राजस्व निर्धारण एवं संग्रहण के क्षेत्र में अनेक प्रयोगों के अनुभव के पश्चात, उत्तर भारत के भारतीय राज्यों द्वारा कम्पनी को हस्तान्तरित और अँग्रेजों द्वारा विजित आगरा तथा अवध इत्यादि ब्रिटिश क्षेत्रों में महलवाड़ी भूमि-बन्दोबस्त लागू किया गया। इस बन्दोबस्त में भूमि-कर की इकाई किसान का खेत नहीं अपितु ग्राम या महाल होती थी। गाँव की समस्त भूमि सम्मिलित रूप से समस्त ग्राम सभा की होती थी जिसे भागीदारों का समूह करते थे। भूमिकर देने के लिए यही समूह उत्तरदायी होता था। दूसरे शब्दों में सरकार के द्वारा कुछ गाँवों को महाल में एकत्र करके उस महाल का लगान निश्चित कर दिया जाता और फिर उस लगान को गाँव में विभाजित किया जाता था। यद्यपि कई स्थानों पर व्यक्तिगत उत्तरदायित्व भी माना गया किन्तु सामान्यतः महलवाड़ी बन्दोबस्त, सामूहिक रूप से गाँव या महाल के आधार पर लागू किया गया। प्रत्येक गाँव भू-राजस्व की माँग के सम्बन्ध में अपना पक्ष रख सकता था किंतु महाल पर लगाये गये भू-राजस्व में अन्तर नहीं किया जाता था। प्रत्येक किसान अपने खेत जोतता था तथा अपने हिस्से का भू-राजस्व देता था, साथ ही अपने साथी-किसानों के भू-राजस्व के लिए भी उत्तरदायी होता था। इस प्रकार महलवाड़ी बन्दोबस्त में व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के साथ-साथ संयुक्त उत्तरदायित्व भी होता था। यदि कोई किसान अपनी भूमि छोड़ देता था तो ग्राम समाज उस भूमि को ग्रहण कर लेता था। ग्राम समाज ही सम्मिलित भूमि का स्वामी होता था।
उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में पहले जमींदारी व्यवस्था स्थायी रूप से लागू करने का निश्चय किया गया था। इसमें भारतीय राज्यों द्वारा हस्तान्तरित और अँग्रेजों द्वारा विजित क्षेत्र सम्मिलित थे। हस्तान्तरित क्षेत्र वह था जिसे अवध के नवाब ने 1801 ई. में कम्पनी को सौंपा था। इसमें सात जिले थे- इटावा, मुरादाबाद, फर्रूखाबाद, इलाहाबाद, कानपुर, गोरखपुर और बरेली। सुर्जीअर्जन गाँव की सन्धि के बाद सिन्धिया से जो क्षेत्र प्राप्त हुए उन्हें विजित क्षेत्र कहा गया। इसमें पानीपत, सहारनपुर, अलीगढ़ और आगरा जिले सम्मिलित थे। हस्तान्तरित और विजित क्षेत्रों में राजस्व मण्डल द्वारा एक से पाँच वर्ष की अवधि के लिए (1803 से 1807 ई. के बीच) प्रारम्भिक समझौते किये गये। शेष लगान सम्बन्धी समझौते बोर्ड ऑर्फ कमिश्नर्स द्वारा किये गये।
विजित क्षेत्रों में स्थायी बन्दोबस्त लागू करने के प्रश्न पर बंगाल सरकार और कम्पनी के संचालक मण्डल के बीच गहरे मतभेद थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन आ रहा था। कम्पनी के बढ़ते हुए साम्राज्य के खर्च और अपने देश के औद्योगिकीकरण की माँग को पूरा करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति स्थायी बन्दोबस्त द्वारा की जानी संभव नहीं थी। उधर इंग्लैण्ड में रिकार्डो, माल्थस आदि के शास्त्रीय अर्थशास्त्र और भूमि-किराया आदि के सिद्धान्त लोकप्रिय हो रहे थे तथा प्रशासनिक नीति को प्रभावित कर रहे थे। इन परिस्थितियों में महलवाड़ी व्यवस्था ने 1819 से 1822 ई. के बीच निश्चित रूप ग्रहण किया।
1819 ई. में बोर्ड ऑफ कमिश्नर्स के सचिव होल्ट मेकेन्जी ने अपने एक पत्र में उत्तरी भारत के ग्रामीण समाजों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कुछ सुझाव दिये-
(1.) भूमि का सर्वेक्षण किया जाये।
(2.) भूमि से सम्बन्धित व्यक्तियों के अधिकारों का लेखा तैयार किया जाये।
(3.) प्रत्येक गाँव या महाल से कितना कर लेना है, तय किया जाए।
(4.) प्रत्येक ग्राम से भूमिकर प्रधान या लंबरदार द्वारा संग्रह करने की व्यवस्था की जाए।
1822 ई. के रेग्यूलेशन-7 द्वारा इस सुझाव को कानूनी रूप दे दिया गया। जहाँ जमींदार लगान एकत्र करते थे, वहाँ लगान भूमि-किराये का 30 प्रतिशत रखा गया किन्तु उन क्षेत्रों में जहाँ भूमि ग्राम समाज के सम्मिलित अधिकार में थी, वहाँ कुल उपज का 80 प्रतिशत, लगान के रूप में तय किया गया। यह लगान बहुत अधिक था और इसे कठोरता लागू किया किया गया।
तीस वर्षीय बन्दोबस्त
महलवाड़ी बन्दोबस्त को लागू करने में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गईं। भूमि की उत्पादन शक्ति, उसका मूल्य तथा उसका किराया तय करना और भूमि का वर्गीकरण करना सरल कार्य नहीं था। अधिकांश अधिकारियों ने इन कार्यों को पूरा करने में असमर्थता व्यक्त की। भूमि के बारे में अभिलेखों से पूर्ण जानकारी प्राप्त करना सम्भव नहीं था, क्योंकि ब्रिटिश शासन के अधीन भूमि के स्वामित्व में निरन्तर परिवर्तन आ रहे थे। इसके अतिारिक्त इस व्यवस्था में लगान एक निश्चित अवधि के लिए निर्धारित किया गया किन्तु सरकार की माँग अत्यधिक होने के कारण तथा कर-वसूली में कठोरता अपनाने के कारण यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगी। इसलिए लॉर्ड विलियम बैंटिक के प्रयत्नों से 1833 ई. के रेग्यूलेशन-9 द्वारा इस व्यवस्था के सिद्धान्तों में कुछ परिवर्तन किये गये। इसके द्वारा भूमि की उपज एवं भूमि किराये का अनुमान लगाने की पद्धति सरल बना दी गई। भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि के लिए अलग-अलग औसत किराये निश्चित किये गये। लगान निश्चित करने के लिए पहली बार मानचित्रों और पंजिकाओं का प्रयोग किया गया। नई भूमि योजना मार्टिन बोर्ड के निर्देशन में तैयार की गई। इस योजना के अनुसार एक भाग की भूमि का सर्वेक्षण किया जाता था जिसमें खेतों की वास्तविक स्थिति देखी जाती थी। बंजर भूमि तथा उपजाऊ भूमि को स्पष्ट रूप से पंजीकृत किया गया। इसके बाद समस्त माँग और फिर समस्त गाँव की भूमि का अध्ययन कर भूमि-कर निर्धारित किया गया। प्रत्येक गाँव या महाल के अधिकारियों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल समायोजित करने का अधिकार दिया गया। भूमि-किराये का 66 प्रतिशत राज्य सरकार का हिस्सा तय किया गया और यह व्यवस्था 30 वर्ष की अवधि के लिए लागू कर दी गई। 1855 ई. में सरकार ने लगान को कुल पैदावार का पचास प्रतिशत कर दिया किन्तु आधा भाग निर्धारित करते समय भविष्य में होने वाली वृद्धि का भी ध्यान रखा गया।
ग्राम व्यवस्था
पंजाब में संशोधित महलवाड़ी व्यवस्था लागू की गई जिसे ग्राम व्यवस्था भी कहा गया।
महालवाड़ी बन्दोबस्त का कृषकों पर प्रभाव
इस बन्दोबस्त से किसानों को कोई लाभ नहीं पहुँचा। बंगाल में ब्रिटिश सरकार ने भूमि नीति में, सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों को महत्त्व दिया था किन्तु उस प्रकार की नीति नये बन्दोबस्त में नहीं अपनाई गई। फिर भी, सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त करने के लिए यहाँ होड़-सी मच गई और जमींदारी व्यवस्था के समस्त लक्षण प्रकट होने लगे। अतः यह व्यवस्था जमींदारी व्यवस्था का ही संशोधित रूप कही जा सकती है। यहाँ लगान सम्बन्धी निर्णय जल्दबाजी और लापरवाही से किये गये। अधिकांश समझौतों में लगान दर, गलत अभिलेखों या अपूर्ण अध्ययन के आधार पर तय की गई तथा इन निर्णयों को कठोरता से लागू किया गया। इस प्रकार केवल कानपुर क्षेत्र में ही प्रथम तीन वर्ष की अवधि में 238 जमींदारों को भूमि अधिकार से वंचित होना पड़ा। भूमि का स्वामित्व बदलते रहने से किसानों पर घातक प्रभाव पड़ा। इस व्यवस्था में भूमि-कर बहुत अधिक तय किया गया जिससे किसानों को अत्यधिक कठिनाई उठानी पड़ी और अन्ततः इन क्षेत्रों में भी भूमि, व्यापारियों एवं साहूकारों के हाथों में चली गई। चूँकि यह व्यवस्था जमींदारी प्रथा का ही संशोधित रूप थी, अतः इसमें जमींदारी प्रथा के समस्त दोष उत्पन्न हो गये। करों का भारी बोझ होने के कारण किसानों की स्थिति दयनीय हो गयी।यह व्यवस्था बोर्ड द्वारा बहुत ही कठोरता से तैयार की गई थी जिसमें पुराने जमींदारों या तालुकेदारों के अधिकारों की अवहेलना की गई थी। अतः इस पद्धति की कठोरता ने ही 1857 ई. में तालुकेदारों को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ब्रिटिश भू-राजस्व नीति, निरन्तर प्रयोगों के परिणाम स्वरूप विकसित हुई थी। इसकी तीन प्रमुख पद्धतियाँ थीं-
(1.) बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस खण्ड और उत्तरी कर्नाटक में जमींदारी अथवा स्थायी भूमि बन्दोबस्त: यह व्यवस्था भारत की 19 प्रतिशत भूमि पर लागू की गई।
(2.) बम्बई और मद्रास क्षेत्र के अधिकांश भागों, असम और अन्य भागों में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त: यह व्यवस्था भारत की 51 प्रतिशत भूमि पर लागू हुई।
(3.) उत्तर-पश्चिमी प्रांत, मध्य प्रांत तथा पंजाब में महलवाड़ी बन्दोबस्त: यह व्यवस्था भारत की 30 प्रतिशत भूमि पर आरम्भ की गई।
ये तीनों ही पद्धतियां भारतीय परम्परागत प्रथाओं के विरुद्ध थीं। जमींदारी प्रथा इंग्लैण्ड में प्रचलित सामंतवादी प्रथा का प्रतिरूप थी। रैयतवाड़ी प्रथा फ्रांस में प्रचलित कृषक स्वामित्व का प्रतिरूप थी और महलवाड़ी प्रथा भारतीय आर्थिक समुदाय का प्रतिरूप थी।
इन तीनों पद्धतियों में लगान की दर 66 प्रशित से लेकर 80 प्रतिशत तक थी जिसने किसानों पर आर्थिक बोझ अत्यधिक बढ़ा दिया। इनके लागू होने से भारत की ग्राम्य प्रधान अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। अँग्रेजों ने भू-व्यवस्था के सम्बन्ध में जो प्रयोग किये, वे सामन्ती व्यवस्था को बनाये रखने के प्रयास थे जिनमें साधारण किसानों के हितों की पूर्णतः अवहेलना की गई। इससे देश में भूमिहीन किसानों की संख्या बढ़ने लगी। चूँकि भारतीय पूंजीपतियों के लिये औद्योगिक स्पर्धा में ब्रिटिश पूँजीपतियों के समक्ष टिके रहना संभव नहीं था इसलिये भारत के पूँजीपति वर्ग ने, खेती में अपनी पूँजी लगाई तथा पूँजीपतियों ने गाँवों में पुराने जमींदारों का स्थान ले लिया। इन नये जमींदारों को किसानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी क्योंकि उनका उद्देश्य अपने पूँजी निवेश पर अधिक से आधिक लाभ प्राप्त करना था। इसलिए नये जमींदार भी किसानों का शोषण करने में जुट गये। सरकार ने किसानों को कोई संरक्षण नहीं दिया और न ही कृषि में सुधार करने का प्रयत्न किया। इन कारणों से भारत में स्थान-स्थान पर किसान आन्दोलन उठ खड़े हुए।
इतनी भयावह परिस्थितियों में भी भारतीय किसान पूरे जीवट के साथ जीवित था जिसने अब भी विश्व के अन्य देशों के किसानों की तुलना में खेती के शानदार ढंग को बनाये रखा था। ब्रिटिश सरकार को आर्थिक और भारतीय पैदावार के सम्बन्ध में सलाह देने वाले अधिकारी जॉर्ज बॉट ने 1894 ई. में सरकार को सलाह देते हुए कहा- ‘यदि केवल अविकसित साधनों के मूल्य और विस्तार को देखा जाये तो संसार के बहुत कम देशों में खेती का इतने शानदार ढंग से विकास करने की क्षमता है, जैसी भारत में है।’