Tuesday, November 11, 2025
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जुआ (70)

मिर्जा खाँ को रणक्षेत्र से बाहर खींच ले जाने का प्रयास करने वाले उसके शुभचिंतक सैनिक नहीं जानते थे कि मिर्जा खाँ आज सेनापति नहीं था, जुआरी था, जिसने पराये हाथों में थमे पासों पर अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था। हर हालत में उसे जुआ खेलना ही अभीष्ट था, पक्के जुआरी की तरह, हारे चाहे जीते।

गुजरात के सुलतान मुजफ्फर खाँ को बादशाह अकबर कैद करके अपने साथ आगरा ले आया था किंतु कुछ दिनों बाद ही वह अकबर के नमक हराम नौकरों को अपनी और मिलाकर कैद से भाग निकलने में सफल हो गया और फिर से बड़ी भारी फौज एकत्र करके उसने लगभग पूरे गुजरात पर दखल जमा लिया। अहमदाबाद में बैठकर मुजफ्फर खाँ ने मुल्क में अपने नाम की दुहाई फेर दी। इससे अकबर की बड़ी किरकिरी हुई।

दुबारा मुजफ्फर खाँ के पीछे जाना अकबर अपनी शान के खिलाफ समझता था। एक से एक बड़ा सेनापति अकबर की सेवा में हाजिर था किंतु वह इस मोर्चे पर किसी विश्वसनीय आदमी को ही भेजना चाहता था। बहुत सोच विचार करने के बाद अकबर ने मिर्जा खाँ अब्दुर्रहीम को यह जिम्मा सौंपा। रहीम के साथ दस हजार सैनिकों की फौज भेजी गयी।

जब रहीम यह फौज लेकर मेड़ता के पास पहुंचा तो मुजफ्फर खाँ ने पट्टन में टिके हुए मुगल सेनापति कुतुबुद्दीन को मार डाला और आगे बढ़कर भंड़ूचमें भी भारी तबाही मचाई। अब्दुर्रहीम ताबड़तोड़ चलता हुआ पाटन पहुँचा। वहाँ पहुंचकर उसका उत्साह ठण्डा पड़ गया। उसे ज्ञात हुआ कि इस समय मुजफ्फर खाँ के पास चालीस हजार घुड़सवार और एक लाख पैदल सेना है।

भाग्य रहीम को एक बार फिर से आगरा से गुजरात खींच ले आया था और बहुत दूर से कबड्डी दे रहा था। यह वही गुजरात था जो पहले भी दो बार रहीम का जीवन पूरी तरह से बदल चुका था। रहीम को लगा कि इस बार की चुनौती पहले की तमाम चुनौतियों से किसी भी तरह कम विषम नहीं थी। इस चुनौती को जीत पाना आसान नहीं था, चारों ओर मौत का ही सामान सजा हुआ था। 

अब्दुर्रहीम के दस हजार सैनिक तो मुजफ्फर खाँ के अजगर रूपी सैन्य के मुँह में मेमने की तरह पिस कर मरने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते थे। मिर्जाखाँ रहीम को उसके आदमियों ने सलाह दी कि मालवा से मुगल लश्कर मंगवा लिया जाये तभी मुजफ्फर खाँ पर हाथ डाला जाये।

इस पर मिर्जा खाँ के मंत्री दौलत खाँ लोदी ने रहीम को गुप्त सलाह दी कि यदि वह अपने पिता की तरह भाग्य पलटना चाहता है तो बड़ा खतरा मोल ले। मालवा की सेना के आने पर युद्ध जीता गया तो उसका श्रेय अकेले रहीम को नहीं मिलेगा। उसमें दूसरे सेनापतियों का हिस्सा होगा।

मिर्जा खाँ को अपने मंत्री की बात जंच गयी और वह अपने दस हजार आदमियों के दम पर ही इस लड़ाई को जीतने की तैयारी करने लगा। उसने अपनी सेना के सात टुकड़े किये और उन्हें इस तरह समायोजित किया जिससे जरूरत पड़ने पर इन अंगों को आसानी से जोड़ा एवं अलग किया जा सके। स्वयं इस लश्कर के केंन्द्र में स्थित रहकर उसने हिन्दू राजाओं को अपने बांयी ओर तथा मुस्लिम सेनापतियों को दांयी ओर रखा। इसके बाद उसने गुजरात की ओर प्रस्थान किया।

जब मुजफ्फर खाँ को ज्ञात हुआ कि अब्दुर्रहीम सात सेनाएं लेकर आ रहा है तो वह अहमदाबाद में आ टिका और अब्दुर्रहीम की प्रतीक्षा करने लगा। अब्दुर्रहीम अहमदाबाद के बाहर मानपुर में आकर ठहर गया। दोनों ओर की सेनाएं एक दूसरे की वास्तविक ताकत को तोलने में लग गयीं।

इसी बीच रहीम ने एक नाटक खेला। उसने अपने कुछ विश्वस्त आदमियों को एक नकली फरमान बादशाह की ओर से बनाकर दिया और उन्हें चुपचाप आगरा की तरफ कुछ दूर चले जाने को कहा। फिर रहीम खुद ही बहुत सारे आदमी अपने साथ लेकर उनके पीछे गया और गाजे बाजे के साथ उन्हें अगवानी करके लौटा लाया। रहीम के नौकरों ने निर्धारित योजना के अनुसार बादशाह का नकली फरमान रहीम की सेवा में पेश किया।

सारी सेना के बीच यह नकली फरमान जोर-जोर से पढ़कर सुनाया गया। इस फरमान में बादशाह ने लिखा था कि हम आते हैं, हमारे पहुँचने तक लड़ाई मत करना।

यह फरमान सुनकर सारी सेना मारे प्रसन्नता के नाच उठी तथा उत्साह में भर कर सरखेज की तरफ आगे बढ़ गयी और अहमदाबाद के बाहर साबरमती के तट पर जाकर टिक गयी, जिस तरफ मुजफ्फरखाँ की फौज पड़ाव किये हुए थी। मुजफ्फरखाँ ने यह सुनकर कि बादशाह स्वयं फौज लेकर आ रहा है, बादशाह के आने से पहले से ही रहीम की सेना को नष्ट करने का विचार किया।

उसने काफी दूर जाकर नदी पार करने तथा रहीम की सेना पर पीछे से वार करने की योजना बनायी। इस पर रहीम ने राय दुर्गा को मुजफ्फरखाँ की सेना को पीछे से रोकने के लिये नियुक्त किया और जब मुजफ्फरखाँ की आधी सेना नदी पार करने के लिये आगे बढ़ गयी तब रहीम अपनी बाकी की छः सेनाओं को लेकर मुजफ्फरखाँ पर जा चढ़ा। इससे मुजफ्फरखाँ की सेना में भ्रम फैल गया तथा सेना के दो टुकड़े हो गये।

दिन चढ़े तक लड़ाई होती रही। भयानक मारकाट मची जिसमें अब्दुर्रहीम के ठीक सामने ढाल की तरह अड़े हुए सैनिकों का पूरी तरह चूरा हो गया। हरावल और एलतमश के पैर टूट जाने पर अब्दुर्रहीम की जान पर बन आयी। उसके आस-पास केवल एक सौ हाथी और तीन सौ घुड़सवार रह गये।

मुजफ्फर खाँ इनके ठीक सामने अपने सात हजार सैनिकों के साथ जमा हुआ था। रहीम को इस विपन्न अवस्था में देखकर वह आगे बढ़ा। पक्के जुआरी की तरह रहीम इस स्थिति से निबटने के लिये पहले से ही तैयारी कर चुका था। उसने महावतों को आदेश दिया कि बिना कुछ भी देखे हुए जितनी तेजी से हो सके, उतनी तेजी से अपने हाथियों को आगे की ओर हूलते रहें और जहाँ तक हो सके ज्यादा से ज्यादा संख्या में दुश्मन के सैनिकों को रौंदते रहें।

दुश्मन ठीक छाती पर चढ़ आया। जिस प्रकार समंदर की लहरों को गिन सकना संभव नहीं है उसी प्रकार इस दुश्मन से भी पार पाना संभव जान नहीं पड़ता था किंतु अब कुछ नहीं हो सकता था। दांव खेला जा चुका था। अब तो केवल परिणाम ही जानना शेष था। एक बार तो ऐसी नौबत आयी कि मिर्जाखाँ के आदमियों ने मिर्जा खाँ के घोड़े की लगाम पकड़ ली और उसे जबर्दस्ती खींचकर मैदान से बाहर ले जाने लगे।

मिर्जा खाँ को रणक्षेत्र से बाहर खींच ले जाने का प्रयास करने वाले उसके शुभचिंतक सैनिक नहीं जानते थे कि मिर्जा खाँ आज सेनापति नहीं था, जुआरी था, जिसने पराये हाथों में थमे पासों पर अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था। हर हालत में उसे जुआ खेलना ही अभीष्ट था, पक्के जुआरी की तरह, हारे चाहे जीते। उसने सैनिकों के हाथ से अपने घोड़े की रास छुड़ा ली और घोड़े को ऐंड़ लगाकर तेजी से आगे बढ़ गया।

ठीक उसी समय रहीम की युक्ति काम कर गयी। रहीम के हाथियों ने मुजफ्फर खाँ की सेना को कुचल कर रख दिया। मुजफ्फर खाँ का तोपखाना आगे वाली सेना ले जा चुकी थी, बची हुई सेना हाथियों को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुई। फतह हासिल करने का वक्त आ पहुंचा था। रहीम और उसके आदमी दुगने जोश से तलवार चलाने लगे।

यह विशुद्ध जुआ था जो मिर्जा खाँ ने भाग्योत्थान के लालच में खेला था। इसका परिणाम कुछ भी हो सकता था। भाग्यलक्ष्मी उस पर रीझी हुई थी, उसने मिर्जा खाँ के पक्ष में जीत का नया पन्ना लिख दिया। मुजफ्फर खाँ मात खाकर राजमहेन्द्र की ओर भागा।

भागते हुए सैनिकों का पीछा करने के बजाय रहीम पलट कर खड़ा हो गया और नदी पार करके आने वाली मुजफ्फर खाँ की अग्रिम सेना की प्रतीक्षा करने लगा।

उधर जब मुजफ्फर खाँ की अग्रिम सेना ने नदी पार की, तब उसे समाचार मिला कि मुजफ्फर खाँ परास्त होकर राज महेंद्र की ओर भाग गया है तब वह सेना भी आगे बढ़ने के बजाय फिर से नदी पार करके भाग खड़ी हुई। राय दुर्गा प्रतीक्षा ही करता रह गया।

विजय की प्रसन्नता में रहीम ने अपने बचे खुचे सैनिकों को इकठ्ठा किया और अपना सर्वस्व उनमें बाँट दिया। आखिर में एक सिपाही मिर्जा खाँ की सेवा में हाजिर हुआ। उसे कुछ नहीं मिला था लेकिन तब तक रहीम का सर्वस्व बँट चुका था। मिर्जा खाँ ने अपने डेरे में निगाह घुमाई, वहाँ एक कलमदान के अतिरिक्त कुछ न रह गया था। रहीम ने सिपाही को कलमदान देकर कहा कि आज तो यही ले जाओ मौका आने पर, इस कलमदान के बदले में जो जी चाहे ले जाना।

जब मिर्जा खाँ की जीत का समाचार आगरा पहुँचा तो अकबर ने मिर्जा खाँ का को खानखाना का खिताब, एक भारी खिलअत तथा पाँच हजारी मनसब बख्शा और रहीम के आदमियों के भी मनसब बढ़ाये।

-अध्याय 70, डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास चित्रकूट का चातक

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