Wednesday, October 9, 2024
spot_img

शाइस्ता खाँ को शिकस्त (6)

शाइस्ता खाँ की शर्मनाक पराजय शिवाजी के इतिहास का गौरवमयी पन्ना है तो औरंगजेब के लिए बहुत बड़ा कलंक।

औरंगजेब स्वयं दक्खिन के मोर्चे पर रहकर और दक्खिन की सूबेदारी करके दक्खिन की राजनीतिक परिस्थितियों को अपनी आंखों से अच्छी तरह देख आया था। उसके दक्खिन से चले आने के बाद से शिवाजी की गतिविधियों में जो तेजी आई थी, औरंगजेब उससे भी अपरिचित नहीं था।

औरंगजेब अनुभव करता था कि शिवाजी, मुगल साम्राज्य के लिए भविष्य का संकट है। इसलिए औरंगजेब जब मुगलों के तख्त पर बैठा, उसने अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्खिन का सूबेदार नियत किया तथा उसे निर्देश दिए कि वह दक्खिन में जाकर शिवाजी का सफाया करे। औरंगजेब की आधिकारिक जीवनी आलमगीरनामा में इस आदेश के सम्बन्ध में कहा गया है कि-

”शक्तिशाली बनकर शिवाजी ने बीजापुरी राज्य के प्रति सभी तरह का भय और लिहाज छोड़ दिया। उसने कोंकण क्षेत्र को रौंदना और तहस-नहस करना आरम्भ कर दिया। यदा-कदा अवसर का लाभ उठाकर उसने बादशाह के महलों पर हमले किए।

तब बादशाह ने दक्कन के सूबेदार अमीर-उल-अमरा (शाइस्ता खाँ) को हुक्म दिया कि वह शक्तिशाली सेना के साथ कूच करे, नीच का दमन करने का प्रयास करे, उसके इलाकों और किलों को हथिया ले और क्षेत्र को तमाम अशांति से मुक्त करे।”

शाइस्ता खाँ मक्कार व्यक्ति था। उसे कई युद्ध करने का अनुभव था। ई.1660 के आरंभ में वह विशाल सेना लेकर औरंगाबाद के लिए रवाना हुआ तथा 11 फरवरी 1660 को अहमदनगर जा पहुंचा। 25 फरवरी 1660 को वह अहमदनगर से दक्खिन के लिए रवाना हुआ।

अभी शाइस्ता खाँ मार्ग में ही था कि उसे अफजल खाँ का वध हो जाने के समाचार मिले। उसने अपनी सेना को तेजी से आगे बढ़ने के लिए कहा। दक्खिन तक पहुंचने से पहले ही उसे फजल खाँ, रूस्तमेजा तथा सिद्दी जौहर की विफलताओं के समाचार भी मिले। जब तक शाइस्ता खाँ, दक्खिन पहुंचता, पन्हाला दुर्ग शिवाजी के हाथ से निकल चुका था।

9 मई 1660 को शाइस्ता खाँ पूना पहुंच गया। मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह को भी शिवाजी के विरुद्ध लड़ने के लिए दक्खिन पहुंचने के निर्देश दिए गए। वे भी अपनी विशाल सेना के साथ पूना की तरफ बढ़ने लगे। शाइस्ता खाँ तथा जसवंतसिंह को इतने बड़े सैन्य दलों के साथ आया देखकर शिवाजी संकट में पड़ गया।

कर्तलब अली खाँ को शिकस्त

शाइस्ता खाँ स्वयं तो पूना पर अधिकार करके शिवाजी के निवास स्थान अर्थात् लालमहल में डेरा जमाकर बैठ गया और अपने सिपहसालार कर्तलब अली खाँ की कमान में एक सेना शिवाजी के कोंकण क्षेत्र वाले दुर्गों पर अधिकार करने भेजी। ई.1660 के अंत में कर्तलब खाँ भारी फौज के साथ लोणावाला के समीप घाटों से नीचे उतर गया।

शिवाजी कोंकण के चप्पे-चप्पे से परिचित थे इसलिए उन्होंने कर्तलब अली खाँ को भारी जंगल में प्रवेश करने दिया। शिवाजी ने उसे उम्बर खिन्ड नामक ऐसे दर्रे में घेरने की योजना बनाई जहाँ से कर्तलब का बचकर निकलना बहुत कठिन था। यह दर्रा 20-22 किलोमीटर लम्बे-चौड़े जलविहीन क्षेत्र के निकट स्थित निर्जन पहाड़ी में बना हुआ है जिसमें से एक साथ दो आदमी भी नहीं निकल सकते।

दर्रे के दोनों तरफ ऊंची पहाड़ियां हैं। शिवाजी ने अपनी सेना को इन्हीं पहाड़ियों में छिपा दिया। फरवरी 1661 में मुगल सेना अपनी तोपें और रसद लेकर खिन्ड दर्रे तक पहुंची। शिवाजी की सेना ने उसके आगे और पीछे दोनों तरफ के मार्ग बंद कर दिए। मुगल सेना एक सीमित क्षेत्र में घेर ली गई।

अब शिवाजी के आदमी पहाड़ियों के ऊपर से मुगलों पर पत्थरों, लकड़ियों तथा गोलियों से हमला करने लगे। मुगल सेना पिंजरे में बंद चूहे की तरह फंस गई। कुछ ही समय में उसके पास पानी समाप्त हो गया। सैंकड़ों मुगल सिपाही इस घेरे में मारे गए। कर्तलब अली खाँ के स्वयं के प्राण संकट में आ गए।

उसने शिवाजी के पास, युद्ध बंद करने का अनुरोध भिजवाया। शिवाजी ने उससे भारी जुर्माना वसूल किया तथा उसकी सारी सैन्य-सामग्री छीन ली। कर्तलब अली खाँ अपने बचे हुए सिपाहियों को लेकर शाइस्ता खाँ के पास लौट गया।

कोंकण प्रदेश की रियासतों पर अधिकार

कर्तलब खाँ को परास्त करने के बाद शिवाजी ने कोंकण प्रदेश में स्थित बीजापुर राज्य के दाभोल, संगमेश्वर, चिपलूण तथा राजापुर आदि कस्बों तथा पाली एवं शृंगारपुर आदि छोटी रियासतों को अपने राज्य में मिलाने का निर्णय लिया।

उन्होंने एक सेना नेताजी पाल्कर के नेतृत्व में रखी जो मुगलों को उलझाए रखे और स्वयं एक सेना लेकर कोंकण का बचा हुआ प्रदेश जीतने लगा। 19 अप्रेल 1661 को उसने शृंगारपुर पर अधिकार कर लिया। ई.1661 का ग्रीष्मकाल शिवाजी ने कोंकण प्रदेश के वर्द्धनगढ़ में व्यतीत किया।

शाइस्ता खाँ का मान-मर्दन

शिवाजी शाइस्ता खाँ को कोंकण के पहाड़ों में खींचना चाहता था इसलिए वह कोंकण के किलों की विजय में संलग्न था किंतु शाइस्ता खाँ समझ गया था कि शिवाजी के पीछे जाना, साक्षात मृत्यु को आमंत्रण देना है। अतः वह पूना में बैठा रहा। उसने शिवाजी के पूना, पन्हाला, चाकन आदि कई महत्वपूर्ण दुर्गों पर अधिकार कर लिया।

मई 1661 में शाइस्ता खाँ ने कल्याण तथा भिवण्डी के किलों पर भी अधिकार कर लिया। ई.1662 में शिवाजी के राज्य की मैदानी भूमि भी मुगलों के अधिकार में चली गई किंतु अब भी बहुत बड़ी संख्या में किले शिवाजी के अधिकार में थे जिन्हें शाइस्ता खाँ छीन नहीं पा रहा था।

शिवाजी की सेनाओं ने शाइस्ता खाँ को कई मोर्चों पर परास्त कर पीछे धकेला किंतु इस अभियान में शिवाजी के सैनिक भी मारे जा रहे थे। ऐसा समझा जाता है कि शाइस्ता खाँ जानबूझ कर अभियान को लम्बा करना चाहता था ताकि उसे औरंगजेब द्वारा चलाए जा रहे कंधार अभियान में न जाना पड़े।

इसलिए वह थोड़ी-बहुत कार्यवाही करके औरंगजेब को यह दिखाता रहा कि शिवाजी के विरुद्ध अभियान लगातार चल रहा है। जनवरी 1662 में शाइस्ता खाँ ने शिवाजी के 80 गांवों में आग लगा दी। शिवाजी ने इस कार्यवाही का बदला लेने का निर्णय लिया। शाइस्ता खाँ, शिवाजी के पूना स्थित लालमहल में रह रहा था, यह भी शिवाजी के लिए असह्य बात थी। इसलिए शिवाजी ने शाइस्ता खाँ का नाश करने के लिए दुस्साहसपूर्ण योजना बनाई।

अप्रेल 1663 के आरम्भ में शिवाजी पूना के निकट स्थित सिंहगढ़ में जाकर जम गया। 5 अप्रेल 1663 को शिवाजी ने अपने 1000 चुने हुए सिपाहियों को बारातियों के रूप में सजाया तथा उन्हें लेकर रात्रि के समय सिंहगढ़ से नीचे उतर आया। दिन के उजाले में इस अनोखी बारात ने गाजे-बाजे के साथ पूना नगर में प्रवेश किया।

यह बारात संध्या होने तक शहर की गलियों में नाचती-गाती और घूमती रही। संध्या होते ही शिवाजी के 200 सैनिक बारातियों वाले कपड़े उतारकर साधारण सिपाही जैसे कपड़ों में, मुगल सैन्य शिविर की ओर बढ़ने लगे। जब उन्हें मुगल रक्षकों द्वारा रोका गया तो उन्होंने कहा कि वे शाइस्ता खाँ की सेना के सिपाही हैं।

चूंकि मुगल सेना में हिन्दू सैनिकों की भर्ती होती रहती थी तथा शाइस्ता खाँ ने शिवाजी के विरुद्ध लड़ाई के लिए हजारों हिन्दू सैनिकों को भरती किया था, इसलिए किसी ने इन सिपाहियों पर संदेह नहीं किया। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी लेखक भीमसेन ने लिखा है कि शिवाजी अपने 200 सैनिकों के साथ 40 मील पैदल चलकर आए तथा रात्रि के समय शिविर के निकट पहुंचे।

शिवाजी एवं उसके सैनिक, लालमहल के पीछे की तरफ जाकर रुक गए और रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगे। अर्द्धरात्रि में उन्होंने महल के एक कक्ष की दीवार में छेद किया। शिवाजी इस महल के चप्पे-चप्पे से परिचित था। जब शिवाजी इस महल में रहता था, तब यहाँ खिड़की थी किंतु इस समय उस स्थान पर दीवार चिनी हुई थी।

इससे शिवाजी को अनुमान हो गया कि इसी कक्ष में शाइस्ता खाँ अपने परिवार सहित मिलेगा। उसका अनुमान ठीक निकला। शिवाजी अपने 200 सिपाहियों सहित इसी खिड़की से महल में घुसा और ताबड़तोड़ तलवार चलाता हुआ शाइस्ता खाँ के पलंग के निकट पहुंच गया। आवाज होने से शाइस्ता खाँ की आंख खुल गई।

उसी समय शिवाजी ने शाइस्ता खाँ पर तलवार से भरपूर वार किया। एक दासी ने शत्रु सैनिकों को देखकर महल की बत्ती बुझा दी। शाइस्ता खाँ के पलट जाने के कारण शिवाजी की तलवार का वार लगभग खाली चला गया किंतु फिर भी उसकी अंगुली कट गई।

ठीक इसी समय शिवाजी की बारात के सिपाहियों ने जोर-जोर से बाजे बजाने आरम्भ कर दिए जिससे महल के चारों ओर पहरा दे रहे सिपाहियों को महल के भीतर चल रही गतिविधि का पता नहीं चला और मराठा सिपाहियों ने पूरे महल में मारकाट मचा दी। शाइस्ता खाँ, अंधेरे का लाभ उठाकर भागने में सफल हो गया।

शिवाजी के सैनिकों ने शाइस्ता खाँ के पुत्र अबुल फतह को शाइस्ता खाँ समझकर उसका सिर काट लिया तथा अपने साथ लेकर भाग गए। शाइस्ता खाँ का एक सेनानायक भी मारा गया। इस कार्यवाही में शाइस्ता खाँ के 50 से 60 लोग घायल हुए।

धीरे-धीरे मुगल सिपाहियों को सारी बात समझ में आ गई कि हुआ क्या है, वे महल के बाहर एकत्रित होने लगे। शिवाजी भी चौकन्ना था, उसने तेज ध्वनि बजाकर संकेत किया और उसके सैनिक, शिवाजी को लेकर महल तथा मुगल शिविर से बाहर निकल गए।

मुगल सिपाही, आक्रमणकारियों को महल के भीतर ढूंढते रहे और शिवाजी पूना से बाहर सुरक्षित निकलने में सफल रहा। मार्ग में मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह का सैन्य शिविर था किंतु वहाँ किसी को कुछ पता नहीं चल सका था, इसलिए शिवाजी को पूना से निकल भागने में किसी तरह की कठिनाई नहीं हुई।

शाइस्ता खाँ की बदली

अफजल खाँ की हत्या जिस प्रकार हुई और पूना के लाल महल में रात भर जो कुछ हुआ, उससे मुगलों की नींद हराम हो गई। उनके लिए शिवाजी किसी रहस्यमयी शक्ति से कम नहीं रह गया था जो कहीं भी, कभी भी पहुंच कर कुछ भी कर सकता था। औरंगजेब शाइस्ता खाँ की इस असफलता पर बहुत क्रोधित हुआ और उसे अपने डेरे डण्डे उठाकर बंगाल जाने के निर्देश दिए। शाइस्ता खाँ भी यहाँ रुकना मुनासिब न समझकर, चुपचाप रवाना हो गया।

जसवंतसिंह की भूमिका

जोधपुर नरेश महाराजा जसवंतसिंह के शिविर के सामने से, शाइस्ता खाँ के पुत्र का कटा हुआ सिर लेकर, मराठा सैनिकों का भाग निकलना एक संदेहास्पद घटना थी। इससे पूरे देश में यह प्रचलित हो गया कि शिवाजी के इस कार्य में महाराजा जसवंतसिंह की प्रेरणा काम कर रही थी क्योंकि शाइस्ता खाँ ने औरंगजेब से शिकायत करके धरमत के युद्ध के बाद महाराजा जसवंतसिंह को पदच्युत करवाया था।

समकालीन लेखक भीमसेन कहता है- ”केवल ईश्वर जानता है कि सत्य क्या है!”

जसवंतसिंह की वापसी

महाराजा जसवंतसिंह को शाइस्ता खाँ के साथ दक्षिण के अभियान पर भेजा गया था किंतु वह शिवाजी के विरुद्ध किए जा रहे अभियान से सहमत नहीं था। इसलिए उसे कोई सफलता नहीं मिली। नवम्बर 1663 में जसवंतसिंह के नेतृत्व में शिवाजी के प्रसिद्ध दुर्ग सिंहगढ़ पर आक्रमण हुआ।

समकालीन लेखक भीमसेन ने लिखा है- ”जसवंतसिंह ने कोंडाणा दुर्ग (सिंहगढ़ का पुराना नाम) की घेराबंदी की। मुगलों ने किले की दीवारों पर चढ़ने का प्रयास किया। इस आक्रमण में अनेक मुगलों और राजपूतों की जानें गईं। बारूदी विस्फोट से भी बहुत से लोग मारे गए। किले को जीतना असंभव हो गया।”

असफलता से निराश महाराजा जसवंतसिंह और राव भाऊसिंह हाड़ा ने 28 मई 1664 को किले पर से घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गए।

आलमगीरनामा में बड़े खेद के साथ टिप्पणी की गई है- ”एक भी किले पर कब्जा नहीं हो पाया। शिवाजी के विरुद्ध अभियान कठिनाई में पड़ गया और क्षीण हो गया।”

शिवाजी द्वारा औरंगजेब को पत्र

शाइस्ता खाँ और महाराजा जसवंतसिंह के लौट जाने पर शिवाजी ने औरंगजेब को एक कठोर पत्र लिखा-

‘दूरदर्शी पुरुष जानते हैं कि पिछले तीन वर्षों में सम्राट के प्रख्यात सेनापति और अनुभवी अधिकारी इस क्षेत्र में आते रहे हैं। सम्राट ने उन्हें मेरे किलों और इलाकों पर कब्जा करने की आज्ञा दी थी। सम्राट को प्रेषित अपने संवादों में वे लिखते हैं कि इलाकों और किलों पर शीघ्र ही कब्जा कर लिया जाएगा।

यदि कल्पना घोड़े के समान होती तो भी इन इलाकों में उसका आना असंभव होता। इस इलाके पर विजय हासिल करना अति कठिन है। यह वे जानते नहीं हैं! सम्राट को झूठे संदेश भेजने में उन्हें शर्म नहीं आती है। मेरे देश में कल्याणी और बीदर जैसे स्थान नहीं हैं, जो मैदानों में स्थित हैं और हमला कर हथियाए जा सकते हैं।

यह इलाका पर्वत श्रेणियों से भरा हुआ है। इस क्षेत्र में 60 किले हैं। उनमें से कुछ समुद्र तट पर स्थित हैं। अफजल खाँ तगड़ी सेना लेकर आया, परंतु वह निरुपाय हो गया और अंततः नष्ट हो गया। अफजल खाँ की मृत्यु के बाद अमीर-उल-अमरा शाइस्ता खाँ ने ऊँचे पहाड़ों और गहरी घाटियों से भरी मेरी भूमि में प्रवेश किया।

तीन वर्षों तक वह अनथक जूझता रहा। उसने सम्राट को लिखा कि वह शीघ्र ही मेरे इलाके पर जीत हासिल कर लेगा। ऐसी यथार्थ अभिवृत्ति का अंत अपेक्षित ही था। वह अपमानित हुआ और उसे मजबूरन लौटना पड़ा।

अपनी मातृभूमि की रक्षा करना मेरा कर्त्तव्य है। अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए आप सम्राट को झूठे संदेश भेजते हैं। परंतु मैं दैव-कृपा से अभिमंत्रित हूँ। इन इलाकों में कोई भी हमलावर सफल नहीं हुआ है।” 

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source