अलीवर्दी खाँ बिहार का छोटा सा सूबेदार था किंतु उसने बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला के निकम्मेपन का लाभ उठाकर बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा पर कब्जा कर लिया तथा बंगाल में अलग मुस्लिम राज्य की स्थापना की।
औरंगजेब के समय से ही मुगलों का विरोध कर रहे राजपूतों, सिक्खों, मराठों तथा अन्य हिन्दू शक्तियों ने मुहम्मदशाह रंगीला के समय में अपने-अपने राज्यों की स्थापना करने एवं उन्हें मजबूत बनाने की प्रक्रिया तेज कर दी। इसके परिणाम स्वरूप उत्तर एवं दक्षिण भारत में अनेक क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ। इनमें से कुछ राज्यों के शासक, मुगल सल्तनत से पृथक् राज्य स्थापित करने के बाद भी मुगल सल्तनत के अन्तर्गत बने रहने की घोषणा करते रहे किंतु ये लोग दिल्ली के बादशाह के प्रति नाममात्र की निष्ठा रखते थे।
बादशाह फर्रूखसियर ने ई.1713 में मुर्शीद कुली खाँ नामक एक व्यक्ति को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। मुहम्मदशाह ने उसे वहीं पर नियुक्त रखा। जब ईस्वी 1727 में मुर्शीद कुली खाँ की मृत्यु हो गई तो मुहम्मदशाह ने मुर्शीद कुली खाँ के दामाद शुजाउद्दीन मुहम्मद खाँ को बंगाल और उड़ीसा का सूबेदार बना दिया।
ईस्वी 1733 में बादशाह मुहम्मदशाह ने उसे बिहार का सूबा भी दे दिया। इस प्रकार शुजाउद्दीन मुहम्मद खाँ के क्षेत्राधिकार में बंगाल, बिहार और उड़ीसा का विशाल क्षेत्र आ गया। जैसे-जैसे दिल्ली की शक्ति कमजोर होती चली गई, वैसे वैसे शुजाउद्दीन मुहम्मद खाँ निरंकुश शासक होता चला गया और केन्द्रीय सत्ता का प्रभाव नाम मात्र का रह गया।
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शुजाउद्दीन की मृत्यु के बाद ईस्वी 1739 में उसका पुत्र सरफराज खाँ सूबेदार बना। इस समय दिल्ली पर नादिरशाह का अधिकार था तथा मुगल सत्ता अत्यंत विपन्न अवस्था में थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए बिहार के नायब सूबेदार अलीवर्दी खाँ ने बंगाल के सूबेदार सरफराज खाँ को मार कर बंगाल, बिहार और उड़ीसा सूबों पर अधिकार कर लिया। जब नादिरशाह वापस ईरान चला गया तब बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने अलीवर्दी खाँ को इन तीनों प्रांतों का सूबेदार मान लिया।
इसके बाद अलीवर्दी खाँ मुगल सल्तनत के भीतर होने का दिखावा करता रहा किंतु जैसे ही ईस्वी 1748 में बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला मृत्यु को प्राप्त हुआ, अलीवर्दी खाँ ने यह दिखावा करना भी बंद कर दिया। अलीवर्दी खाँ के कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने अपनी छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
ईस्वी 1756 में अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। इसी सिराजुद्दौला और अँग्रेजों के बीच ईस्वी 1757 में प्लासी का युद्ध हुआ जिसमें सिराजुद्दौला की पराजय हो गई और अंग्रजों ने पहली बार भारत में राजनीतिक सत्ता की स्थापना की। जिस प्रकार बंगाल के अलग होने की प्रक्रिया मुहम्मदशाह के समय में शुरु हुई, उसी प्रकार अवध में भी स्वतंत्र राज्य की स्थापना का बीजारोपण मुहम्मदशाह के समय में हुआ। जब ईस्वी 1720 में मुहम्मदशाह ने सैयद बंधुओं का सफाया किया था, तब मीर मोहम्मद अमीन मुगल दरबार में ईरानी अमीरों का नेता था। उसे बुरहान-उल-मुल्क तथा सआदत खाँ भी कहा जाता है।
सआदत खाँ ने सैयद बंधुओं का सफाया करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसलिए बादशाह मुहम्मदशाह ने उसे ईस्वी 1720 में आगरा की और ईस्वी 1722 में अवध की सूबेदारी दी। जब उत्तर भारत में मराठों की गतिविधियां बढ़ गईं और मुगल उन्हें रोकने में असफल रहे तो इस्वी 1732 में सआदत खाँ ने मराठों को रोकने के लिए बादशाह मुहम्मदशाह के सामने कई प्रस्ताव रखे किंतु अन्य अमीरों ने उसके प्रस्तावों का समर्थन नहीं किया इसलिए सआदत खाँ को सफलता नहीं मिली।
बादशाह ने उसे पेशवा बाजीराव के विरुद्ध कार्यवाही करने के निर्देश दिये। सआदत खाँ ने मार्च 1737 में मराठों की एक छोटी सी सेना को परास्त किया तथा बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला को झूठी सूचना भिजवा दी कि उसने पेशवा बाजीराव को चम्बल के उस पार खदेड़ दिया है। जब पेशवा बाजीराव को सआदत खाँ के इस झूठ की जानकारी हुई तो उसने क्रोधित होकर दिल्ली पर धावा बोल दिया तथा सआदत खाँ की पोल खोल दी।
इस घटना से मुगल दरबार में सआदत खाँ की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। बादशाह ने सआदत खाँ को अपने दरबार में बुलाकर बुरी तरह अपमानित किया। इससे सआदत खाँ बादशाह मुहम्मदशाह से बुरी तरह नाराज होकर अपने सूबे को लौट गया और स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करने लगा। जब ई.1739 में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया तो सआदत खाँ ने मुहम्मदशाह की सहायता करने की बजाय नादिरशाह की सहायता की।
ईस्वी 1739 में सआदत खाँ की मृत्यु हो गई तथा उसका भतीजा एवं दामाद सफदरजंग अवध का सूबेदार बना। जब ईस्वी 1748 में मुहम्मदशाह रंगीला की मृत्यु हो गई तथा अहमदशाह नया बादशाह बना तो उसने सफदरजंग को दिल्ली बुलाकर मुगल सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। कुछ समय बाद उसे इलाहबाद का सूबा भी दे दिया। सफदरगंज ने 22 अप्रैल 1752 को अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध मराठों से समझौता किया परन्तु बादशाह ने उस समझौते को रद्द करके पंजाब का क्षेत्र अहमदशाह अब्दाली को सौंप दिया।
इस पर बादशाह और वजीर में अघोषित युद्ध छिड़ गया जिसमें वजीर परास्त हो गया तथा अपना पद त्यागकर अपने सूबे अवध को चला गया। अक्टूबर 1754 में उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद अवध नाममात्र के लिए मुगलों के अधीन रह गया। ईस्वी 1762 में अवध सूबे को अंग्रेजों ने अपने नियंत्रण में ले लिया!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता