Sunday, December 8, 2024
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71. नोपकृतं

गुजरात विजय के उपलक्ष्य में खानखाना बनाये जाने पर अब्दुर्रहीम दिल्ली दरबार में उपस्थित हुआ और उसने बादशाह के प्रति आभार का प्रदर्शन किया। बादशाह ने उसकी सेवाओं की प्रशंसा की और उसे फिर से मोर्चे पर लौट जाने के आदेश दिये।

अब्दुर्रहीम को खानखाना बनाये जाने के उपलक्ष्य में अब्दुर्रहीम के महलों में भारी उत्सव मनाया गया। इस अवसर पर अमीरों, उमरावों और हिन्दू नरेशों के साथ-साथ बड़ी संख्या में कवि, गवैये और चित्रकार भी उपस्थित हुए। दिल्ली में इस समारोह की धूम मच गयी।

वैसे भी नये, पुराने, अनाड़ी और मंजे हुए कवि अब्दुर्रहीम के समक्ष आने के लिये हर समय उत्सुक रहते थे तथा उसेे अपनी कविताएं सुनाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे। वे अपनी कविताएं रहीम को सुनाते और अब्दुर्रहीम से प्रशंसा तथा पुरस्कार पाकर अपनी उन्नति का मार्ग खोलने की चेष्टा  करते थे। इस अवसर पर जगन्नाथ त्रिशूली ने एक श्लोक रहीम के दरबार में उपस्थित कवियों के सामने सुनाया-

प्राप्य चलानधिकारान् शत्रुषु, मित्रेषु बंधुवर्गेषुं।

नापकृतं नोपकृतमं न सत्कृतं कि कृत तेन।।[1]

दरबार में उपस्थित कवियों ने युवा कवि जगन्नाथ की बड़ी प्रशंसा की लेकिन रहीम कुछ चिंतत हो गये।

– ‘क्या बात है, खानखाना को श्लोक ठीक नहीं लगा?’ युवा कवि ने सहमते हुए पूछा।

– ‘श्लोक बहुत सुंदर है किंतु कवि यदि अनुमति दे तो मैं इसमें कुछ संशोधन करना चाहता हूँ।’ अब्दुर्रहीम ने कहा।

– ‘यदि खानखाना स्वयं मेरी कविता में सुधार करेंगे तो यह मेरा सौभाग्य होगा।’ जगन्नाथ त्रिशूली ने कहा।

– ‘तो फिर इस श्लोक को इस तरह पढ़ो कवि-

प्राप्य चलानधिकारान् शत्रुषु,  मित्रेषु बंधुवर्गेषुं।

नोपकृतं  नोपकृतं  नोपकृतं  कि कृतं तेन।।[2]


[1]  जिसने चल अधिकार पाकर शत्रु, मित्र और भाई बंदों का (क्रमशः) अपकार, उपकार और सत्कार नहीं किया, उसने कुछ नहीं किया।

[2] जिसने चल अधिकार पाकर शत्रु, मित्र और भाई बंदों का क्रमशः उपकार, उपकार और उपकार नहीं किया, उसने कुछ नहीं किया।

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