नेपालियन का विजय अभियान
अठारहवीं शताब्दी के अंत में इटली में छोटे-छोटे राजा राज्य किया करते थे। इनमें से बहुत से राजा ऑस्ट्रिया के राजा के अधीन थे। उन्हीं दिनों फ्रांस तथा ऑस्ट्रिया के बीच यूरोप में वर्चस्व स्थापित करने के लिए दीर्घकालीन युद्ध हुआ। उस समय नेपोलियन बोनापार्ट फ्रैंच सेना में सैन्य अधिकारी हुआ करता था।
वह पूरी दुनिया को अपने अधीन करने के सपने देखता था जिस प्रकार कभी मैसीडोनिया के राजा सिकंदर ने देखा था। अपनी जिंदगी के शुरुआती दौर में जब वह केवल 27 साल का था तब उसने कहा था- ‘महान् साम्राज्य और जबर्दस्त परिवर्तन केवल पूर्व में ही हुए हैं, उस पूर्व में जहाँ साठ करोड़ लोग बसते हैं। यूरोप तो एक छोटी सी टेकरी है।’
ई.1796 में 27 वर्ष की आयु में नेपोलियन को ‘फ्रेंच आर्मी ऑफ इटली’ का सेनापति बनकर इटली में स्थित सार्डीनिया राज्य पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजा गया जहाँ फ्रांस की सेनाएं ऑस्ट्रिया की सेनाओं से लड़ रही थीं तथा हारती जा रही थीं। नेपोलियन ने इटली पर आक्रमण करने से पहले सार्वजनिक घोषणा की कि- ‘फ्रेंच सेना इटली को ऑस्ट्रिया की दासता से मुक्त कराने आ गयी है।’
विभिन्न स्थान पर हुए युद्धों में नेपोलियन ने ऑस्ट्रिया के 14 हजार सिपाहियों को मार डाला। नेपोलियन ने स्वयं ने भी 5 हजार सिपाही खोए किंतु उसने पहले तीन स्थानों पर शत्रु को परास्त कर ऑस्ट्रिया का पीडमॉण्ट से सम्बन्ध तोड़ दिया। इसके बाद उसने सार्डीनिया को युद्ध-विराम करने के लिए विवश कर दिया। नेपोलियन ने लोडी के युद्ध में इटली के मीलान राज्य को भी जीत लिया।
रिवोली के युद्ध में मैंटुआ को समर्पण करना पड़ा। आर्कड्यूक चार्ल्स को भी संधिपत्र प्रस्तुत करना पड़ा और ल्यूबन का समझौता हुआ। इन सारे युद्धों और वार्ताओं में नेपोलियन ने पेरिस से किसी प्रकार का आदेश नहीं लिया। नेपोलियन ने लोंबार्डी नामक राज्य को सिसालपाइन नामक गणराज्य में तथा जिनोआ को लाइग्यूरियन नामक गणतंत्र में परिवर्तित कर दिया तथा इन दोनों स्थानों पर उसने फ्रेंच विधान पर आधारित एक नया विधान लागू किया। नेपोलियन की इन सफलताओं से ऑस्ट्रिया की सेनाओं के इटली से पैर उखड़ गए तथा ऑस्ट्रिया को बेललियम प्रदेशों, राइन के सीमांत क्षेत्रों तथा लोंबार्डी के क्षेत्र छोड़ने पड़े। एक तरह से समूचा इटली ऑस्ट्रिया के हाथों से निकल गया।
पवित्र रोमन साम्राज्य के द्वितीय संस्करण का विविधवत् अंत
इटालियन अभियान से वापस अपने देश फ्रांस लौटने पर, नेपोलियन का भव्य स्वागत हुआ। नेपोलियन का अगला विजय अभियान ऑस्ट्रिया पर आक्रमण करके वहाँ के सम्राट को केंपोफोरमियो की अपमानजनक संधि के लिए बाध्य करना था।
इस समय ऑस्ट्रिया का राजा फ्रांसिस (द्वितीय) पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट था। उसे 18 अक्टूबर 1797 को नेपोलियन बोनापार्ट के सम्मुख कैंपो फौर्मियो ;ब्ंउचव थ्वतउपवद्ध की संधि के लिए प्रस्तुत होना पड़ा। इसी के साथ उससे पवित्र रोमन साम्राज्य के सम्राट की पदवी छीन ली गई और पवित्र रोमन साम्राज्य के द्वितीय संस्करण का औपचारिक एवं विधिवत् अंत हो गया जो ई.962 से किसी तरह घिसटता आ रहा था।
अब न तो पवित्र रोमन सम्राट रहा था और न रोम, सिसली, सार्डीनिया एवं मीलान उसके अधीन रहे थे। ऑस्ट्रियाई सम्राट का गर्व-भंजन करने के बाद नेपोलियन बोनापार्ट का ध्यान रोम तथा उसके पोप की तरफ गया।
पोप एवं नेपोलियन में टोलेन्टिन्ड की सन्धि
ई.1796 में नेपोलियन बोनापार्ट ने रोम पर आक्रमण किया। उसकी सेनाओं ने पापल ट्रूप्स को आसानी से परास्त कर दिया तथा एन्कोना एवं लोरेटो पर अधिकार कर लिया। पोप पायस (षष्ठम्) ने नेपोलियन से शांति की अपील की। इसके बाद 19 फरवरी 1979 को टोलेण्टिनो की संधि हुई किंतु यह संधि कुछ ही दिन चल पाई।
28 दिसम्बर 1997 को रोम में एक उपद्रव हुआ जिसमें फ्रैंच ब्रिगेडियर जनरल मथुरियन-लियोनार्ड डूफोट और फ्रैंच दूत जोसेफ बोनापार्ट को मार दिया गया। पापल सेनाओं ने इस उपद्रव का आरोप कुछ इटेलियन एवं फ्रैंच आंदोलनकारियों पर लगाया। इस पर फ्रैंच जनरल बरथियर ने रोम पर दुबारा आक्रमण किया। रोम की सेनाएं फिर से परास्त हो गईं।
मैं तुम्हारा स्वामी
10 फरवरी 1798 को फ्रैंच सेनाएं रोम में प्रवेश कर गईं। नेपोलिनयन ने रोम में अपने भव्य-स्वागत की तैयारियां करवाईं तथा एक महानायक के रूप में रोम में प्रवेश किया। स्वागत का मुख्य आयोजन आर्क-बिशप के महल में किया गया।
इस समारोह में रोम के लोगों को सम्बोधित करते हुए नेपोलियन ने कहा- ‘मैं तुम्हारा स्वामी हूँ किंतु मेरा कार्य तुम्हारी सुरक्षा करना होगा। पाँच सौ तोपें एवं फ्रांस से मित्रता, बस यही मैं आपसे चाहता हूँ। आप स्वयं को फ्रांस की अपेक्षा अधिक सुरक्षित एवं स्वतंत्र अनुभव करेंगे। 50 लाख की जनसंख्या वाला यह राज्य एक नया गणतंत्र बनेगा तथा मीलान इसकी राजधानी होगी। आपको पाँच सौ तोपें रखने की अनुमति दी जाती है।
साथ ही आपको फ्रांस को मित्र-राष्ट्र बनाना होगा। मैं आप में से 50 व्यक्तियों का चुनाव करूंगा जो फ्रांस के नाम पर देश का संचालन करेंगे। अपने रीति-रिवाजों में ढालकर आपको हमारे कानून स्वीकार करने होंगे। परस्पर एकता बनाए रखने पर सब-कुछ व्यवस्थित चलेगा। यदि हैब्सबर्ग पुनः लोम्बार्डी को जीत लेता है तो भी मैं आपको विशेष सुरक्षा का वचन देता हूँ।
आपको कभी भी निर्वासित नहीं किया जाएगा। आपकी भूमि भी कोई नहीं छीन सकेगा। मेरे जीवित न रहने पर ही कुछ अवांछित हो सकता है। आप जानते हैं कि एथेंस बेसपार्टा भी सदा के लिए अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सके। मुझ पर भरोसा रखकर देश में एकता बनाए रखें। मेरा यही आप सबसे निवेदन है।’
रोम में गणतंत्र की स्थापना तथा पोप की गिरफ्तारी
नेपालियन द्वारा रोम में एक गणतंत्र की स्थापना कर दी गई। पोप के सारे राज्याधिकार समाप्त कर दिए गए तथा पोप से कहा गया कि वह अपने समस्त धार्मिक अधिकारों का भी त्याग कर दे। पोप ने फ्रैंच सेनाओं के आदेश मानने से मना कर दिया।
इस पर पोप पायस (षष्ठम्) को बंदी बना लिया गया। 20 फरवरी 1798 को उसे वेटिकन से सियेना ले जाया गया। वहाँ से उसे सेरटोसा तथा कुछ दिन बाद फ्लोरेंस ले जाया गया। पोप को टस्कनी, परमा, पियासेंजा, त्यूरिन तथा ग्रेनोबल होते हुए वालेन्स के सिटेडल में ले जाया गया।
वालेन्स पहुँचने के लगभग डेढ़ माह बाद 29 अगस्त 1799 को पोप की बंदी अवस्था में ही मृत्यु हो गई। वह रोम के चर्च के तब तक के इतिहास में सर्वाधिक अवधि तक पोप रहा। पोप का शरीर वालेंस के दुर्ग में खराब होता रहा किंतु उसे 30 जनवरी 1800 से पहले दफनाया नहीं गया। इसके बाद नेपोलियन ने हिसाब लगाया कि पोप के शरीर को इसी स्थान पर दफना देना ठीक है ताकि कैथोलिक चर्च का कार्यालय रोम से फ्रांस स्थानांतरित किया जा सके।
पाठकों को स्मरण होगा कि पहले भी कुछ समय के लिए पोप का कार्यालय फ्रांस में रहा था। पोप के साथी बिशपों ने नेपोलियन से कहा कि वे पोप को उसकी अंतिम इच्छा के अुनसार रोम में दफनाने की अनुमति दें किंतु नेपोलियन ने यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
बाद में 24 दिसम्बर 1801 को पोप के कॉफीन को वालेंस की कब्र से निकालकर रोम ले जाया गया तथा 19 फरवरी 1802 को पोप पायस (सप्तम्) ने स्वर्गीय पोप पायस (षष्ठम्) की देह का कैथोलिक विधि से अंतिम संस्कार करवाया।
नए पोप से नई संधि
इस काल में रोम एवं फ्रांस की बहुसंख्यक जनता कैथोलिक चर्च के प्रभाव में थी। नेपोलियन ने चर्च की शक्ति को कमजोर करके उसे राज्य के अधीन किया। चर्च की सम्पति का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और पादरियों को राज्य के प्रति निष्ठा रखने की शपथ लेने को कहा गया। इससे पोप नाराज हुआ और उसने आम जनता को विरोध करने के लिए उकसाया। फलतः सरकार और आमजनता के बीच तनाव पैदा हो गया। नेपोलियन ने इसे दूर करने के लिए ई.1801 में पोप पायस (सप्तम्) के साथ समझौता किया जिसे कॉनकारडेट (Concordate) कहा जाता है। इसके प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे-
1. कैथलिक धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार किया गया।
2. बिशपों की नियुक्ति प्रथम काउंसलर द्वारा होगी परन्तु वे पोप द्वारा दीक्षित किए जाएंगे।
3. बिशप शासन की स्वीकृति पर ही छोटे पादरियों की नियुक्ति करेंगे।
4. चर्च के समस्त अधिकारियों को राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ लेना अनिवार्य होगा। इस तरह चर्च राज्य का अंग बन गया और उसके अधिकारी राज्य से वेतन पाने लगे।
5. गिरफ्तार किए गए समस्त पादरी छोड़ दिए गए और देश से भागे पादरियों को वापस आने की अनुमति दी गई।
6. चर्च की जब्त संपत्ति एवं भूमि से पोप ने अपना अधिकार त्याग दिया।
7. युद्ध-काल के कैलेण्डर को स्थगित कर दिया गया तथा प्राचीन कैलेण्डर एवं अवकाश दिवसों को पुनः लागू कर दिया गया।
इस प्रकार नेपोलियन ने राजनीतिक उद्देश्यों के पूर्ति के लिए पोप से संधि की और युद्ध कालीन अव्यवस्था को समाप्त करके चर्च को राज्य का सहयोगी एवं सहभागी बनाया। प्रकारांतर से नेपोलियन ने चर्च के युद्ध-कालीन घावों पर मरहम लगाने का प्रयास किया। उसने पोप को उसके पद पर बने रहने दिया किंतु उसके अधिकार सीमित कर दिए। अब पोप ‘पापल स्टेट’ का राजा भी नहीं रहा।
लोम्बार्डियों के लौह-मुकुट का स्वामी
26 मई 1805 को नेपोलियन बोनापार्ट ने मीलान के गिरजाघर में इटली के लोंबार्ड नरेशों का लौहमुकुट धारण किया। इसके साथ ही नेपोलियन ने रोम अथवा यूरोप के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार के रोमन साम्राज्य के अस्तित्व में होने के भ्रम को सदा के लिए ध्वस्त कर दिया। जब नेपोलियन ने रोमन साम्राज्य का अंत किया तो संसार में किसी ने भी इस घटना पर ध्यान नहीं दिया।
फिर भी इंग्लैण्ड, रूस, जर्मनी और अन्य देशों के राजा एम्परर, सीजर, कैसर और जार की उपाधियां धारण करते रहे जो प्राचीन रोमन साम्राज्य की अंतिम निशानियां थीं। यहाँ तक कि ई.1877 में इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया ने ‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि धारण करके अपने प्रभुत्व का उद्घोष किया जिसका शाब्दिक अर्थ भारत-साम्राज्ञी माना गया। प्रथम विश्व युद्ध के अंत के बाद संसार से सीजर, कैसर एवं जार जैसे शब्दों की सदा के लिए विदाई हो गई।
पोप को पुनः बंदी बनाया गया
नेपोलियन का पोप के साथ किया गया यह समझौता अस्थायी सिद्ध हुआ। इस कारण ई.1807 में नेपोलियन को पुनः पोप के साथ संघर्ष करना पड़ा। अप्रैल 1808 में रोम पुनः नेपोलियन के अधिकार में चला गया। ई.1809 में पोप को बंदी बना लिया गया। इससे रोम ही नहीं अपितु पूरे यूरोप के कैथोलिक मतावलम्बियों को यह विश्वास हो गया कि नेपोलियन न केवल राज्यों की स्वतंत्रता नष्ट करने वाला दानव है अपितु उनके धर्म को भी नष्ट करने वाला है।
इसलिए यूरोप में नेपोलियन के प्रति सहानुभूति समाप्त हो गई। कैथोलिक चिंता का एक कारण यह भी था कि फ्रैंच-सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा लागू की गई नेपोलियन संहिता में कैथोलिक धर्म को राजधर्म तो स्वीकार किया गया था किंतु सभी धर्मों को बराबरी का अधिकार दिया गया था। कैथोलिक चर्च इस व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।
नेपोलियन का अंत
नेपोलियन ने एक बार कहा था कि– ‘सत्ता मेरी रखैल है। इसे वश में करने के लिए मुझे इतनी दिक्कत उठानी पड़ी है कि मैं न तो उसे किसी और को छीनने दूंगा और न अपने साथ भोगने दूंगा।’
संभवतः नेपोलियन कुछ अंशों में सही था कि सत्ता उसकी रखैल थी किंतु उसकी यह बात गलत थी कि मैं किसी और को उसे छीनने नहीं दूंगा। रखैल नामक प्राणी न तो किसी पुरुष के पास सदैव रहता है और न किसी पुरुष के जीवन में सुख का अंश बाकी छोड़ता है। जिस किसी के जीवन में रखैल नामक प्राणी का प्रवेश होता है, उसके सुख बहुत ही कम समय में उसका साथ छोड़ देते हैं और वह पुरुष सर्वनाश की ओर बढ़ जाता है।
नेपोलियन के साथ भी यही हुआ। उसके सर्वनाश का समय निकट आ गया था। वैसे भी उस काल के यूरोप में पोप तथा चर्च जिस राजा के शत्रु हो जाएं, वह राजा अधिक समय तक अपने सिंहासन पर नहीं टिक पाता था, नेपोलियन बोनापार्ट भी नहीं टिक सका। जून 1815 में वाटरलू की लड़ाई में फ्रैंच सेनाएं परास्त हो गईं तथा अंग्रेजों ने नेपोलियन को बंदी बना कर एटलांटिक सागर के बीच स्थित सेंट हेलेना द्वीप पर भेज दिया जहाँ फरवरी 1821 में उसकी मृत्यु हो गई।
नेपोलियन द्वारा किए गए के युद्धों के दौरान इटली में बहुत से छोटे-छोटे राज्य समाप्त हो गए थे। इन राज्यों की जनता ने एक बड़ी शासन व्यवस्था के नीचे आकर स्वयं को वृहत्तर परिवेश में पाया तथा उन्होंने राष्ट्रीयता का अनुभव किया। इस कारण इटली में एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा हुआ जो इटली के इतिहास में रीसॉर्जीमेंटो (Risorgimento) कहलाता है।