कई दिवसों से पर्वत उपत्यकाओं में निरूद्देश्य सा भटकता रहा है प्रतनु। मोहेन-जो-दड़ो से यहाँ तक की दीर्घ यात्रा में उसका उष्ट्र थक कर चूर हो गया है, उसे कुछ विश्राम देना आवश्यक है। अब तक मरू प्रदेश और समतल मैदानों में उष्ट्र पर्याप्त उपयोगी रहा है किंतु प्रर्वतीय प्रदेश में यह नितांत अनुपयोगी है। नागों के पुरों तक पहुँचने के लिये पर्वत शृंखला को पार करना आवश्यक है। निश्चित ही उसे या तो उष्ट्र त्याग देना होगा या फिर पर्वतीय प्रदेश को पार करने का निश्चय त्यागना होगा।
पर्याप्त चिंतन के पश्चात् कुछ दिनों के लिये यहीं विश्राम करने का निर्णय लिया प्रतनु ने। पर्वतों से बहकर आने वाले एक झरने के पास ही उसने सुविधाजनक स्थान देखकर अपने उष्ट्र को बांध दिया है जहाँ उसके लिये पर्याप्त तृण है और स्वयं दिन भर इस पर्वत पर चढ़कर पैदल ही घूमता रहता है। कौन जाने निकट ही नागों का कोई पुर हो। वन्य पशु उष्ट्र को कभी भी अपना आहार बना सकते हैं। मरूस्थल में हिंस्रक पशुओं का खतरा नहीं था किंतु यह तो पर्वतीय प्रदेश है। यहाँ सिंह एवं व्याघ्र आदि विचरण करते होंगे किंतु भाग्य पर भरोसा करने के अतिरिक्त उपाय ही क्या था!
पर्वतीय उपत्यकाओं में विचरण करते हुए उसे तीन दिन हो गये। पर्वतीय पगडण्डियाँ इस बात की प्रमाण हैं कि इस ओर कोई न कोई स्त्री-पुरुष विचरण करते रहे हैं किंतु जब कई दिनों तक विचरण करने पर भी उसे कोई नाग, असुर, दैत्य, दानव, अथवा आर्य नहीं मिला तो उसने अनुमान लगाया कि यहाँ विचरण करने वाले स्त्री-पुरुष या तो किसी विशेष ऋतु में इस ओर आते हैं अथवा किसी कारण से यह प्रदेश छोड़कर चले गये हैं और अब यह प्रदेश पूर्णतः निर्जन है। संभव है कि नागों के पुर कुछ और अधिक ऊँचाई पर हों । यदि यात्रा पर आगे बढ़ना है तो उष्ट्र का मोह त्याग देना होगा और यहाँ से पैदल ही चलना होगा। यह विचार कर उसने एक लघु जल घट अपने कंधे पर लटकाया और उष्ट्र को बंधन से मुक्त कर दिया।
दो दिन लगातार ठीक उत्तर की ओर बढ़ता रहा प्रतनु। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता जाता था। पर्वतों की चोटियाँ अधिक नुकीली होती जाती थीं। वनस्पतियाँ भी नितांत अपरिचित हो गयी थीं किंतु पगडण्डियाँ और अधिक स्पष्ट होती जा रही थीं। प्रतनु को विश्वास हो चला था कि एक-दो दिवस में ही उसकी भेंट किसी स्त्री-पुरुष से हो सकती है। संभवतः नागों से ही।
इस समय सूर्य देव पश्चिम में पहुँच चुके थे किन्तु संध्या के आगमन में पर्याप्त समय था फिर भी इस पर्वतीय प्रदेश में पर्याप्त अंधेरा हो चला था। रात्रि विश्राम के लिये कोई उचित स्थान खोजता हुआ प्रतनु बांसों के एक झुरमुट को पार करके थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि उसे आसपास किसी के होने का अनुमान हुआ। यह एक अद्भुत संयोग ही था कि अभी तक उसकी भेंट किसी सिंह अथवा व्याघ्र से नहीं हुई थी। प्रतनु के पीछे की ओर सरसराहट हुई । उसने पीछे घूमकर देखा। एक नहीं, दो नहीं पूरी पाँच स्त्रियाँ उसके पीछे थीं। अब तक तो वे विशाल वृक्षों की ओट में छिपकर चलते रहने के कारण प्रतनु की दृष्टि में नहीं पड़ी थीं किंतु बांसों के विरल झुरमुट के कारण वे अपने आप को प्रतनु की दृष्टि से छिपाने में असमर्थ रहीं थीं। देहयष्टि से वे नागकन्यायें ही ज्ञात होती थीं किंतु उनकी वेशभूषा अत्यंत मायावी जान पड़ती थी।
अपनी उपस्थिति अप्रकट न रही जानकर वे पाँचों नागकन्यायें निःसंकोच प्रतनु के निकट चली आईं।
– ‘कौन हो तुम? मेरा पीछा क्यों कर रही हो ?’
– ‘हम जो भी हैं, तुम इस निर्जन वन में क्या कर रहे हो ?’ उन्होंने प्रतनु के प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर प्रतनु से ही प्रश्न कर लिया। उन्हें निर्भय होकर संवाद करती देखकर प्रतनु को विश्वास हो गया कि ये इसी प्रदेश में वास करती हैं। निश्चय ही वह नागों के किसी पुर के निकट आ पहुँचा है।
– ‘पथिक हूँ।’ प्रतनु ने उत्तर दिया।’
– ‘कहाँ की यात्रा पर हो ?
– ‘ नहीं जानता कि मैं कहाँ की यात्रा पर हूँ।’
– ‘विचित्र बात है! पथिक हो किंतु यह नहीं जानते के कहाँ की यात्रा पर हो!’
– ‘जहाँ भी ये पर्वतीय पगडण्डियाँ ले जायेंगी वहीं चला जाऊंगा किंतु आप लोग कौन हैं, अपने बारे में नहीं बताया आपने!’
– ‘क्या करेंगे हमारे बारे में जानकर ? एक नाग युवती ने रहस्यमयी मुस्कान बिखेरते हुए कहा तो उसके साथ की अन्य युवतियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। बहुत दिनों में प्रतनु ने किसी स्त्री की हँसी सुनी थी। रोमा का स्मरण हो आया उसे। यद्यपि प्रतनु ने रोमा को खिलखिलाकर हँसते हुए नहीं सुना था किंतु उसने अनुमान किया कि यदि रोमा खिलखिलाकर हँसती तो ऐसे ही हँसती।
– ‘बताया नहीं तुमने युवक कि हमारे बारे में जानकर क्या करेंगे आप।’
– ‘और कुछ नहीं तो इतना तो अवश्य करूंगा ही कि आपसे किसी पुर का मार्ग पूछूंगा।’
– ‘किस पुर का ? हमारे पुर का ?’ नागकन्याऐं फिर खिलखिलाने लगीं।
– ‘नहीं, आपके पुर का क्यों ? किसी अन्य पुर का।’
– ‘अन्य पुरों में हमसे भी अधिक रमणीय युवतियाँ रहती हैं क्या ?’
प्रतनु ने यह तो सुना था कि नागकन्यायें अधिक चंचल होती हैं किंतु परिचय के प्रथम सत्र में ही वे इस तरह उपहास कर सकती हैं, इसका उसे अनुमान न था।
– ‘मुझे रमणीय युवतियों के पुर का नहीं नागों के किसी भी पुर का मार्ग बता दें तो बड़ी कृपा होगी आपकी।’
– ‘यदि रमणीय युवतियों के पुर का मार्ग बता दें तो वहाँ नहीं जाओगे युवक? भय लगता है रमणीय स्त्रियों से!’
नागकन्याओं की बात सुनकर प्रतनु को भ्रम हुआ कि हो न हो, ये नाग कन्यायें न होकर किन्नरियाँ हैं जो भोले-भाले युवकों को मधुर वार्ताओं से रिझा कर अपने लोक में ले जाती हैं और बलपूर्वक अपने साथ रखती हैं। ऐसी किन्नरियों और विद्याधरियों की कथायें प्रतनु के पुर में बड़े चाव से कही-सुनी जाती हैं। नहीं-नहीं इनकी देहयष्टि तो नागकन्याओं जैसी ही है। किन्नरियों और विद्याधरियों के प्रदेश तो यहाँ से सहस्रों योजन दूर हिमाच्छादित पर्वत शिखरों पर हैं। यह प्रदेश तो नागों का है। प्रतनु ने देखा, युवतियाँ उसी को लक्ष्य करके हँस रही हैं।
– ‘किस भ्रम में पड़ गये पथिक ?’ अधिक चंचल जान पड़ने वाली युवती ने प्रश्न किया।
– ‘नहीं! मुझे किसी का भय नहीं। जब मैं हिंस्रक पशुओं का भय अनुभव नहीं करता तो रमणीय स्त्रियों से कैसा भय! किंतु आपको यह बताना होगा कि आप लोग हैं कौन?’
– ‘हम लोग नहीं हैं, युवतियाँ हैं, रमणीय युवतियाँ ?’ उस युवती ने फिर से उपहास किया और शेष युवतियाँ फिर से खिलखिलाने लगीं।
– ‘मैं जानना चाहता हूँ कि आप नागकन्यायें हैं, विद्याधरियाँ हैं, किन्नरियाँ हैं, अप्सरायें हैं ? कौन हैं ?’
– ‘हम नागकन्यायें हैं पथिक। यहीं निकट ही हमारा पुर है। चलोगे हमारे पुर में ?’
– ‘यदि आप ले चलेंगी तो अवश्य ही चलूंगा।’
– ‘भय नहीं लगेगा ?’
– ‘नहीं! भय कैसा ?’
– ‘एक बार फिर से विचार कर लो पथिक।’
– ‘इसमें कैसा विचार! मैं तो स्वयं ही किसी पुर की खोज में हूँ।’
– ‘तुम्हें नेत्र बंद करके चलना होगा पथिक।’
– ‘क्यों ?’
– ‘हमारी रानी की ऐसी ही आज्ञा है।’
– ‘रानी! रानी क्या ?’
– ‘रानी नहीं जानते!’
– ‘नहीं।’
– ‘राजा तो जानते होंगे ?’
– ‘हाँ मैंने सुना है कि कुछ प्रजाओं में मुखिया को राजा कहते हैं।’
– ‘ठीक सुना है तुमने। जब मुखिया पुरुष होता है तो उसे राजा कहते हैं किंतु जब मुखिया स्त्री होती है तो उसे रानी कहते हैं।’
– ‘कौन है तुम्हारी रानी ?’
– ‘वह भी हमारी ही तरह रमणीय युवती है।’ फिर से खिलखिलाने लगीं वे सब।
प्रतनु को विश्वास हो गया कि ये नागकन्यायें नहीं हैं, किन्नरियाँ अथवा विद्याधरियाँ हैं। उसे भुलावे में डालकर अपने साथ ले जाना चाहती हैं। जो भी हों ये! इनके साथ चलने में क्या हानि है ? यदि उसे बिना किसी प्रयास के किन्नर लोक अथवा विद्याधर लोक देखने को मिलता है तो बुरा क्या है ? नागलोक ही जाया जाये ऐसा तो कोई आवश्यक नहीं। ऐसा विचार कर प्रतनु ने नेत्र बंद कर लिये। एक युवती ने उसके नेत्रों पर अपना वस्त्र बांध दिया और उसका हाथ पकड़ कर बोली- ‘चलिये पथिक महाशय।’ फिर से उनकी सम्मिलित खिलखिलाहट चारों ओर फैल गयी।
युवती के हाथ का स्पर्श पाकर फिर से रोमा का स्मरण हो आया प्रतनु को। कितना अच्छा होता यदि रूप का वह सागर इस निर्जन वन प्रदेश में उसके साथ होता। इन्हीं पर्वतों से शिलाखण्ड लेकर उसकी सहस्रों प्रतिमायें बना डालता वह।प्रतनु ने उस युवती का हाथ कसकर पकड़ लिया और एक-एक कदम बहुत संभाल कर धरने लगा। उसके मस्तिष्क में बार-बार यह शंका उत्पन्न हो रही थी कि कहीं ये मायावी स्त्रियाँ उसके नेत्रों पर वस्त्र बांध कर उसे पर्वत से नीचे धकेलने तो नहीं ले जा रहीं। वरुण देव ही जानें क्या माया है ? सामान्य तौर पर अदृश्य शक्तियों पर विश्वास न करने वाले प्रतनु को भी आज वरुण देव का स्मरण हो आया।
‘जो होगा, देखा जायेगा’ के भाव से प्रतनु उसी तरह युवती के कोमल हाथ के बंधन में कसा हुआ चलता रहा जैसे विवश भ्रमर अपने लोभ के कारण कमल-पंखुरियों का बंधन स्वीकार कर लेता है।
– ‘तुम्हारा नाम क्या है बाला ?’
– ‘बाला नहीं, रमणीय युवती।’
– ‘हाँ बाला नहीं, रमणीय युवती। नाम क्या है तुम्हारा ?
– ‘निर्ऋति। स्मरण रख सकोगे!’
– ‘हाँ-हाँ क्यों नहीं! निर्ऋति।’ दोहराया प्रतनु ने, ‘नाम तो तुम्हारा सुंदर है किंतु इतना कठिन क्यों है ?’
– ‘इसलिये कि तुम्हारे जैसे पथिक उसे सरलता से स्मरण रख सकें।’ निर्ऋति ने हँसकर प्रत्युत्तर दिया और उसी के साथ समस्त युवतियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
– ‘निर्ऋति! तुम्हारी सखियों के क्या नाम हैं।’
– ‘क्या करोगे इस समय उनके नाम जानकर ? तुम्हारी आँखों पर तो वस्त्र बंधा हुआ है तुम्हें कैसे ज्ञात होगा तुम्हें कि मैं किसका क्या नाम बता रही हूँ।’
– ‘विचित्र है तुम्हारी रानी भी। इस तरह पथिकों को पकड़वा कर बुलाती है।’
– ‘पकड़वा कर नहीं पथिक। तुम स्वेच्छा से वहाँ जा रहे हो।’
– ‘क्या नाम है तुम्हारी रानी का ?’
– ‘तुम स्वयं ही चलकर पूछ लेना।’
– ‘क्या रानी का नाम बताने का भी निषेध है तुमको ?
– ‘बहुत उत्सुकता हो रही है पथिक हमारी रानी का नाम जानने की ?’ यह आवाज निर्ऋति की नहीं थी।
– ‘रानी का नाम न सही, तुम अपना नाम बताओ।’
– ‘मेरा नाम हिन्तालिका है पथिक। नेत्र खुलने पर पहचान सकोगे कि कौनसी हिन्तालिका है ?’
– ‘हाँ! तुम्हारी आवाज से मैं तुम्हें पहचान लूंगा।’
– ‘क्या अब तुम्हें हमारी रानी का नाम जानने की आवश्यकता नहीं रही ?’ निर्ऋति के हास्य से वे सब खिलखिलाने लगीं
– ‘मैं स्वयं ही पूछ लूंगा। आपको कृपा करने की आवश्यकता नहीं है।’
– ‘हाँ-हाँ। यही उचित होगा पथिक। तुम रानी मृगमंदा से पूछना कि तुम्हारा नाम क्या है।’ हिन्तालिका की व्यंजना पर वे सब फिर से खिलखिलाने लगीं। सचमुच ही इन्हें बातों से नहीं जीत सकता। प्रतनु ने अनुमान लगाया कि ये युवतियाँ पुरुषों से मुक्त वार्तालाप की अभ्यस्त हैं।
काफी देर तक घुमावदार पगडण्डियों पर चलने के बाद युवतियों ने प्रतनु के नेत्रों से वस्त्र हटाया। किंतु यह क्या ? वस्त्र हटने पर प्रतनु को कुछ भी दिखाई क्यों नहीं दे रहा ?
– ‘मुझे कुछ भी दिखायी क्यों नहीं दे रहा ?’ प्रतनु का स्वर बता रहा था कि इस समय वह पर्याप्त विचलित है।
– ‘क्योंकि रात्रि हो चुकी है और चंद्रमा अभी उदित नहीं हुआ है।’ उसका हाथ पकड़ कर लाने वाली युवती ने उत्तर दिया।
– ‘भयभीत मत हो वीर पथिक।’ निर्ऋति ने उपहास किया और फिर से वे सब खिलखिल करने लगीं। गाढ़े अंधेरे में पर्वत शिलाओं से प्रतिध्वनित होकर लौटती हुई खिलखिलाहट प्रतनु को अत्यंत ही रहस्यमय प्रतीत हुई। सचमुच ही भय लगने लगा प्रतनु को। कैसी लीला है यह ? कहीं कोई प्रेतलीला तो नहीं! उसने आकाश की ओर देखा किंतु वहाँ भी कुछ दिखाई नहीं दिया।
– ‘अंतरिक्ष में नक्षत्र क्यों नहीं दिखाई देते ? प्रतनु ने व्यग्र होकर फिर प्रश्न किया।
– ‘क्योंकि यहाँ से अंतरिक्ष दिखाई नहीं देता।’
– ‘क्यों नहीं दिखाई देता अंतरिक्ष ?’
– ‘क्योंकि इस समय हम एक विवर में हैं।’ [1]
– ‘विवर! कैसा विवर ?’
– ‘पर्वतीय विवर पथिक। इसी विवर से होकर हमारे पुर तक पहुँचा जा सकता है।’
जाने कैसे वे नाग कन्यायें इस अंधेरे में भी पर्याप्त गति से चल पा रही थीं। प्रतनु के लिये इस सघन अंधकार में पैर बढ़ा पाना संभव नहीं हो रहा था। उसने फिर से निर्ऋति का हाथ पकड़ लिया। नागकन्या के कोमल स्पर्श से प्रतनु के शरीर में ऊर्जा लौट आई। उसे फिर से रोमा का स्मरण हो आया।
– ‘क्या इस सुरंग में हमें बहुत देर तक चलते रहना होगा ?’
– ‘काफी देर तक नहीं कुछ देर तक।’
– ‘तुम लोग यहाँ अकेली ही रहती हो।’
– ‘हम लोग नहीं हैं, युवतियाँ हैं। रमणीय युवतियाँ।’ निर्ऋति के उपहास पर चारों ओर से फिर वही खिलखिल फूट पड़ी।
– ‘ठीक है आप जो भी हैं, क्या यहाँ अकेली रहती हैं ?’
– ‘हम यहाँ नहीं रहतीं, अपने पुर में रहती हैं और वहाँ हम अकेली नहीं रहतीं, रानी मृगमंदा की सेवा में रहती हैं। वहाँ हमारे जैसी और भी बहुत सी युवतियाँ हैं जिन्हें तुम बिना किसी संकोच के ‘लोग’ कह सकते हो।’ फिर वही खिलखिल। खीझ हो आई प्रतनु को। जाने इन्हें इतनी हँसी क्योंकर आती है!
काफी देर तक चलते रहने के बाद सामने से प्रकाश आता हुआ दिखाई दिया। कुछ और आगे चलने पर सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा। प्रतनु के आश्चर्य का पार न रहा। यह कैसा विचित्र लोक था। जिस विवर से अब वह बाहर निकल रहा था उसकी सीढ़ियाँ रक्ताभ विद्रुम [2] की बनी हुई थीं और द्वार पर्याप्त मजबूत दिखाई देने वाले रक्त अयस [3] का।
विवर से निकलते ही विशाल उपवन था जिसमें इस रात्रि में भी दिन का सा प्रकाश फैला हुआ था। थोड़ी-थोड़ी दूर पर स्फटिक [4] के दीपाधारों पर स्वर्ण निर्मित दीप रखे थे जिनमें दग्ध होते सुगंधित स्नेह से उत्पन्न प्रकाश पूरे उपवन में व्याप्त था। उपवन के एक खण्ड से दूसरे खण्ड में जाने के लिये दीर्घ मार्गों का निर्माण किया गया था जिनके सामने प्रतनु को मोहेन-जो-दड़ो के मार्ग भी तुच्छ जान पड़े। उपवन के मध्य में स्थित उन्नतोदर [5] राजमार्ग एक विशाल एवं अत्यंत भव्य प्रासाद तक विस्तीर्ण था। इस राजमार्ग का अनुसरण करती हुई ही प्रतनु की दृष्टि प्रासाद तक पहुँची।
कुछ तो उपवन में प्रकाशमान दीप और कुछ आकाश से झरती ज्योत्सना, दोनों के मिले जुले प्रभाव से पूरा परिवेश झिलमिल करता हुआ जान पड़ता था। इसी झिलमिल आलोक में प्रासाद का अनूठा शिल्प देखते ही बनता था। सैंधवों की राजधानी मोहेन-जो-दड़ो में भी उसने इतना भव्य प्रासाद नहीं देखा था। उस प्रासाद को घेर कर चारों ओर लघु प्रासाद बने हुए थे। श्वेत स्फटिक से निर्मित विशाल प्रासाद के बाहर नागकन्याओं का पहरा था जो प्रासादों के द्वार पर बने ऊँचे दीपाधारों के निकट खड्ग धारण करके खड़ी थीं। सम्पूर्ण प्रासाद का बाह्य-शिल्प इतना भव्य और इतना अनूठा था कि शिल्पी प्रतनु को अपना सम्पूर्ण शिल्पज्ञान सारहीन ज्ञात होने लगा। प्रासादों के कलात्मक शिखर अंतरिक्ष में स्थित नक्षत्रों से संभाषण करते हुए प्रतीत होते थे।
उपवन के ईषान [6] कोण में बना सरोवर इस रात्रि में भी स्पष्ट दिखाई देता था। उसके घाट पर बने सोपानों [7] पर खड़ी प्रतिमाओं का शिल्प देखकर तो आंखें चैंधिया गयीं शिल्पी प्रतनु की। उसने देवों के स्वामी इंद्र के अत्यंत रमणीय कानन वन के बारे में सुना था। प्रतनु को लगा कि कानन वन ऐसा ही रहा होगा।
प्रतनु ने देव शिल्पी विश्वकर्मा और दानव शिल्पी मय के भी नाम सुने हैं जो भव्य और मायावी भवन बनाने के लिये जाने जाते थे किंतु नागों ने भी इतने भव्य प्रासादों और अद्भुत पुरों का निर्माण किया है, ऐसा तो उसने सोचा भी नहीं था। इतनी सारी विचित्रताओं के बीच एक विचित्रता अलग से ही ध्यान खींचती थी। सम्पूर्ण उपवन में यहाँ तक कि विशाल प्रासाद के बाहर भी युवतियों का पहरा था, कहीं भी पुरुष प्रतिहार नियुक्त नहीं थे।
[1] पर्वतीय छिद्र, सुरंग
[2] लाल मूंगा।
[3] ताम्बा।
[4] एक तरह का श्वेत पारदर्शी पत्थर जिसे बिल्लौरी पत्थर भी कहते हैं। इसकी तुलना आज काम में लिये जाने वाले रायोलाइट पत्थर से की जा सकती है।
[5] बड़े पेट वाला अथवा मध्य में उभरा हुआ
[6] उत्तर-पूर्व दिशाओं के मध्य का कोण।
[7] सीढि़यों।