Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 10 : ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना

अकबर द्वारा स्थापित मुगल शासन पद्धति के अन्तर्गत बंगाल के सूबे का शासन दो भागों में बँटा हुआ था-

(1) दीवानी शासन- इसके अनतर्गत कर-वसूली और दीवानी न्याय का कार्य सम्मिलित था और

(2) निजामत- इसके अन्तर्गत सूबे में शान्ति व्यवस्था, बाह्य-आक्रमण से रक्षा और फौजदारी न्याय के कार्य सम्मिलित थे।

जिन दिनों मुगलों की केन्द्रीय सत्ता मजबूत रही, बंगाल के सूबेदारों के पास निजामत के अधिकार ही थे, जबकि दीवानी शासन के लिए मुगल बादशाह अपनी तरफ से पृथक् दीवान की नियुक्ति करता था। जब बंगाल का सूबेदार केन्द्रीय सत्ता से स्वतंत्र हो गया तो उसने निजामत और दीवानी, दोनों अधिकार अपने हाथ में ले लिये। फिर भी सैद्धान्तिक रूप से दीवानी के अधिकार अब भी मुगल बादशाह के पास ही थे।

मीर जाफर की मृत्यु के बाद उसके पुत्र नज्मुद्दौला को बंगाल का नवाब बनाया गया। कम्पनी ने शिशु नवाब पर एक नई सन्धि थोप दी, जिसके अनुसार कम्पनी ने 53 लाख रुपया वार्षिक के बदले में निजामत के अधिकार प्राप्त कर लिये। अब नवाब को केवल शान्ति व्यवस्था के लिए आवश्यक सेना रखने की अनुमति दी गई। नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति एवं नियंत्रण का अधिकार भी कम्पनी ने अपने हाथ में ले लिया। नवाब द्वारा निजामत के अधिकार त्यागना वस्तुतः बंगाल में ब्रिटिश राज्य की स्थापना की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था।

अगस्त 1765 में कम्पनी को मुगल बादशाह की तरफ से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी भी प्राप्त हो गई। यद्यपि मुगल बादशाह स्वयं इस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर निर्भर था परन्तु सैद्धान्तिक और वैधानिक दृष्टि से वह अब भी सम्पूर्ण सल्तनत का बादशाह था। अतः उसके आदेशों ने कम्पनी के कार्यों को वैधानिकता का जामा पहना दिया। इस प्रकार, कम्पनी को बंगाल में निजामत तथा दीवानी, दोनों अधिकार प्राप्त हो गये।

हिन्दू शासकों के विरुद्ध षड़यंत्र

इलाहबाद की संधि के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पूर्वी भारत के प्रमुख हिन्दू शासकों के विरुद्ध षड़यंत्र करके उन्हें हटा दिया। बिहार के शासक रामनारायण सिंह, उड़ीसा के राजा रामसिंह और पूर्णिया के राजा युगलसिंह को उनके पदों से हटा दिया गया। इन शासकों ने अँग्रेजों के विरुद्ध महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थीं।

द्वैध शासन व्यवस्था

क्लाइव की शासन-व्यवस्था को द्वैध शासन प्रणाली (दोहरा शासन) कहते हैं। क्योंकि कम्पनी ने वास्तविक सत्ता के होते हुए भी सूबे की शासन व्यवस्था को स्पष्टतः अपने हाथों में नहीं लिया। निजामत का कार्य नवाब के हाथों में नहीं रहने दिया गया और इसके लिए कम्पनी ने नवाब को 53 लाख रुपये वार्षिक देना तय किया। चूँकि सैनिक शक्ति कम्पनी के हाथों में थी, इसलिये वह नवाब की ओर से स्वयं निजामत का कार्य करने लगी। अर्थात् निजामत की सर्वोच्च शक्ति कम्पनी के पास थी परन्तु उत्तरदायित्व नवाब का था। इस प्रकार, सूबे में दो सत्ताओं की स्थापना हुई- एक भारतीय और दूसरी विदेशी। विदेशी सत्ता वास्तविक थी, जबकि भारतीय सत्ता उसकी परछाई मात्र थी। ऐसा इसलिये किया गया था क्योंकि कम्पनी को बंगाल में शासन करने के लगभग समस्त अधिकार मिल गये परन्तु शासन सम्बन्धी विविध कार्यों को करने के लिये कम्पनी के पास न तो साधन थे, न कर्मचारी। द्वैध शासन प्रणाली के माध्यम से, चतुर क्लाइव ने ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की कि कम्पनी शासन तो करे किंतु उसके ऊपर शासन का उत्तरदायित्व न रहे।

नायब दीवानों की नियुक्ति

क्लाइव का मानना था कि कम्पनी के अधिकारी बंगाल की शासन व्यवस्था की पेचादगियों को नहीं समझ पायेंगे। अतः उसने भारतीय अधिकारियों के माध्यम से दीवानी का काम चलाने का निश्चय किया। उसने दो नायब दीवान नियुक्त किये- एक बंगाल के लिए और दूसरा बिहार के लिए। बंगाल में मुहम्मद रजाखाँ और बिहार में राजा शिताबराय को नियुक्त किया गया। इस प्रकार कम्पनी ने अपना उत्तरदायित्व भारतीय अधिकारियों पर डाल दिया। कम्पनी का लक्ष्य अधिक-से अधिक आय प्राप्त करना था। भारतीय नायब दीवान, इस उद्देश्य को पूरा करने के उपकरण मात्र थे।

नायब निजाम की नियुक्ति

चूँकि नवाब नज्मुद्दौला अल्पायु था इसलिए उसके कामों की देखभाल के लिए नायब-निजाम की नियुक्ति की गई और इस पद पर भी मुहम्मद रजाखाँ को नियुक्त किया गया जो बंगाल का नायब-दीवान था।

द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना के कारण एवं परिणाम

कारण

द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना के कारण बहुत गहरे थे। इसके पीछे क्लाइव का अब तक का अनुभव एवं चिंतन काम कर रहे थे। वह चारों तरफ से अपने शत्रुओं और विरोधियों से घिरा हुआ था इसलिये उसने बंगाल का शासन अपने हाथ में न लेकर द्वैध शासन प्रणाली को जन्म दिया। इस चिंतन के कारण इस प्रकार से थे-

(1.) क्लाइव को लगता था कि इस व्यवस्था से भारतीयों में कम्पनी के प्रति विद्रोह की भावना उत्पन्न नहीं होगी। उन्हें अनुभव ही नहीं होगा कि कम्पनी ने राजनीतिक सत्ता हथिया ली है।

(2.) क्लाइव को लगता था कि राजनीतिक सत्ता प्रत्यक्ष रूप से हाथ में लेने से भारत में स्थित फ्रांसीसी तथा डच कम्पनियां सुगमता से ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सूबेदारी स्वीकार नहीं करेंगी तथा कम्पनी को वे कर आदि नहीं देंगी जो नवाब के फरमान के अनुसार उन्हें देने होते थे।

(3.) इस व्यवस्था के अभाव में यूरोप में भी इंग्लैण्ड के प्रति अन्य शक्तियों के बीच वैमनस्य और कटुता बढ़ने की संभावना थी।

(4.) कम्पनी का कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने के पक्ष में नहीं था।

(5.) कम्पनी के अँग्रेज अधिकारी इस समूचे क्षेत्र की प्रजा, उसके व्यवहार, भाषा, रीति-रिवाज आदि से परिचित नहीं थे। इस कारण शासन का कार्य चलाने में सफलता का मिलना संदिग्ध था।

(6.) क्लाइव बंगाल के नवाबों को निकम्मा सिद्ध करके उन्हें शासन कार्य से दूर कर देना चाहता था।

(7.) क्लाइव को लगता था कि यदि कम्पनी भारत में किसी क्षेत्र पर शासन का काम अपने हाथ में लेती है तो लंदन की संसद कम्पनी के काम में सीधा हस्तक्षेप करने लगेगी।

परिणाम

बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली 1765 ई. में आरम्भ होकर 1772 ई. तक चलती रही। 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने इसे समाप्त किया। बंगाल की जनता के लिये द्वैध शासन प्रणाली के परिणाम अत्यंत विध्वंसकारी सिद्ध हुए।

(1.) द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना के बाद न तो कम्पनी ने और न नवाब ने ही जनता की भलाई की चिंता की।

(2.) कम्पनी के अधिकारी एवं कर्मचारी जनता का भयानक शोषण करने लगे।

(3.) नवाब के अधिकारियों में इतनी शक्ति नहीं रही कि वे जनता को कम्पनी और उसके कर्मचारियों की लूट-खसोट से बचा सकें।

(4.) नवाब के कर्मचारी स्वयं भी जनता को लूटने और खसोटने में लग गये।

(5.) सम्पूर्ण बंगाल कम्पनी के कदमों में आ पड़ा। कम्पनी की मर्जी थी कि वह बंगाल की कितनी ही बुरी गत क्यों न बनाये। कोई विरोध करने वाला नहीं था।

(6.) बंगाल में न्याय व्यवस्था बिल्कुल ठप्प हो गई। चोर, डाकू और लुटेरों का आतंक बढ़ गया।

(7.) राज्य में भू-राजस्व संग्रह का कार्य प्रति वर्ष अधिक से अधिक बोली लगाने वाले को दिया जाने लगा। इससे मनमाना राजस्व वसूल किया जाने लगा। इस कारण बहुत से किसान खेती-बाड़ी छोड़कर भाग गये और बंगाल का उपजाऊ प्रदेश उजाड़ और बंजर होने लगा।

(8.) व्यापार-वाणिज्य की अवनति हुई। कम्पनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने कम्पनी का व्यापार बढ़ाने की बजाये अपना व्यापार बढ़ाया। इससे भारतीय व्यापारियों की कमर टूट गई। स्वयं क्लाइव ने माना कि कम्पनी के अधिकारी और कर्मचारी कम्पनी के लिये व्यापार न करके सम्प्रभु व्यापारी की तरह व्यापार करते थे। उन्होंने हजारों भारतीय व्यापारियों के मुँह की रोटी छीन ली।

(9.) कम्पनी ने बंगाल के रेशम उद्योग को हतोत्साहित किया। अब अँग्रेज रेशम के कपड़ों के स्थान पर कच्चा रेशम खरीदते थे। जो भारतीय जुलाहे, रेशम का कपड़ा बुनते थे, उनका शारीरिक उत्पीड़न किया गया।

(10.) भारतीय जुलाहों को विवश किया गया कि वे अपना काम न करके कम्पनी के लिये कपड़ा बुनें।

(11.) 1770 ई. में बंगाल में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। सरकार की ओर से जनता की कोई सहायता नहीं की गई। इस कारण बंगाल की एक तिहाई जनसंख्या भूख और बीमारी से नष्ट हो गई किंतु द्वैध शासन होने के कारण न तो नवाब ने और न कम्पनी ने प्रजा की सहायता की।

(12.) भारत का धन तेजी से इंग्लैण्ड की ओर प्रवाहित होने लगा। एक अनुमान के अनुसार 1766 से 1768 ई. के तीन सालों में बंगाल से 57 लाख पौण्ड की विपुल राशि लंदन ले जाई गई।

(13.) बंगाल में मची लूट से उत्साहित होकर इंग्लैण्ड की सरकार ने 1767 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से इस लूट में अपना हिस्सा मांगा तथा कम्पनी को निर्देश दिये कि वह प्रति वर्ष सरकार को 4 लाख पौण्ड दे।

रॉबर्ट क्लाइव की सफलताओं एवं कार्यों का मूल्यांकन

रॉबर्ट क्लाइव का जन्म 1725 ई. में इंग्लैण्ड में मार्केट ड्रायटन के समीप एक सामान्य परिवार में हुआ। वह बहुत ही साधारण प्रतिभा का बालक था। उसे एक के बाद एक चार स्कूलों में पढ़ने भेजा गया परन्तु वह पढ़ने-लिखने में विशेष प्रगति नहीं कर सका। 17 वर्ष की आयु में उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी में क्लर्क के पद पर रख लिया गया। 1744 ई. के अन्तिम दिनों में वह इंग्लैण्ड से मद्रास पहुँचा। उसे क्लर्की का काम बिन्कुल पसन्द नहीं था इसलिये उसने तंग आकर आत्महत्या करने का विचार किया परन्तु अर्काट के घेरे ने उसके भाग्य को बदल दिया। वह क्लर्क से सैनिक और फिर सेनापति और अंत में बंगाल का गवर्नर बन गया। एक सामान्य नागरिक से वह एक सम्पन्न व्यक्ति बन गया। इंग्लैण्ड की सरकार ने उसकी सेवाओं के लिये उसे लॉर्ड की उपाधि से विभूषित किया। क्लाइव एक साहसी सैनिक, कुशल कूटनीतिज्ञ एवं परिश्रमी व्यक्ति था। साथ ही वह झूठा, धोखेबाज, रिश्वतखोर तथा षड्यन्त्रकारी भी था। यही कारण था कि भारत में अँग्रेजी राज्य की स्थापना में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

क्लाइव की सफलताएँ     

क्लाइव ने बुद्धिमत्तापूर्ण सैनिक योजनाओं के स्थान पर, दृढ़ संकल्प शक्ति एवं दिलेरी से बड़े कार्य सम्पादित किये जिनसे भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सका। उसके द्वारा मुख्यतः निम्नलिखित सफलताएं अर्जित की गईं-

(1.) 1751 ई. में उसके द्वारा अर्काट युद्ध में विजय प्राप्त की गई और अर्काट की सुरक्षा का सुचारू रूप से प्रबंध किया गया।

(2.) दक्षिण भारत में उसने फ्रैंच गवर्नर डुप्ले की समस्त योजनाओं को प्रभावहीन कर दिया।

(3.) उसने कलकत्ता पर पुनः अधिकार किया तथा प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला को परास्त किया।

(4.) अपनी प्रथम गवर्नरी के समय उसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी, तो दूसरी गवर्नरी के काल में एक चतुर एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञ की भाँति उस नींव को मजबूत बनाया।

(5.) क्लाइव ने तात्कालिक प्रलोभनों में न फँसकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करना अधिक ठीक समझा। राज्य विस्तार के कार्य में हड़बड़ी दिखाने के स्थान पर धैर्यपूर्वक कम्पनी की स्थिति को मजबूत बनाया।

(6.) क्लाइव ने कम्पनी को शासक की भूमिका में लाने के स्थान पर, शासकों को नियुक्त करने वाला बनाया। मुगल बादशाह शाहआलम और अवध के नवाब वजीर के साथ किये गये समझौते इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। बंगाल, बिहार और उड़ीसा में पूर्ण शासन सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद भी प्रत्यक्षतः उत्तरदायित्व न सम्भालना, उसकी कूटनीतिक प्रतिभा का परिचायक है।

(7.) बंगाल में उसके प्रशासनिक सुधारों के विरोध में अँग्रेज अधिकारियों ने सामूहिक त्याग-पत्र दे दिये। इस पर भी वह अपने निश्चय से नहीं डिगा। न ही उसने किसी से प्रतिशोध लेने का प्रयास किया।

क्लाइव की कमजोरियाँ

क्लाइव के चरित्र में कई कमजोरियां भी थीं। वह साधनों के औचित्य के स्थान पर लक्ष्य की प्राप्ति को आवश्यक समझता था। इस कारण उसमें नैतिकता का अभाव था। सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यन्त्र रचना और जाली सन्धि-पत्र तैयार करवाकर अमीचन्द को धोखा देना उसके निम्न नैतिक स्तर को स्पष्ट करते हैं। व्यक्तिगत रूप से वह अत्यधिक लोभी तथा धन का भूखा था। जब उसे दूसरी बार गवर्नर बनाकर बंगाल में भेजा गया तो उसे कम्पनी के प्रशासन में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के आदेश दिये गये। क्लाइव ने इस दिशा में कुछ कदम भी उठाये परन्तु वह स्वयं पर संयम न रख सका। उस ने भारतीयों से कीमती भेंटें तथा घूस लेने की प्रथा आरम्भ की। कुछ इतिहासकार उसे योग्य सेनानायक होना स्वीकार नहीं करते। उसे योग्य शासक भी नहीं माना जाता। के. एम. पाणिक्कर का मत है कि 1765 से 1772 ई. तक कम्पनी द्वारा स्थापित बंगाल का राज्य एक डाकू-राज्य था। क्लाइव ने समस्याओं के जो हल निकाले, वे स्थायी न होकर अस्थायी थे।

क्लाइव का अंत

1767 ई. में क्लाइव इंग्लैण्ड चला गया। कुछ समय बाद उसे हाउस ऑफ कॉमन्स का सदस्य चुना गया। इंग्लैण्ड की संसद में क्लाइव की कटु आलोचना एवं निन्दा की गई। उस पर भ्रष्टाचार तथा जालसाजी करने के आरोप लगाये गये। क्लाइव ने इन आरोपों को स्वीकार कर लिया परन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया कि उसने यह, अपने देश की भलाई के लिए किया। अन्त में संसद ने क्लाइव को समस्त आरोपों से मुक्त कर दिया और उसकी सेवाओं की प्रशंसा की गई परन्तु इस कार्यवाही से क्लाइव को गहरा सदमा पहुँचा। उसने मानसिक संतुलन खोकर नवम्बर 1774 में उस्तरे से गला काटकर आत्महत्या कर ली। इस प्रकार उसके जीवन का अन्त हुआ।

अँग्रेजी इतिहासकारों द्वारा क्लाइव का मूल्यांकन

लगभग समस्त अँग्रेज इतिहासकारों ने क्लाइव के कार्यों एवं सफलताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इतिहासकार पिट्स ने अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दों में उसकी स्तुति करते हुए उसे स्वर्ग में जन्मा सेनानायक बताया है। चेथम ने उसे ईश्वर द्वारा भेजा गया सेनापति बताया।

मैकाले ने लिखा है- ‘हमारे टापू ने शायद ही ऐसे व्यक्ति को जन्म दिया हो जो युद्ध और विचार-विमर्श में उससे बढ़कर हो।’ क्लाइव की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए बर्क ने कहा है- ‘उसने महान् कार्यों की नींव डाली…… उसने उस गहरे पानी में प्रवेश किया जिसके तल का भी पता न था। उसने अपने उत्तराधिकारियों के लिए एक पुल का निर्माण किया, जिस पर लंगड़े चल सकते थे और अन्धे भी अपना मार्ग खोज सकते थे।’

वेरेलस्ट तथा कार्टियर

क्लवाइव के बाद वेरेलस्ट (1767-1769 ई.) तथा कार्टियर (1769-1772 ई.) बंगाल के गवर्नर रहे। इस दौरान 1770 ई. में बंगाल में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा जिसमें बंगाल की एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गई। दुर्भिक्ष के बाद ज्वर तथा चेचक का प्रकोप फैला। प्रतिदिन हजारों शव हुगली नदी में बहाये जाने लगे किंतु द्वैध शासन होने के कारण न तो नवाब ने और न कम्पनी ने जनता की सहायता की। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ऐसे भयानक समय में भी बंगाल से चावल एकत्रित करके अधिक मूल्य पर बंगाल से बाहर बेचती रही।

वारेन हेस्टिंग्ज (1772-1785 ई.)

कार्टियर के बाद वारेन हेस्टिंग्ज बंगाल का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसने मुगल बादशाह शाहआलम की 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन बंद कर दी क्योंकि वह मराठों की शरण में चला गया था। हेस्टिंग्ज ने बंगाल के नवाब की 32 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन घटाकर 16 लाख रुपये कर दी। शाहआलम से कड़ा और इलाहाबाद के इलाके छीनकर 50 लाख रुपये में अवध के नवाब को दे दिये। द्वैध शासन व्यवस्था के कारण बंगाल में पहले से ही अराजकता फैली हुई थी किंतु अकाल ने स्थिति और भयावह बना दी। उसके समय में भी कम्पनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों में भ्रष्टाचार अपने चरम पर बना रहा। बंगाल का शोषण उसी भांति होता रहा। जब वह इंग्लैण्ड लौट कर गया तो उस पर ब्रिटिश संसद में भ्रष्टाचरण का मुकदमा चला। सांसद एडमण्ड बु्रक पूरे दो दिन तक हेस्टिंग्स पर लगाये गये आरापों को संसद में पढ़कर सुनाता रहा। सात साल तक यह मुकदमा चलता रहा। इसे लड़ने में हेस्टिंग्स बर्बाद हो गया। मुकदमे की कार्यवाही के दौरान हेस्टिंग्स को कहना पड़ा कि यदि उसने आरोप स्वीकार कर लिये होते तो उसे कम नुक्सान उठाना पड़ता। अंत में संसद ने उसे समस्त आरोपों से मुक्त कर दिया।

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