथा उसकी सुरक्षा की गारण्टी ली। जीजाबाई से विचार-विमर्श करके शिवाजी ने अपने 8 वर्षीय पुत्र सम्भाजी के साथ आगरा जाने का निर्णय लिया।

5 मार्च 1666 को शिवाजी ने अपने 200 चुने हुए अंगरक्षक तथा 4000 सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ रायगढ़ से आगरा के लिए प्रस्थान किया। उनकी इस याात्रा के लिए मुगलों के खजाने से एक लाख रुपया दिया गया तथा पूरे देश में मुगल सूबेदारों को आज्ञा दी गई कि वे मार्ग में स्थान-स्थान पर शिवाजी का स्वागत करें।

जब शिवाजी महाराष्ट्र से रवाना होकर आगरा जा रहा था तो हिन्दू जनता में शिवाजी को देखने की होड़ मच गई। उसके बारे में कई रहस्य और रोमांच भरे किस्से जनता में विख्यात हो चुके थे। हिन्दू जनता को अपने उद्देश्य एवं शक्ति का दर्शन कराने के लिए शिवाजी ने अपने दल को व्यवस्थित रूप से जमाया।

शिवाजी के दल में सबसे आगे एक हाथी होता था जिस पर गेरुआ रंग का एक ध्वज फहराता था। हाथी के पीछे शिवाजी के अंगरक्षकों की टुकड़ी होती थी जो शिवाजी की पालकी को चारों ओर से घेरे रहती थी। शिवाजी की भव्य पालकी पर सोने-चांदी के पतरे चढ़े हुए थे। इस अंगरक्षक दल के चारों ओर शिवाजी के सिपाही रहते थे और अंत में बची हुई सेना चलती थी।

हर थाने एवं मुकाम पर मुगल थानेदार, सूबेदार और सरकारी कर्मचारी शिवाजी की सेवा में उपस्थित होते थे इस प्रकार शान से चलता हुआ, हिन्दू प्रजा के हृदयों को जीतता हुआ और मुगलों में भय उत्पन्न करता हुआ शिवाजी 12 मई 1666 को आगरा पहुंच गया।

जयसिंह का पुत्र रामसिंह कच्छवाहा, शिवाजी को दरबारे आम में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता था किंतु आगरा में प्रवेश के समय शिवाजी के स्वागत-सत्कार में काफी समय लग गया, तब तक औरंगजेब दरबारे आम से उठकर, दरबारे खास में जाकर बैठ गया। असद खाँ बख्शी ने शिवाजी को वहीं बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया।

शिवाजी का किसी भी तरह आगरा चले आना, औरंगजेब की बहुत बड़ी विजय थी। उस कुटिल अभिमानी बादशाह को एक हिन्दू राजा का अपमान करने के सौ तरीके आते थे तथा वह दुष्टता का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता था। शिवाजी ने बादशाह को एक हजार मोहरें तथा दो हजार रुपए नजर किए तथा 5000 रुपए निसार के तौर पर भेंट किए।

उनके नौ वर्षीय पुत्र सम्भाजी ने औरंगजेब को पांच हजार मोहरें और एक हजार रुपए नजर किए एवं 2 हजार रुपए निसार के तौर पर प्रस्तुत किए। औरंगजेब ने शिवाजी एवं सम्भाजी से एक भी शब्द नहीं कहा तथा न ही शिवाजी की कुशल-क्षेम पूछी। बख्शी ने शिवाजी को ले जाकर पांच हजारी मनसबदारों की पंक्ति में महाराजा जसवंतसिंह के पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया।

इस अपमान से शिवाजी बहुत आहत हुआ, वह क्रोध के कारण कांपने लगा तथा उसके नेत्र लाल हो गए। यह वही जसवंतसिंह था जिसे शिवाजी ने कई बार पराजित किया था। जब औरंगजेब ने सरदारों को खलअतें बांटी तो शिवाजी ने खिलअत पहनने से मना कर दिया।

इस पर औरंगजेब ने रामसिंह को कहा कि वह शिवाजी की तबियत के बारे में पूछे और उसे खिलअत पहनने के लिए समझाए। जब रामसिंह शिवाजी के पास गया तो शिवाजी ने जोर से चिल्ला कर कहा- आपने और आपके पिता ने देखा कि मैं किस तरह का इंसान हूँ फिर भी मुझे अपमानित करके इतनी देर तक खड़ा रखा गया।

इसलिए मैं यह खिलअत अस्वीकार करता हूँ। जब रामसिंह ने शिवाजी को शांत करने के लिए उसकी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो शिवाजी ने उसका हाथ झटक दिया और औरंगजेब की तरफ पीठ करके चलते हुए एक कौने में जाकर बैठ गया तथा जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि मेरी मृत्यु ही मुझे इस स्थान पर खींच लाई है।

शिवाजी के इस तरह विक्षुब्ध हो जाने और इतनी कठोर प्रतिक्रिया देने के कारण औरंगजेब सहम गया। वह समझ चुका था कि उसने किस आदमी को नाराज कर दिया है। इसलिए उसने अपने कुछ मंत्रियों को संकेत किया कि वे शिवाजी को समझाएं तथा खिलअत पहनाकर बादशाह के समक्ष लाएं।

उन मंत्रियों ने बहुत प्रयास किए किंतु शिवाजी ने खिलअत पहनने तथा औरंगजेब के सम्मुख जाने से मना कर दिया। वह बार-बार चिल्लाता रहा कि बादशाह मुझे मार डाले या फिर मैं ही आत्मघात कर लूंगा किंतु बादशाह के समक्ष दुबारा नहीं जाऊंगा। मुझे मुसलमान बादशाह की सेवा नहीं करनी है।

औरंगजेब अपनी कपट चाल के कारण, जीती हुई बाजी हार चुका था। औरंगजेब के मंत्रियों ने औरंगजेब को सूचित कर दिया कि शिवाजी नहीं मानने वाला। इस पर औरंगजेब ने रामसिंह से कहा कि वह शिवाजी को अपने डेरे पर ले जाकर शांत करे। रामसिंह शिवाजी को लेकर चला गया।

दूसरे दिन रामसिंह, शिवाजी को समझा-बुझाकर औरंगजेब के दरबार में लाया। शिवाजी, औरंगजेब को देखते ही उखड़ गया और उसके सम्मुख प्रस्तुत होने से मना करके वहाँ से चला गया। शिवाजी, औरंगजेब के वजीर जाफर खान के घर गया और उसे बहुमूल्य उपहार देकर अनुरोध किया कि वह शिवाजी के, आगरा से वापस जाने का प्रबन्ध करे।

जफर खाँ की पत्नी, औरंगजेब की मौसी थी। उसने जाफर खाँ को अंदर बुलाकर कहा कि इस व्यक्ति को यहाँ से तुरंत भगा दो जिसने औरंगजेब के मामा शाइस्ताखाँ पर जानलेवा हमला किया था। पत्नी के चीखने-चिल्लाने पर जाफर खाँ ने शिवाजी को अपने घर से जाने के लिए कह दिया।

उधर औरंगजेब के हरम की औरतों को शिवाजी द्वारा बादशाह का अपमान किए जाने और जाफर खाँ के घर जाकर भेंट करने के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने बादशाह को संदेश भिजवाया कि इस उद्दण्ड को दण्ड दिए बिना नहीं छोड़ा जाना चाहिए।

इन औरतों की अगुवाई औरंगजेब की बहिन जहाँआरा कर रही थी क्योंकि शिवाजी ने जिस सूतर शहर को लूटा और जलाया था, वह जहाँआरा की व्यक्तिगत जागीर में था। शाइस्ता खाँ की पत्नी जो कि औरंगजेब की मामी थी, भी चाहती थी कि हाथ आए हुए शिवाजी को प्राणदण्ड मिलना चाहिए।

वह भी हाय-तौबा मचाने लगी। औरतों की चीख-पुकार से तंग आकर औरंगजेब ने शिवाजी तथा उसके पुत्र सम्भाजी को रामसिंह के सरंक्षण में बंदी बनाने के निर्देश दिए। अब शिवाजी, रामसिंह के सख्त पहरे में था। औरंगजेब के हरम की औरतें चाहती थीं कि शिवाजी को जान से मार डाला जाए क्योंकि शिवाजी ने शाइस्ताखाँ को घायल किया था और उसके पुत्र को मार डाला था किंतु औरंगजेब इस सम्बन्ध में जल्दबाजी नहीं करना चाहता था।

शिवाजी ने अपनी रिहाई के लिए अनेक प्रयास किए किंतु उनका कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में उसने औरंगजेब के समक्ष तीन प्रस्ताव भिजवाए-

1. बादशाह मुझे क्षमादान दे और मेरे समस्त दुर्ग वापस लौटा दे। इसके बदले में मैं औरंगजेब को दो करोड़ रुपए दूंगा तथा दक्षिण के युद्धों में सदैव मुगलों का साथ दूंगा।

2. बादशाह मेरी जान बख्श दे और मुझे सन्यासी होकर काशी में अपना जीवन व्यतीत करने दे।

3. बादशाह मुझे सकुशल घर जाने की अनुमति दे इसके बदले में मेरे समस्त दुर्ग, बादशाह को सौंप दिए जाएंगे।

औरंगजेब ने इनमें से एक भी बात मानने से इन्कार कर दिया। शिवाजी समझ गया कि उसे मृत्यु दण्ड दिया जाएगा। इसलिए उसने बादशाह को एक और पत्र भिजवाया जिसमें कहा गया कि शिवाजी के साथियों को आगरा से महाराष्ट्र लौटने की अनुमति दी जाए।

यह प्रस्ताव बादशाह के काम को सरल बनाने वाला था, इसलिए इसकी तुरंत स्वीकृति मिल गई। अब शिवाजी को आसानी से मारा जा सकता था। जब शिवाजी के सिपाही लौट गए तो शिवाजी ने अपने हाथी-घोड़े, सोना, चांदी, कपड़े आदि बांटने आरम्भ कर दिए।

उधर जब दक्षिण के मोर्चे पर बैठे कच्छवाहा राजा जयसिंह को आगरा की घटनाओं के बारे में ज्ञात हुआ तो उसे शिवाजी के प्राणों की चिंता हुई। उसने बादशाह को पत्र लिखा कि शिवाजी मेरी जमानत पर आपके सम्मुख आया था, इसलिए उसके प्राण नहीं लिए जाएं।

शिवाजी का आगरा से पलायन

अंत में औरंगजेब ने शिवाजी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वह अफगानिस्तान जाकर मुगल सेना की तरफ से लड़ाई करे। उस सेना का सेनापति रदान्द खाँ नामक एक दुष्ट व्यक्ति था। औरंगजेब की योजना थी कि शिवाजी को रदान्द खाँ के हाथों मरवाया जाए ताकि सबको लगे कि यह एक हादसा था।

शिवाजी इस प्रस्ताव को सुनते ही बीमार पड़ गया और प्रतिदिन सायंकाल भिखारियों एवं ब्राह्मणों को फल और मिठाइयां बांटकर उनसे आशीर्वाद लेने लगा। प्रतिदिन संध्याकाल में कहार, बांस की बड़ी-बड़ी टोकरियों में फल और मिठाइयां लाते और शिवाजी उन्हें स्पर्श करके, दान करने के लिए बाहर भेज देता। यह सिलसिला कई दिन तक चलता रहा। उन टोकरियों की गहराई से छान-बीन होती थी। धीरे-धीरे इस जांच में ढिलाई होने लगी।

17 अगस्त 1666 को बादशाह ने आदेश दिया कि शिवाजी तथा उसके पुत्र को रामसिंह के सरंक्षण से हटाकर एक मुस्लिम व्यक्ति की कैद में रखा जाए। उसी दिन संध्याकाल में शिवाजी तथा सम्भाजी, फलों की अलग-अलग टोकरियों में बैठ गए। इन टोकरियों को उनके आदमियों ने उठाया तथा ब्राह्मणों को वितरित किए जाने वाले फलों की टोकरियों के साथ-साथ लेकर महल से निकल गए।

शिवाजी और सम्भाजी, यमुनाजी के किनारे-किनारे चलते हुए निर्जन स्थान पर पहुंच गए। यहाँ रात के अंधेरे में उन्होंने नदी पार की। पूर्व-निर्धारित योजना के अनुसार उनके आदमी घोड़े लेकर तैयार खड़े थे। शिवाजी और सम्भाजी उन घोड़ों पर बैठकर मथुरा की ओर निकल गए।

उधर हीरोजी फरजंद नामक सेवक शिवाजी के कपड़े पहनकर शिवाजी के पलंग पर सो गया। उसके हाथ में पड़ा शिवाजी का कड़ा दूर से ही चमक रहा था। इसलिए पहरेदार भ्रम में रहे कि यह बीमार शिवाजी सो रहा है। प्रातः होने पर हीरोजी ने पहरेदारों से कहा कि शिवाजी बहुत बीमार हैं अतः बाहर किसी तरह का शोर नहीं किया जाए।

थोड़ी देर में वह भी महल से निकलकर भाग गया। किसी को कुछ भी भनक नहीं लग सकी। दोपहर में शहर कोतवाल शिवाजी के कमरे की जांच करने गया तो उसे शिवाजी के भाग जाने का पता लगा।

बादशाह को शिवाजी के निकल भागने की सूचना दी गई। पूरे आगरा में सूचना फैल गई कि शिवाजी अपनी जादुई शक्ति के कारण महल से अदृश्य हो गया। मुगल सिपाही और जासूस चप्पे-चप्पे पर थे किंतु किसी भी व्यक्ति या पहरेदार ने उसे भागते हुए नहीं देखा।

शिवाजी को जोर-शोर से ढूंढा जाने लगा किंतु तब तक 18 घण्टे बीत चुके थे और शिवाजी मथुर पहुंचकर अदृश्य हो गए थे। शिवाजी ने अपने पुत्र सम्भाजी को मथुरा में एक ब्राह्मण के घर रख दिया तथा स्वयं बुंदेलखण्ड होते हुए गौंडवाना प्रदेश की तरफ रवाना हो गए।

जब वे गौंडवाना से कर्नाटक जा रहे थे, तब मार्ग में एक किसान, कुछ साधुओं को भोजन करवा रहा था। शिवाजी को भी सन्यासी समझकर भोजन के लिए आमंत्रित किया गया।

जब शिवाजी भोजन कर रहे थे तब अचानक उस किसान की औरत यह कहकर क्षमा मांगने लगी कि उसके घर में कुछ भी नहीं है इसलिए साधुओं को इतना साधारण भोजन करवाया जा रहा है। यदि मराठे उसके परिवार का धन लूट कर नहीं ले गए होते तो हम साधुओं को अच्छा भोजन करवाते।

Shivaji
Shivaji

शिवाजी भी वहीं बैठे भोजन कर रहे थे। उन्हें यह सुनकर अपार कष्ट का अनुभव हुआ और उनका सामना एक कड़वी सच्चाई से हुआ।

रायगढ़ आगमन

रामसिंह के पहरे से निकलने के पच्चीसवें दिन वे सन्यासी के वेश में अपनी माता जीजाबाई के समक्ष राजगढ़ में उपस्थित हुए। उन्होंने सबसे पहले उसी किसान परिवार को अपने महल में आमंत्रित किया। उसे बहुत सारा धन दिया तथा मराठों द्वारा की गई लूटपाट के लिए उनसे क्षमा-याचना की।

शिवाजी ने रायगढ़ में प्रचारित कर दिया कि मार्ग में सम्भाजी की मृत्यु हो गई है। शिवाजी ने राजगढ़ में सम्भाजी के समस्त संस्कार एवं क्रियाकर्म विधि पूर्वक सम्पन्न कराए ताकि मुगलों को भ्रम में डाला जा सके और वे सम्भाजी को ढूंढने का प्रयास नहीं करें।

कुछ दिनों बाद मथुरा का ब्राह्मण परिवार स्वयं ही 8 वर्ष के बालक सम्भाजी को लेकर रायगढ़ आ गया। शिवाजी एवं सम्भाजी के सकुशल रायगढ़ पहुंचने का समाचार पूरे देश में फैल गया। जनता के बीच उनकी रहस्यमयी शक्तियों के बारे में और अधिक विस्तार से प्रचार हो गया। उनके सकुशल वापसी पर देश के अनेक हिस्सों में हर्ष मनाया गया और मिठाइयां वितरित की गईं।

नेताजी पाल्कर को मुसलमान बनाया जाना

शिवाजी के इस तरह निकल भागने की खीझ मिटाने तथा शिवाजी का मनोबल तोड़ने के लिए औरंगजेब ने एक खतरनाक योजना बनाई। उसने महाराजा जयसिंह को लिखा कि वह शिवाजी के पूर्व साथी नेताजी पाल्कर को बंदी बनाकर दिल्ली भेजे।

नेताजी पाल्कर को महाराष्ट्र में द्वितीय शिवाजी कहा जाता था तथा इस समय वह जयसिंह की सेवा में था। औरंगजेब का आदेश मिलने पर जयसिंह ने नेताजी पाल्कर को बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया। औरंगजेब ने पाल्कर से कहा कि या तो वह मुसलमान बनकर मुगल साम्राज्य की सेवा करे या फिर मृत्यु का वरण करे।

नेताजी पाल्कर ने मुसलमान होना स्वीकार किया। औरंगजेब ने एक मुस्लिम युवती का पाल्कर से विवाह करा दिया तथा पाल्कर को अफगानिस्तान युद्ध में भेज दिया। पाल्कर 8 साल तक मुगलों के लिए लड़ता रहा और औरंगजेब की कृपा प्राप्त करता रहा। औरंगजेब, शिवाजी के आगरा से निकल भागने के लिए जयसिंह के पुत्र रामसिंह को जिम्मेदार मानता था।

इसलिए रामसिंह को दरबार में आने से मनाही कर दी गई तथा उसका पद भी छीन लिया। इसलिए महाराजा जयसिंह दक्षिण में बैठकर औरंगजेब के अगले आदेश की प्रतीक्षा करता रहा। शिवाजी इस दौरान पूरी तरह शांत बना रहा। अंततः औरंगजेब ने जयसिंह को दक्षिण से हटा दिया तथा आगरा आकर दरबार में उपस्थित होने के आदेश दिए।

मुअज्जम को पुनः दक्षिण का सूबेदार बनाया गया तथा महाराजा जसवंतसिंह को मुअज्जम के साथ दक्षिण जाने का आदेश दिया गया। दिलेर खाँ को भी दक्षिण में बने रहने का आदेश दिया गया। इस अपमान से जयसिंह बुरी तरह आहत हो गया तथा आगरा पहुंचने से पहले बुरहानपुर में ही 28 अगस्त 1667 को उसका देहांत हो गया।

संधि भंग

सम्भाजी के  रायगढ़ पहुँच जाने के बाद, शिवाजी ने औरंगजेब को पत्र लिखकर सूचित किया कि वह अब भी बादशाह के प्रति स्वामि-भक्त है तथा भविष्य में उनकी आज्ञाओं का पालन करता रहेगा। केवल अपने प्राणों के भय से बादशाह की आज्ञा प्राप्त किए बिना, अपने देश चला आया है।

शिवाजी ने औरंगजेब को पत्र इसलिए लिखा था ताकि दक्षिण में शांति बनी रहे और जयसिंह फिर से आक्रमणकारी गतिविधियां आरम्भ न कर दे। औरंगजेब भी इस वास्तविकता को समझता था कि शिवाजी अब पूर्णतः स्वतंत्र था तथा जयसिंह के साथ की गई पूर्व की संधि का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था। फिर भी उसने शिवाजी को एक बार पुनः आगरा आने का आदेश भिजवाया।

6 मई 1667 के पर्शियन न्यूजलैटर में लिखा है- ”बादशाह ने वजीरे आजम को हुक्म दिया कि शिवा के वकील को बुलाए, उसे आश्वस्त करे और दो महीने में लौटने की शर्त पर शिवा को सूचित करे कि हुजूरे अनवर ने उसके गुनाहों को माफ कर दिया है। उसके पुत्र सम्भाजी को 5000 का मनसब बहाल किया गया है। वह अपनी शक्ति के अनुसार बीजापुर का जितना इलाका छीन सकता है, छीन ले। अन्यथा अपने स्थान पर डटा रहे और बादशाह के बेटे का हुक्म माने।”

 सम्भाजी की मुगल सेवा में हाजिरी

4 नवम्बर 1667 से सम्भाजी नियमित रूप से मुअज्जम के दरबार में हाजिरी देने लगा, उसे नागपुर के क्षेत्र में एक जागीर दी गई। सम्भाजी ने मुअज्जम से अच्छी दोस्ती कर ली। वे दोनों एक साथ शिकार पर जाने लगे तथा नृत्य एवं आमोद-प्रमोद के अवसर पर भी साथ रहने लगे।

औरंगजेब द्वारा शिवाजी को राजा की मान्यता

9 मार्च 1668 को मुअज्जम ने शिवाजी को पत्र लिखकर सूचित किया कि जहांपनाह ने राजा की उपाधि देकर जो कि आपकी उच्चतम अभिलाषा है, आपका सिर ऊंचा किया है। औरंगजेब द्वारा शिवाजी को स्वतंत्र राजा स्वीकार कर लिए जाने के बाद से शिवाजी की दक्षिण भारत की राजनीति में स्थिति बहुत बदल गई।

बीजापुर एवं गोलकुण्डा के सुल्तान भी शिवाजी को स्वतंत्र शासक मानने लगे। अंग्रेज और फ्रांसिसी भी अब शिवाजी को लुटेरा या जागीरदार मानने की बजाय राजा मानकर उससे मित्रता पूर्ण व्यवहार करने लगे। मुअज्जम के माध्यम से सम्भाजी को पांच हजारी मनसब मिलने के कारण मुगलों और शिवाजी के बीच झगड़े पूरी तरह बंद हो गए थे।

शिवाजी इस समय का उपयोग अपने राज्य के प्रशासन तथा जनता की दशा सुधारने एवं सेना का विस्तार करने में करने किया।

शांति में विघ्न

दिलेर खाँ को शहजादा मुअज्जम तथा सम्भाजी की दोस्ती अच्छी नहीं लगी। उसने औरंगजेब को पत्र लिखकर सूचित किया कि शहजादा मुअज्जम, मराठों के साथ मिलकर स्वयं बादशाह बनने का षड़यंत्र रच रहा है। दिलेर खाँ का पत्र पाकर औरंगजेब ने मुअज्जम को आदेश भिजवाया कि सम्भाजी को अपने दो सहायकों- प्रतापराव गूजर तथा नीराजी राव के साथ दिल्ली भेज दे।

मुअज्जम को दिलेर खाँ के षड़यंत्र के बारे में पता लग गया और उसने सम्भाजी को सावधान कर दिया। सम्भाजी अपने साथियों सहित मुगल शिविर से भागकर पूना चला गया। औरंगजेब को विश्वास हो गया कि दिलेर खाँ की बात सही है। मुअज्जम ने दिखावा करने के लिए सम्भाजी को पकड़ने के प्रयास आरम्भ किए तथा एक टुकड़ी उसके पीछे भेजी जो कुछ दिन बाद असफल होकर लौट आई।

इस प्रकार दक्षिण भारत में कुछ दिनों के लिए हुई शांति में एक बार फिर से विघ्न पड़ गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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