दिन भर के श्रांत-क्लांत गोप सुरथ परुष्णि के जल में निमज्जित होकर थकान दूर करने के उपक्रम में अपनी पर्णकुटी के बाहर विश्राम की अवस्था में विराजमान हैं। शरीर के साथ-साथ मस्तिष्क को विश्राम देने के लिये वे इस समय समस्त वैचारिक प्रवाह को विराम देना चाहते हैं फिर भी मस्तिष्क है कि आज की सभा की ओर बार-बार चला जाता है। आज ऋषि पर्जन्य ने संगीत चर्चा में शकुनि पक्षी की तुलना कर्करी वाद्य [1] से की थी। ऋषि पर्जन्य सचमुच ही सामगायान और ध्वनियों के विशारद हैं तभी तो वे संगीत ध्वनियों की तुलना विभिन्न प्रकार की सामग्रियों, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों से भी कर लेते हैं। कितनी सुन्दर ऋचा कही ऋषि पर्जन्य ने-
” हे शकुनि पक्षी! जब तू बोल तब मंगल ही बोल, जब तू चुप बैठा रह तब हमारे प्रति शुभ विचारों को रख और जब तू उड़ तब कर्करी के समान मधुर वचन बोल जिससे हम भद्र संतति से सम्पन्न होकर यज्ञ में पूर्ण रूप से तेरी प्रशंसा करें।” [2]
धन्य हैं ऋषि पर्जन्य जिन्होंने आर्य ऋषियों के सामगायन की तुलना मरूतों के अद्भुत वाण [3] से की- ”मरूत का वाण सुनहले रथों में स्थित सोभरियों [4] के गान से ध्वनित होता है। महान् सुजात मरूत जो गौ की सन्तति हैं। हमें अन्न भोग और कृपा से समृद्ध करें। [5]
गोप सुरथ का चिंतन प्रवाह आगे बढ़ता है- और तो और ऋषि पर्जन्य ने तो पर्णकुटियों में विद्यमान उलूखलों [6] की तुलना दुंदुभि से कर डाली। वाह क्या उत्तम उपमा है-”हे उलूखल! यदि तू प्रत्येक गृह में विद्यमान है तो इस वैदिक कर्म में उसी प्रकार प्रभूत ध्वनि युक्त शब्द कर जिस प्रकार विजयी पुरुष की दुन्दुभि [7] शब्द किया करती है।” [8]
इसी समय आर्य पूषन ने आकर उनके चिंतन में बाधा उत्पन्न की- ‘आर्य सुरथ!’
– ‘क्या बात है आर्य! आपकी श्वांस अनियंत्रित क्यों है ? कहीं दूर से भागे चले आ रहे हैं क्या ?’ आर्य सुरथ ने खड़े होकर वृद्ध पूषन की अभ्यर्थना की एवं बैठने के लिये आसन दिया।’
– ‘हाँ आर्य।’ अपनी अनियंत्रित श्वांसों पर नियंत्रण पाते हुए वृद्ध पूषन ने आसन ग्रहण किया।
– ‘किस प्रयोजन से आपको भाग कर आना पड़ा है आर्य ? क्या आप अश्व नहीं ले गये थे अपने साथ?
– ‘नहीं मैं आज पैदल ही किंचित ऊँचाई तक विचरण के लिये चला गया था। निश्चय तो और आगे जाने का था किंतु मार्ग से ही भाग कर आना पड़ा।’
– ‘ऐसा क्या हुआ आर्य ?’
– ‘ठीक उत्तर में स्थित पर्वतीय कंदरा में मैंने एक साथ कई यतियों [9] को किसी उपक्रम में संलग्न देखा।’
– ‘कैसा उपक्रम आर्य ?’
– ‘भय के कारण अधिक समय तक मैं वहाँ ठहर नहीं सका। इसीसे कुछ ठीक से कुछ समझ नहीं पाया किंतु अनुमान होता था कि वे किसी अनुष्ठान की तैयारी में संलग्न हैं।’
– ‘क्या केवल यति ही थे ?’
– ‘नहीं, केवल यति नहीं, लगभग पचास यातुधान [10] भी वहाँ उपस्थित थे। वह तो ठीक हुआ कि मेरी दृष्टि दूर से ही उन पर पड़ गयी। अनुमान होता है कि उन्होंने भी मुझे देख लिया था किंतु उस समय मैं ऊँचाई पर था और वे नीचे थे, इसीसे मुझे पकड़ नहीं सके।’
– ‘इन यातुधानों को कोई और स्थान नहीं मिलता! कितनी बार तो हम उन्हें पकड़कर
दण्डित कर चुके हैं किंतु आर्य-जनों के निकट आने में इन्हें कोई संकोच अथवा लज्जा नहीं आती। असुरों की यही सबसे बड़ी बुराई है कि जो निश्चय वे एक बार कर लेते हैं उसे सरलता से त्यागते नहीं।’ चिंतित दिखाई दिये गोप सुरथ।
सुरथ इस तथ्य से अवगत हैं कि यातुधानों में दिन के प्रकाश में सम्मुख होकर लड़ने का बल नहीं किंतु रात्रि के अंधकार में उनकी शक्ति का जैसे अपरिमेय विस्तार हो जाता है। इस समय उन के विरुद्ध कुछ करना ठीक नहीं। प्रातःकाल की सभा का स्थगन करके आर्यवीरों को यातुधानों के विरुद्ध अभियान पर ले जाना होगा। आर्य पूषन से मंत्रणा करके यही निश्चय किया आर्य सुरथ ने।
अमावस्या होने के कारण आज चंद्रदेव पूरी तरह से अनुपस्थित थे किंतु अंतरिक्ष के नक्षत्र उज्ज्वल हिमकणों की भांति आकाश में इधर-उधर बिखरे पड़े थे। उनका मंद प्रकाश तीव्र वेग से बहती परुष्णि के जल में घुलकर तरल रजत का निर्माण कर रहा था। समस्त आर्य जन निद्रा देवी के अंक में निश्चिंत होकर विश्राम कर रहे थे। रात्रि के दो प्रहर बीते होंगे कि आर्य सुनील के घोष ने परुष्णि के तट पर व्याप्त नीरवता को भंग किया।
– ‘सावधान आर्य जन। निद्रा त्याग कर तत्काल सचेत हो जायें।’ आर्य सुनील का आह्वान सुनकर समस्त स्त्री-पुरुष शीघ्रता पूर्वक अपनी-अपनी पर्ण कुटी से बाहर आये।
– ‘क्या हुआ आर्य सुनील ?’
– ‘भगिनी पूषा अपनी कुटी में नहीं हैं।’
– ‘क्या कोई पशु उठा ले गया ?’ एक साथ कई स्वर उभरे।
– ‘संभवतः कोई पशु ही जन में घुस आया हो किंतु इस अंधकार में तो उसको खोज पाना लगभग असंभव सा होगा।’ आर्या लोपामुद्रा ने चिंता व्यक्त की।
नहीं-नहीं यह किसी पशु का कार्य नहीं है। गोप सुरथ तत्काल समस्त परिस्थिति को समझ गये किंतु उन्होंने माताओं में भय व्याप्त न हो इस कारण अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी। उन्होंने तत्काल आधे आर्य वीरों को शस्त्र धारण कर और अश्वारूढ़ होकर अपने पीछे आने के आदेश दिये और आधे आर्य वीरों को आर्य विश्रुत के नेतृत्व में जन की सुरक्षा पर नियत कर दिया। उन्होंने वयोवृद्ध आर्य पूषन से अनुरोध किया कि वे समस्त आर्यों का पथ प्रदर्शन करें तथा वहाँ ले चलें जहाँ उन्होंने संध्याकाल में यतियों और यातुधानों को देखा था। सघन अंधकार और दुर्गम पर्वत पथ के उपरांत भी आर्य दल वेग से अश्व फैंकता हुआ यातुधानों की गुहा तक पहुँचा। वयोवृद्ध आर्य पूषन इस आयु में भी पूर्ण कौशल से अश्व का संचालन कर लेते हैं। इस कारण आर्यों को लगभग अर्द्धशत हल की दूरी पार करने में अधिक समय नहीं लगा।
गुहा द्वार पर पाँच यातुधान पहरा दे रहे थे किंतु वे पूरी तरह असावधान थे। उन्हें इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि इस निविड़ पर्वत प्रदेश में कोई प्राणी उनके कार्य में विघ्न उपस्थित करने के लिये आ सकता है। बात की बात में आर्य वीरों ने पाँचों यातुधानों के मस्तक धड़ से अलग कर दिये। गुहा के भीतर वामाचार में संलग्न यतियों और यातुधानों को गुहाद्वार पर हुए रक्तपात का अनुमान नहीं हो सका। आर्य सुरथ के नेतृत्व में समस्त आर्यवीर अश्वारूढ़ अवस्था में ही गुहा में पैठ गये।
यह एक विशाल गुहा थी जिसके ठीक मध्य में गौ-रक्त से चक्र का निर्माण किया गया था। चक्र के केन्द्र में प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित थी जो मद्य, पशु-चर्बी तथा शुष्क काष्ठ मिलने पर सहस्रों जिह्वाएं पसार कर लपलपा उठती थी। सम्पूर्ण गुहा में मद्य एवं पशु चर्बी के जलने की तीव्र गंध व्याप्त थी। समस्त यति रक्त-चक्र को घेर कर बैठे थे। प्रत्येक यति के पृष्ठ भाग पर एक यातुधान तथा एक यातुधानी नग्न खड्ग लिये खड़े थे। गुहा में उपस्थित किसी भी प्राणी ने किसी तरह का वस्त्र अथवा चर्म धारण नहीं कर रखा था किंतु शीश पर भयंकर दीख पड़ने वाले पशु-शृंग लगे हुए थे। उनकी अमंगल देह लपलपाती अशुभ ज्वालाओं के प्रकाश में अत्यंत भयावह दिखाई देती थी।
यतियों का प्रमुख कुलिक काले पहाड़ के समान स्थूल देह पर गौ-रक्त का लेपन कर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके बैठा था। उसके गले में नरमुण्डों की माला पड़ी थी। जैसे-जैसे वह अशुभ-मंत्र बोलता हुआ मद्य गटकता जाता था उसके मद्यघूर्णित नेत्र और अधिक चैड़े होकर फैलते जाते थे जिनमें अग्नि की ज्वालाओं का हिलता हुआ प्रतिबिम्ब ऐसा प्रतीत होता था मानो अग्नि की ज्वालायें उसके नेत्रों से निःसृत होकर चक्र के मध्य तक पहुँच रही हैं।
एक ओर कुछ यातुधान मेष, अज और गौ लिये खड़े थे। जैसे-जैसे आवश्यकता होती जाती थी वे पशुओं का वध करके उनका मांस यतियों को देते जाते थे। विपुल चर्बी से युक्त मेष-मांस को अशुभ मंत्रों के उच्चारण के साथ अग्नि में झौंका जा रहा था तथा अज एवं गौ का कोमल मांस सुरा में भिगो कर अशुभवेशधारी यतियों द्वारा भक्षण किया जा रहा था। कुलिक मांस भक्षण न करके केवल मद्यपान ही कर रहा था। उसे अशुभ अनुष्ठान के अंत में दी जाने वाली महाबलि ही ग्रहण करनी थी।
अशुभ मंत्रों के उच्चारण का एक भाग पूर्ण हो जाने पर कुलिक ने यतियों को खड़े होने का संकेत किया। समस्त यातुधान और यातुधानियाँ अपने अस्त्र फैंककर रक्त-चक्र के पास सिमट आये और विभिन्न पशुओं की खोपड़ियों में मद्य लेकर अग्नि के चारों ओर चक्कर लगाते हुए नाचने लगे। वे बड़ा ही भयावह चीत्कार कर रहे थे। नृत्यलीन यातुधान और यातुधानियाँ अपनी अशुभ देहों का परस्पर घर्षण करते हुए अत्यंत अशुभ और अश्लील चेष्टायें करने लगे। अग्नि की लपटों से उत्पन्न प्रकाश में इन अमंगल वेशधारी प्राणियों की प्रतिछचयाएं भी गुहा की चट्टानों पर नृत्य करने लगीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो यातुधानों के इस अशुभ अनुष्ठान में भाग लेने के लिये कुछ अशरीरी जीव चट्टानों पर उभर आये हों।
जैसे-जैसे कुलिक के अशुभ मंत्रों का उच्चारण तीव्र होता जा रहा था, यतियों और यातुधानों का नृत्य भी जोर पकड़ता जा रहा था। कुछ ही क्षणों में वे सब अमंगल देहधारी, निर्लज्ज, और वीभत्स प्राणी मैथुन योग से नृत्य करते हुए महाबलि को होश में लाने का प्रयास करने लगे। सुरा के प्रभाव से बहुत से अशुभ काम-कीट सुध-बुघ खोकर लुढ़कने लगे। अब कुलिक ने महाबलि का भोग लगाने का निर्णय लिया। जो यातुधान और यातुधानी अब भी मूर्च्छित होने से बचे हुए थे, उन्होंने महाबलि की तैयारी में कुलिक का सहयोग किया।
कुलिक के संकेत पर एक यातुधान ने महाबलि पर रखा मेष चर्म हटाकर उस पर सुरा फैंकी। सुरा का शीतल स्पर्श पाकर पूषा की मूच्र्छा भंग हुयी। वह तो स्वस्थ अवस्था में रात्रि के प्रथम प्रहर में अपनी पर्ण कुटी में शैय्यागत हुई थी। उसे यह ज्ञात नहीं था कि कब और कैसे यातुधानों का दल उसे मूर्च्छित कर यहाँ ले आया था। स्वयं को अपनी पर्णकुटी में पाने के स्थान पर इस अकल्पित भयावह स्थल पर देखकर उसके मुँह से चीख निकल गयी और वह घबरा कर उठ खड़ी हुई। उसने देखा उसकी देह पर कोई वस्त्र नहीं है। वह जैसे खड़ी हुई थी वैसे ही नीचे बैठ गयी।
कुलिक ने निरावरण पूषा को पकड़ने के लिये हाथ बढ़ाया ही था कि ठीक उसी समय आर्य सुरथ के अश्व ने गुहा में प्रवेश किया। यातुधानों को विश्वास नहीं हुआ कि आर्ययोद्धा इस गुहा तक चले आयेंगे। वे अपने अपने खड्गों की ओर लपके। यति भी अपनी काष्ठ निर्मित गदायें लेकर आर्यों के प्रतिरोध को सन्नद्ध हो गये। क्षण भर में गुहा का दृश्य परिवर्तित हो गया। यातुधानों का वीभत्स-चीत्कार, अमंगल-हुंकार में बदल गया।
– ‘यहाँ क्या कर रहा है पाखण्डी कुलिक ?’ आर्य सुरथ ने कुलिक को ललकारा।
– ‘तेरे अग्नि को असुर बना रहा हूँ आर्य। जैसे इन्द्र ने वृत्र को असुर से देव बनाया था। हा-हा-हा। देख! यह देख! तेरा अग्नि अब सोम और घृत को त्याग कर मद्य और गौमांस ग्रहण कर रहा है। अब यह असुर हो गया सुरथ। अब यह तेरा नहीं रहा। मेरा हो गया। मैंने अग्नि के मुख को चीर कर उसमें मद्य और गौमांस भर दिया। तेरा पूज्य अग्नि अपवित्र हो गया।’ विक्षिप्त महिष की भांति डकराया कुलिक।’
– ‘व्यर्थ प्रलाप मत कर लिंगोपासक! मैंने तुझे पहले भी चेतावनी दी थी कि परुष्णि के निकट दिखाई दिया तो शिरोच्छेद कर दूंगा तेरा।’ [11]
– ‘कायर सुरथ! एक-दो बार नहीं बीसियों बार मैं तेरी परुष्णि के निकट आया हूँ। हर बार तूने यही कहा है कि शिरोच्छेद कर दूंगा किंतु आज तक मुझे स्पर्श नहीं कर सका तू। हा-हा-हा! कायर किसी का शिरोच्छेद नहीं कर सकते। हा-हा-हा!’ वीभत्स अट्टास किया कुलिक ने।
– ‘तुझे मैंने यति समझ कर हर बार प्राणदान दिया है। असुरों का ही सही किंतु तू पुरोहित है इस कारण मैंने तेरा वध नहीं किया किंतु दुष्ट कुलिक! मुझे सचमुच ही तेरा शिरोच्छेद करना पड़ेगा ताकि तेरी अमंगली छाया से परुष्णि के कूल त्रस्त न हांे।’ आर्य सुरथ ने गहन गंभीर मेघ की भांति गर्जना की।
– ‘तो फिर आ, बढ़ आगे। शिरोच्छेद कर मेरा। हा-हा-हा! तू तो क्या, यदि आर्यों के समस्त जन सम्मिलित होकर आयें तो भी मेरा शिरोच्छेद नहीं कर सकते।’ कुलिक ने पशु सींगों से बना त्रिशूल हवा में नचाया।
– ‘दुष्टमति कुलिक! कर्पास के गोले को उड़ाने के लिये उनचास मरूतों की आवश्यकता नहीं है। मैं अकेला ही तेरे लिये पर्याप्त हूँ।’ आर्य सुरथ ने सम्पूर्ण शक्ति से खड्ग कुलिक पर प्रहार किया जिसे कुलिक ने अपने अस्थि निर्मित त्रिशूल पर रोक लिया।
खड्ग टकराने लगे। भयानक संघर्ष छिड़ गया। दुष्ट यातुधान शत्रु को सिर पर चढ़ आया देखकर मद्य के प्रभाव से उबर आये थे और यथाशक्ति शस्त्र संचालन कर रहे थे। मद्य के प्रभाव से मूर्च्छित यातुधान भी होश में आ-आकर शस्त्र फैंकने लगते थे। भयंकर जटाजूट धारी यति भी उनका भरपूर साथ दे रहे थे। अवसर पाते ही पूषा ने अपने वस्त्र धारण कर लिये।
आर्यवीरों की संख्या कम थी किंतु वे अश्व पर आरूढ़ थे और उनके अस्त्र-शस्त्र भी धातु से निर्मित थे। दोनों दलों के उद्देश्य में भी अंतर था। आर्यवीर प्राणों का मोह त्याग कर लड़ रहे थे और यातुधान प्राणों के मोह में। अतः यातुधान धीरे-धीरे छीजने लगे। उनकी अमंगल हुंकारों का स्थान फिर से चीत्कारों ने ले लिया था। जिस समय गुहा में अंतिम यातुधान का शिरोच्छेद किया गया, उषा गगन पथ से उतर कर धरा पर विचरण करने लगा था। पातकी कुलिक यातुधानों की ओट लेकर अपने कुछ यतियों सहित गुहा से भाग निकलने में सफल हो गया। आर्यवीर भगिनी पूषा को ले अपने जन की ओर लौटे।
[1] कर्करि एक प्रकार का तंत्री वाद्य था जो वैदिक काल में प्रचलित था।
[2] ऋग्वेद में यह ऋचा इस प्रकार से आई है- आवदंस्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः। यदुत्पतन्वदसि कर्करिर्यथा बृहद् वदेम विदथे सुवीराः।। ( 2. 43. 3)
[3] आदि काल से लेकर वैदिक काल तक आर्यों में वीणा का प्रचलन नहीं हुआ था। तब वाण नामक तंत्री यंत्र काम में आता था जिसका स्वरूप बहुत कुछ वीणा से मिलता था।अथर्ववेद में एक ऋचा में कहा गया है- को अस्मिन्रेतो न्यदिधात्त्न्तुरा तायतामिति। मेधां को अस्मिन्न्ध्यौहत्को को बाणं को नृतो दधौ।। अर्थात् किसने मनुष्य में रेत (वीर्य) रखा जिससे उसकी सन्तति बढ़ती जाये, किसने मनुष्य में मेधा स्थापित की, किसने इसे वाण और नृत्य दिये ?
[4] ‘सोभरि’ मंत्र पढ़ने वाले ऋषि को कहते हैं।
[5] ऋग्वेद में यह ऋचा इस प्रकार से आई है-गोभिर्वाणो अज्यते सोभरीणां रथे कोशे हिरण्ये। गोबंधवः सुजातास इषे भुजे महान्तो नः स्परसे नु।। ( 8. 20. 8)
[6] कूटने की मूसल।
[7] दुन्दुभि एक अवनद्ध वाद्य अर्थात् चमड़े से ढंका हुआ वाद्य था।
[8] ऋग्वेद में यह ऋचा इस प्रकार से आई है-यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः।। ( 1.28.5)
[9] यति शब्द का उल्लेख ऋग्वेद ( 8. 3. 9), तैत्तरीय संहिता ( 6. 2. 7. 5), काठक संहिता ( 8. 5), एतरेय ब्राह्मण ( 35. 2), कौषीतकी उपनिषद् ( 3. 1), अथर्ववेद ( 2. 5. 3) और ताण्ड्य महाब्राह्मण ( 8. 1. 4) में हुआ है। इन संदर्भों के अनुसार यति इन्द्र के शत्रु थे। उन्हें मानवों ने इन्द्र की सहायता से समाप्त किया और उनके शरीर श्रृगालों को खाने के लिये फैंक दिये।
[10] जो अदृश्य उपाय से दूसरे को भ्रम में डाल दे, उसे यातुधान कहते हैं। इसीलिये कालांतर में मायावी राक्षसों को यातुधान कहा गया। जादूगर शब्द की उत्पत्ति भी यातुधान से ही हुई।
[11] ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि हमारे धार्मिक समारोह यज्ञ में ‘शिश्नदेव’ न आने पायें। यूरोपीय इतिहासकारों ने शिश्नदेव का अर्थ लिंगोपासक करके द्रविड़ बताया है और कहा है कि द्रविड़ लोग आर्य भूमि में उपद्रव करने इतनी दूर से आते थे, यज्ञ में बाधा डालते थे, अतः ऋग्वेद में आई एक ऋचा में इन्हीं के प्रवेश का विरोध है। ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोपीय इतिहासकारों ने लिंगोपासना के आधार पर इन अवांछित लोगों को द्रविड़ मान लिया है जबकि यहाँ यह संकेत असुरों अथवा दैत्यों के लिये भी हो सकता है। रावण भी लिंगोपासक था और सदैव अपने साथ लिंग रखता था। वह द्रविड़ नहीं था, असुर अथवा दैत्य था।