Saturday, July 27, 2024
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यह तो दलितों का अपना ही धर्म है, संभालिए इसे !

(28 मई 2017 को लिखा गया आलेख)

दलितों की राजनीति करके उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री के पद को सुशोभित करने वाली बहिन मायावती जीवन के 61 बसंत देख चुकी हैं। अब तक उन्होंने हिन्दू धर्म के भीतर बने रहकर वह सब प्राप्त किया है जो बिरलों को ही उपलब्ध होता है। अब वे हिन्दुओं को सुधरने की नसीहत देते हुए, हिन्दू धर्म छोड़ने की धमकी दे रही हैं। मायावती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अत्यंत छोटे बादलपुर गांव के दलित परिवार में जन्मीं, जीवन भर अविवाहित रहीं, 1977 में शिक्षिका बनीं, 1984 में राजनीति में आईं तथा 1995, 1997, 2002 एवं 2007 में कुल चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनकर दलित राजनीति की पुरोधा बनीं।

वर्ष 2007-08 में उन्होंने 26 करोड़ रुपए से अधिक राशि का व्यक्तिगत आयकर चुकाया। इसके बाद उनकी आय तेजी से बढ़ने लगी और वे आयकर विभाग की उस सूचि में बीसवां स्थान पा गईं जिस सूची में शाहरूख खान तथा सचिन तेंदुलकर जैसे सर्वाधिक आयकर चुकाने वाले लोगों के नाम हैं। वे भारत की संसद के उच्च सदन अर्थात् राज्यसभा की सदस्य भी रही हैं।

वर्तमान समय में सम्पूर्ण देश में जैसा राजनीतिक परिदृश्य बना है, उसमें पूरा देश जाति-पांति (सवर्ण, दलित आदि), प्रांतीयता (उत्तर-दक्षिण एवं पूर्वी प्रांत आदि), भाषाई आग्रह (हिन्दी-तमिल आदि), साम्प्रदायिक उन्माद (हिन्दू-मुसलमान आदि) तथा राजनीतिक-वाद (पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, माओवाद, नक्सलवाद आदि) तमाम संकुचनों को भूलकर शुद्ध राष्ट्रीयता की भावना पर चल पड़ा है जिसके कारण बहिन मायावती को आगे की डगर अत्यंत कठिन दिखाई दे रही है और वे हिन्दू धर्म छोड़ने की धमकी देकर एक बार फिर से दलित राजनीति को उद्वेलित करके अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास कर रही हैं।

मायावती की धमकी पर आगे विचार करने से पूर्व हमें हिन्दू धर्म की वास्तविक स्थिति पर किंचित् विचार कर लेना चाहिए। हिन्दू धर्म किसी जाति विशेष या विचार विशेष या सिद्धांत विशेष के कारागृह में कभी भी बंद नहीं रहा है। यह इतना उदार और इतना सर्वव्यापी है कि वह कभी किसी कारा में बंद हो भी नहीं सकता।

कहा जाता है कि हिन्दू धर्म तो एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसका अनुसरण करने वाले लोग विभिन्न आध्यात्मिक मान्यताओं का स्वतंत्र रूप से पालन करते हैं। भारत का प्राचीन धर्म वैदिक धर्म था जिसमें से शैव, शाक्त एवं वैष्णव आदि मतों का प्राकट्य हुआ और ये मत ही सामूहिक रूप से हिन्दू धर्म कहलाते थे। वर्तमान में हिन्दू धर्म का जो स्वरूप दिखाई देता है उसका निर्धारण नौवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की अवधि में रामानुजाचार्य, मावधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानंदाचार्य तथा वल्लभाचार्य आदि वैष्णव संतों ने किया।

उन्होंने जिन नवीन आध्यात्मिक सिद्धांतों एवं मतों की स्थापना की, उन मतों का सम्मिलित रूप ही आज का हिन्दू धर्म है। रामानंदाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी में अपने जिन बारह प्रमुख शिष्यों का चुनाव किया, उनमें सभी जाति पांति के लोग थे- संत धन्ना जाति जाट से थे, कबीर जुलाहा जाति से थे, रैदास चर्मकार थे, पीपा क्षत्रिय थे जो गुरु के आदेश से दर्जी बन गए थे, सेन नाई थे, नरहर्यानंद काशी की कुलीन परम्परा के सुंस्कृत ब्राह्मण थे। रामानंद ने स्त्रियों को भी अपने प्रमुख शिष्यों में स्थान देकर स्त्री-और पुरुष के बीच के अध्यात्मिक अधिकारों की खाई को भी पाटने की घोषणा की।

रामानंद ने कहा- ‘सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा। शक्ता अशक्ता अपित नित्यरंगिणः। अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापि काले न हि शुद्धता च।’ अर्थात्- भगवान के चरणों में अटूट अनुराग रखने वाले सभी लोग चाहे वे समर्थ हों या असमर्थ, भगवत् शरणागति के नित्य अधिकारी हैं। भगवत् शरणागति के लिए न तो श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न किसी प्रकार की शुद्धि ही अपेक्षित है। सब समय और शुचि-अशुचि सभी अवस्थाओं में जीव उनकी शरण ग्रहण कर सकता है।

रामानंद के समस्त शिष्य अपने समय के प्रसिद्ध संत हुए। इन सभी संतों ने मिलकर हिन्दू धर्म को नया आकार दिया, वही हिन्दू धर्म चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी से लेकर आज तक चला आ रहा है। रामानंद के शिष्य कबीर ने घोषणा की- ‘साखत बामन मत मिलो, बैस्नो मिलो चण्डाल, अंक माल दे भेंटिये माना मिले गोपाल।’ अर्थात् ऐसे ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं है जो वामाचारी हो, यदि वैष्णव धर्म को मानने वाला सबसे छोटी जाति का मनुष्य मिले तो उससे ऐसे मिलिए जैसे कि स्वयं गोपाल मिल गए हों।

संत पीपा ने समस्त सांसारिक बंधनों को शिथिल करते हुए कहा- ‘पीपा पाप न कीजिए, अलगो रीजै आप, करणी जासी आप री कुण बेटो, कुण बाप।’

संत रैदास ने- ‘प्रभुजी तुम चंदन हम पानी’ कहकर मनुष्य मात्र को ईश्वर से एकाकार करने की घोषणा की।

उस युग के वैष्णव संतों ने एक मत से घोषणा की- ‘जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि भजै सो हरि का होई।’

उस युग के वैष्णव संतों की उदारता के कारण जाति, वर्ग, सम्प्रदाय एवं मत-मतांतरों की समस्त वर्जनाएं तोड़ दी गईं। इस कारण छोटी मानी जाने वाली जातियों के लोगों को बड़े संतों की पंक्ति में प्रतिष्ठा मिलने लगी। इस स्थिति को देखकर किसी कवि ने चुटकी लेते हुए कहा है- ‘जाट जुलाह जुरे दरजी, मरजी में रहै रैदास चमारौ, ऐते बड़े करुणा निधि को इन पाजिन ने, दरबार बिगारौ।’

एक अन्य कवि ने चुटकी लेते हुए कहा- ‘ब्रज रज दुर्लभ देवन कू, कछु जाटन कू कछु मेवन कू।’

भक्त शिरोमणि सूरदास ने भगवान श्रीकृष्ण के उदार चरित पर गोपियों के माध्यम से चुटकी लेते हुए कहा- ‘घर घर माखन चोरत डोलत, तिनके सखा तुम ऊधौ, सूर परेखो काकौ कीजे बाप कियो जिन दूजौ।’

रामानंद के एक शिष्य नरहर्यानंद काशी के प्रकाण्ड पण्डित थे। नरहर्यानंद के शिष्य गोस्वामी तुलसीदास हुए। उन्होंने अपने गुरुओं के काम को आगे बढ़ाते हुए रामचरित मानस में घोषणा की- ‘सबहि सुलभ सब दिन सब देसा, सेवत सादर समन कलेसा।’ अर्थात् रामचरित मानस नामक यह ग्रंथ सब लोगों के लिए, प्रत्येक दिन और प्रत्येक स्थान पर सुलभ है। इसका निष्ठा-पूर्वक सेवन करने से क्लेशों का शमन होता है।

तुलसी उस काल के सबसे बड़े जनकवि बन गए और उन्होंने धर्म की बची-खुची वर्जनाओं को तोड़ डाला। उन्होंने ‘सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।’ कहकर सुगणोपासकों और निर्गुणापासकों के बीच की दीवार गिरा दी।

उन्होंने- ‘सिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा। संकर बिमुख भगति चह मोरी, सो नारकी मूढ़ मति थोरी।’ कहकर वैष्णवों और शैवों के बीच की दीवार को ढहाया।

तुलसी बाबा ने ‘भगतहि ज्ञानही नहीं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा।’ कहकर भक्ति-मार्गियों और ज्ञान-मार्गियों के बीच की दीवार गिराने की घोषणा कर दी।

इस प्रकार चौदहवीं से सोलहवीं सदी के बीच नवीन रूप धारण करने वाला हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म था जिसके कवि, लोक भाषा में जन साधारण को सम्बोधित कर रहे थे तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्म के दरवाजे खोलने में सफल रहे थे। वे सब एक स्वर में एक ही बात कह रहे थे- ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता को स्वीकार करो, सदाचरण पर स्थिर रहो और प्राणी मात्र में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन करो। हिन्दू धर्म के इस नए संस्करण के सामने आने के बाद ‘दलित’ जैसा शब्द नितांत अप्रासंगिक हो जाता है। फिर भी कुछ दुराग्रही लोगों ने मंदिरों के दरवाजे बंद रखे। इन मंदिरों के दरवाजे भी देश की आजादी के बाद प्रत्येक मानव के लिए खोल दिए गए।

इसके पश्चात् तो दलित शब्द नितांत अप्रांगिक हो जाना चाहिए था किंतु आजाद भारत में वोटों की राजनीति के उद्देश्य से निर्धन जातियों के लिए दलित शब्द का प्रयोग किया गया जिसका लाभ कांग्रेस से लेकर, वामपंथयों एवं समाजवादियों के विभिन्न धड़ों ने उठाया और बहिन मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनकर भी दलित बनी रहीं। वे भारत की सबसे बड़ी आयकर-प्रदाताओं में सम्मिलित होकर भी हिन्दू धर्म को मनुवादियों एवं दलितों में विभाजित करने का असाध्य परिश्रम करती रहीं।

राजनीति में सब दिन एक जैसे नहीं होते, मायावती के भी नहीं रहे। देश में आई हुई राष्ट्रीयता एवं हिन्दुत्व की लहर में अपने दुर्दिनों को देखकर मायावती हिन्दू धर्म छोड़ने की धमकी दे रही हैं ताकि दलित कहे जाने वाले निर्धन लोगों को देश की मूल धारा से अलग करके अपने परम्परागत वोट बैंक को पुनः अपनी ओर मोड़ा जा सके। उनके इस दुष्प्रयास को पूरी तरह नकारा जाना चाहिए। मायावती जिन्हें दलित कह रही हैं, वस्तुतः हिन्दू धर्म ही उस दलित वर्ग का मूल धर्म है।

यदि वे अपने राजनीतिक अनुयाइयों सहित बौद्ध बनने की धमकी देती हैं तो वे जान लें कि बौद्ध धर्म भी इसी हिन्दू धर्म का हिस्सा है। हजारों साल से हिन्दू धर्म भगवान बुद्ध को विष्णु के दशावतारों में से एक समझता और मानता आया है। इसलिए वे बौद्ध होकर भी हिन्दू धर्म में बनी रहेंगी। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि दलित इस बात को समझें कि हिन्दू धर्म उनका अपना धर्म है, वे इसे संभालें तथा मायावती के खतरनाक दुष्प्रयासों को एक स्वर से नकार दें।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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