धर्म के नाम पर अत्याचारों का सिलसिला
ईसाई धर्म के उदय के साथ ही धार्मिक झगड़ों एवं साम्प्रदायिक वैमनस्य ने हिंसक रूप ले लिया। यहूदियों ने न केवल ईसा मसीह को सूली पर चढ़वाया अपितु येरूशलम के आसपास चोरी-छिपे ईसाई बन रहे लोगों को को ढूंढ-ढूंढ कर मारा जिसके कारण यहूदियों एवं ईसाइयों के बीच घृणा की स्थाई दीवार खिंच गई।
रोमवासियों ने भी अपने प्राचीन रोमन धर्म को बचाने के लिए ईसाई संतों एवं प्रचारकों की निर्मम हत्याएं कीं। मिस्र के लोगों ने रोमवासियों से बहुत पहले ईसाई धर्म अपना लिया था इस कारण रोमन सेनाओं ने मिस्री ईसाइयों पर बहुत अत्याचार किए जिससे मिस्र के ईसाइयों को भागकर रेगिस्तान में छिप जाना पड़ा।
रेगिस्तान में ईसाइयों के अनेक गुप्त मठ बन गए और इन मठों में रहने वाले साधुओं के चमत्कारों की आश्चर्य युक्त और रहस्यमयी कहानियाँ ईसाई जगत में फैल गईं।
बाद में जब कुस्तुंतुनिया के सम्राट कान्सेन्टीन ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया, तब ईसाइयत रोमन साम्राज्य का राजकीय धर्म बन गई। इसके बाद रोमन साम्राज्य में ईसाई धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को मानने की मनाही हो गई।
इसलिए रोम के कैथोलिक ईसाइयों ने प्राचीन रोमन धर्म मानने वालों को ढूंढ-ढूंढ कर जिंदा जलाया। जब रोम में ईसाई धर्म को मान्यता मिल गई तो मिस्र के ईसाइयों ने भी भी मिस्र में निवास कर रहे गैर-ईसाइयों पर, अर्थात् प्राचीन मिस्री धर्म को मानने वालों पर बड़े अत्याचार किए। इसके बाद इस्कंदरिया ईसाई शिक्षा का बड़ा केन्द्र हो गया।
समय के साथ ईसाई धर्म विभिन्न सम्प्रदायों में टूटता-बिखरता एवं बंटता चला गया तथा ईसाइयत कई फिरकों में बंट गई। ये फिरके अपने-अपने वर्चस्व के लिए परस्पर संघर्ष करते थे। ये रक्त-रंजित संघर्ष जनसामान्य के लिए बहुत दुःखदायी सिद्ध हुए।
जब सातवीं सदी में अरब वाले इस्लाम को लेकर आए तो बहुत से मिस्र वासियों ने उनका स्वागत किया। अरबों ने मिस्र और उत्तरी अफ्रीका को सरलता से विजय कर लिया तथा अब इस्लाम को मानने वाले ईसाइयों पर अत्याचार करने लगे और उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर मारने लगे। जब पंद्रहवीं सदी में इस्लाम ने कुस्तुंतुनिया पर आक्रमण किया तो कुस्तुंतुनिया के ईसाई सामंतों ने ‘पोप के ताज से रसूल की पगढ़ी अच्छी है’ कहकर इस्लाम का स्वागत किया।
इंग्लैण्ड द्वारा आयरलैण्ड के कैथोलिकों पर अत्याचार
आयरलैण्ड में चूंकि ईसाई धर्म बहुत पहले आ गया था इसलिए अधिकतर आयरलैण्ड निवासी भी कैथोलिक धर्म को मानते थे। उन्हें इंग्लैण्ड में बड़ी हिकारत की दृष्टि से देखा जाता था। इंग्लैण्ड के धनी सामंत लोग प्रोटेस्टेण्ट्स थे तथा उनकी संख्या बहुत अधिक थी। वे लॉर्ड्स कहलाते थे। जबकि आयरलैण्ड में कैथोलिकों की संख्या अधिक थी तथा वे खेतों में मजदूरी करते थे।
आयरलैण्ड में कैथोलिकों की जनसंख्या बहुत अधिक होने पर भी आयरलैण्ड की पार्लियामेंट प्रोटेस्टेण्ट्स के हाथों में थी। ये लोग इंग्लैण्ड से आकर उत्तरी आयरलैण्ड में बस गए थे। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में आयरलैण्ड से भी इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट के लिए सदस्य चुने जाते थे किंतु किसी भी कैथोलिक को इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट में प्रवेश करने का अधिकार नहीं था।
अमरीका में इटली के कैथोलिक मजदूरों से भेदभाव
अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में यूरोप के बहुत से देशों के लोग अमरीका में जाकर बसने लगे। इनमें जर्मनी, आयरलैण्ड, इंग्लैण्ड, पोलैण्ड एवं इटली आदि देशों के लोग प्रमुख थे। यह एक आश्चर्य की बात थी कि उत्तरी यूरोप के देशों से आए हुए लोग दक्षिणी यूरोप अर्थात् इटली से आए हुए लोगों को नीची दृष्टि से देखते थे। इटली से आए हुए लोगों को हिकारत से ‘डेगो’ कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ है- ‘गेहुएँ रंग वाला विदेशी’।
ये लोग अमरीका में मजदूरी करते थे तथा कमजोर एवं बिखरे हुए थे। अन्य यूरोपीय देशों से आए हुए जिन मजदूरों को अच्छा वेतन मिलता था, वे भी इटली के मजदूरों को अलग वर्ग का समझते थे और उन्हें अपने साथ नहीं बिठाते थे।
यूरोप की धन-पिपासा और गुलाम-प्रथा
यूरोप में गुलामी की प्रथा ईसा के जन्म से शताब्दियों पहले से प्रचलन में थी। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि युग आते थे और जाते थे, राज्य और साम्राज्य बनते थे और मिटते थे किंतु रोम से लेकर यूरोप के अंतिम छोर तक गुलामी की प्रथा ज्यों की त्यों बनी हुई थी।
एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य की देह को पशुओं की तरह हांके जाना, मनुष्यता नामक तत्व पर कलंक के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता था। जब तक कोई समाज गुलामी करने और करवाने की अपनी प्रवृत्ति से दूर नहीं होता, उस समाज में वैचारिक क्रांति को जन्म नहीं मिलता। ऐसा समाज केवल शक्ति, दण्ड एवं पूंजी से चलता है, मानवता के पवित्र गुणों से नहीं।
यूरोपीय समाज में युगों से प्रचलित गुलामी करवाने की मनोवृत्ति के कारण इंग्लैण्ड, हॉलैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल, तथा स्पेन आदि छोटे-छोटे देश पूरी दुनिया में औपनिवेशिक साम्राज्य खड़े करने में सफल रहे। प्राचीन युगों में अफ्रीकी देश, यूरोप की धन-पिपासा की चपेट में रहे किंतु मध्य युग में अमरीकी एवं एशियाई देशों पर भी यूरोपीय उपनिवेशवाद एवं गुलामी लाद दी गई। इसके लिए बड़ी संख्या में मानवों का रक्त बहाया गया।
नए गुलामों की आवश्यकता
सत्रहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के मध्य तक सम्पूर्ण यूरोप में गुलाम प्रथा अपने चरम पर थी। इस काल में इंग्लैण्ड का विख्यात शहर लिवरपूल गुलामों की बड़ी मण्डी के रूप में जाना जाता था। ये गुलाम विभिन्न देशों से पकड़कर लाए जाते थे जिनमें अफ्रीका के पश्चिमी तट पर स्थित देश प्रमुख थे।
इस स्थान को यूरोप में ‘गुलामों का तट’ कहा जाता था। ई.1730 में लिवरपूल के 15 जहाज गुलामों को पकड़कर लाने के काम में लगे हुए थे जिनकी संख्या ई.1792 में 132 हो गई। इंग्लैण्ड के लंकाशायर में रुई की कताई का उद्योग बहुत उन्नति कर गया था जिसके लिए गुलामों की जरूरत पड़ती थी। यह रुई भारत के खेतों से बलपूर्वक उठाकर पानी के जहाजों के माध्यम से इंग्लैण्ड पहुँचाई जाती थी।
अमरीका के दक्षिण राज्यों में भी रुई की भारी पैदावार होने लगी थी। इन खेतों में भी अफ्रीका से पकड़कर लाए गए हब्शियों से बल पूर्वक कार्य करवाया जाता था। ई.1790 में अमरीका में गुलामों की संख्या लगभग 7 लाख थी जो ई.1861 में बढ़कर 40 लाख हो गई।
गुलाम प्रथा के विरुद्ध कमजोर आवाजें
स्वाभाविक ही था कि कुछ लोग इस बर्बर प्रथा के खिलाफ सोचना शुरु करते और उनके लिए संघर्ष करते। इन्हीं संघर्षों का परिणाम था कि उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में यूरोपीय देशों एवं अमरीका में गुलाम प्रथा के विरुद्ध नियम बनने आरम्भ हुए। इंग्लैण्ड की सरकार ने गुलाम प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और कठोर सजा के प्रावधान किए किंतु गुलाम प्रथा ज्यों की त्यों जारी रही।
उन्हें रात के अंधेरों में चलने वाले पानी के जहाजों में जानवरों से भी बुरी हालत में एक-दूसरे के ऊपर लाद कर लाया जाता था। अमरीकी लेखक हैरियट बीचर स्टो ने अमरीकी गृहयुद्ध के आरम्भ होने से दस वर्ष पहले ‘अंकल टॉम्’स केबिन’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें इन गुलामों की दुःख-भरी जिंदगी का मार्मिक चित्रण किया गया है।
इन गुलामों की दशा में तब तक कोई सुधार नहीं आने वाला था जब तक कि यूरोपीय समुदाय के धन-पिपासु लोगों की आत्मा में ‘मनुष्य’ नामक पशु के लिए सहृदयता, सहानुभूति एवं समता के भाव उदित न हों।
मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं ही
रोटी, कपड़ा और मकान पर अधिकार का मानदण्ड
संसार के अन्य प्राचीन समुदायों की भांति यूरोप का ईसाई समुदाय भी मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता और बराबरी के विचार को मान्यता नहीं देता था। कहीं पर राजा ईश्वर का प्रतिनिधि था तो कहीं पर गुलामों के भीतर आत्मा नहीं पाई जाती थी। सभी मनुष्य समान नहीं हो सकते, इस विचार का आधार आदिकाल से ही प्रत्येक मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं में अंतर पर टिका हुआ था जिनके कारण मनुष्यों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में अंतर उत्पन्न होता है।
कई मामलों में तो शारीरिक क्षमताओं को ही सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक मान लिया जाता था तथा इसी आधार पर मनुष्यों के भोजन, वस्त्र, सम्पत्ति एवं आचरण सम्बन्धी अधिकारों को बढ़ा या घटा दिया जाता था। विशेषकर स्त्रियों, गुलामों एवं श्रमिकों के मामले में। स्त्रियों के लिए पुरुषों की तुलना में कम पौष्टिक आहार एवं कम शिक्षा को पर्याप्त मान लिया जाता था और उसे धर्म का हिस्सा बना दिया जाता था ताकि उस विचार का कोई विरोध न करे। यहाँ तक कि स्त्रियों का घर से बाहर आना, सभाओं में अपने विचार अथवा मत व्यक्त करना, खुलकर हंसना, परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य पुरुषों से बात करना आदि प्रतिबंधित होता था।
ये सब बातें ईसाई धर्म में भी विश्व के दूसरे मत-मतांतरों के अघोषित एवं अलिखित आचरण शास्त्र का अनिवार्य हिस्सा थीं। यहाँ तक कि स्त्रियों एवं पुरुषों की आत्माओं में भी अंतर माना गया था। यूरोपीय समुदाय में यह प्रवृत्ति अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में भी जारी रही।
शोषण के धार्मिक महिमामण्डन से मिली
सामाजिक स्वीकार्यता
मनुष्य मात्र में अंतर करने की प्रवृत्ति को धार्मिक आवरण से मण्डित कर देने के कारण वह सहज सामाजिक आचरण बन जाता है। यही कारण है कि प्राचीन यूरोपीय समुदाय में मजदूरों एवं गुलामों से अधिक शारीरिक काम लेकर उन्हें बचा-खुचा, बासी, कम पौष्टिक, आधा-पेट भोजन देना सहज सामाजिक व्यवहार माना जाता था।
मनुष्यों में हर स्तर पर अंतर करने की प्रवृत्ति के कारण यूरोप में गणतंत्र अथवा लोकतंत्र जैसे विचारों को पनपने के लिए कम ही अवकाश बचता था। रोम की भांति यूरोप के अधिकतर देशों में निरंकुश शासन-तंत्र था जो शस्त्र एवं शास्त्र के बल पर समाज के श्रमजीवी एवं गुलाम वर्ग को नियंत्रण में रखता था।
जब तक यूरोप में लोकतंत्र का विचार सुदृढ़ नहीं हो गया, तब तक यही शोषणकारी व्यवस्था चलती रही। फिर भी वेनिस, फ्लोरेंस तथा यूरोप के कुछ अन्य राज्यों में सीमित प्रकार की गणतंत्र व्यवस्थाएं चलती थीं जो कि फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड एवं रोम की राजतंत्रात्मक व्यवस्थाओं से निःसंदेह अच्छी थीं।