Wednesday, November 13, 2024
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अध्याय – 98 : भारत की आजादी के बाद देशी रियासतों में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था

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भारतीय राज्यों का भारत मे सम्मिलित होना एक बड़ी सफलता थी। अब इन रियातसतों को लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत लाना अनिवार्य था। सरदार पटेल ने भारतीय नरेशों को समझाया कि स्वतंत्र भारत में, आधुनिक विश्व की तरह देशी राज्यों में भी राजसत्ता का प्रयोग जनता के द्वारा एवं जनता के कल्याण के लिए ही होना चाहिए। भारत सरकार ने राजाओं को यह चेतावनी भी दी कि वह किसी भी देशी रियासत में अशान्ति एवं अव्यवस्था को सहन नहीं करेगी। जब देशी रियासतों में प्रजा मण्डल आंदोलन चले तो देशी राज्यों में लोकप्रिय मंत्रिमण्डलों का गठन हाने लगा तथा देशी राज्यों में संविधानों का निर्माण होने लगा ताकि निर्वाचन पद्धति के आधार पर सरकारों का गठन किया जा सके।

सरदार पटेल चाहते थे कि देशी रियासतों के लोगों को भी भारतीय प्रांतों की प्रजा के समान आर्थिक, शैक्षणिक एवं अन्य क्षेत्रों में समान अवसर एवं सुविधाएं मिलें परन्तु अधिकांश देशी रियासतें आर्थिक दृष्टि से इतनी कमजोर एवं छोटी थीं कि वे अपने संसाधनों से प्रजा का विकास नहीं कर सकती थीं। अतः काफी विचार-विमर्श के बाद सरदार पटेल ने देशी राज्यों का एकीकरण करके बड़ी प्रशासनिक इकाइयां गठित करने का निमर्ण लिया। उन्होंने दो प्रकार की पद्धतियों को प्रोत्साहन दिया- बाह्य विलय और आन्तरिक संगठन। बाह्य विलय में छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर अथवा पड़ौसी प्रान्तों में विलय करके बड़े राज्य बनाये गये। आन्तरिक संगठन के अन्तर्गत इन राज्यों में प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था लागू की गई।

दिसम्बर 1947 में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के 39 राज्यों का उड़ीसा और मध्य प्रान्त में विलय हुआ। फरवरी 1948 में 17 दक्षिणी राज्यों को बम्बई प्रान्त के साथ मिलाया गया। जून 1948 में गुजरात तथा काठियावाड़ के समस्त राज्यों को बम्बई प्रदेश में सम्मिलित किया गया। पूर्वी पंजाब, पाटियाला तथा पहाड़ी क्षेत्र के राज्यों को मिलाकर एक नया संघ बनाया गया जिसे पेप्सू कहा गया। इसी आधार पर मत्स्य संघ, विन्ध्य प्रदेश और राजस्थान का निर्माण किया गया। कुछ क्षेत्रों को केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बनाया गया जिनका प्रशासन केन्द्र सरकार के हाथों में रखा गया।

स्वतन्त्रता के बाद भारत में चार प्रकार के राज्य बन गये (संविधान में ‘प्रान्त’शब्द हटा दिया गया और देशी रियासतों तथा प्रान्तों, दोनों के लिए ‘राज्य’शब्द का ही प्रयोग किया गया)। इन्हें क, ख, ग और घ श्रेणी के राज्य कहा गया। ‘क’श्रेणी के अन्तर्गत भूतपूर्व ब्रिटिश प्रान्तों को रखा गया। इनकी संख्या 9 थी और नाम थे- असम, बिहार, बम्बई, मध्य प्रदेश, मद्रास, उड़ीसा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल। ‘ख श्रेणी के अन्तर्गत कुछ संघ तथा बड़ी-बड़ी देशी रियासतों को रखा गया जिनकी संख्या 8 थी। ये थीं- हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, मध्य भारत, मैसूर, पटियाला तथा पेप्सू, राजस्थान, सौराष्ट्र, ट्रावनकोर तथा कोचीन। ‘ग’ श्रेणी के अन्तर्गत अजमेर, भोपाल, कुर्ग, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कच्छ, विन्ध्य प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा राज्यों को सम्मिलित किया गया। ‘घ’ श्रेणी के राज्यों में अण्डमान और निकोबार द्वीप को सम्मिलित किया गया।

‘क’ और ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार स्थापित की गई परन्तु ‘ग श्रेणी के राज्यों में कुछ नियंत्रित उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई। ‘घ श्रेणी के राज्यों की प्रशासन व्यवस्था केन्द्र के अधीन रखी गई। इस प्रशासनिक असमानता के अतिरिक्त अन्य समस्त विषयों में समस्त राज्यों के साथ समानता का व्यवहार किया गया। 

देशी रियासतों के विलय से भारत में एक शक्तिशाली संघ की स्थापना हो गई। यह काम जिस शान्ति एवं शीघ्रता से सम्पन्न हुआ, उसकी आशा किसी को नहीं थी। सितम्बर 1948 में पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था– ‘यदि मेरे से कोई व्यक्ति 6 महीने पूर्व ये पूछता कि अगले 6 महीनों मे क्या होगा, तो मैं भी यह नहीं कह सकता था कि अगले 6 महीनों में इतने शीघ्र परिवर्तन होंगे।’ इस परिवर्तन का श्रेय सरदार वल्लभ भाई पटेल को जाता है जिन्होंने अथक परिश्रम एवं सूझबूझ के साथ भौगोलिक, राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टि से भारत के एकीकरण को पूर्ण कर दिखाया। भारत के एकीकरण के महत्त्व की समीक्षा करते हुए माइकल ब्रीचर ने लिखा है- ‘केवल एक वर्ष में 5 लाख वर्ग मील क्षेत्र और 9 करोड़ आबादी भारतीय संघ में मिल गई। यह एक महान् रक्तहीन क्रान्ति थी जिसकी तुलना कहीं भी इस शताब्दी में नहीं मिलती और इसकी तुलना उन्नीसवीं शताब्दी में बिस्मार्क द्वारा जर्मनी में और काबूर द्वारा इटली में किये हुए एकीकरण से की जा सकती है।’

 जार्ज षष्ठम् द्वारा संतोष की अभिव्यक्ति

भारत के एकीकरण पर संतोष व्यक्त करते हुए जॉर्ज षष्ठम् ने लिखा है- ‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि लगभग समस्त भारतीय राज्यों ने किसी न किसी उपनिवेश में सम्मिलित होने का निर्णय कर लिया है। वे संसार में कभी भी अकेले खड़े नहीं हो सकते थे। जार्ज षष्ठम् 11 दिसम्बर 1936 से 1952 तक इंग्लैण्ड का राजा रहा। उसके समय में ही कॉमनवैल्थ की स्थापना हुई जिसका वह प्रथम अध्यक्ष बना। इस संस्था में उन देशों को सदस्यता दी जाती थी जो कभी भी इंग्लैण्ड के अधीन रहे थे।

राजाओं के नष्ट होने के कारण कतिपय इतिहासकारों ने लिखा है कि राजा लोगों के नष्ट होने के तीन कारण थे- एक तो वे राष्ट्रवादी थे, दूसरे वे कायर थे तथा तीसरा कारण यह था कि उनमें से अधिकांश मूर्ख थे और अपने ही पापाचार में नष्ट हो गये।

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