अठ्ठारह सौ सत्तावन की सैनिक क्रांति को सन् सत्तावन का विप्लव भी कहा जाता है। इस क्रांति के सम्बन्ध में इतिहासकारों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। अंग्रेजों के लिए यह बगावत थी तो हिन्दुओं के लिए क्रांति। वीर सावरकर ने कहा यह विद्रोह नहीं था, भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर था!
कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार- ‘1857 का महान् आन्दोलन भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था।’
अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक द ग्रेट रिवोल्ट में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि- ‘यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था।’
पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘यह केवल सैनिक विद्रोह नहीं था। यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था किंतु यह शीघ्र ही जन-विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था।’
इंग्लैण्ड के सांसद बैंजामिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ कहा था।
सुरेन्द्रनाथ सेन ने लिखा हैं- ‘जो युद्ध धर्म के नाम पर प्रारम्भ हुआ था, वह स्वातन्त्र्य युद्ध के रूप में समाप्त हुआ, क्योंकि इस बात में कोई सन्देह नहीं कि विद्रोही, विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे और वे पुनः पुरातन शासन व्यवस्था स्थापित करने के इच्छुक थे, जिसका प्रतिनिधित्व दिल्ली का बादशाह करता था।’
जो विद्वान इसे स्वतंत्रता संग्राम मानते हैं, उनका तर्क है कि- ‘इस संग्राम में हिन्दुओं और मुसलमानों ने कन्धे-से-कन्धा मिलाकर समान रूप से भाग लिया और इस संग्राम को जनसाधारण की सहानुभूति प्राप्त थी। अतः इसे केवल सैनिक विप्लव या सामन्तवादी प्रतिक्रिया अथवा मुस्लिम षड्यन्त्र नहीं कहा जा सकता।’
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सैनिकों ने विद्रोह आरम्भ किया था और वे अन्त तक लड़ते रहे किन्तु उनके साथ लाखों अन्य लोगों ने भी भाग लिया। इस संग्राम में मरने वालों की संख्या में जनसाधारण की संख्या, सैनिकों की संख्या से अधिक थी। अनेक स्थानां पर जनता ने ही सैनिकों को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित किया तथा जिन लोगों ने या नरेशों ने अँग्रेजों का पक्ष लिया, जनता ने उनका सामाजिक बहिष्कार किया।
जब जनरल ब्लॉक को अपनी सेना के साथ एक नदी पार करनी थी तो किसी नाविक ने उसे नाव नहीं दी। कानपुर के मजदूरों ने अँग्रेजों के लिए काम करने से मना कर दिया। विद्रोह आरम्भ होने के बाद जब उदयपुर का पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल शॉवर्स महाराणा से मिलने उनके महल की ओर जा रहा था, तब आम जनता ने उसे कर्कश स्वरों से धिक्कारा।
जोधपुर में कर्नल मॉकमेसन की हत्या कर दी गई। कोटा में मेजर बर्टन का सिर काट दिया गया तथा महाराजा को विद्रोहियों ने तब तक घेरे रखा, जब तक कि उसने क्रांतिकारी सैनिकों को सहयोग देने का वचन नहीं दिया। कुछ नरेशों ने जनमत के दबाव में आकर, विद्रोहियों को शरण दी। इन तथ्यां के आधार पर शशि भूषण चौधरी ने ‘इसे सामान्य जनता का विद्रोह बताया।’
डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार- ‘सन् सत्तावन का विप्लव राष्ट्रीय युद्ध स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि नागरिकों का विद्रोह अत्यंन्त ही सीमित क्षेत्र में था। देश का अधिकांश भाग इसमें सम्मिलित नहीं हुआ था तथा अधिकांश देशी नरेशों ने अँग्रेजों का साथ दिया था। सिक्ख और गोरखा सेनाओं ने अँग्रेजों की भरपूर सहायता की थी। विप्लव काल में ऐसे उदाहरण भी थे जब भारतीयों ने अपना जीवन खतरे में डालकर अँग्रेज स्त्रियों, पुरुषों व बच्चों की रक्षा की थी। इसीलिये यह विद्रोह न तो राष्ट्रीय था और न स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम था।’
1857 के विप्लव का स्वरूप निर्धारित करते समय यह देखना होगा कि इस संघर्ष में भाग लेने वालों का दृष्टिकोण क्या था! भारतीय क्रांतिकारी, अँग्रेजों को फिरंगी कहते थे क्योंकि वे फॉरेन (वितमपहद) अर्थात् विदेश से आये थे। सारे देश में अँग्रेज विरोधी भावनाएं व्याप्त थीं। समस्त क्रांतिकारियों तथा जनसाधारण का एक ही लक्ष्य था- अँग्रेजों को भारत से निकालना।
तात्या टोपे जहाँ भी गया, सेना तथा जनता ने उसका स्वागत किया तथा रसद आदि से सहायता की। विद्रोहियों को संगठित करने वाला एकमात्र तत्त्व विदेशी शासन को समाप्त करने की भावना ही था। इसके विपरीत अँग्रेज अधिकारी जहाँ भी गये, जनता ने उन्हें धिक्कारा व गालियां दीं। इससे स्पष्ट है कि अँग्रेजों के विरुद्ध रोष राष्ट्र-व्यापी था।
यदि हम तत्कालीन भारतीय साहित्य पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उस समय का साहित्य भी अँग्रेज विरोधी भावना प्रदर्शित करता है। जिन लोगों ने विप्लव में भाग लिया अथवा विप्लवकारियों को शरण एवं सहायता दी, उनकी प्रशंसा में गीतों की रचना की गई। जिन्होंने अँग्रेजों का साथ दिया, उन्हें कायर कहा गया, सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी कविता ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी’ में ग्वालियर के सिंधिया राजा का नाम ऐसे ही लोगों में रखा है।
कुछ इतिहासकारों ने सन् सत्तावन का विप्लव महत्त्वहीन सिद्ध करने के लिए मत प्रकट किया है कि यह बहुत कम क्षेत्र में फैली। जबकि तथ्य यह है कि यह क्रांति बंगाल, बिहार, पंजाब, दिल्ली, संयुक्त प्रांत, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र एवं दक्षिण भारत सहित भारत के समस्त प्रमुख स्थानों पर घटित हुई।
भारत में इतनी व्यापक क्रांति इससे पहले कभी नहीं हुई थी। इस कारण इस क्रांति के राष्ट्रीय स्वरूप को नकारा नहीं जा सकता। निःसंदेह यह भारत की स्वतंत्रता के लिये लड़ा गया संग्राम था जिसमें देश के लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
इन विचारों से बिल्कुल अलग हटकर ईस्वी 1909 में सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर ने इस राष्ट्रव्यापी घटना को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए आयोजित प्रथम संग्राम कहा। इस प्रकार इस क्रांति के सम्बन्ध में अलग-अलग मत स्थापित हो गये हैं। ईस्वी 1957 में स्वतंत्र भारत में 1857 की क्रांति की पहली शताब्दी मनाई गई। इस अवसर पर भारत सरकार की ओर से तथा अन्य शोधकार्ताओं द्वारा इस क्रांति पर पुनः विचार किया गया।
सुरेन्द्रनाथ सेन ने अपनी पुस्तक एटीन फिफ्टी सेवन में लिखा है- ‘यह आन्दोलन एक सैनिक विद्रोह की भांति आरम्भ हुआ किन्तु केवल सेना तक सीमित नहीं रहा। सेना ने भी पूरी तरह विद्रोह में भाग नहीं लिया। इसे मात्र सैनिक विप्लव कहना गलत होगा।’
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की काउ तहसील के भदोही परगने के मुसाई सिंह का जन्म ई.1836 में हुआ था। उसे 1857 की क्रांति में भाग लेने के अपराध में अण्डमान जेल में ठूंस दिया गया। वह 50 वर्ष तक इस जेल में बंद रहा। अंत में ई.1907 में उसे जेल से मुक्त किया गया। उस समय वह 1857 की क्रांति में भाग लेना वाला अंतिम जीवित व्यक्ति था!
इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि सन् सत्तावन का विप्लव भले ही अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाया किंतु यह राष्ट्रीय गौरव का विषय था जिस पर हम सदियों तक गर्व करते रह सकते हैं!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता