Saturday, July 27, 2024
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चिनकुलीच खाँ

चिनकुलीच खाँ औरंगजेब के बेटे बहादुरशाह उर्फ शाहआलम प्रथम का शव लेकर लाहौर से दिल्ली आया था। उसे सैयदों ने बहुत तंग किया था किंतु मुहम्मदशाह रंगीला का माँ कुदसिया बेगम ने चिनकुलीच खाँ के साथ मिलकर सैयद बंधुओं की हत्या करवाई थी। चिनकुलीच खाँ मुगलों का वफादार सेनापति था किंतु मुहम्मदशाह रंगीला ने अपनी बेवकूफी से उसे मुगलों का बागी बना दिया।

बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने जब ई.1720 में सैयद बंधुओं का सफाया किया तो उसने सल्तनत में शांति स्थापित करने के लिए अपने मित्रों को सम्मानित किया तथा अब तक सैयदों का साथ निभा रहे बहुत से दुश्मनों को भी क्षमा कर दिया। बादशाह मुहम्मदशाह ने 21 अप्रेल 1721 को एक बड़े दरबार का आयोजन करके बहुत से अमीर, उमरावों एवं राजाओं का सम्मान किया। आम्बेर नरेश जयसिंह को इस अवसर पर सरमद-ए-राजा-ए-हिन्द की उपाधि दी गई।

हालांकि कोटा के महाराव भीमसिंह ने पन्धार के युद्ध में चिनकुलीच खाँ के विरुद्ध युद्ध किया था तथापि बादशाह मुहम्मदशाह ने कोटा नरेश भीमसिंह के पुत्र अर्जुनसिंह को कोटा का नया महाराव स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मुहम्मदशाह ने अपने बहुत से दुश्मनों की गलतियों को नजर अंदाज करके उन्हें अपनी सेवा में बने रहने दिया। नरवर का राजा गजसिंह भी पंधार के युद्ध में चिनकुलीच खाँ के विरुद्ध एवं सैयदों की ओर से लड़ा था, मुहम्मदशाह ने उसके पुत्र को भी नरवर का राजा स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार उत्तर भारत में शांति स्थापित हो गई किंतु इसी समय मराठों की गतिविधियों के कारण दक्षिण भारत अचानक अशांत हो गया। अतः चिनकुलीच खाँ आसफजाह को दक्षिण के छः प्रांतों का सूबेदार बनाकर दक्षिण में भेज दिया गया।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

चिनकुलीच खाँ का वास्तविक नाम कमरूद्दीन खान सिद्दकी बायफंदी था। उसका यह नाम औरंगजेब ने रखा था। उसका जन्म 20 अगस्त 1671 को बुखारा से भारत आकर बसे एक तुर्की परिवार में हुआ था। यह परिवार खलीफा अबू बकर के वंशजों में से निकला था। चिनकुलीच खाँ का परबाबा बुखारा में सूफी संत के रूप में प्रसिद्ध था।

चिनकुलीच खाँ का बाबा कुलीच खाँ ई.1654 में शाहजहाँ के शासनकाल में बुखारा से भारत आया था। ई.1657 में वह औरंगाबाद पहुंचकर औरंगजेब की सेना में भरती हो गया। उसने ई.1658 में शामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब की तरफ से दारा शिकोह के विरुद्ध युद्ध किया था।

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चिनकुलीच खाँ का पिता फीरोज जंग औरंगजेब का विश्वसनीय अमीर था। जब औरंगजेब बादशाह बना तो उसने फीरोज जंग को बीदर का सूबेदार नियुक्त किया। जब फीरोज जंग का बेटा कमरूद्दीन केवल छः साल का हुआ, तब औरंगजेब ने बालक कमरूद्दीन को एक छोटा सा मनसब देकर अपना मनसबदार बना लिया। बालक कमरूद्दीन ने तेरह वर्ष की आयु में अपने जीवन का पहला युद्ध लड़ा जिसके बाद औरंगजेब ने उसे 400 जात एवं 100 सवारों का मनसबदार नियुक्त किया। इसके बाद चिनकुलीच खाँ ने युद्धों के मैदानों में ही अपना जीवन बिताया था। उसे अनेक बड़ी लड़ाइयों का नेतृत्व करने का अवसर मिला था।

चिनकुलीच खाँ ने औरंगजेब के शासन काल में मराठों से हुए युद्धों में बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी किंतु उसका वास्तविक अभ्युदय बहादुरशाह के काल में आरम्भ हुआ था। उस समय चिनकुलीच खाँ बहादुरशाह के दरबार में तूरानी गुट के प्रभावशाली सदस्यों में गिना जाता था और उसका गुट सैयद बंधुओं का प्रबल विरोधी था।

ई.1712 में जब बहादुरशाह का लाहौर के दुर्ग में आकस्मिक निधन हुआ था तब चिनकुलीच खाँ ने बहादुरशाह के पुत्रों में हुए उत्तराधिकार के युद्ध में प्रत्यक्ष लड़ाई में भाग नहीं लिया था अपितु वह बहादुरशाह के शव के साथ लाहौर दुर्ग में ही बैठा रहा। जब ई.1713 में बहादुरशाह के पुत्र जहांदारशाह को गद्दी से उतारकर फर्रूखसियर को मुगलों के तख्त पर बैठाया गया था, तब इस कार्य में चिनकुलीच खाँ ने भी सैयदों को पूरा सहयोग दिया था।

उसे औरंगजेब ने चिनकुलीच खान की, फर्रूखसियर ने निजामुलमुल्क फतेहजंग की तथा मुहम्मदशाह ने आसफजाह की उपाधियां दी थीं। इसलिए इतिहास की पुस्तकों में उसे चिनकुलीच खान, निजामुलमुल्क तथा आसफजाह आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। इस कारण पाठक कई बार असमंजस में पड़कर इन्हें अलग-अलग व्यक्तियों के नाम समझ लेते हैं।

जब चिनकुलीच दक्षिण भारत में चला गया तो मुगल बादशाह को उसकी कमी अखरने लगी। सल्तनत का काम बिगड़ने लगा जिसे सुधारने के लिए चिनकुलीच खाँ जैसा विश्वसनीय तथा योग्य अधिकारी हर समय बादशाह के पास होना जरूरी था। इसलिए मुहम्मदशाह ने चिनकुलीच खाँ को दक्षिण से पुनः दिल्ली बुलवा लिया तथा 21 फरवरी 1722 को उसे अपना प्रधानमंत्री बना दिया।

चिनकुलीच खाँ ने बादशाह के आदेश के अनुसार सल्तनत का काम संभाल लिया। चिनकुलीच खाँ ने मुहम्मदशाह को सलाह दी कि बादशाह अपने पूर्वज अकबर की तरह सावधान रहे तथा औरंगजेब की तरह बहादुर बने किंतु जब मुहम्मदशाह सल्तनत पर ध्यान देने की बजाय मौज-मस्ती में डूबा रहने लगा। 

वजीर चिनकुलीच सल्तनत की व्यवस्था सुधारना चाहता था किंतु मुहम्मदशाह रंगरेलियों में डूबे रहना चाहता था। इस कारण दोनों में प्रायः कहा-सुनी होने लगी। बादशाह को यह पसंद नहीं था कि उसके कामों में टोका-टाकी की जाए। इस कारण मुहम्मदशाह, चिनकुलीच को नापसंद करने लगा और उसके सामने ही उसका उपहास करने लगा। बादशाह सरेआम लोगों से कहता था- ‘देखो दक्षिण का गधा कितना सुंदर नाचता है।’

बादशाह के रवैये से दुखी होकर चिनकुलीच ने प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया और मुगल दरबार में आना छोड़ दिया। इस पर ईस्वी 1723 में मुहम्मदशाह ने उसे दक्षिण भारत में मुबरिज खाँ के विरुद्ध लड़ने के लिए भेजा। चिनकुलीच खाँ के लिए मुबरिज खाँ पर विजय प्राप्त करना कठिन था इसलिए उसने मराठों की सहायता प्राप्त की तथा मुबरिज खाँ को परास्त करके हैदराबाद पर अधिकार कर लिया। अब वह वापस दिल्ली नहीं जाना चाहता था। इसलिए वह हैदराबाद में ही रहने लगा।

इस प्रकार चिनकुलीच मुगलों का सबसे विश्वस्त सेनापति था किंतु मुगल सल्तनत के विखण्डन की शुरुआत उसी के हाथों हुई। उसने ई.1725 में हैदराबाद में आसफजाही राजवंश की स्थापना की। यहाँ से आगे के इतिहास में चिनकुलीच खाँ को निजामुलमुल्क तथा निजाम के नाम से जाना गया। वह 1 जून 1748 तक शासन करता रहा। इस प्रकार दक्षिण भारत में फिर से एक स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में आ गया तथा चिनकुलीच खाँ इसका प्रथम स्वतंत्र शासक हुआ।

कुछ ही समय में निजाम ने अपने राज्य की सीमाएँ ताप्ती नदी से लेकर कर्नाटक, मैसूर और त्रिचनापल्ली तक बढ़ा लीं। निजाम ने यद्यपि पूर्ण स्वतंत्र शासक की भाँति शासन किया किंतु उसने न तो अपने नाम के सिक्के चलाये और न राजछत्र धारण किया। उसने मुगल बादशाह से सम्बन्ध विच्छेद भी नहीं किया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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