Saturday, July 27, 2024
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अफजल खाँ का वध (5)

अफजल खाँ का वध औरंगजेब कालीन इतिहास की बड़ी घटना थी जिसने औरंगजेब की सत्ता को न केवल चुनौती दी अपितु इसकी चूलें भी हिला दीं।

शिवाजी मुगलों के आंतरिक क्लेश को ध्यान से देख रहा था। जब मुगल शहजादे उत्तराधिकार के युद्ध में व्यस्त हो गए तो शिवाजी बीजापुर की आदिलशाही पर बिजली बनकर टूट पड़ा और उसके बहुत सारे क्षेत्र अपने राज्य में मिला लिए।

इस समय बीजापुर की गद्दी पर आदिलशाह (द्वितीय) आसीन था। यह वही आदिलशाही थी जो वियजनगर साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर खड़े छोटे हिन्दू राज्यों को निगल गई थी तथा जिसने शाहजी को चार साल तक अपने बंदीगृह में रखा था।

अफजल खाँ का अभियान

बीजापुर का सुल्तान समझ गया कि यदि शिवाजी के विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं की गई तो शिवाजी, सम्पूर्ण आदिलशाही को निगल जाएगा। इसलिए ई.1659 में अफजलखाँ को विशाल सेना के साथ शिवाजी कि विरुद्ध अभियान पर भेजा गया। उससे कहा गया कि शिवाजी से किसी तरह की संधि नहीं की जाए, उसे या तो बंदी बनाया जाए या फिर उसका वध किए जाए।

अफजल खाँ लम्बे-चौड़े डील और दुष्ट स्वभाव का व्यक्ति था। वह अपने वचनों का कभी पालन नहीं करता था, शरण में आए हुए शत्रु को भी निर्ममता से मार डालता था। उसे अनेक युद्धों का अनुभव था। उसने दरबार में घोषणा की कि वह घोड़े से उतरे बिना ही धूर्त शिवाजी को बंदी बनाकर सिंहासन के पायों से बांध देगा।

शिवाजी का प्रण

 इधर शिवाजी भी अफजल खाँ को जान से मारना चाहता था क्योंकि अफजल खाँ ने धोखे से बहुत से हिन्दुओं की हत्या की थी और उनका सर्वनाश किया था। शिरा का हिन्दू शासक कस्तूरी रंगन युद्ध का त्याग करके अफजल खाँ की शरण में आया था तथा अफजल खाँ ने उसकी रक्षा करने का वचन दिया था।

उसके उपरांत भी अफजल खाँ ने बड़ी क्रूरता से कस्तूरी रंगन की उसके परिवार सहित हत्या की थी। यहाँ तक कि अफजल खाँ ने शिवाजी के बड़े भाई सम्भाजी की भी हत्या की थी। शिवाजी, हिन्दुओं के इस शत्रु को किसी भी कीमत पर जीवित नहीं छोड़ना चाहता था।

अफजल खाँ, शिवाजी की सेना में भय एवं आतंक फैलाने के लिए मार्ग के समस्त हिन्दू मंदिरों और देव विग्रहों को तोड़ता हुआ और गांवों को उजाड़ता हुआ आगे बढ़ा। उसने बाई के निकट डेरा डाला। अफजल खाँ की तैयारियों को देखते हुए शिवाजी प्रतापगढ़ दुर्ग में चला गया। यह दुर्ग पहाड़ की एक पतली चोटी पर स्थित था।

इस पर न तो चढ़ाई करके शिवाजी को बाहर निकाला जा सकता था और न ही घेरा डालकर बैठा जा सकता था। इसलिए अफजल खाँ ने एक कपट जाल बुना। उसने कुलकर्णी ब्राह्मण कृष्णजी भास्कर को शिवाजी के पास भेजकर कहलवाया कि अफजल खाँ, शिवाजी के पिता शाहजी का मित्र है।

यदि शिवाजी अफजल के पास चलकर संधि कर ले तो शिवाजी को सुल्तान से क्षमादान दिलवा दिया जाएगा। शिवाजी ने बड़ी आत्मीयता से कृष्णजी भास्कर और उसके साथियों का स्वागत-सत्कार किया तथा उनके ठहरने का प्रबन्ध इस प्रकार किया कि शिवाजी, कृष्णजी के साथियों की दृष्टि में आए बिना, कृष्णजी भास्कर से एकांत में भेंट कर सके।

शिवाजी ने कृष्णजी तथा उसके साथियों से कहा कि मैंने अपनी मूर्खताओं के कारण बहुत ही गंभीर अपराध किए हैं जिनके लिए मैं लज्जित हूँ। यदि अफजल खाँ मुझे शाह से क्षमादान दिलवा चाहें तो मैं आत्मसमर्पण के लिए तैयार हूँ और समस्त दुर्ग वापस करने की इच्छा रखता हूँ। कृष्णजी और उनके साथी, शिवाजी के इस उत्तर से संतुष्ट हो गए।

रात्रि में एकांत पाकर शिवाजी, कृष्णजी से मिलने के लिए पहुंचा और ब्राह्मण के पैर पकड़कर बोला-

”मैंने आज तक जो कुछ भी किया है वह हिन्दू धर्म एवं हिन्दुत्व की भलाई के लिए किया है। मुझे तुलजा भवानी ने स्वप्न में आदेश दिया है कि मैं गौ, ब्राह्मण और हिन्दू मंदिरों में विराजित देव विग्रहों की रक्षा करूं। जो धर्मविरोधी लोग देवालयों को तोड़कर नष्ट कर रहे हैं, मैं उन्हीं को समाप्त करने एवं दण्डित करने का कार्य कर रहा हूँ। ब्राह्मण होने के नाते आपका भी यह कर्त्तव्य है कि इस पुनीत कार्य में मेरी सहायता करें। इसके लिए आपको पुण्य और पारितोषिक दोनों प्राप्त होंगे।”

ऐसा कहकर शिवाजी ने कृष्णजी को बहुमूल्य उपहार दिए तथा दीपरा नामक गांव इनाम में देने का वचन दिया। यह गांव पीढ़ी-दर पीढ़ी कृष्णजी के परिवार के पास ही रहने देने का वचन भी दिया।

कृष्णजी इस समय दुष्ट अफजल खाँ का दूत बनकर आया था किंतु वह भी मुसलमानों द्वारा हिन्दू प्रजा पर किए जा रहे अत्याचारों से बहुत दुःखी था। इसलिए उसने हिन्दू धर्म के रक्षक और प्रजा वत्सल राजा शिवाजी की सहायता करने का निर्णय लिया।

उसने शिवाजी को बता दिया कि अफजल खाँ का प्रण है कि वह शिवाजी को बंदी बनाकर सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत करेगा। कृष्णजी ने शिवाजी को सलाह दी कि किसी भी तरह सुल्तान से संधि करने में ही भलाई है क्योंकि तुम किसी भी प्रकार विजयी नहीं हो सकते।

शिवाजी ने कृष्णजी की बातों से सहमति जताई तथा अपने दूत गोपीनाथ पंतोजी को अफजल खाँ के पास संधि की शर्तें तय करने के लिए नियुक्त किया। कृष्णाजी भास्कर, पन्तोजी को अपने साथ लेकर अफजल खाँ के शिविर में गया।

कृष्णाजी ने अफजल खाँ को समझाया कि शिवाजी संधि करने को तत्पर है क्योंकि वह जानता है कि वह अफजल खाँ से लड़कर जीत नहीं सकता। गोपीनाथ पंतोजी चतुर राजनीतिज्ञ था। उसने अफजल खाँ को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह अपने एक अंगरक्षक की उपस्थिति में शिवाजी से मिले तथा शिवाजी भी अपने एक अंगरक्षक के साथ मिलने के लिए आए।

यदि अफजल खाँ शिवाजी की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले तो शिवाजी, सुल्तान के समक्ष समर्पण कर देगा। अफजल खाँ को अपने शारीरिक बल पर बहुत भरोसा था। वह यह सोचकर प्रसन्न था कि शिवा, अफजल खाँ द्वारा बुने हुए जाल में स्वयं ही फंसने के लिए आ रहा है इसलिए वह प्रतापगढ़ दुर्ग के नीचे शिवाजी से मिलने को तैयार हो गया।

अफजल खाँ का वध

10 नवम्बर 1659 को मध्याह्न पश्चात् 3 से 4 बजे के बीच दोनों के बीच भेंट होनी निश्चित हुई। शिवाजी ने अफजल खाँ से निबटने की हर संभव तैयारी की। उसने प्रतापगढ़ दुर्ग के नीचे की ढालू धरती पर एक शामियाना लगवाया जो चारों तरफ से खुला हुआ था।

वहाँ तक जाने के लिए नीचे से ऊपर तक के वृक्ष एवं झाड़ियां काटकर एक मार्ग बनाया गया तथा अन्य सभी मार्गों को कांटेदार झाड़ियों से अच्छी तरह बंद कर दिया गया। शिवाजी ने नेताजी पाल्कर तथा पेशवा मोरोपंत के नेतृत्व में अपनी मावली सेना को पर्वतीय गुफाओं और झाड़ियों में छिपा दिया जो किसी भी संकट के समय शिवाजी के पास पहुंच कर सहायता कर सके। उन्हें यह भी निर्देश दिए कि जैसे ही दुर्ग से तोप चलने की आवाज हो, मावली सेना तत्काल अफजल खाँ की सेना पर धावा बोल दे।

निर्धारित समय पर अफजल खाँ अपने साथ लगभग डेढ़ हजार सैनिक लेकर प्रतापगढ़ दुर्ग की तरफ रवाना हुआ। गोपीनाथ पंतो ने उससे कहा कि वह अपने अंगरक्षकों को यहीं छोड़ दे अन्यथा शिवाजी मिलने के लिए नहीं आएगा। इस पर अफजल खाँ ने सेना को दुर्ग की तलहटी में ही छोड़ दिया तथा अपने अंगरक्षक सैयद बंदा और मध्यस्थ कृष्णजी भास्कर को लेकर दुर्ग की पहाड़ी पर चढ़ने लगा।

उधर शिवाजी ने प्रातःकाल से ही इस भेंट की तैयारी करने लगा। उसने तुलजा भवानी की पूजा की। शरीर पर लोहे की जाली की पोषाक पहनी तथा उसके ऊपर ढीले-ढाले वस्त्र धारण किये। सिर पर साफे के नीचे इस्पात की टोपी पहनी तथा अपने बाएं हाथ में बघनखा और दाएं हाथ के नीचे बिछुवा छिपा लिया। समस्त तैयारियां पूरी होने पर शिवाजी ने माता जीजाबाई के चरण पकड़ कर आशीर्वाद मांगा और गंतव्य के लिए रवाना हो गया। तानाजी मलसुरे तथा जीवमहला नामक दो अंगरक्षक शिवाजी के साथ चले।

अफजल खाँ, शिवाजी से पहले ही शामियाने में पहुंच गया। शामियाने में शानदार बहुमूल्य कालीन बिछे हुए थे। उन्हें देखकर अफजल खाँ ने कटाक्ष किया कि एक जागीरदार के लड़के को इतनी शानो-शौकत शोभा नहीं देती। तब गोपीनाथ पन्तो ने जवाब दिया- ‘हुजूर यह समस्त सामान, शिवाजी के आत्म समर्पण के साथ ही बीजापुर सुल्तान की सेवा में प्रस्तुत कर दिया जाएगा।’

अब तक शिवाजी आया नहीं आया था, इसलिए संदेशवाहकों को उसे लाने भेजा गया। अफजल खाँ, शिवाजी की इस उद्दण्डता पर झल्लाने लगा। कुछ समय पश्चात् शिवाजी ने तानाजी मालसुरे तथा जीवमहला के साथ शामियाने के निकट आत हुआ दिखाई दिया।

अफजल खाँ का अंगरक्षक सैयद बंदा भी अफजल खाँ की तरह अत्यंत हृष्ट-पुष्ट तथा भारी डील-डौल वाला व्यक्ति था। शिवाजी उसे देखकर शामियाने के बाहर ही ठिठकर खड़ा हो गया। नाटे कद के साधारण शरीर वाले शिवाजी को देखकर अफजल खाँ ने उसकी समस्या को समझ लिया और सैयद बंदा को पीछे हटने को कहा।

शिवाजी ने शामियाने के भीतर आकर अफजल खाँ का अभिवादन किया। अफजल खाँ ने कृष्णजी भास्कर से पूछा कि क्या यही शिवाजी है? कृष्णजी भास्कर के हाँ कहने पर अफजल खाँ ने शिवाजी से पूछा- ”तुमने क्यों हमारे किलों को लूटा और उनको उजाड़ बना दिया?”

शिवाजी ने उत्तर दिया- ”मैंने राज्य की सेवा की है, मैंने डाकू-लुटेरों को किलों से भगाकर शाह का कब्जा करा दिया है। मुझे इनाम मिलना चाहिए, न कि दण्ड।”

अफजल खाँ ने नाराज होकर कहा- ”तुम अब इतने बेखौफ हो गए हो कि तुम्हें शाह का खौफ भी नहीं रहा।”

शिवाजी ने कहा- ”नहीं खाँ साहब, मैं तो शाह की खिदमत कर रहा हूँ और हमेशा उनका खिदमतगार रहूंगा।”

अफजल खाँ ने कहा- ”खैर जो हुआ सो हुआ, अब तुम सारे किले मुझे वापस कर दो और मेरे साथ शाह से अपने इन अपराधों की माफी मांगने बीजापुर चलो।”

शिवाजी ने कहा- ”यदि मैं शाह का इस प्रकार का फरमान पा लूं तो उसे सिर पर रखकर पालन करूंगा।”

तभी कृष्णजी भास्कर ने कहा- ”अभी तुम खान की सुरक्षा में हो, झुककर सलाम करो और माफी मांगो, खान तुम्हें माफ कर देंगे।”

शिवाजी ने जवाब दिया- ”खान और मैं सुल्तान के सेवक हैं, फिर खान कैसे मेरे अपराधों को क्षमा कर सकते हैं? फिर भी यदि आप मुझसे कहते हैं तो मैं आपकी आज्ञा का उल्लघंन नहीं कर सकता और खान की गोद में अपना सिर रखता हूँ।” इतना कहकर शिवाजी और खान गले मिलने के लिए आगे बढ़े।

अफजल खाँ ने गले मिलते समय शिवाजी की गर्दन को जोर से अपनी बांहों में जकड़ लिया और गला घोंटकर मारने की कोशिश की। शारीरिक शक्ति के मामले में शिवाजी, अफजल खाँ की तुलना में कुछ भी नहीं था, वह अफजल खाँ के कंधों तक कठिनाई से आ पाया था।

शिवाजी ने अफजल खाँ की पकड़ से मुक्त होने के लिए अपने बाएं हाथ में बंधे बघनखे से उसके पेट पर प्रहार करके उसकी अंतड़ियों को बाहर निकाल लिया जिससे अफजल खाँ की पकड़ ढीली पड़ गई। अवसर मिलते ही शिवाजी ने अपने दाएं हाथ में फंसे बिछुए से खाँ के पेट पर और भी जबर्दस्त प्रहार किये।

अफजल खाँ जोर से चीखा। इन दोनों को गुत्थमगुत्था देखकर उनके अनुचर भी शामियाने में चले आए। सैयद बंदा ने अपनी तलवार से शिवाजी के सिर पर भयानक प्रहार किया। इससे शिवाजी की पगड़ी के नीचे रखी इस्पात की टोपी कट गई और शिवाजी के सिर पर भी चोट लगी।

जीवमहला भी दौड़कर आया और उसने सैयद बंदा के हाथ पर तलवार से वार करके उसका हाथ काट डाला। सैयद बंदा दूसरे हाथ से युद्ध करता रहा। इसी बीच अफजल खाँ के कहारों ने अफजल खाँ को उठाकर पालकी में डाल लिया और उसे लेकर भागने लगे। तभी निकट छिपे हुए शिवाजी के सिपाहियों ने बाहर आकर अफजल खाँ का सिर काट लिया तथा उसे लेकर प्रतापगढ़ दुर्ग की ओर भाग लिए।

इस प्रकार अफजल खाँ का वध हुआ और शिवाजी की विजय हुई। हालांकि उनके प्राण भी संकट में थे।

शिवाजी ने अफजल खाँ का सिर ऊंचे बांस में लटकाकर दुर्ग की बुर्ज से उसका प्रदर्शन किया और गगन भेदी जयघोष किया। कस्तूरी रंगन और उसके निर्दोष परिवार की हत्या का बदला भलीभांति ले लिया गया था। जिन हिन्दुओं को अफजल खाँ ने अत्यंत ही क्रूरता-पूर्वक एवं छल-पूर्वक मारा था, उन्हीं हिन्दुओं के नायक ने अफजल खाँ का हिसाब चुकता कर दिया था।

शिवाजी सकुशल दुर्ग में पहुंच गया तो दुर्ग से तोप छोड़ी गई। नेताजी पाल्कर और उसकी मावली सेना जंगल से निकलकर बीजापुरी सेना पर टूट पड़ी। बीजापुरी सेना बहुत बड़ी थी किंतु अचानक आक्रमण होने से तथा अफजल खाँ के लौटकर न आने से हतप्रभ एवं किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गई और इधर-उधर भागने लगी।

मावली सेना बहुत तेज गति से मुस्लिम सैनिकों को काट रही थी इसलिए बहुत से मुसलमानों ने हथियार रखकर आत्मसमर्पण कर दिया। उन्हें शरणागत जानकर उनकी जान बख्श दी गई।

विशाल युद्ध सामग्री एवं धन की प्राप्ति

अफजल खाँ के डेरों से शिवाजी को भारी मात्रा में हथियार, तम्बू, तोपें, हाथी-घोड़े तथा दस लाख रुपये नगद प्राप्त हुए। शिवाजी ने अपने सैनिकों को एकत्रित करके उन्हें धनराशि पुरस्कार में वितरित कर दी। घायलों एवं मृतकों को धन एवं पेंशन देकर सहायता की गई।

शिवाजी की इस विजय का समाचार आग की तरह दूर-दूर तक फैल गया। उसके चमात्कारिक किस्से हिन्दू प्रजा में व्याप्त होने लगे। प्रजा को लगने लगा कि यह राजा, हिन्दुओं की रक्षा के लिए ही ईश्वरीय सहायता के रूप में भेजा गया है।

खन्दूजी का वध

शिवाजी की सेना में खन्दूजी काकरे नामक एक सेनापति था। बीजापुरी डेरों से जान बचाकर भागता हुआ अफजल खाँ का परिवार उसके हाथ लग गया। अफजल खाँ के परिवार ने खन्दूजी को घूस देकर अपने प्राणों की भीख मांगी। खन्दूजी ने रुपयों के लालच में इस परिवार को कुयाना नदी के किनारे-किनारे कुरात तक सुरक्षित निकाल दिया। यह बात शिवाजी को ज्ञात हो गई। शिवाजी की आज्ञा से, विश्वासघाती खन्दूजी का सिर काट दिया गया।

फजल खाँ और रुस्तम-ए-जहाँ की पराजय

अफजल खाँ के वध के कुछ समय पश्चात् जनवरी 1660 में आदिलशाह ने अफजल खाँ के पुत्र फजल खाँ को शिवाजी को दण्डित करने भेजा। रुस्तम-ए-जहां नामक अमीर भी अपनी सेना लेकर फजल खाँ के साथ हो गया। मलिक इतबार, अजीज खान के पुत्र फतेह खाँ, सरजेराव घाटगे और अन्य सरदारों को भी फजल खाँ के साथ रवाना किया गया। शिवाजी ने बीजापुर की इस विशाल सेना को जबर्दस्त धूल चटाई। मुस्लिम सेना के 12 हाथी और 200 घोड़े छीन लिए।

शिवाजी और शाहजी में संधि

अफजल खाँ, फजल खाँ तथा रुस्तम-ए-जहां के असफल हो जाने पर अली आदिलशाह (द्वितीय) ने शिवाजी के पिता शाहजी को जिम्मेदारी सौंपी कि वह बीजापुर राज्य की तरफ से अपने पुत्र शिवाजी से संधि करे। शिवाजी को शाहजी के आगमन का समाचार मिला तो वह कई मील पैदल चलकर अपने पिता की अगवानी करने पहुंचा।

एक मंदिर में पिता-पुत्र का मिलन हुआ। शिवाजी ने शाहजी को आदर सहित पालकी में बैठाया तथा स्वयं पालकी के साथ नंगे पांव पैदल चलकर अपने निवास तक लेकर आया। शाहजी अपनी इस यात्रा में लगभग डेढ़ माह तक जीजाबाई तथा शिवाजी के पास रहा।

शिवाजी ने अपने पिता को वचन दिया कि अब वह अकारण बीजापुर राज्य पर आक्रमण नहीं करेगा। उसने शाहजी को सुझाव दिया कि मुगल फिर से दक्खिन को रौंदने के लिए आ रहे हैं इसलिए शिवाजी, बीजापुर तथा गोलकुण्डा, तीनों मिलकर एक संघ बनाएं और मुगलों का सामना करें। डेढ़ माह बाद शाहजी, शिवाजी से विदा लेकर पुनः आदिलशाह के पास लौट गया।

-डॉ. मोहन लाल गुप्ता

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