Friday, April 19, 2024
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अध्याय – 53 : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

कांग्रेस की स्थापना से पहले कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसी में कई राजनीतिक संस्थाओं का उदय हुआ किंतु ये संस्थाएं स्थानीय हितों के लिये काम करती रहीं। सरकार के भय के कारण इन संस्थाओं के सदस्य, इन संस्थाओं को छोड़ जाते थे तथा इस कारण कई संस्थाएं दम तोड़ चुकी थीं। इल्बर्ट बिल के बाद पूरे भारत में एक ऐसी संस्था की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जो पूरे भारत की समस्याओं को एक साझा मंच दे सके। दिसम्बर 1884 में अड्यार नगर में थियोसाफिकल सोसायटी के वार्षिक अधिवेशन में देश के विभिन्न भागों से आये 17 प्रतिनिधि दीवान बहादुर रघुनाथराव के निवास पर एकत्रित हुए। इस बैठक में एक देशव्यापी संगठन स्थापित करने का निश्चय किया गया जिसके फलस्वरूप इण्डियन नेशनल यूनियन नामक एक संस्था स्थापित हुई।

1885 ई. में इण्डियन एसोसिएशन ने 25-27 दिसम्बर को अपनी दूसरी कान्फ्रेंस बुलाने का निश्चय किया और इसके लिए जोरदार तैयारियाँ कीं। इसी समय एलन ओक्टावियन ह्यूम और उसके मित्रों ने इण्डियन नेशनल यूनियन की तरफ से बम्बई में नेशनल कान्फ्रेंस बुलाने का निश्चय किया। इसकी तिथि भी 25 दिसम्बर रखी गई। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और इण्डियन एसोसिएशन को इस सम्बन्ध में पहले से कोई जानकारी नहीं दी गई। जब निर्धारित तिथि से कुछ दिनों पहले उन्हें इण्डियन एसोसिएशन के सम्मेलन को रद्द करने तथा बम्बई में होने वाले सम्मेलन में भाग लेने को कहा गया तो बनर्जी तथा उनके साथियों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इस पर ह्यूम तथा उसके साथियों ने अपने सम्मेलन का नाम और सम्मेलन की तिथि में परिवर्तन कर दिया। अब उसका नया नाम इण्डियन नेशनल कांग्रेस रखा गया और अधिवेशन की तिथि 28-30 दिसम्बर 1885 निश्चित की गई।

ए. ओ. ह्यूम और कांग्रेस की स्थापना

अखिल भारतीय स्तर पर संस्था बनाने का विचार अनेक भारतीय नेताओं के मस्तिष्क में था परन्तु इस दिशा में उठाए गये कदमों को व्यवहारिक रूप प्रदान करने का श्रेय अवकाश प्राप्त अँग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम को है। इसीलिए ह्यूम को कांग्रेस का संस्थापक कहा जाता है। माना जाता है कि ह्यूम ने सामाजिक सुधार आन्दोलन के लिए देशव्यापी संस्था की योजना पर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन से विचार-विमर्श किया। लॉर्ड डफरिन ने उसे इस संस्था का कार्यक्षेत्र बढ़ाने का सुझाव दिया। अर्थात् डफरिन ने ह्यूम के विचारों को राजनैतिक दिशा प्रदान की। डफरिन ने कहा- ‘भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो इंग्लैण्ड के विरोधी दल की भाँति यहाँ भी कार्य कर सके और सरकार को यह बता सके कि शासन में क्या त्रुटियाँ हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है।’

ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना किये जाने के सम्बन्ध में यह भी माना जाता है कि सरकारी पद पर रहते हुए ह्यूम ने कुछ गुप्त सरकारी रिपोर्टें देखी थीं।  उनसे उसे आभास हुआ कि भारतवासियों का बढ़ता हुआ असन्तोष किसी भी समय राष्ट्रीय विद्रोह का रूप धारण कर सकता है और इसका स्वरूप 1857 के विद्रोह से भी अधिक भयानक हो सकता है। ब्रिटिश शासकों ने भारत को राष्ट्रीय आन्दोलन के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया। 1884 ई. के अन्त में ह्यूम बम्बई गया तथा महाराष्ट्र व मद्रास के भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श करने के बाद मार्च 1885 में उसने एक राष्ट्रीय संस्था बनाने की योजना तैयार की। उसकी इच्छा थी कि बम्बई के गवर्नर को इसका अध्यक्ष बनाया जाये परन्तु लॉर्ड डफरिन ने कहा- ‘गवर्नर को ऐसी संस्थाओं की अध्यक्षता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उसकी उपस्थिति में लोग अपने विचार स्वतन्त्रता पूर्वक प्रकट नहीं कर सकेंगे।’

कांग्रेस की स्थापना से पहले ह्यूम इंग्लैण्ड गया और वहाँ उसने लॉर्ड रिपन, डलहौजी, ब्राइस आदि ब्रिटिश राजनीतिज्ञों से विचार-विमर्श किया। इंग्लैण्ड से वापस आकर ह्यूम ने नेशनल यूनियन का नाम बदल कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रखा। मई 1885 में ह्यूम ने पहला परिपत्र जारी किया जिसके माध्यम से उसने दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में देश के समस्त भागों के प्रतिनिधियों की एक सभा पूना में बुलाई। इस परिपत्र में उसने इस सभा के दो उद्देश्य बताये-

(1.) राष्ट्र की प्रगति के कार्य में लगे लोगों का एक-दूसरे से परिचय।

(2.) इस वर्ष में किये जाने वाले कार्यों की चर्चा और निर्णय। 

पूना में प्लेग फैल जाने का कारण कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन पूना की बजाय बम्बई में किया गया। 28 दिसम्बर 1885 को बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज भवन में हुए इस अधिवेशन की अध्यक्षता उमेशचन्द्र बनर्जी ने की। इसमें देश के विभिन्न भागों से आये 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इन प्रतिनिधियों में बैरिस्टर, सॉलिसिटर, वकील, व्यापारी, जमींदार, साहूकार, डॉक्टर, समाचार पत्रों के सम्पादक और मालिक, निजी कॉलेजों के प्रिंसिपल और प्रोफेसर, स्कूलों के प्रधानाध्यापक, धार्मिक गुरु और सुधारक समस्त प्रकार के लोग थे। इनमें दादाभाई नौरोजी, फीरोजशाह मेहता, वी. राघवचार्य, एस. सुब्रह्मण्यम्, दिनेश वाचा, काशीनाथ तेलंग आदि प्रमुख थे। यह सम्मेलन सफल रहा और राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक संस्था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। अधिवेशन की समाप्ति पर ह्यूम के आग्रह पर महारानी विक्टोरिया की जय के नारे लगाये गये।

कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्य

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उमेशचन्द्र बनर्जी ने कांग्रेस की स्थापना के निम्नलिखित उद्देश्य बताये-

(1.)  सारे भारतवर्ष में देशहित में काम करने वाले लोगों का आपस में सम्पर्क बढ़ाना और उनमें मित्रता की भावना उत्पन्न करना।

(2.) व्यक्तिगत मित्रता और मेल-जोल के द्वारा देशप्रेमियों के बीच में जाति-पाँति के भेदभाव, वंश, धर्म और प्रान्तीयता की संकीर्ण भावनाओं का नाश करना तथा राष्ट्रीय एकता की जनभावनाओं का विकास करना जिनकी उत्पत्ति लॉर्ड रिपन के काल में हुई थी।

(3.) पूरे वाद-विवाद के बाद भारत में शिक्षित लोगों की सामाजिक समस्याओं के बारे में सम्मतियाँ प्राप्त कर उनका प्रामाणिक संग्रह तैयार करना।

(4.) उन तरीकों पर विचार कर निर्णय करना जिनके अनुसार आने वाले बारह महीनों में राजनीतिज्ञ देशहित के लिये कार्य करेंगे।

प्रथम अधिवेशन में नौ प्रस्ताव पारित हुए जिनमें विभिन्न विषयों पर सुधारों की मांग की गई। इन प्रस्तावों से भी कांग्रेस के उद्देश्यों की जानकारी मिलती है। प्रथम प्रस्ताव में भारतीय प्रशासन की जांच के लिए एक रॉयल कमीशन नियुक्त करने तथा द्वितीय प्रस्ताव में केन्द्रीय एवं प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाआंे में नामित सदस्यों के स्थान पर निर्वाचित भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाने की मांग की गई। अन्य प्रस्तावों में सैनिक खर्च में कमी, भारत और इंग्लैण्ड में सिविल सर्विस प्रतियोगिता परीक्षाओं को साथ-साथ कराने और आयात करों में वृद्धि करने आदि मांगें की गईं। इन समस्त प्रस्तावों पर भारत में पहले से ही विभिन्न मंचों पर चर्चा चल रही थी।

कांग्रेस की स्थापना के कारण

सेवानिवृत्त वरिष्ठ अँग्रेज नौकरशाह द्वारा कांग्रेस की स्थापना में अत्यधिक रुचि लेने की बात ने आरम्भ से ही कांग्रेस की स्थापना के वास्तविक कारण को विवादास्पद बना दिया। नन्दलाल चटर्जी ने लिखा है- ‘कांग्रेस रूसी भय की सन्तान थी।’ एन्ड्रूज और मुखर्जी ने अपनी पुस्तक राइज एण्ड ग्रोथ ऑफ द कांग्रेस इन इण्डिया में लिखा है- ‘कांग्रेस की स्थापना के ठीक पहले जैसी स्थिति थी, वैसी 1857 के बाद इससे पहले कभी नहीं हुई थी।’ बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना, ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से की गई थी। इन इतिहासकारों के अनुसार कांग्रेस का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि ब्रिटिश शासक इसकी आवश्यकता समझते थे। यह राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वाभाविक विकास का नहीं, राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का परिणाम था। इस मत के विपरीत कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना केवल ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा के उद्देश्य से नहीं की गई थी, उसके और भी कारण थे। इन कारणों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(अ.) कांग्रेस की स्थापना साम्राज्य की रक्षा के लिए हुई

(1.) ह्यूम उच्च सरकारी अधिकारी रह चुका था। उसे भारत में बढ़ते हुए खतरनाक असन्तोष की जानकारी थी।  इसीलिए उसने ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना में इतनी अधिक रुचि ली। ह्यूम ने सर आकले कारविन को एक पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य, अँग्रेजी शासकों के कार्यों के फलस्वरूप उत्पन्न एक प्रबल और उमड़ती हुई शक्ति के निष्कासन के लिए रक्षा-नली (सेफ्टी फनल) का निर्माण करना था।

(2.) बढ़ते हुए भारतीय असन्तोष से ब्रिटिश साम्राज्य को बचाने का एकमात्र रास्ता इस आन्दोलन को वैधानिक मार्ग पर लाना था, ह्यूम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। लाला लाजपतराय ने लिखा है- ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य अँग्रेजी साम्राज्य को खतरे से बचाना था। भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करना नहीं, अँग्रेजी साम्राज्य के हितों की पुष्टि करना था।’

सर विलियम वेडरबर्न का मत है- ‘भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक सेफ्टी-वाल्व (रक्षा-अवरोधक) की आवश्यकता है और कांग्रेस से बढ़कर अन्य कोई सेफ्टी-वाल्व नहीं हो सकता।’

(3.) सरकार के व्यवहार से भी तथ्य की पुष्टि होती है कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए की गई थी। प्रारम्भिक अधिवेशनों में कांग्रेस प्रतिनिधियों को गवर्नरों द्वारा गार्डन पार्टियाँ दी गईं और अधिवेशन की व्यवस्था में भी पूरा सहयोग दिया गया परन्तु जब ऐसे लोग जिन्हें ब्रिटिश शासक नहीं चाहते थे, कांग्रेस में घुस गये और कांग्रेस ने ब्रिटिश शासकों की इच्छा के विरुद्ध मार्ग पकड़ लिया तब लॉर्ड डफरिन और ब्रिटिश शासक, कांग्रेस के विरुद्ध हो गये और उसको समाप्त करने का प्रयास करने लगे। क्योंकि कांग्रेस, ब्रिटिश सरकार की तीव्र आलोचना करने लगी थी। सरकार के इस आचरण से स्पष्ट है कि अँग्रेज, कांग्रेस की स्थापना अँग्रेजी साम्राज्य के सुरक्षा कवच के रूप में करना चाहते थे।

(4.) डा. नन्दलाल चटर्जी का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना के समय भारत पर रूसी आक्रमण का भय था। अतः अँग्रेज भारत की राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए प्रयत्नशील थे ताकि युद्ध की स्थिति में भारतीयों का सहयोग लिया जा सके। रूसी आक्रमण का भय के समाप्त होते ही सरकार ने कांग्रेस के प्रति अपने रुख में परिवर्तन कर लिया।

(5.) रजनीपाम दत्त ने लिखा है- ‘कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की पूर्व-निश्चित गुप्त योजना का अंग थी।’

(ब.) कांग्रेस की स्थापना केवल साम्राज्य की रक्षा के लिए नहीं हुई

कुछ विद्वानों का मत है कि कांग्रेस की स्थापना केवल ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से नहीं की गई थी। इसके जन्मदाता इसे केवल सरकार समर्थित संस्था बनाना नहीं चाहते थे। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1.) यह सही है कि कांग्रेस के संस्थापकों में से कुछ का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था परन्तु उनका उद्देश्य राष्ट्रीय चेतना को दबाना नहीं था। वे सरकार विरोधी असन्तोष को हिंसक रास्ते की तरफ जाने से रोक कर वैधानिक मार्ग की ओर मोड़ना चाहते थे। स्वयं वेडरबर्न ने कहा था कि कांग्रेस की भूमिका इंग्लैण्ड के विरोधी दल के समान होनी चाहिए। वायसराय डफरिन भी ऐसा ही चाहते थे।

(2.) सामान्यतः यह कहा जाता है कि ह्यूम एक भूतपूर्व अँग्रेज अधिकारी थे और वे ऐसी किसी संस्था की स्थापना क्यों करते जो ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी हो? इसके उत्तर में कहा जाता हे कि ह्यूम व्यक्तिगत रूप से उदारवादी विचारधारा से प्रभावित थे और वे चाहते थे कि भारत में ब्रिटिश शासन प्रजातांत्रिक रूप से काम करे। इसके अलावा, कांग्रेस का प्रारम्भिक रुख भी अँग्रेजों का विरोधी नहीं था।

(3.) 1888 ई. में ह्यूम ने कांग्रेस के मंच से जो भाषण दिया उससे भी पता चलता है कि ह्यूम का उद्देश्य केवल ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा करना नहीं था। उन्होंने अपने भाषण में जहाँ एक तरफ ब्रिटिश सरकार की निरंकुशता की आलोचना की, वहीं दूसरी तरफ देश में राजनीतिक जागरण को फैलाने की बात भी कही ताकि सरकार पर दबाव डाला जा सके। अपने भाषण में ह्यूम ने कहा था- ‘हमारे शिक्षित भारतीयों ने अलग-अलग रूप में, हमारे अखबारों ने व्यापक रूप में तथा हमारी राष्ट्रीय महासभा के समस्त प्रतिनिधियों ने एक स्वर से सरकार को समझाने की चेष्टा की है किन्तु सरकार ने जैसा कि प्रत्येक स्वेच्छाचारी सरकार का रवैया होता है, समझने से इन्कार कर दिया है। अब हमारा कार्य यह है कि देश में अलख जगाएँ, ताकि हर भारतीय जिसने भारत माता का दूध पिया है, हमारा साथी, सहयोगी तथा सहायक बन जाये और यदि आवश्यकता पड़े तो……..स्वतन्त्रता, न्याय तथा अधिकारों के लिये जो महासंग्राम हम छेड़ने जा रहे हैं, उसका सैनिक बन जाये।’

(4.) कांग्रेस की स्थापना केवल ह्यूम ने नहीं की थी। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, उमेश चन्द्र बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, जस्टिस रानाडे आदि भारतीय नेताओं ने भी सक्रिय सहयोग दिया था। यह सम्भव नहीं है कि इन भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना में सहयोग दिया। उनका उद्देश्य भारतीयों के लिए शासन में कुछ सुधारों की मांग करना था।

(5.) डॉ. ईश्वरी प्रसाद का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से नहीं अपितु भारतीयों के हित की दृष्टि से की गई।

(6.) कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष उमेशचन्द्र बनर्जी ने कांग्रेस की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है- ‘ह्यूम का विचार था कि भारत के प्रमुख व्यक्ति वर्ष में एक बार एकत्र होकर सामाजिक विषयों पर चर्चा करें। वे नहीं चाहते थे कि उनकी चर्चा का विषय राजनीति रहे क्योंकि मद्रास, कलकत्ता और बम्बई में पहले से ही राजनैतिक संस्थाएँ थीं।’ अर्थात् राष्ट्रीय कांग्रेस एक सामाजिक संस्था के रूप में कार्य करने वाली संस्था के रूप में उद्भूत हुई।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भले ही ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षा कवच देने के उद्देश्य से हुई किंतु बड़े भारतीय नेताओं की उपस्थिति के कारण यह संस्था आरम्भ से ही भारतीयों के हितों की सुरक्षा के काम में लग गई।

कांग्रेस का स्वरूप

कांग्रेस के स्वरूप के सम्बन्ध में विद्वानों में जबर्दस्त मतभेद रहा। यद्यपि इसके निर्माण एवं विकास में मद्रासी, मराठी और पारसियों का उतना ही हाथ था जितना बंगालियों का किंतु कुछ लोग इसे बंगाली कांग्रेस कहते थे। कुछ लोग इसे हिन्दू कांग्रेस कहते थे। कुछ लोग इसे केवल पढ़े-लिखे भारतीयों की संस्था कहते थे और इसके राष्ट्रीय स्वरूप को नकारते थे। जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार कांग्रेस के संगठन और उद्देश्यों पर दृष्टि डालने से सिद्ध हो जाता है कि कांग्रेस का जन्म राष्ट्रीय संस्था के रूप में हुआ। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधि विभिन्न धर्मों, वर्गों, सम्प्रदायों एवं प्रांतों से थे। कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों में सम्मिलित प्रतिनिधियों की सूची से इसके राष्ट्रीय स्वरूप की पुष्टि होती है-

प्रान्तबम्बई (1885 ई.)कलकत्ता (1886 ई.)मद्रास (1887 ई.)
मद्रास              2147362
बम्बई और सिन्ध           384799
पंजाब              3179
उत्तर पश्चिम, उत्तर प्रदेश और अवध        77445
मध्य प्रदेश और बरार0813
बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम323879
कुल72431607

कांग्रेस का विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव

विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग पर प्रभाव: कांग्रेस की स्थापना भले ही ए. ओ. ह्यूम के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों ने की थी किंतु भारत का बुद्धिजीवी वर्ग इसे सम्भालने के लिये आगे आया। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, उमेश चन्द्र बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे, पण्डित मदन मोहन मालवीय आदि बुद्धिजीवी भारतीय नेताओं ने कांग्रेस को खड़ा करने में सक्रिय सहयोग दिया।

भारत में रहने वाले अँग्रेजों पर प्रभाव: 1907 ई. तक लगभग समस्त प्रतिष्ठित भारतीय किसी न किसी रूप में कांग्रेस से जुड़ गये थे। ए. ओ. ह्यूम, विलियम वेडरबर्न, सर हेनरी कॉटन, एण्ड्रिल यूल और नार्टन जैसे उदारवादी आंग्ल-भारतीय भी कांग्रेस में सम्मिलित हो गये थे।

जनसामान्य पर प्रभाव: कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में ब्रिटिश भारत में रहने वाले विभिन्न धार्मिक समुदायों एवं जातियों के शिक्षित प्रतिनिधि भाग लेते थे। ये लोग परस्पर स्नेह और विश्वास की भावना प्रकट करते थे। यही कारण था  कि कांग्रेस की स्थापना के बाद देश में राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय एकता तथा जनसेवा के उच्चादर्शों का तेजी से विकास हुआ। कांग्रेस के उस काल के उच्चादर्श उसके राष्ट्रीय स्वरूप को प्रकट करते हैं। प्रारम्भ में कांग्रेस की लोकप्रियता शिक्षित वर्ग तक सीमित रही किंतु बाद में इसके द्वारा राजनीतिक अधिकारों की मांग किये जाने के कारण सामान्य लोगों का ध्यान भी इसकी तरफ आकर्षित होने लगा।

विभिन्न धर्मों पर प्रभाव: कांग्रेस के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता उमेशचंद्र बनर्जी ने की जो हिन्दू थे। दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की जो पारसी थे और तीसरे अधिवेशन की अध्यक्षता बदरुद्दीन तैयबजी ने की जो मुसलमान थे। कांग्रेस के चौथे अधिवेशन की अध्यक्षता प्रसिद्ध अँग्रेज व्यवसायी जार्ज यूल ने की जो ईसाई थे। आगे भी यह क्रम जारी रहा। इस प्रकार विभिन्न धर्मों के नेताओं को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने से यह संस्था किसी एक धर्म के प्रभाव वाली संस्था न बनकर राष्ट्रीय व्यापकता वाली संस्था के रूप में विकसित हुई।

मुसलमानों पर प्रभाव: आरम्भ में कांग्रेस में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या कम थी किन्तु धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ती गई। सर सैय्यद अहमद ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने ब्रिटिश राजभक्तों की एक संस्था यूनाइटेड पौट्रियाटिक एसोसिएशन और मुसलमानों के लिए मोहम्मडन एजूकेशन कांग्रेस बनाई। इन मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर कांग्रेस पूर्णतः लोक प्रतिनिधि संस्था थी और इसके प्रतिनिधि राष्ट्रीय विचारों का प्रतिनिधत्व करते थे। कांग्रेस के चौथे सम्मेलन में 1248 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे जिनमें से 221 मुसलमान तथा 220 ईसाई थे।

रियासती जनता पर प्रभाव: कांग्रेस ने ब्रिटिश भारत में राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया था फिर भी 1938 ई. के हरिपुरा अधिवेशन से पहले तक कांग्रेस ने देशी रियासतों को अपने कार्यक्षेत्र से पूरी तरह अलग रखा। इस कारण रियासती भारत की जनता पर 1885 से 1938 ई. तक की अवधि में कोई विशेष प्रभाव नहीं था।

साम्राज्यवादियों पर प्रभाव: कांग्रेस की स्थापना साम्राज्यवादियों के प्रयासों से हुई थी। फिर भी अनेक साम्राज्यवादी अँग्रेज आरम्भ से ही कांग्रेस को घृणा की दृष्टि से देखते थे। मई 1886 में सर हेनरी मेन ने डफरिन को एक पत्र लिखकर ह्यूम के विरुद्ध गंभीर टिप्पणी की- ‘ह्यूम नामक एक दुष्ट व्यक्ति है जिसे लॉर्ड रिपन ने बहुत सिर चढ़ाया था और जिसके सम्बन्ध में ज्ञात होता है कि वह भारतीय होमरूल आंदोलन के मुख्य भड़काने वालों में है। यह बहुत ही चालाक, पर कुछ सिरफिरा, अहंकारी और नैतिकताहीन व्यक्ति है…. जिसे सत्य की कोई परवाह नहीं है।  दिसम्बर 1886 में लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के प्रतिनिधियों के लिये कलकत्ता में एक स्वागत समारोह आयोजित किया किंतु जब कांग्रेस की मांगें सामने आईं तो वे कांग्रेस के सचिव ए. ओ. ह्यूम से बुरी तरह नाराज हो गये। डफरिन ने ह्यूम के विरुद्ध अत्यंत उग्र शब्दों में नाराजगी व्यक्त की।’

इंग्लैण्ड वासियों पर प्रभाव: 1890 ई. में कांग्रेस ने एक प्रतिनिधि मण्डल इंग्लैण्ड भेजा, जिसने इंग्लैण्ड, वेल्स और स्कॉटलैंण्ड के निवासियों में कांग्रेस का प्रचार किया। इस प्रतिनिधि मण्डल की यात्रा के बाद ब्रिटिश संसद के सदस्यों की एक समिति बनाई गई जिसका उद्देश्य भारतीय समस्याओं पर विचार करना था। ब्रिटिश जनमत को आकर्षित करने के लिए लंदन में इण्डिया नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया जाने लगा। इन प्रचार कार्यों के कारण इंग्लैण्ड के लोग भी कांग्रेस के कार्यों में रुचि लेने लगे। 1890 ई. में स्वयं लॉर्ड लैंन्सडाउन ने स्वीकार किया कि कांग्रेस देश की एक शक्तिशाली उत्तरदायी राजनैतिक संस्था है।

निष्कर्ष

निश्चित रूप से कांग्रेस अपनी स्थापना के समय से ही राष्ट्रीय संस्था थी। इसमें समाज के हर वर्ग, धर्म, जाति का व्यक्ति सदस्य हो सकता था। इसका प्रभाव भी भारत के किसी एक कोने तक सीमित न होकर राष्ट्रव्यापी था। आरम्भ में इसे जनसामान्य का समर्थन कम मिला किंतु समय के साथ कांग्रेस का राष्ट्रीय स्वरूप विस्तृत होता चला गया तथा इसकी लोकप्रियता में वृद्धि होने लगी। कांग्रेस ने सम्पूर्ण देश की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए संवैधानिक उपायों से प्रयास करना आरम्भ किया। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा- ‘इस महान संस्था के द्वारा भारतीय जनता को एक जीभ मिल गई है जिसके द्वारा हम इंग्लैण्ड से कहते हैं कि वह हमारे राजनैतिक अधिकारों को स्वीकार करे।’ कांग्रेस के प्रारम्भिक कार्यों का ही परिणाम था कि देश में प्रबल जनमत का विकास हुआ। सर हेनरी कॉटन ने लिखा है- ‘कांग्रेस के सदस्य किसी भी स्थिति में सरकारी नीति में परिवर्तन लाने में सफल नहीं हुए किन्तु अपने देश के इतिहास के विकास में तथा देश वासियों के चरित्र निर्माण में निश्चित रूप से उन्होंने सफलता प्राप्त की।’

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कांग्रेस का जन्म भारत के राजनैतिक इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब ब्रिटिश साम्राज्य अपनी सफलता के सर्वोच्च शिखर पर था। उसकी शक्ति को चुनौती देना सरल नहीं था फिर भी कांग्रेस ने कुछ ही वर्षों में व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त कर लिया।

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