इस संसार में समस्त प्राणी मृत्यु से भयभीत रहते हैं। उनमें से मनुष्य नामक प्राणी, मृत्यु का भय सर्वाधिक अनुभव करता है।
जाने कब और किस रूप में मृत्यु आकर प्राणी को दबोच ले, कोई नहीं जानता। हमारे धर्म ग्रंथों में मृत्यु का ऐसा भयावह वर्णन किया गया है कि उसे पढ़कर आदमी की रूह कांप जाती है। मृत्यु के समय शरीर से प्राण निकलने की प्रक्रिया बड़ी भयानक बताई गई है।
मृत्यु के तुरंत बाद वैतरणी नदी पार करने में होने वाले असीम कष्टों का वर्णन किया गया है। उसके बाद कर्मों के फल के अनुसार स्वर्ग-नर्क भोगने की बात कही गई है।
स्वर्ग मिला तो ठीक अन्यथा नर्क के कष्ट और भी भयानक बताए गए हैं। स्वर्ग और नर्क भोगने की अवधि पूरी होने के बाद फिर से माँ के पेट में नौ माह उलटे लटक कर कष्ट भोगने की बातें बहुत ही बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हैं।
संसार में अधिकतर लोगों को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि आज तक किसी ने मृत्यु के बाद लौटकर यह नहीं बताया कि मरते समय कितना कष्ट होता है किंतु मरने वाले के चेहरे पर मांसपेशियों के तनाव से यह अनुभव किया जा सकता है कि मृत्यु के समय अपार कष्ट होता है।
जबकि वास्तविकता यह है कि कुछ लोग मरने के बाद फिर से अपनी देह में लौटकर आते हैं। कुछ लोग मरने के चार-पांच घण्टे बाद अर्थियों से उठ-बैठते हैं तो कुछ लोग शमशान पहुंचकर जीवित होते हैं।
शरीर में लौटकर आने वाले व्यक्तियों ने प्रायः अपने अनुभव सुनाए हैं किंतु यह कभी नहीं बताया कि उन्हें मृत्यु के समय किसी भयानक दर्द का सामना करना पड़ा था। वे मरने के क्षण से लेकर देह में वापस लौटने के क्षण के बीच का उल्लेख एक रोचक सपने के समान करते हैं।
अपनी मृत अवस्था में वे किसी यात्रा का उल्लेख करते हैं, किसी से मिलने का उल्लेख करते हैं तथा किसी व्यक्ति द्वारा किन्ही लोगों को आदेश दिए जाने का उल्लेख करते हैं कि इस व्यक्ति की मृत्यु का समय नहीं हुआ, इसलिए इसे फिर से इसके शरीर में डालकर आओ।
कभी भी किसी ने भी मृत्यु के समय या फिर से देह में लौटते समय किसी दर्दनाक अनुभव होने का उल्लेख नहीं किया है। हां वे एक धक्का लगने जैसा अनुभव अवश्य करते हैं।
हमारे धर्मग्रंथों में मृत्यु के समय जिस दर्द के होने का उल्लेख किया गया है वह लोगों को नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए दिखाया गया एक काल्पनिक भय है। उसमें सच्चाई नहीं है।
वास्तव में मृत्यु एक दर्द रहित प्रक्रिया है। जिस प्रकार किसी ऑपरेशन के पहले हमें बहुत भय लगता है किंतु ऑपरेशन के समय एनेस्थेशिया दिए जाने के कारण दर्द का अनुभव तक नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति मृत्यु के समय जीवात्मा को विशेष प्रकार के एनेस्थेशया देती है जिसके कारण न तो शरीर को दर्द होता है और न शरीर को छोड़कर जाने वाले जीवात्मा को।
जिन लोगों के चेहरे की मांसपेशियों में, मृत्यु के समय या बाद भी तनाव दिखाई देता है, वह मनुष्य के द्वारा मृत्यु के समय भोगी गई दर्दनाक स्थिति के कारण नहीं होता अपितु मरने से पहले उनके मन में मृत्यु का जो भय होता है, उसके कारण उनके चेहरे की मांसपेशियां तनाव में आ जाती हैं।
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि दो बच्चों को एक ही प्रकार का इंजेक्शन लगाने पर एक बच्चा तो चीख-चीख कर आसमान भर देता है जबकि दूसरा बच्चा आराम से इंजेक्शन लगवा लेता है, वह उफ तक नहीं करता।
पहला बच्चा जो इंजेक्शन के लगने पर चीखता-चिल्लाता है, वह वस्तुतः उसी समय से रोने लगता है जिस समय उसे ज्ञात होता है कि उसे इंजेक्शन लगेगा।
ठीक यही स्थिति मृत्यु के सम्बन्ध में है, हम मृत्यु के भय से स्वयं को इतना भयभीत कर लेते हैं कि हमारे चेहरे की मांसपेशियां स्वतः उसी प्रकार खिंच जाती हैं जिस प्रकार कष्ट में खिंचनी चाहिए।
एक और उदाहरण लेते हैं। एक व्यक्ति को किसी देश के न्यायालय ने मृत्यु दण्ड दिया। वैज्ञानिकों ने उसके साथ एक प्रयोग किया। उसे एक कोबरा सांप दिखाकर कहा गया कि एक माह बाद तुम्हें इस कोबरा के दंश से मरवाया जाएगा। उस व्यक्ति को प्रतिदिन वह कोबरा दिखाया गया तथा एक माह बाद उसकी आंखों पर पट्टी बांधकर उसे केवल दो सुइयां चुभाई गईं।
सुइयों के चुभते ही वह व्यक्ति छटपाने लगा और थोड़ी ही देर में मर गया। उसका शरीर भी ठीक वैसे ही नीला पड़ गया जैसा कि सर्पदंश के समय होता है। वैज्ञानिकों के द्वारा परीक्षण किए जाने पर ज्ञात हुआ कि उस व्यक्ति के शरीर में वही जहर पाया गया जो कि कोबरा सांप में होता है।
मृतक के शरीर में जहर कहां से आया, जबकि उसे सर्पदंश तो लगवाया ही नहीं गया था? निश्चित रूप से यह जहर उसी सजायाफ्ता व्यक्ति के मन में बैठे हुए डर ने पैदा किया था।
मृत्यु के मामले में भी ठीक ऐसा ही होता है। मृत्यु हमें दर्द नहीं देती, हम स्वयं अपने आपको दर्द देने के लिए जीवन भर तैयार करते हैं।
अब हम मृत्यु की घटना को आध्यात्मिक स्तर पर समझने का प्रयास करते हैं। मनुष्य की मृत्यु सामान्यतः तीन प्रकार से होती है, वृद्धावस्था आने पर होने वाली स्वाभाविक मृत्यु, बीमारी के कारण किसी भी आयु में होने वाली मृत्यु तथा दुर्घटना, हत्या या फांसी आदि में होने वाली अचानक मृत्यु।
इनमें से वृद्धावस्था में होने वाली स्वाभाविक मृत्यु तथा बीमारी की अवस्था में होने वाली मृत्यु के समय आदमी लेटा हुआ रहता है। ऐसी अवस्था में मृत्यु होने पर मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अर्थात् एस्ट्रल बॉडी अर्थात् जीवात्मा, मरणासन्न मनुष्य के स्थूल शरीर से बाहर निकल कर उसके ऊपर तैरने लगता है। स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म शरीर एक मुलायम डोरी से कनैक्टेड रहते हैं।
जिस प्रकार जन्म की एक घड़ी आ जाती है, उसके बाद जीव मां के पेट में नहीं रुक सकता, उसी प्रकार मृत्यु की भी एक घड़ी आ जाती है, उसके बाद मनुष्य अपने स्थूल शरीर में नहीं रुक सकता। अतः जीवात्मा, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के बीच की कॉड को झटका देकर तोड़ डालता है। कई बार जीवात्मा को लेने आई दूसरी जीवात्माएं मरणासन्न व्यक्ति की सहायता करती हैं तथा वे दाई अथवा नर्स की भूमिका निभाती हैं।
स्थूल शरीर सिल्वर कॉड के टूटने की इस घटना को देखता है और उसके चेहरे पर तनाव एवं दर्द के भाव उत्पन्न होते हैं जबकि इस प्रक्रिया में ठीक वैसे ही कोई कष्ट नहीं होता जैसे जन्म के समय आम्बल नाल काटने पर न मां को और न बच्चे को कोई कष्ट होता है। या हमें बाल एवं नाखून काटने पर होता है।
दुर्घटना, हत्या एवं फांसी आदि से होने वाली मृत्यु में मनुष्य प्रायः बैठा हुआ या खड़ा होता है। ऐसी अवस्स्था में होने वाली मृत्यु की घटनाओं को मनुष्य अपनी आंखों से मृत्यु को निकट आते हुए देखता है।
एक उदाहरण से इस समझते हैं। माना जाए कि कोई मनुष्य सड़क पर चल रहा है और वह अचानक अपने सामने तेज गति से आते हुए किसी ट्रक को देखता है। वह समझ जाता है कि उसका इस ट्रक के नीचे कुचल कर मरना तय है। ऐसी अवस्था में वह पूरा जोर लगाकर आगे या पीछे भागने का प्रयास करता है किंतु मनुष्य के सड़क पार करने से पहले ही ट्रक इतना नजदीक आ जाता है कि वह समझ जाता है कि अगले ही क्षण वह ट्रक के नीचे होगा।
ऐसी भयावह स्थिति में भय के कारण मनुष्य की एस्ट्रल बॉडी अर्थात् सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से स्वयं कूदकर बाहर आ जाती है। अर्थात् मनुष्य ट्रक शरीर पर चढ़ने से पहले ही मर जाता है। किसी भूत-प्रेत को देखकर दम निकल जाना, किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु का समाचार सुनकर मर जाना, जैसी स्थितियां इसी प्रकार की घटनाओं का परिणाम हैं।
अतः प्रत्येक मनुष्य के लिए इसे समझना आवश्यक है कि मृत्यु एक सहज स्वाभाविक क्रिया है, चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ प्राणी जन्म और मृत्यु की घटना को चौरासी लाख बार भोगता है, उसे इसका पूरा अनुभव होता है। प्रकृति भी इस काम में प्राणी की पूरी सहायता करती है। अतः मृत्यु से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता