Thursday, April 25, 2024
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124. उर्दू शायरी और धु्रपद गायकी में पुरसुकून कट रही थी जिंदगी तभी आ गया जालिम नादिरशाह, कोहिनूर के लिए!

सैयदों बंधुओं के क्रूर शिकंजे से पीछा छूट जाने पर भी बादशाह नासिरुद्दीन मुहम्मदशाह रंगीला की स्थिति अच्छी नहीं हो सकी। वह 17 साल की आयु में बादशाह बना था तथा जब वह 20 वर्ष का हुआ तब तक उसके कई बच्चे हो चुके थे। दुर्व्यसनों में फंसा हुआ होने के कारण वह बीमार रहता था। बादशाह कोकी नामक एक मुस्लिम औरत के चक्कर में फंसा हुआ था और अपना अधिक समय शाही महल में नपुंसकों एवं वेश्याओं की संगति में व्यतीत करता था।

कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि बादशाह शासन में उन लोगों को बड़े से बड़ा पद दे देता था जो बादशाह को अधिक से अधिक घूस देते थे। शहजादों और शहजादियों को सल्तनत की बड़ी-बड़ी जागीरें बांट दी गई थीं। ये लोग न तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते थे और न बादशाह की नाराजगी की परवाह करते थे। इस कारण शासन में चारों ओर दुर्बलता और अव्यवस्था आ गई।

शारीरिक एवं चरित्रगत कमजोरियों के कारण बादशाह के लिए यह संभव नहीं था कि वह स्वयं को राजकाज पर केन्द्रित करे। इसलिए वह स्वयं भी राजकाज छोड़कर शराब एवं शबाब के साथ-साथ उर्दू शाइरी, ख्याल गायकी एवं मुजरों के चक्कर में पड़ा रहता था। उसके समय में लाल किले के भीतर का वातावरण ऐसा बन गया कि चारों ओर गवैए, नचैए एवं शायर दिखाई देने लगे। पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ उर्दू शाइरी के जन्म एवं विकास पर कुछ चर्चा करना समीचीन होगा।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

मुस्लिम शासकों के भारत में आने से पहले भारत का पण्डित, शासक एवं सम्पन्न वर्ग संस्कृत भाषा में व्यवहार करता था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य सम्मिलित थे जबकि किसान एवं श्रमिक आदि बहुसंख्यक लोग प्राकृत, पालि, पैशाचिक एवं देशज भाषाओं का उपयोग करते थे। देशज भाषाएं संस्कृत से निकली थीं जिनमें ब्रज, शौरसैनी, पिंगल, डिंगल आदि भाषाएं थीं।

आगे चलकर ब्रज एवं पिंगल से छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी आदि बोलियों का और डिंगल से मारवाड़ी एवं गुजराती आदि बोलियों का विकास हुआ था। एक हजार ईस्वी के आसपास प्राकृत और संस्कृत के मिश्रण से अपभ्रंश और अपभ्रंश से हिन्दी भाषा ने जन्म लेना आरम्भ कर दिया था।

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जब तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में तुर्क आक्रांताओं ने भारत में शासन करना आरम्भ किया तो दिल्ली एवं मेरठ के बीच में हिन्दी भाषा का विकास हो चुका था। तुर्कों ने भारत में तुर्की, अरबी एवं अफगानी भाषाओं का प्रचलन किया। इस काल में हिन्दी का भी खूब विकास हुआ। तेरहवी शताब्दी ईस्वी के कवि अमीर खुसरो हिन्दी के बड़े कवियों में गिने जाते हैं।

जब सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में मुग़ल भारत में आए तो वे अपने साथ फारसी भाषा लेकर आए। मुगलों की पारिवारिक, दरबारी और सरकारी भाषा फ़ारसी थी जबकि वे लेखन के लिए अरबी लिपि प्रयुक्त करते थे। भारत में मुगल शहजादियों ने फारसी भाषा में खूब कविताएं लिखीं।

जब मुगलों के सैनिक लश्करों में तुर्क, मुगल, अफगान, राजपूत, जाट और अन्य स्थानीय लोग भी सम्मिलित होते चले गए तो मुगलों के सैन्य शिविर विविध भाषाओं के संगम स्थल बन गए। मुगलों के काल में लगभग दो सौ साल की भाषाई मिश्रण की प्रक्रिया के बाद मुगलों के सैन्य शिविरों में एक नई भाषा ने आकार लेना आरम्भ किया जिसे उर्दू कहते थे।

उर्दू का अर्थ होता है भीड़। यह भाषा सचमुच ही बहुत सी भाषाओं की भीड़ थी जिसमें अरबी, फारसी, अफगानी, तुर्की, यूनानी तथा विभिन्न देशज भाषओं के आसानी से समझ में आने वाले शब्दों का जमावड़ा था। कुछ समय बाद यह भाषा सैन्य शिविरों से बाहर निकलकर जन सामान्य के घरों, दास-दासियों एवं बाजारों तक पहुंचने लगी। इस कारण इस काल में हिन्दी का विकास एक बार के लिए रुक गया और उर्दू का विकास होने लगा। जैसे-जैसे मुगलों का शासन आगे बढ़ा, वैसे-वैसे जन सामान्य की भाषा उर्दू बनती चली गई। ठीक वैसे ही जैसे बरगद की पुरानी शाखाओं के सूख जाने पर उनके नीचे से दूसरी शाखाएं निकल आती हैं।

फारसी जानने वाले शाही परिवार के लोग एवं दरबारी अमीर उर्दू को निम्न लोगों की भाषा समझते थे किंतु शीघ्र ही उर्दू भाषा को नए प्रकार के कवियों का साथ मिल गया जिन्हें शायर कहा जाता था। इन लोगों ने प्रेम जैसे सुकोमल विषय को अपनी कविता का मुख्य विषय बनाया। जब ये शायर अपने विशिष्ट अंदाज में शेर, नज्म और गजल कहते थे, तो सुनने वाले वाह-वाह कर उठते।

इन शायरों के आ जाने से फारसी रुबाइयों का जमाना बीत गया और उर्दू गजलों का जमाना आ गया। धीरे-धीरे ये शायर मुहम्मदशाह रंगीला के दरबार में भी घुस आए। इनकी संख्या बहुत अधिक थी और इनकी कविता में नयापन था। इस दृष्टि से मुहम्मदशाह रंगीला के समय को उर्दू शायरी का सुनहरा दौर कहा जा सकता है।

जब ईस्वी 1719 में मुहम्मदशाह मुगलों के तख्त पर बैठा तो उसी वर्ष ‘वली दक्किनी’ नामक एक शायर ने अपना पहला उर्दू दीवान बादशाह मुहम्मदशाह को भेंट किया। जब इस शायर ने अपने नए अंदाज में इस दीवान की कविता बादशाह को सुनाई तो बादशाह आनंद से झूम गया किंतु बादशाह के दरबारी फारसी कवियों ने इसे सुनकर नाक-मुंह सिकोड़ लिए। इस कारण दिल्ली की स्थिर साहित्यिक झील में ज़बरदस्त हलचल पैदा हो गई।

दिल्ली के दरबारी अमीरों को पहली बार पता चला कि उर्दू में भी शायरी की जा सकती है। चूंकि इस भाषा का जन्म हिन्दुस्तान में हुआ था इसलिए फारसी अमीरों ने इसे बड़ी हिकारत के साथ हिंदी, हिंदवी तथा हिन्दुस्तानी कहा। कुछ लोग इसे दक्किनी भी कहते थे क्योंकि इस भाषा का पहला दीवान दक्किन में लिखा गया था और यह भाषा दक्किन के मुगलिया लश्करों से बाहर निकलकर ही उत्तर भारत के लाल किले में पहुंची थी। देखते ही देखते उर्दू शायरी की पनीरी तैयार हो गई, जिन में शाकिर नाजी, नज़मउद्दीन अबूर, शदफ़उद्दीन मज़मून और शाह हातिम आदि शायरों के नाम प्रमुख हैं। शाह हातिम का शिष्य मिर्जा रफी सौदा हुआ। कहा जाता है कि मिर्जा रफी सौदा से अच्छा उर्दू का कवि आज तक नहीं हुआ जिसे उर्दू में क़सीदा निगार कहा जाता है।

सौदा के ही समकालीन मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल का मुक़ाबला आज तक नहीं मिल सका। उसी दौर की दिल्ली में एक तरफ़ मीर दर्द की ख़ानक़ाह है, वही मीर दर्द जिन्हें आज भी उर्दू का सबसे बड़ा सूफ़ी शायर माना जाता है। उसी काल में मीर हसन की शायरी प्रसिद्ध हुई जिस की मसनवी सहर-उल-बयान आज भी अपनी मिसाल स्वयं है। उसी काल में मीर सौज़, क़ायम चांदपुरी, मिर्ज़ा ताबिल और मीर ज़ाहक आदि शायर भी हुए जिन्हें उस काल में द्वितीय स्तर का कवि माना जाता था इसलिए उनके नाम और उनकी शायरी दोनों ही खो गए किंतु यदि वे बाद के किसी काल में हुए होते तो उर्दू साहित्य के गगन में चांद बन कर चमके होते।

जब उर्दू शायरी मुगल दरबार से निकलकर दिल्ली की गलियों में टहलने निकली तो उसने वेश्याओं और नृत्यांगनाओं के कोठों पर मुकाम किया। मनचले अमीर तथा उनके बेटे इन कोठों पर आकर उर्दू शायरों की शायरी, रक्कासाओं की अदायगी तथा गवैयों की गायकी का एक साथ आनंद उठाने लगे।

साहित्य की तरह नृत्य में मुजरा और संगीत में ध्रुपद गायकी का प्रचलन हो गया। मुहम्मदशाह रंगीला खुद भी औरतों के कपड़े पहनकर मुजरा करता और ध्रुपद गाता। ध्रुपद गायकी आज तक की सबसे कठिन गायकी मानी जाती है। मुहम्मदशाह रंगीला ने ध्रुपद में ख्याल का समावेश किया। धु्रपद और खयाल आज भी भारत में यदा-कदा सुनाई दे जाता है। चैती, दादरा, टप्पा, कजरी और ठुमरी जैसी गायकियां भी इसी दौर में अपने उफान पर आईं। इन स्वर लहरियों को सुनकर लाल किला औरंगजेब के समय को बिल्कुल भूल ही गया जब गवैयों और नचैयों ने मिलकर ढोल-मजीरों की अर्थी निकाली थी।

मुहम्मदशाह रंगीला की जिंदगी इन सब बातों में आराम से निकल रही थी। उसे राज्य करते हुए तीस साल हो गए थे किंतु उसने कभी भी कोई युद्ध नहीं लड़ा था। न महाराजा अजीतसिंह के पुत्र अभयसिंह से जो दिल्ली के बाहर सराय अली वर्दी खाँ तक धावे मार रहा था, न पेशवा बाजीराव से जो कालकाजी में लूट मचाकर वापस लौट गया था, न सिंधिया, गायकवाड़, पंवार और होलकर से जो मालवा और गुजरात में अलग-अलग राज्य स्थापित करके बैठ गए थे।

मानव जीवन बहुत कठोर है, वह सदा एक जैसा नहीं रहता, मुहम्मद शाह रंगीला का भी नहीं रहने वाला था किंतु अनायास ही हाथ आई बादशाहत के कारण मुहम्मद शाह इस बात को याद नहीं रख सका। उसकी सल्तनत की पश्चिमी दिशा से एक क्रूर काली आंधी तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ी चली आ रही थी। इस काली आंधी का नाम था नादिरशाह जो भारत की भूमि से सैंकड़ों किलोमीटर दूर ईरान से उठी थी किंतु मुहम्मद शाह ठुमरियां गा रहा था, मुजरे कर रहा था और अपने ही नंगे चित्र बनाने में व्यस्त था।

कहा जाता है कि जब एक हरकारा ईरान के शाह नादिरशाह के भारत में आने की चिट्ठी लेकर मुहम्मदशाह के पास आया, तो बादशाह ने उस चिट्ठी को शराब के प्याले में डुबो दिया और बोला-

‘आईने दफ्तार-ए-बेमाना घर्क-ए-मय नाब उला।’

अर्थात्- इस व्यर्थ की चिट्ठी को विशुद्ध शराब में डुबो देना बेहतर है!

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