Friday, May 17, 2024
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अध्याय – 20 : ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत में कृषि का वाणिज्यीकरण और उसका प्रभाव

ब्रिटिश सरकार की भू-राजस्व कर नीति ने भारत में, न केवल जमींदार एवं भूमिहीन किसान जैसे नये सामाजिक-आर्थिक वर्गों को जन्म दिया, अपितु देश की आर्थिक स्थिति को भी पूँजीवादी हितों के अनुरूप ढाल दिया। इस नीति ने कृषि-उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला। अँग्रेजों के आने के पहले किसानों का शोषण तो होता था किंतु कृषि-उत्पादन में आत्म-निर्भरता थी। अँग्रेजों के आने के बाद कृषि-उत्पादन में भारी गिरावट आई। इस गिरावट के लिये अँग्रेजों की कृषि नीति उत्तरदायी थी।

कृषि पर बढ़ता बोझ

1813 ई. तक ब्रिटिश कम्पनी ने व्यापारिक क्षेत्र में एकाधिकार रखा। इस कारण शिल्पी, दस्तकार एवं कारीगर बड़ी संख्या में बे-रोजगार होकर शहरों से गाँवों की ओर जाने को विवश हुए, जहाँ उन्होंने कृषि को जीविकोपार्जन का साधन बनाया। इस प्रकार कृषि पर निर्भर रहने वालों की संख्या बढ़ गई जिससे भूमि का विभाजन और उपविभाजन आरम्भ हुआ। भूमि के विभाजन से भूमि की उपलब्धता, कृषि-उत्पादन और कृषि में लगे हुए लोगों की संख्या के बीच असन्तुलन पैदा हो गया।

कृषि उत्पादन में गिरावट

भूमि पर आश्रित लोगों की संख्या बढ़ने से कृषि उत्पादन में भारी गिरावट आई, क्योंकि भूमि सीमित थी। अंग्र्रेजों ने, इस गिरावट के लिए भारतीय कृषि भूमि की अनुर्वरता और कृषक की अकुशलता को उत्तरदायी ठहराया किन्तु वास्तव में कृषि-उत्पादन की कमी का कारण भूमि की अनुर्वरता अथवा कृषक की अकुशलता न होकर, कृषि पर बढ़ता हुआ कामगरों का बोझ, कृषि हेतु सिंचाई के साधनों का अभाव तथा किसान के पास पूँजी का अभाव होना था। ज्यों-ज्यों ब्रिटिश सत्ता का विस्तार होता गया, सरकार का खर्च बढ़ता गया और लगान में वृद्धि की जाती रही। लगान चुकाने में असमर्थ रहने पर बहुत से किसान खेती के कार्य से अलग हो जाते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त होने से पहले बंगाल के नवाब मीर जाफर द्वारा 1764-65 ई. में 8.18 लाख पौंड का लगान वसूल किया गया था किंतु कम्पनी को दीवानी का अधिकार प्राप्त होने के बाद 1765-66 ई. में 14.70 लाख पौंड लगान के रूप में एकत्र किये गये। एक बार लगान-वृद्धि का जो क्रम चालू हुआ, वह चलता ही रहा। 1826 ई. तक लगान की राशि 24.20 लाख पौंड और 1857 ई. में 36 लाख पौंड तक पहुँच गई।

ब्रिटिश सरकार ने लगान की दर काफी ऊँची रखी। उदारहण के तौर पर स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत यह दर 80 प्रतिशत निर्धारित की गई थी। रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त के अन्तर्गत आरम्भ में यह दर 66 प्रतिशत रखी गई किन्तु उत्पादन में कमी होने के कारण 45 प्रतिशत कर दी गई। लगान की इस अमानवीय व्यवस्था ने उत्पादन को महंगा बना दिया। इस कारण खेती पिछड़ गई और देश की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ गई। किसानों की आर्थिक दुरावस्था गोरी सरकार के लिये राजनीतिक खतरा बन गई।

लगान की अधिकता तथा कृषि उत्पादन के महँगेपन ने किसान को ऋण के भारी बोझ तले दबा दिया, जिससे वह कभी नहीं उबर सका। उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऋण का सहारा लिया। लगान की बढ़ती हुई दर तथा किसान की सामाजिक आवश्यकताओं के कारण किसानों की ऋण-ग्रस्त्ता बढ़ती ही गई। ब्रिटिश सरकार ने किसानों की ऋण-ग्रस्त्ता का कारण, लगान की अधिकता नहीं बताकर, किसानों की फिजूलखर्ची व सामाजिक तथा पारिवारिक उत्सवों में धन फूंकने की आदत बताया, जो कि सत्य नहीं था। भारी लगान व साहूकार की मनमानी के कारण किसान ऋणों के बोझ से दबता ही चला गया।

निरन्तर बढ़ती ऋण-ग्रस्त्ता के कारण किसानों की जमीन उसके हाथों से निकलती चली गई। साहूकार किसानों के ऋण के बदले में उनकी जमीनें हड़पने लगे। सरकार की ओर से इस प्रकार के हस्तान्तरण को रोकने के लिये कुछ कानून बनाये गये, जैसे- बंगाल काश्तकारी अधिनियम-1859, मद्रास काश्तकारी अधिनियम-1889, दक्कन कृषि सहायता अधिनियम, जो आगे चलकर बम्बई प्रेसीडेन्सी पर भी लागू किया गया, मध्य प्रदेश काश्तकारी अधिनियम-1898; आदि। ये कानून अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं हुए और किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।

कृषि का वाणिज्यीकरण

कृषि और कृषक की दशा बिगाड़ने के लिये ब्रिटिश सरकार की कृषि नीति ही नहीं अपितु औद्योगिक नीति भी जिम्मेदार थी। 1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त करके मुक्त व्यापार नीति अपनाई गई। अब भारत केवल एक पूँजीवादी व्यवस्था को सुदृढ़ करने वाला देश ही नहीं था अपितु ब्रिटिश पूँजीपतियों के लिये एक मण्डी भी बन गया; जिसके कारण स्थानीय कुटीर उद्योग नष्ट हो गये। चूँकि इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति उफान पर थी, अतः इंग्लैण्ड को अपने उद्योगों के लिये सस्ते माल की आवश्यकता थी, इस कारण भारत कच्चे माल का उत्पादन करने वाला देश बनकर रह गया। अब भारत को ब्रिटेन में बने माल की खपत करने वाले बाजार और कच्चा माल उपलब्ध कराने वाले उपनिवेश की दोहरी भूमिका निभानी थी। भारत को अब केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करना था, जिनकी इंग्लैण्ड के मिलों को एवं इंग्लैण्ड-वासियों को आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त भारत में पँूजीवादी व्यवस्था के बढ़ने के साथ-साथ नई लगान नीति के कारण किसान को अब नकद राशि की आवश्यकता थी। इसलिये अब किसान भी उन फसलों को उगाने के लिये विवश हुए जिनका बाजार में क्रय-विक्रय हो सके। जबकि इससे पहले किसान केवल उन्हीं फसलों को उगाता था जिनकी खपत स्थानीय स्तर पर होती थी। इस प्रकार उत्पादन के स्वरूप और प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन हुए तथा भारतीय कृषि का वाणिज्यीकरण हो गया।

नगदी फसलों की अवधारणा का विकास

भारत में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने से पूर्व, उन जिन्सों का उत्पादन होता था जो कृषक परिवारों के दैनिक उपयोग के लिये आवश्यक थीं तथा जिनका प्रयोग विनिमय के लिये हो सकता था। ब्रिटिश पूंजीवाद के हस्तक्षेप से भारत का किसान केवल वे जिन्सें पैदा करने लगा जिनका देशी और विदेशी बाजार में अधिक मूल्य मिल सके। इस प्रकार कृषि के मूलभूत स्वरूप में परिवर्तन हो गया तथा अनेक स्थानों पर कुछ निश्चित फसलें उगाई जाने लगीं, जैसे- बंगाल में केवल जूट की खेती पर और पंजाब में केवल गेहूं और कपास की खेती पर अधिक बल दिया गया। बनारस, बिहार, बंगाल, मध्य भारत तथा मालवा में अफीम के व्यापार के लिये पोस्त की खेती को बढ़ावा मिला। बर्मा में चावल की खेती बढ़ी। सरकार द्वारा इन कृषि उत्पादों को बढ़ाने के लिये किसानों को अग्रिम राशि भी दी जाती थी। 1853 ई. के बाद भारत में ब्रिटिश पूँजीपतियों द्वारा किये गये पूँजी निवेश के कारण नील, चाय, कॉफी, रबर आदि की खेती पर अधिक जोर दिया जाने लगा। भारत में यूरोपीय और ब्रिटिश पूँजीवाद की पहली पसन्द चाय, कॉफी, रबर और नील की खेती थी। इन फसलों के लिये उन्हें यूरोपीय बाजारों में अत्यधिक कीमत प्राप्त होती थी।

(1.) नील की खेती: नील बागानों का कार्य निर्धन श्रमिकों से करवाया जाता था। उन्हें नील के बागानों में काम करने के लिये बलपूर्वक अग्रिम राशि दी जाती थी और फिर उन्हें बंधुआ श्रमिक बनाकर बागानों में काम करवाया जाता था। 1860 ई. में नील आयोग की रिपोर्ट आई जिसमें में कहा गया- ‘रैयत ने पेशगी राशि चाहे अपनी इच्छा के विरुद्ध ली या खुशी से, वह कभी भी इसके बाद स्वतंत्र व्यक्ति नहीं रहा।’

आयोग ने उन दिनों भारतीय गाँवों में प्रचलित इस कहावत का भी उल्लेख किया– ‘अगर कोई नील के समझौते पर हस्ताक्षर कर देता है, तो वह सात पीढ़ियों तक स्वतंत्र नहीं हो सकता।’  बिहार, आसाम और उत्तर प्रदेश के नील बागानों में श्रमिकों की स्थिति गुलामों जैसी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम स्वरूप और बढ़ते हुए राष्ट्रवाद के कारण नील के बागानों में काम करने वाले श्रमिकों को मुक्ति प्राप्त हुई।

(2.) चाय-कॉफी के बागान: चाय और कॉफी के बागानों ने भी भारत में ब्रिटिश पूँजी निवेश को आकर्षित किया। इन बागानों में किसी प्रकार के श्रमिक कानून लागू नहीं थे। बागान मालिक, इन बागानों में काम करने वाले श्रमिकों का जी-भरकर शोषण करते थे। 1887 ई. में चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या लगभग 5 लाख थी। चाय-बागानों में काम करने हेतु श्रमिकों को लाने के लिये अत्यधिक छल-कपट किया जाता था तथा उनसे लुभावने वायदे किये जाते थे किन्तु जब वे एक बार बागानों में पहुँच जाते थे तो उन्हें बंदियों की तरह रखा जाता था। रायल कमीशन ऑन लेबर ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य की पुष्टि की है। इन श्रमिकों को निर्जन जंगलों में रखा जाता था जहाँ खाद्य पदार्थ नहीं मिलते थे और जो मिलते भी थे तो वे बहुत महँगे होते थे। इस कारण श्रमिक और उनके परिवार के लोग कुपोषण एवं घातक बीमारियों के शिकार होकर मर जाते थे परन्तु चाय बागानों के मालिकों को अपने लाभ के अतिरिक्त और किसी बात से मतलब नहीं था।

(3.) जूट की खेती: यूरोप के कारखानों को जूट की बहुत बड़ी मात्रा में आवश्यकता थी इसलिये यूरोपीय और ब्रिटिश व्यापारियों ने जूट उद्योग में काफी पूँजी का निवेश किया। अतः यूरापनियनों की व्यापारिक एवं औद्योगिक आवश्यकता की पूर्ति के लिेय पटसन की खेती पर विशेष ध्यान दिया गया ताकि यूरोपीय मिलों को सस्ता रेशा मिल सके और यूरोपीय व्यापारियों एवं उद्योगपतियों को भारी लाभ हो सके। यूरोपीय व्यापारी एवं उद्योगपति पटसन और जूट से भारी लाभ अर्जित करते थे किंतु कच्चा माल देने वाले किसानों को उनके उत्पादन की बहुत ही कम कीमत देते थे।

कृषि वाणिज्यीकरण के प्रभाव

कृषि का तेजी से वाणिज्यीकरण होने के परिणामस्वरूप भारतीय किसानों एवं गांवों की तस्वीर तेजी से बदलने लगी। पूंजी का प्रवाह भारत से ब्रिटेन की तरफ हो गया तथा भारत के गांव तेजी से निर्धन होने लगे। किसान का पूरा परिवार दिन-रात परिश्रम करने के उपरांत भी ऋण लेकर लगान चुकाता था जिससे किसान बड़ी संख्या में सूदखोरों एवं साहूकारों के चंगुल में फंस गया तथा चारों ओर निर्धनता एवं भुखमरी का बोलबाला हो गया। कृषि वाणिज्यीकरण के कुछ प्रमुख प्रभाव इस प्रकार से हैं-

(1.) गांवों में पूंजी की आवश्यकता: कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण भारतीय गांवों की वस्तु विनिमय क्षमता और आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई तथा गांवों में भी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पूंजी की अनिवार्यता हो गई। पूंजी आधारित अर्थव्यस्था का निर्माण होने से गांवों में उत्पादित प्रत्येक वस्तु शहरों की ओर जाने लगी।

(2.) कृषकों की निर्धनता में वृद्धि: कृषि के वाणिज्यीकरण से व्यापारी वर्ग तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बहुत लाभ होने लगा परन्तु किसानों की निर्धनता में वृद्धि हुई। इसका मुख्य कारण व्यापारियों की छल-कपटपूर्ण नीति थी। वे खेत में खड़ी फसलों को सस्ते दामों पर खरीद लेते थे। किसान अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये, फसल मंडी में न ले जाकर, खेत में ही बेच देता था। ऐसे सौदे में व्यापारी फसल की बहुत कम कीमत तय करता था। इस कारण किसानों की निर्धनता बढ़ती चली गई।

(3.) अकालों की भयावहता में वृद्धि: कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण फसलें औद्योगिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उगाई जाती थीं। जूट एवं कपास की खेती में वृद्धि होने से खाद्यान्नों की भारी कमी हो गई और अकाल पड़ने लगे। कम्पनी का शासन होने से पूर्व भी भारत में अकाल पड़ते थे किन्तु उनका कारण धान का अभाव न होकर यातायात के साधनों का अभाव था। ब्रिटिश शासन में पड़ने वाले अकाल व सूखों का प्रत्यक्ष कारण कम्पनी की दोषपूर्ण औद्योगिक एवं कृषि नीतियां थीं। इन नीतियों ने भारतीय किसानों को अत्यधिक निर्धन बना दिया। अकाल के समय खाद्यान्नों के दाम इतने अधिक बढ़ जाते थे कि लोगों के लिये अन्न खरीदना असम्भव हो जाता था। इस कारण प्रत्येक अकाल के समय हजारों लोग भूख से तड़प कर मर जाते थे। प्रायः शवों को उठाने का कोई प्रबन्ध नहीं होता था। इस कारण पूरा का पूरा क्षेत्र महामारी की चपेट में आ जाता था और हजारों लोग महामारी से ग्रस्त होकर मर जाते थे। कम्पनी के शासन में 1770 ई. के बंगाल के अकाल में बंगाल की एक तिहाई जनसंख्या मर गई। 1860-61 ई. में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा जिसमें दो लाख लोग मरे। 1865-66 ई. में उड़ीसा, बंगाल, बिहार एवं मद्रास में पड़े अकाल में बीस लाख लोग मरे। केवल उड़ीसा में ही 10 लाख लोग मारे गये। 1866-70 ई. के अकाल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बम्बई में 14 लाख से अधिक लोग मारे गये। इन क्षेत्रों की एक चौथाई जनसंख्या समाप्त हो गई। 1876-78 ई. में मद्रास, मैसूर, हैदराबाद, महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में भीषण अकाल पड़ा। इस अकाल में पंजाब में 8 लाख और मद्रास में 35 लाख लोग मरे। मैसूर की 20 प्रतिशत जनसंख्या मर गई। उत्तर प्रदेश में 12 लाख से अधिक लोग मरे। 1899 ई. के अकाल को छपनिया काल कहा जाता है, इसमें राजस्थान के 25 प्रतिशत लोग मर गये। विलियम डिग्बी के अनुसार 1854 से 1901 ई. के अकालों में देश में 2,88,25,000 लोग मौत के मुंह में समा गये। 1943 ई. में बंगाल के भीषण अकाल में 30 लाख लोग मरे।

(4.) कृषकों के विद्रोह: नगदी फसलों की खेती के कारण किसानों का शहरों में आना-जान बढ़ गया। इससे किसानों में राजनीतिक चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। इस चेतना ने किसानों को शोषणकारियों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिये उकसाया। जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था कठोर होती चली गई, कृषक विद्रोह भी बढ़ने लगे। 1857 ई. में दक्कन में मराठा किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध बगावत की। किसानों में असंतोष को कम करने के लिये 1879 ई. में दक्कन काश्तकारी सहायता अधिनियम पारित किया गया। 1870 ई. में बंगाल के बंटाईदारों का आर्थिक संकट बढ़ने पर उन्होंने लगान देने से मना कर दिया। इसी समय संथालों ने भी विद्रोह किया। इस कारण 1885 ई. में बंगाल काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया।

(5.) नवीन आर्थिक-सामाजिक वर्गों का उदय: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सामन्ती व्यवस्था को समाप्त करके जमींदार, छोटे काश्तकार, खेतिहर मजदूर आदि नवीन आर्थिक-सामाजिक वर्गों को जन्म दिया। नई लगान व्यवस्था ने भी भारतीय ग्रामीण सामाजिक सम्बन्धों पर गहरा प्रभाव डाला। परम्परागत रूप से भारतीय ग्रामीण समुदाय के सदस्यों में परस्पर सम्बन्धों का निर्धारण जातिगत सम्बन्धों, धार्मिक आधार, परम्परा या रीति-रिवाजों पर आधारित था। ब्रिटिश कानूनों तथा आर्थिक नीतियों ने परम्परागत सामाजिक व जातीय सम्बन्धों को शिथिल कर दिया। ब्रिटिश आर्थिक नीति के फलस्वरूप जो सामाजिक-आर्थिक वर्ग अस्तित्त्व में आये उनमें सबसे नीची सीढ़ी पर निम्न वर्ग था।

(6.) भूमिहीन एवं श्रमिक वर्ग का उदय: ब्रिटिश कृषि नीति, आर्थिक नीति व लगान प्रणाली के परिणाम स्वरूप छोटे किसानों की जमीन उनके अधिकार से निकलकर साहूकारों के पास पहुंचने लगी जिससे भारतीय किसान भूमिहीन होकर खेतिहर श्रमिक में परिणत होने लगा। खेतिहर श्रमिकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने से, समस्त खेतिहर जनसंख्या के लगभग आधे लोग इसी वर्ग में आ गये। 1875 ई. में देश में भूमिहीन कृषकों की संख्या 80 लाख थी जो 1901 ई. में बढ़कर 350 लाख तथा 1921 ई. में 390 लाख हो गई।

(7.) यातायात एवं संचार साधनों में सुधार: कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण कृषि जिन्सों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक तेज गति से पहुंचाने के लिये रेल, सड़क एवं जहाजरानी परिवहन साधनों का विकास हुआ। जिन्सों की बिक्री, सौदे एवं भाव आदि सूचनाएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने के लिये डाक-तार व टेलीफोन आदि संचार-व्यवस्थाओं का विकास हुआ। कम्पनी ने भारत के प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर अच्छी सड़कों का निर्माण किया ताकि बन्दरगाहों तक कच्चा माल पहुँचाने में सुविधा हो सके। यूरोपियन लेखकों ने लिखा है कि यह सब भारतीयों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने व विकसित करने के लिये किया गया जबकि वास्तविकता यह थी कि ये समस्त कार्य इसलिये किये गये ताकि वे भारतीय कच्चा माल लंकाशायर और मैनचेस्टर की मिलों तक सुगमता से पहुँचा सकें तथा वहाँ उत्पादित माल को भारत के दूरस्थ गाँवों तक पहुँचा सकें।

(8.) विश्वव्यापी मंदी की मार: भारत का किसान कृषि के वाणिज्यीकरण से पहले, विश्वव्यापी मंदियों के दौर से बेअसर रहता था किंतु अब उसकी प्रतिस्पर्धा विश्व भर के किसानों से थी इसलिये उसका भी मंदी की चपेट में आ जाना स्वाभाविक था। भारत में वर्ष 1928-29 की मंदी के दौर से पहले 10 अरब 34 करोड़ रुपये मूल्य की पैदावार होती थी जो 1933 ई. में घटकर केवल 4 अरब 73 करोड़ रुपये मूल्य की रह गई।

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