Saturday, July 27, 2024
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मेजर बर्टन की हत्या

कोटा रियासत के विद्रोही सेनिकों ने ब्रिटिश सेना के मेजर बर्टन की हत्या कर दी और उसका सिर काटकर कोटा के किले पर लटका दिया। उन्होंने कोटा महाराव को भी किले में बंद कर दिया।

राजपूताना में 1857 की क्रांति में कोटा राज्य की क्रांति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी। कोटा में ई.1838 से कोटा कन्टिजेन्ट स्थापित थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार द्वारा कोटा के शासक से इस बटालियन के रख-रखाव का पूरा खर्चा लिया जाता था।

जून 1857 में नीमच विद्रोह को दबाने के लिये मेजर बर्टन कोटा कन्टीजेंट को लेकर नीमच गया। तब तक नीमच के क्रांतिकारी दिल्ली के लिये प्रस्थान कर चुके थे। अतः कोटा की सेना को आगरा भेज दिया गया। यह सेना सितम्बर 1857 में विद्रोह करने पर उतर आयी।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

जब कोटा कंटिजेंट की सैनिक टुकड़ी द्वारा आगरा में विद्रोह कर दिए जाने के समाचार कोटा पहुँचे तो कोटा में स्थित पलटनों में भी क्रांति के बीज फूट पड़े। मेजर बर्टन 12 अक्टूबर को आगरा से वापस कोटा लौटा।

कोटा महाराव रामसिंह (द्वितीय) ने मेजर बर्टन का स्वागत विजयी सेनानायक की भांति किया। मेजर बर्टन ने कोटा नरेश को गुप्त परामर्श दिया कि वह उन सैनिक अधिकारियों को बर्खास्त कर दे जिनमें ब्रिटिश विद्रोही भावनाएं हैं। यह परामर्श कोटा के सैनिकों को ज्ञात हो गया।

इससे क्रुद्ध होकर 15 अक्टूबर 1857 को कोटा राज पलटन में विद्रोह हो गया। कोटा की नारायण पलटन तथा भवानी पलटन ने हथियारों से लैस होकर कोटा रेजीडेंसी को घेर लिया जहाँ मेजर बर्टन का आवास था। तीन हजार सैनिकों ने लाला जयदयाल तथा रिसालदार मेहराबखान के नेतृत्व में प्रातः साढ़े दस बजे कोटा रेजीडेंसी पर गोलाबारी आरम्भ कर दी जहाँ पोलिटिकल एजेंट निवास करता था।

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इस हमले में रेजीडेंसी के सर्जन डॉ. सेल्डर तथा डॉ. काण्टम, मेजर बर्टन के दो पुत्रों एवं स्वयं मेजर बर्टन की हत्या हो गई। कोटा के क्रांतिकारियों को कोटा राज्य के अधिकांश अधिकारियों यहाँ तक कि विभिन्न किलों के किलेदारों का भी सहयोग मिल गया। क्रांतिकारी सैनिकों ने राजकीय भण्डारों, बंगलों, दुकानों, शस्त्रागारों, शहर कोतवाली आदि पर अधिकार कर लिया। उन्होंने कोटा राज्य के कोषागारों पर भी आक्रमण किया। मेजर बर्टन का सिर काटकर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया गया। महाराव ने अँग्रेजों तथा करौली के शासक से सहायता मंगवाने के लिये संदेश भिजवाये। ये संदेश भी क्रांतिकारियों के हाथ लग गये। अतः सैनिकों ने राजमहल पर हमला कर दिया। महाराव रामसिंह ने मथुराधीश मंदिर के महंत को मध्यस्थ बनाकर विद्रोही सैनिकों से संधि कर ली।  सैनिकों ने महाराव से एक कागज पर लिखवाया कि मेजर बर्टन की हत्या महाराव के आदेश पर की गयी है तथा महाराव ने लाला जयदयाल को अपना मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किया है। लगभग 6 माह तक कोटा महाराव का अपने राज्य पर कोई अधिकार नहीं रहा।

इस पर करौली के शासक मदनपाल तथा उदयपुर के महाराणा स्वरूपसिंह ने अपनी सेनाएं कोटा भेजीं ताकि कोटा महाराव को क्रांतिकारियों के चंगुल से छुड़ाया जा सके।

करौली तथा मेवाड़ से आई सेनाओं ने कोटा के क्रांतिकारी सैनिकों को पीछे खदेड़ दिया। इससे कोटा का राजमहल तो क्रांतिकारियों के नियंत्रण से बाहर निकल गया किंतु शहर का एक भाग अब भी कोटा महाराव के नियंत्रण में नहीं था। वहाँ पर क्रांतिकारी सैनिकों ने भीषण लूटपाट आरम्भ कर दी।

कोटा महाराव ने क्रांति का दमन करने के लिये ए.जी.जी. से सहायता मांगी। ए.जी.जी. ने बम्बई से सेना मंगवाई जो मार्च 1858 में चम्बल नदी के उत्तरी किनारे पर पहुँची। इस समय चम्बल का दक्षिणी भाग क्रांतिकारी सैनिकों के अधिकार में था किंतु जनरल रॉबर्ट्स ने आसानी से इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में 120 से 130 क्रांतिकारी सैनिक मारे गये। 30 मार्च 1858 तक सम्पूर्ण कोटा शहर पर महाराव का अधिकार हो गया।

लाला जयदयाल तथा मेहराबखान भूमिगत हो गये किंतु उन्हें कुछ ही महीनों में पकड़कर फांसी दे दी गयी। कोटा की क्रांति की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें राज्याधिकारी भी क्रांतिकारियों के साथ थे तथा उन्हें जनता का प्रबल समर्थन प्राप्त था। वे चाहते थे कि कोटा का महाराव अँग्रेजों के विरुद्ध हो जाये तो वे महाराव का नेतृत्व मान लेंगे किंतु महाराव इस बात पर सहमत नहीं हुआ। कोटा की क्रांति का सबसे दुखद पहलू मेजर बर्टन की हत्या थी।

जिस समय 1857 की भारत-व्यापी क्रांति आरम्भ हुई, उस समय मेवाड़ के महाराणा स्वरूपसिंह के सम्बन्ध न तो अपने सरदारों से अच्छे थे और न कम्पनी सरकार से। महाराणा सामंतों को प्रभावहीन करना चाहता था। इससे सरदार दो धड़ों में विभक्त थे तथा उनमें खूनी संघर्ष की संभावना थी। इस कारण महाराणा और कम्पनी सरकार दोनों को ही मेवाड़ के सामंतों से भय था। इसलिये महाराणा तथा कम्पनी सरकार दोनों को ही एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता थी।

मेरठ विद्रोह की सूचना मिलने पर राजपूताना के ए.जी.जी. लॉरेंस ने महाराणा स्वरूपसिंह को पत्र लिखा कि वह अपनी सेनाएं तैयार रखे ताकि उनका उपयोग संभावित विद्रोह को दबाने में किया जा सके। महाराणा ने अपने सामंतों को आदेश दिया कि वे अपनी सेनाएं तैयार रखें तथा पोलिटिकल एजेंट शावर्स के आदेशों को महाराणा के ही आदेश समझें। मेवाड़ की भील कोर का मुख्यालय खैरवाड़ा में था, वहाँ भी क्रांति होने का भय था।

नीमच के क्रांतिकारी सैनिक, नीमच छावनी में आग लगाने के बाद चित्तौड़, हमीरगढ़ एवं बनेड़ा में सरकारी बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा के राजाधिराज लक्ष्मणसिंह ने क्रांतिकारी सैनिकों को अपने महल में शरण दी तथा उन्हें रसद सामग्री उपलब्ध करवाई।

क्रांतिकारी सैनिक शाहपुरा से देवली की ओर रवाना हुए। उनके आगमन की सूचना पाकर अँग्रेज अधिकारियों के परिवार देवली से भाग खड़े हुए। उन्हें जहाजपुर में स्थित मेवाड़ी सेना ने बचाकर उदयपुर भिजवाया।

कप्तान शावर्स ने मेवाड़ की एक टुकड़ी को क्रांतिकारी सैनिकों के पीछे भेजा तथा स्वयं नीमच होते हुए शाहपुरा आ गया। शाहपुरा के राजाधिराज लक्ष्मणसिंह ने शावर्स के लिये किले के दरवाजे नहीं खोले। इस पर शावर्स जहाजपुर होता हुआ बेगूं पहुंचा। बेगूं के रावत महासिंह ने शावर्स का स्वागत किया तथा क्रांतिकारियों को अपने ठिकाने में नहीं घुसने दिया। क्रांति समाप्त होने पर अँग्रेज सरकार ने रावत को दो हजार रुपए की खिलअत प्रदान की।

सलूम्बर के रावत ने परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए महाराणा स्वरूपसिंह को धमकाया कि यदि उसकी परम्परागत मांगें नहीं मानी गयीं तो वह चित्तौड़ के किले पर महाराणा के प्रतिद्वंद्वी को बैठा देगा। इस पर महाराणा ने अँग्रेजों से सहायता मांगी।

महाराणा का पत्र पाकर कप्तान शावर्स ने सलूम्बर के रावत को धमकी दी कि यदि वह गड़बड़ी करने का प्रयास करेगा तो उसका ठिकाना जब्त कर लिया जायेगा। इस पर सलूम्बर के रावत ने कहा कि मैं कुछ नहीं कर रहा, यह तो केवल अफवाह है। कुछ दिनों बाद क्रांतिकारी सैनिकों की एक टुकड़ी सलूम्बर में आकर ठहरी।

इस पर शावर्स ने रावत को लिखा कि विद्रोही सैनिकों को अपने यहाँ ही रोके तथा उनके मुखिया को गिरफ्तार करके भेज दे किंतु रावत ने ऐसा नहीं किया तथा विद्रोही सैनिकों को वहाँ से निकल जाने दिया। इस पर अँग्रेजों ने उससे स्पष्टीकरण मांगा। रावत ने कहा कि वह विद्रोही सैनिकों के आगे विवश था!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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