मार्टिन लूथर का आंदोलन
विज्ञान तथा धर्म के बीच हुए संघर्ष में वैज्ञानिकों पर किए गए अत्याचारों ने तथा इनक्विजीशन के माध्यम से ईसाई साधुओं पर किए गए जुल्मों ने बहुत से कैथोलिक ईसाइयों को दूसरे ढंग से सोचने के लिए प्रेरित किया। सोलहवीं सदी के आरम्भ में जर्मनी में मार्टिन लूथर नामक एक महान् नेता उत्पन्न हुआ।
वह एक ईसाई पादरी था। एक बार जब वह रोम गया तो वहाँ ईसाई संघ के भ्रष्टाचार एवं विलास ने उसके हृदय को ग्लानि से भर दिया। उसने कैथोलिक धर्म में फैले भ्रष्टाचार का विरोध करना आरम्भ किया। इस कारण रोमन ईसाई संघ दो टुकड़ों में विभक्त हो गया। पूर्वी यूरोप और रूस का प्राचीन काल से चला आ रहा यूनानी ईसाई संघ इस झगड़े से अलग ही रहा। वह तो पहले से ही रोम को सच्ची ईसाइयत से बहुत दूर समझता था।
मार्टिन लूथर के नेतृत्व में शुरु हुआ आंदोलन ‘प्रोटेस्टेण्ट विद्रोह’ कहलाया। चूंकि ये लोग प्रोटेस्ट अर्थात् विरोध करते थे इसलिए ‘प्रोटेस्टेण्ट-ईसाई’ कहलाए। बहुत से राजाओं ने भी इस आंदोलन को सहयोग दिया। ये राजा चाहते थे कि पोप उन पर आदेश चलाना बंद करे। बहुत से ईसाई पादरी जो अंतर्मन से चाहते थे कि धर्म नामक संस्था में घुस आए भ्रष्टाचार एवं विलासिता को समाप्त हो जाना चाहिए, वे भी इस आंदोलन से जुड़ गए।
इटली अभी ‘रिनेंसाँ’ के युग में चल ही रहा था, इसलिए जनता में भी बहुत से विचार उमड़-घुमड़ रहे थे। कुछ लोग मैकियावेली की पुस्तकों को पढ़कर राजाओं एवं पोप आदि सत्ताओं से चिढ़ गए थे और वे भी कुछ करना चाहते थे। इस कारण पश्चिमी यूरोप में रोमन चर्च के विरोध का जर्बदस्त माहौल बन गया। पूरे पश्चिमी यूरोप में यह आंदोलन इतना अधिक फैल गया कि ईसाइयत दो संघों में बंट गई- रोम कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट। रोमन संघ के विरुद्ध हुए इस आंदोलन को रिफॉर्मेशन भी कहा जाता है।
प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल एवं आधुनिक काल में रोम तथा पोप के विरुद्ध जितने भी आंदोलन हुए उनमें प्रोटेस्टेण्ट आंदोलन सबसे बड़ा सिद्ध हुआ। यह किसी एक या दो देशों में नहीं था अपितु यूरोप के अधिकांश देशों में फैल गया था। बाद में प्रोटेस्टेण्ट्स भी बहुत से फिरकों में बंट गए। सोलहवीं सदी में फ्रांसिस्कन एवं डोमिनिकन नामक ईसाई सम्प्रदाय अस्तित्व में आए। जब मार्टिन लूथर प्रोटेस्टेण्ट आंदोलन कर रहा था, तब उन्हीं दिनों लोयोला निवासी इग्नेशियस नामक एक स्पेनिश पादरी ने एक नया ईसाई संघ स्थापित किया। उसने इसका नाम ‘सोसायटी ऑफ जीसस’ रखा। इसके सदस्य जेजुइट कहलाए।
यह जीजस संघ एक अद्भुत संस्था थी। इसका मुख्य उद्देश्य रोमन ईसाई संघ तथा पोप की सेवा के लिए पूरा समय देने वाले समर्पित मनुष्यों का दल तैयार करना था। यह संघ अपने सदस्यों को कठोर प्रशिक्षण देकर हर तरह से मजबूत बनाता था। इस कारण इस संघ के सदस्य रोमन चर्च एवं पोप के बड़े विश्वस्त सिद्ध हुए।
इन लोगों ने अपना सम्पूर्ण जीवन अपने लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया था। इसलिए वे चर्च तथा पोप के आदेश पर किसी तरह की शंका नहीं करते थे अपितु उनके हर आदेश पर आंख मींचकर विश्वास करते थे। ईसाई संघ के हितों के लिए वे अपना जीवन न्यौछावर करने में भी नहीं चूकते थे। इनके लिए ईसाई संघ के हित में सब-कुछ उचित था।
इन लोगों का चरित्र बहुत उज्ज्वल था। इसके कारण लोग उनकी बातों को मानते थे। इन लोगों के प्रभाव का परिणाम यह हुआ कि स्वयं रोम में भ्रष्टाचार बहुत कम हो गया। हालांकि भ्रष्टाचार कम होने का बड़ा कारण प्रोटेस्टेण्ट आंदोलन था। उस काल में हैप्सबर्ग वंश का चार्ल्स (पंचम्) पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट था। उसे अपने पिता और दादा के विवाहों के परिणामस्वरूप विरासत में बहुत बड़ा साम्राज्य मिल गया था जिसमें ऑस्ट्रिया, जर्मनी, नेपल्स, सिसली, नीदरलैण्ड और स्पेनी अमरीका सम्मिलित थे।
इस प्रकार यह राजा लगभग आधे यूरोप का स्वामी था। उसने प्रोटेस्टेण्ट्स के विरुद्ध पोप की सहायता करने का निर्णय लिया किंतु जर्मनी के बहुत से छोटे-छोटे राजाओं एवं सामंतों ने प्रोटेस्टेण्टों का साथ दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जर्मनी में रोमन और लूथरन नामक दो झगड़ालू फिरके बन गए। इनके झगड़े इतने अधिक बढ़ गए कि जर्मनी में गृहयुद्ध छिड़ गया।
इंग्लैण्ड के राजा हेनरी (अष्टम्) ने पोप के विरुद्ध प्रोटेस्टेण्ट्स का साथ दिया। उसकी ललचाई आंखें रोमन चर्च तथा ईसाई संघ की सम्पत्ति पर लगी हुई थीं। इसलिए उसने रोम से सम्बन्ध तोड़कर मठों एवं गिरजों की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली। हेनरी (अष्टम्) की पोप से नाराजगी का एक बड़ा कारण यह भी था कि हेनरी अपनी पहली रानी को छोड़कर दूसरी स्त्री से विवाह करना चाहता था किंतु पोप इसके लिए अनुमति नहीं दे रहा था। इंग्लैण्ड ने रोम से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया तथा राजा हेनरी (अष्टम्) स्वयं इंग्लैण्ड के ईसाई संघ का प्रधान बन गया।
कुछ ही दिनों में इंग्लैण्ड में ईसाई धर्म एक सरकारी कार्यालय के रूप में चलने लगा जिससे राजा को कम ही मतलब था। फ्रांस में भी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई। वहाँ के सम्राट का प्रधानमंत्री ‘रिशैल्यू’ एक कार्डिनल था और राज्य का असली शासक भी वही था। रिशैल्यू ने फ्रांस को पोप एवं रोम के पक्ष में रखा और फ्रांस में प्रोटेस्टेण्ट्स का दमन किया।
रिशैल्यू इतना गहरा राजनीतिक था कि एक ओर वह अपने राज्य फ्रांस में प्रोटेस्टेण्ट्स का दमन कर रहा था तो दूसरी ओर वह जर्मनी में प्रोटेस्टेण्ट्स को बढ़ावा दे रहा था ताकि जर्मनी में गृहयुद्ध की आग ठण्डी न हो।
मार्टिन लूथर सबसे बड़ा प्रोटेस्टेण्ट था और उसने रोम की सत्ता का जमकर विरोध किया किंतु वह स्वयं भी धर्म के मामले में बहुत कट्टर था। उसने एक नए ढंग के धार्मिक-उन्मत्त पैदा कर दिए- ‘प्यूरिटन’ तथा ‘कैलविनिस्ट’। पोप एवं रोम के इनक्विजीशन एवं कर प्रणाली से दुःखी जन-साधारण ने भी, विशेषकर किसानों ने प्रोटेस्टेण्ट्स का साथ दिया।
देखते ही देखते यूरोप में किसानों का बड़ा आंदोलन आरम्भ हो गया और वह प्रोटेस्टेण्ट्स के आंदोलन से भी आगे बढ़ गया। उनकी मुख्य मांग यह थी कि गुलाम-काश्तकार की प्रथा समाप्त की जाए। इस पर मार्टिन लूथर जो स्वयं को धर्म-सुधारक कहता था, किसानों पर भड़क गया।
लूथर ने सार्वजनिक भाषणों में अपने अनुयाइयों से अपील की कि- ‘इस शर्त से तो सब आदमी बराबर हो जाएंगे और ईसा का आध्यात्मिक राज्य बदलकर एक बाहरी सांसारिक राज्य बन जाएगा। असम्भव! पृथ्वी का कोई ऐसा राज्य रह ही नहीं सकता जिसमें सब व्यक्ति बराबर हों। कुछ को आजाद, दूसरों को गुलाम, कुछ को राजा, दूसरों को प्रजा रहना ही पड़ेगा….
…. आंदोलनकारी किसानों को मार डालना जरूरी है। इसलिए जो लोग भी ऐसा कर सकते हों, वे किसानों को खुल्लम-खुल्ला या छिपकर काट डालें। कत्ल कर डालें और छुरों से भोंक दें, और समझ लें कि एक बागी से बढ़कर जहरीला, बुरा और निपट शैतान कोई नहीं है। तुम उसे मार डालो, जैसे तुम पागल कुत्ते को मार डालते हो। अगर तुम उस पर टूट नहीं पड़ोगे तो वह तुम पर और सारे देश पर टूट पड़ेगा।’
लूथर के समर्थकों द्वारा की गई हिंसात्मक कार्यवाहियों के कारण किसान प्रोटेस्टेण्ट आंदोलन से दूर हो गए तथा इस आंदोलन के अंत में यूरोप का मध्यमवर्ग ही इस आंदोलन के साथ रह गया। उस काल में यूरोप में मध्यम वर्ग तेजी से आगे बढ़ रहा था। मध्यम-वर्ग की उन्नति में कैथोलिक चर्च की बजाय प्रोटेस्टेण्ट विचार अधिक सहायक सिद्ध हो रहे थे।
इसलिए यूरोप के बहुत बड़े हिस्से में तथा बहुत बड़ी संख्या में मध्यम वर्ग के लोग कैथोलिक धर्म छोड़कर प्रोटेस्टेण्ट के अनुयाई हो गये। यूरोप के अधिकांश राजा भी पोप और चर्च के बंधन से मुक्त हो गए। लोग कैथोलिक चर्च से दूर होकर प्रोटेस्टेण्ट बन रहे थे किंतु अब धर्म लोगों के दिमागों में नहीं, गलियों में लड़ रहा था।
कैथोलिकों और प्रोटेस्टेण्टों के खूनी झगड़ों, कैथोलिकों और कैलविनों के रक्तपातों, इनक्विजिशन द्वारा बांटी जा रही दर्दनाक मौतों के साथ-साथ यूरोप में प्यूरिटन नामक सम्प्रदाय द्वारा लाखों स्त्रियों को डायन बताकर की गई हत्याओं का अंततः यही परिणाम होना था कि लोग धर्म से उकता जाएं किंतु इसके लिए यूरोप में आर्थिक समृद्धि एवं वैज्ञानिक खोजों का दौर आरम्भ होना आवश्यक था।
समृद्धि एवं विज्ञान के आालोक में ही यह सम्भव था कि लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप एवं आडम्बर में अंतर करके देख सकें किंतु उस दौर को आरम्भ होने के लिए लोगों को अठारहवीं सदी के मध्य तक प्रतीक्षा करनी थी। तब तक के लिए यूरोप में रक्तपात और हिंसा का चक्र इसी प्रकार जारी रहना था।