Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 18 : ईस्ट इण्डिया कम्पनी का रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त

मद्रास प्रांत में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त

जिस समय बंगाल प्रान्त में स्थायी बन्दोबस्त लागू किया जा रहा था उस समय मद्रास प्रान्त अनिश्चिय की स्थिति में था। ब्रिटिश प्रशासन एवं औपचारिक लगान नीति न होने के कारण अनेक प्रकार की भू-राजस्व नीतियाँ प्रचलित थीं। इनमें रैय्यतवाड़ी पद्धति सर्वाधिक सफल सिद्ध हुई। रैय्यतवाड़ी बन्दोस्त के द्वारा प्रत्येक पंजीकृत भूमिधर को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया। वही राज्य को जमीन का लगान देने के लिए उत्तरदायी था। उसे अपनी भूमि को खेती के लिए किराये पर उठाने, बेचने या गिरवी रखने का अधिकार था। समय पर भू-राजस्व चुकाते रहने तक वह अपनी भूमि के स्वामित्व अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था।

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू करने का प्रमुख कारण यह था कि भारत के दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम में जमींदार वर्ग नहीं था, जिसके साथ भूमि का बन्दोबस्त किया जा सके। ब्रिटिश अधिकारी स्थायी बन्दोबस्त के परिणाम देखकर यह धारणा बना चुके थे कि स्थायी बन्दोबस्त से राज्य को आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती है, क्योंकि इस व्यवस्था में समय के साथ-साथ लगान की माँग को नहीं बढ़ाया जा सकता था। अतः किसानों के साथ सीधा बन्दोबस्त करके कम्पनी किसानों से अधिक-से-अधिक लगान प्राप्त कर सकती थी। जमींदारी व्यवस्था में लगान का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्वयं जमींदार अपने पास रख लेते थे अर्थात् जमींदार अपनी रैयत से अधिक लगान वसूल करके कम्पनी को निश्चित भू-राजस्व चुकाते थे। इससे कम्पनी को आर्थिक हानि होती थी।

कैप्टन रीड तथा टॉमस मुनरो को रैय्यतवाड़ी प्रथा का जनक माना जाता है। सर्वप्रथम कर्नल रीड द्वारा 1792 ई. में बारामहल जिले में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसमें लगान के लिए समझौता जमींदारों से न करके वास्तविक किसानों से किया गया, जो भूमि के स्वामी थे। यह समझौता तीन से दस वर्ष की अवधि के लिए किया गया। जब इस बन्दोबस्त की उपयोगिता से कर्नल रीड का विश्वास उठने लगा तब टॉमस मुनरो का इस बन्दोबस्त के प्रति विश्वास बढ़ गया और वह इस पद्धति का कट्टर समर्थक बन गया। 1796 ई. में कर्नल रीड ने वार्षिक लगान निर्धारित करने का सुझाव दिया किन्तु मुनरो ने इस सुझाव की कड़ी आलोचना की। जब मुनरो को निजाम से प्राप्त क्षेत्र का कलेक्टर बनाया गया तब उसने इस क्षेत्र में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया। 1809 ई. तक यह बन्दोबस्त मद्रास में कुछ स्थानों पर लागू कर दिया गया। कम्पनी के संचालक मण्डल के आदेशों से इस व्यवस्था को कुछ समय के लिए स्थगित किया गया किंतु इसकी सफलता को देखते हुए 1818 ई. में इसे पुनः लागू कर दिया गया।

भारत में कम्पनी के अधिकारी उन मूल सिद्धान्तों को ढूँढने में व्यस्त थे, जिन्हें कम्पनी अपनी लगान-नीति के रूप में अपना सके। कम्पनी के अधिकारियों के समक्ष मुख्य रूप से दो समस्याएँ थीं- (1.) भूमि-कर को सरकार की आय का मुख्य साधन बनाकर किस सीमा तक उस निर्भर रहा जाय? (2.) भूमि-कर को निर्धारित करने तथा एकत्र करने का कार्य किन सिद्धान्तों पर आधारित हो ?

कार्नवालिस और मुनरो ने इन समस्याओं पर परस्पर विरोधी समाधान प्रस्तुत किये। कार्नवालिस ऐसी व्यवस्था के पक्ष में था जो निश्चित नियमों पर आधारित हो, जहाँ भू-राजस्व स्थायी हो तथा निजी सम्पत्ति के अधिकार सुरक्षित हों। यद्यपि मुनरो भी निजी सम्पत्ति को भूमि अधिकारों के माध्यम से सुरक्षित कर देना चाहता था, किंतु वह इसे भूमि के वास्तविक स्वामियों के पास सुरक्षित रखना चाहता था। मुनरो नहीं चाहता था कि भूमिकर स्थायी रूप से तय कर दिया जाय, क्योंकि इससे सरकार की आय सदैव के लिए सीमित हो जाती है और भविष्य में भूमि का मूल्य और उत्पादन बढ़ने से सरकार को कोई लाभ नहीं होता।

व्यवहारिक रूप से मुनरो की व्यवस्था भी उतनी ही स्थायी थी जितनी कार्नवालिस की, हालाँकि इसकी औपचारिक घोषणा नहीं की गई थी। बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त के द्वारा सरकार का बार-बार लगान-दर निर्धारित करने तथा लगान वसूल करने का काम बच गया और इस कार्य में लगे हुए सरकारी कर्मचारी अन्य प्रशासनिक कार्यों में प्रयुक्त किये जा सके। दूसरी ओर रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में यह कार्य प्रशासन के ऊपरी ही रहा। रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में बंजर भूमि रैयत के पास नहीं छोड़ी गई, अपितु इस पर सरकार का नियंत्रण बना रहा।

1820 ई. में जब टॉमस मुनरो को मद्रास का गवर्नर बनाया गया तब उसने वहाँ भू-राजस्व का पुनरावलोकन किया तथा पुरानी व्यवस्था को अनुचित मानते हुए रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया। ऐसा करते समय उसने स्थायी बन्दोबस्त वाले इलाकों को छोड़ दिया। रैय्यतवाड़ी बंदोबस्त में उपज का तीसरा भाग (33.33 प्रतिशत) भू-राजस्व निर्धारित किया गया। व्यवहारिक रूप से यह भूमि की उपज और उत्पादन-शक्ति के आधार पर बदला जा सकता था। इसमें अकाल आदि की स्थिति के लिए भी गुंजाइश रखी गई। इसमें लगान की दर बहुत अधिक रहती थी। चूंकि भू-राजस्व धन के रूप में देना पड़ता था तथा इसका वास्तविक उपज एवं मण्डी में प्रचलित भावों से कोई सम्बन्ध नहीं था, इसलिए किसानों पर अत्यधिक बोझ पड़ा। यह स्थिति किसानों के लिए अत्यन्त कष्टप्रद थी।

नीलमणि मुखर्जी के अनुसार- ‘कहने को तो यह व्यवस्था स्थायी थी किन्तु व्यवहारिक रूप से इसमें वार्षिक लगान की समस्त विशेषताएँ मौजूद थीं जिनका स्वयं मुनरो को भी अनुमान नहीं था।’

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त अँग्रेज युवा प्रशासकों में बहुत लोकप्रिय था, क्योंकि इसमें कलेक्टरों को अपनी कार्य-कुशलता दिखाने का अवसर मिलता था। मद्रास में मुनरो द्वारा लागू की गई यह व्यवस्था तीस वर्ष तक चलती रही। इस व्यवस्था में भूमिकर अत्यन्त कठोरता से वसूल किया जाता था। भूमिकर वसूल करने के लिए किसानों को प्रायः कठोर यातनाएँ दी जाती थीं और उनके साथ क्रूर एवं अमानवीय व्यवहार किया जाता था। इस कारण किसान लगान चुकाने के लिए साहूकारों के चंगुल में फँस जाते थे। 1855 ई. में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त को विस्तृत सर्वेक्षण के बाद उचित ढंग से लागू किया गया। इसे वास्तविक रूप में 1861 ई. में लागू किया गया। 1865 ई. में भू-राजस्व उपज का 50 प्रतिशत निश्चित किया गया जो बहुत अधिक था।

इस व्यवस्था से सरकार की आय में जबर्दस्त वृद्धि हुई। मद्रास प्रेसीडेन्सी में 1861 ई. में वसूल की जाने वाली भू-राजस्व की राशि 32.90 लाख पौण्ड थी जो 1874 ई. में बढ़कर 41.80 लाख पौण्ड हो गयी। दूसरी ओर किसानों की हालत बहुत खराब हो गई। उस क्षेत्र में रहने वाले किसान परिवारों की मृत्यु-दर में उल्लेखनीय वृद्धि हो गयी, क्योंकि वे लोग पौष्टिक आहार की कमी से होने वाले विभिन्न रोगों व भुखमरी से मरने लगे। 1877-78 ई. के भीषण अकाल ने इस बन्दोबस्त के दोषों को उजागर कर दिया।

बम्बई प्रेसीडेंसी में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त

बम्बई प्रान्त में भी रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया। पेशवा से प्राप्त प्रदेशों का 1824 से 1828 ई. तक सर्वेक्षण करवाया गया तथा वहाँ भू-राजस्व की दर 55 प्रतिशत निर्धारित की गई। यह सर्वेक्षण नितांत दोषपूर्ण था। उपज का अनुमान ठीक तरह से न लगाने के कारण भू-राजस्व की दर ऊँची निर्धारित कर दी गई थी। किसान इतनी ऊँची दर से भू-राजस्व अदा करने में असमर्थ रहे। बहुत-से किसानों ने भूमि जोतना बन्द कर दिया जिससे बहुत-सा क्षेत्र बंजर हो गया। अतः ब्रिटिश सरकार ने लेफ्टिनेन्ट विनगेट की अध्यक्षता में भूमि का पुनः सर्वेक्षण करवाया। इस रिपोर्ट के अनुसार भू-राजस्व की दर, भूमि की उर्वर अवस्था पर निर्धारित की गई। यह व्यवस्था 30 वर्ष के लिए की गई किन्तु यह निर्धारण भी अधिकांशतः अनुमानों पर आधारित था, इसलिए किसानों के लिए अत्यन्त कष्टप्रद था। 1868 ई. में भूमि का पुनः सर्वेक्षण कराया गया। इस समय तक अमेरिका के गृह-युद्ध के कारण कपास के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गयी थी। इसलिए सर्वेक्षण अधिकारियों को भू-राजस्व 66 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक बढ़ाने का अवसर मिल गया। ब्रिटिश सरकार की इस कठोर नीति के कारण 1875 ई. में दक्षिण भारत में कृषक विद्रोह हुए। 1879 ई. में सरकार ने दक्षिण कृषक राहत अधिनियम पारित किया जिसमें किसानों को साहूकारों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया गया किन्तु सरकार की अधिक भू-राजस्व माँग के सम्बन्ध में कुछ नहीं किया गया। बम्बई की रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का मुख्य दोष यह था कि इसमें भू-राजस्व की अत्यधिक माँग तथा इस बढ़ती हुई माँग के विरुद्ध न्यायालय में अपील करने का अधिकार नहीं था।

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू होते ही इसके समर्थक इस बन्दोबस्त के लाभ बताने लगे। उनके अनुसार यह व्यवस्था स्थायी बंदोबस्त से अधिक लाभदायक सिद्ध हो रही थी, इसीलिए इसे बड़े स्तर पर लागू किया गया। इस बंदोबस्त में बंजर भूमि को भी जोता जा सकता था और इससे सरकार को अतिरिक्त आय हो सकती थी। इस व्यवस्था में रैय्यत अधिक स्वतंत्र थी। इसमें निजी सम्पत्ति के लाभ अधिकतम व्यक्तियों में बाँटे जा सकते थे। सरकार और रैयत के बीच सीधा और प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाने से लोगों का सरकार की न्याय व्यवस्था और प्रशासन के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ। कृषि क्षेत्र में बिचौलियों के प्रवेश को न्यूनतम कर दिया गया, जिन्हें स्थायी बन्दोबस्त में मान्यता प्राप्त थी। जमींदारी प्रथा में यह भय दिखाई देता था कि भूमि केवल कुछ समृद्ध जमींदारों व भू-स्वामियों के पास केन्द्रित हो जायेगी किन्तु रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में इस प्रकार का भय नहीं था।

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त का कृषकों पर प्रभाव

(1.) रैय्यतवाड़ी बंदोबस्त, जमींदारी व्यवस्था से कहीं अधिक महँगा सिद्ध हुआ। कलेक्टरों को लगान एकत्र करने का काम सौंपे जाने से प्रशासन का कार्य बढ़ गया तथा प्रशासनिक कर्मचारी किसानों का शोषण करने लगे।

(2.) भू-राजस्व की दर तय करने के लिए सरकार को अधिक बारीकी से हिसाब का अध्ययन करना, जुताई की वास्तविक स्थिति जानना तथा संसाधनों की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक हो गया। इससे कृषि क्षेत्र के दैनिक कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ गया।

(3.) अनेक स्थानों पर ब्रिटिश अधिकारियों ने वही स्थान ग्रहण कर लिया जो स्थायी बन्दोबस्त में जमींदारों का था।

(4.) लगान तय करने से पहले कम्पनी के अधिकारियों द्वारा भूमि की जाँच की जाती थी। जो किसान इन अधिकारियों को घूस दे देता था उसकी वास्तविक उपज कम घोषित कर दी जाती थी और जो किसान घूस देने में असमर्थ रहता, उसकी उपज वास्तविक उपज से कई गुना अधिक घोषित कर दी जाती थी।

(5.) दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति के बारे में ब्रिटिश अधिकारियों की जानकारी सीमित थी। वे गाँव के एक भाग की भूमि के आधार पर ही अन्य जमीनों का कर भी निर्धारित कर देते थे। ऐसी स्थिति में भूमि-कर, भूमि की क्षमता से अधिक तय हो जाता था जिसका परिणाम किसानों को भुगतना पड़ता था।

(6.) राजस्व की दर अधिक होने से, किसान लगान नहीं चुका पाता था और यदि चुका देता था तो उसके पास स्वयं के खाने के लिये कुछ भी नहीं बचता था।

(7.) कम्पनी की कठोरता के कारण किसानों को अकाल एवं सूखे में भी लगान देना पड़ता था। इससे किसान स्थानीय साहूकारों से ऋण लेते थे। साहूकार किसानों से अधिक ब्याज लेते थे और किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाते हुए ऋण-पत्र में किसान की जमीन, मकान आदि रेहन लिखवा लेते थे। किसान यह ऋण कभी नहीं चुका पाता था इसलिये उस पर ऋण का बोझ बढ़ता ही जाता था। इस पर साहूकार किसान की जमीन, मकान आदि सम्पत्ति हड़प लेते थे।

(8.) भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार ग्राम पंचायतें साहूकारों से किसानों के हितों की रक्षा करती थीं किन्तु अँग्रेजी कानून-व्यवस्था में ग्राम पंचायतों को यह अधिकार नहीं दिया गया था। फलस्वरूप धीरे-धीरे किसानों की अधिकांश भूमि जमींदारों व साहूकारों के पास चली गई और वे भूमिहीन मजदूर मात्र रह गये।

(9.) रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त ने प्रशासन के विभिन्न भागों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का संचालन करने के लिये तहसीलदार के नीचे के पद भारतीयों को दिये गये। भारतीय कर्मचारी भी किसानों के साथ वैसा ही व्यवहार करते थे जैसे कि कोई जमींदार करता था।

(10.) रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त के अन्तर्गत राजस्व विभाग का विस्तार करना पड़ा। सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ने से प्रशासन का खर्च बढ़ गया। योग्य अधिकारियों को राजस्व विभाग की सेवा में लाने के लिये उनके वेतन बढ़ाये गये। राजस्व विभाग का बढ़ा हुआ खर्च गरीब किसानों पर डाल दिया गया।

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