Friday, April 26, 2024
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अध्याय – 54 : उदारवादी नेतृत्व (नरमपंथी कांग्रेस) -1

भारत की आजादी के लिये संघर्ष अँग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ ही आरम्भ हो गया था। 18वीं शती में प्रेस के उदय साथ ही भारतयों को अपने अधिकारों की मांग करने के लिये मंच मिलना आरम्भ हो गया था। उन्नीसवीं सदी से ब्रिटिश राज्य में राजनीतिक संस्थाओं का उदय होने लगा। 1857 ई. में सशस्त्र क्रांति का प्रयास किया गया किंतु 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद सही अर्थों में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हुआ। यही कारण है कि 1885 से लेकर 1947 ई. तक कांग्रेस का इतिहास, भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का ही इतिहास है। कांग्रेस के इतिहास को मुख्यतः दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है-

(1.) प्रथम चरण: स्थापना से लेकर रोलट एक्ट तक अर्थात् 1885 से 1919 ई. तक। इस चरण में 1885 से 1905 ई. तक कांग्रेस का नेतृत्व उदारवादियों ने किया और 1905 से 1919 ई. तक कांग्रेस का नेतृत्व उग्रवादी विचारधारा के नेताओं के हाथों में रहा।

(2.) द्वितीय चरण: असहयोग आंदोलन से लकर भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अर्थात् 1920 से 1947 ई. तक। इस काल में कांग्रेस का नेतृत्व दक्षिणपंथी मोहनदास कर्मचंद गांधी और उनके समाजवादी वामपंथी सहयोगी जवाहरलाल नेहरू आदि के हाथों में रहा।

उदारवादी युग

राजनीतिक उदारवाद 19वीं सदी के चिंतन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।  इस चिंतन का आधार यह विचार है कि विश्व में प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक उपादेयता है। फिर भी यह शब्द तुलनात्मक है। देश, काल एवं पात्र के अनुसार उदारवाद की परिभाषा में परिवर्तन हो जाता है। कोई विचार किसी समुदाय में उदारवादी माना जा सकता है जबकि वही विचार दूसरे समुदाय में अनुदारवादी अथवा उग्रवादी माना जा सकता है।

1885 से 1905 ई. तक कांग्रेस की बागडोर पूरी तरह से उदारवादियों अथवा नरम राष्ट्रवादियों के हाथों में रही। अतः राष्ट्रीय आन्दोलन का यह काल उदारवाद का युग कहलाता है। इस युग में भारतीय राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था जो अँग्रेजों तथा अँग्रेजी शासन के प्रति नरम रवैया रखते थे और बहिष्कार तथा असहयोग जैसे क्रान्तिकारी विचारों के विरुद्ध थे। वे उच्च शिक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका दृष्टिकोण सर्वथा वैधानिक था। इनमें से अधिकांश नेताओं के हृदय में ब्रिटिश राज के प्रति कृतज्ञता के भाव थे। वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को वरदान समझते थे। उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं एवं रीति-रिवाजों में सामाजिक समानता तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की स्थापना के लिए परिवर्तन का सुझाव दिया। वे भारत में प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं की स्थापना और नागरिक स्वतन्त्रता की मांग प्रस्तुत करते थे। राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए उदारवादियों ने संवैधानिक आन्दोलन का समर्थन किया। उनके द्वारा जो राजनीतिक आन्दोलन प्रारम्भ किया गया वह भारत की एकता, जातीय एवं साम्प्रदायिक समन्वय, आधुनिककरण, सामाजिक रूढ़ियों का विरोध एवं भेदभाव का निषेध, नवीन आर्थिक प्रगति तथा औद्योगिकरण का समर्थन करता था। उदारवादियों ने सेवाओं के भारतीयकरण, पाश्चात्य शिक्षा के विस्तार, व्यवस्थापिका सभाओं के चुने हुए सदस्यों की संख्या में वृद्धि, विधि का शासन, स्वतन्त्रता के अधिकारों का व्यापक प्रयोग आदि विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया।

दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, लालमोहन घोष, रासबिहारी, गोपालकृष्ण गोखले, श्रीनिवास शास्त्री, महादेव गोविंद रानाडे आदि नेता उदारवादी युग के प्रमुख स्तम्भ थे। कुछ उदारवादी अँग्रेज यथा- ए. ओ. ह्यूम, विलियम वेडरबर्न, जार्ज यूल, मेक्विन, स्मिथ आदि भी कांग्रेस के सदस्य थे। इन उदारवादी नेताओं ने 1885 से 1905 ई. तक कांग्रेस का नेतृत्व किया। उदारवादी नेताओं ने भारत के ब्रिटिश शासकों को प्रसन्न रखते हुए उनकी दयालुता एवं न्यायप्रियता की दुहाई देकर स्वशासन की ओर बढ़ने का प्रयत्न किया। जेल जाने का कष्ट उठाना इन नेताओं के वश की बात नहीं थी। वे अपनी सामजिक स्थिति, पद, व्यवसाय आदि को यथावत् बनाये रखते हुए भारत में स्वराज्य की स्थापना का स्वप्न देखते थे।

उदारवादी नेतृत्व की विशेषताएँ

(1.) भारत की एकता

उदारवादियों की मनोवृत्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू था- भारतीयों में एकता की भावना का बोध कराना। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था कि एकता के अभाव में भारत अपनी महानता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए हमें सर्वप्रथम पूरे भारत को स्नेह के बंधन में बांधना होगा। दादाभाई नौरोजी ने भी इस बात पर जोर दिया कि विभिन्न धर्मों को मानने वाली जनता में एकता तथा सहानुभूति होनी चाहिए। उदारवादी नेताओं के प्रचार से भारत के बुद्धिजीवी वर्ग में एकता की भावना का विकास हुआ तथा विभिन्न धर्मों एवं व्यवसायों में लगे लोग राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने लगे। यह उदारवादियों की बड़ी उपलब्धि थी।

(2.) ब्रिटिश शासन के प्रति भक्ति भावना

कांग्रेस के अधिकांश उदारवादी नेता ब्रिटिश शासन के समर्थक एवं प्रशसंक थे। वे असहयोग तथा क्रान्तिकारी विचारों के विरोधी थे। उदारवादियों को ब्रिटिश जनतन्त्रीय व्यवस्था में असीम आस्था थी। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन ने ही भारत को आधुनिक सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर किया, स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न की, राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया और देश की जनता को एकसूत्र में बांधने का काम किया। जस्टिस रानाडे का मानना था कि भारत में अँग्रेजी शासन भारतीयों को नागरिक एवं सार्वजनिक गतिविधियों का राजनैतिक शिक्षण देने की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हुआ था।

उनका कहना था- ‘हिन्दुओं एवं मुसलमानों में वैज्ञानिक क्रियाकलाप, नवीन शिक्षण तथा व्यसायिक दृष्टिकोण की कमी होने के कारण प्रगति शिथिल होती गयी। अँग्रेजों के आगमन ने यह स्थिति बदल दी। भारत को एक नवीन ज्योति दिखाई दी। आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ। अँग्रेजों के सम्पर्क में आने से हमें स्वतन्त्रता की महत्ता का आभास हुआ। सदियों की गुलामी एवं जड़ता को पाश्चात्य प्रभाव ने समाप्त कर दिया। भारतीय नवजागरण प्रारम्भ हुआ।’

दादाभाई नौरोजी की धारणा थी कि अँग्रेजों का शासन भारत के चहुँमुखी विकास के लिए दैविक वरदान का कार्य करेगा। उनका कहना था कि- ‘अँग्रेजों का उस समय तक भारत में बने रहना आवश्यक है जब तक कि भारतीयों को वे स्वावलम्बी बनाने सम्बन्धी अपना न्यासिता का उद्देश्य पूरा नहीं कर लेते।’

उदारवादियों ने भारतीयों की इंग्लैण्ड के प्रति वफादारी और उनकी देशभक्ति के बीच गहरा सम्बन्ध स्थापित करने में कभी असुविधा महसूस नहीं की।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था- ‘ईश्वर भविष्य में हमारी वफादारी को और गहरा करे, हमारी देशभक्ति को और प्रोत्साहित करे और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ हमारे सम्बन्धों को और अधिक दृढ़ करे।’

(3.) क्रमिक सुधारों के पक्ष में

उदारवादी नेता देश की शासन व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तनों के विरोधी थे। उनका मानना था कि भारत में सुधार कार्य एक साथ सम्भव नहीं है, इसलिए क्रमिक सुधार होने चाहिये। वे राजनीतिक एवं प्रशासकीय क्षेत्र में धीरे-धीरे सुधार लाना चाहते थे। वे सरकार में जनता की समुचित भागीदारी चाहते थे। आर. जी. प्रधान ने लिखा है- ‘कांग्रेस के प्रारम्भिक दिनों के प्रस्तावों से पता चलता है कि उनकी मांगें अत्यन्त साधारण थीं। कांग्रेस के नेता आदर्शवादी नहीं थे। वे हवाई किला नहीं बनाते थे। वे व्यवहारिक सुधारक थे तथा आजादी, क्रमशः कदम-कदम करके हासिल करना चाहते थे।’

फीरोजशाह जैसे नेता, अँग्रेजों के संरक्षण में भारत के राजनीतिक शिक्षण का मार्ग ढूँढ रहे थे और उनका विश्वास था कि किसी दिन अँग्रेज स्वयं ही, भारत की राष्ट्रीय मांगों को स्वीकार कर लेंगे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी ब्रिटेन के मार्गदर्शन में भारत की प्रगति का स्वप्न देखते थे। उनका उद्देश्य भारत में राजनीतिक सुधारों की मांग प्रस्तुत करना तथा अँग्रेजी शासन से प्रार्थना एवं याचिकाओं के माध्यम से नवीन सुधारों को लागू करवाना था। गोपालकृष्ण गोखले भारत के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं पुनर्जीवन के लिए क्रमिक विकास का सहारा लेना चाहते थे।

(4.) ब्रिटेन से स्थायी सम्बन्धों की स्थापना

उदारवादी नेता, पाश्चात्य सभ्यता एवं विचारों के पोषक थे। उनकी मान्यता थी कि भारतीयों के लिए, भारत का ब्रिटेन से सम्बन्ध होना एक वरदान है। ब्रिटेन से सम्बन्धों के कारण पाश्चात्य साहित्य, आधुनिक शिक्षा पद्धति, यातायात के साधन, न्याय प्रणाली, स्थानीय स्वशासन आदि व्यवस्थाएँ भारत के लिए अमूल्य वरदान सिद्ध हुई हैं। पाश्चात्य विचार एवं दर्शन, लोगों में स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के प्रति आदर उत्पन्न करता है। अतः भारत के हित में यही उचित होगा कि ब्रिटेन से उसका अटूट सम्बन्ध बना रहे। श्रीमती एनीबीसेन्ट का माना था- ‘इस काल के नेता स्वयं को ब्रिटिश प्रजा मानने में गौरव का अनुभव करते थे।’

गोपालकृष्ण गोखले का कहना था- ‘हमारा भाग्य अँग्रेजों के साथ जुड़ा हुआ है। चाहे वह अच्छे के लिए हो अथवा बुरे के लिए।’

इसी प्रकार दादाभाई नौरोजी का कहना था- ‘कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने वाली संस्था नहीं है, अपितु वह तो ब्रिटिश सरकार की नींव को दृढ़ करना चाहती है।’

उदारवादी नेता मानते थे कि अँग्रेजों की मुक्त व्यापार नीति भारतीय उद्योगों के हितों के विरुद्ध है और भारत की निर्धनता के लिए ब्रिटिश शासन उत्तरदायी है फिर भी वे भारत और ब्रिटेन के आर्थिक हितों को एक-दूसरे का विरोधी नहीं मानते थे। गोखले राष्ट्रीय शक्ति तथा स्वालम्बन के विकास के साथ-साथ शासकीय संरक्षण में भारत के नव-स्थापित उद्योगों को इतना विकसित हुआ देखना चाहते थे कि वे अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा में मात न खा जाये। उदारवादियों ने बंगाल-विभाजन के बाद प्रारम्भ हुए स्वदेशी आन्दोलन का केवल आर्थिक दृष्टि से समर्थन किया, न कि राजनैतिक शस्त्र के रूप में। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि स्वदेशी आन्दोलन का आधार देश-प्रेम था, न कि विदेशियों के प्रति घृणा। स्वदेशी का उद्देश्य आदर्श, विद्या, कला और उद्योगों को देश से बाहर निकालना नहीं है; अपितु वह उन्हें राष्ट्रीय पद्धति में समाविष्ट करने पर जोर देता है।

(5.) अँग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास

उदारवादियों का विश्वास था कि अँग्रेज, संसार के सर्वाधिक ईमानदार, शक्ति सम्पन्न और प्रजातन्त्रवादी लोग हैं। वे भारत में भी प्रजातान्त्रिक संस्थाओं का विकास करेंगे। यदि ब्रिटिश संसद और जनता को भारतीय समस्याओं से अवगत कराया जाए तो वे निश्चित रूप से सुधार के कदम उठायेंगे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था- ‘अँग्रेजों के न्याय, बुद्धि और दया भावना में हमारी दृढ़ आस्था है। संसार की इस महानतम प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन सभा के प्रति हमारे हृदय में असीम श्रद्धा है; अँग्रेज स्वेच्छा से भारत से चले जायेंगे।’

इस प्रकार, कांग्रेस के उदारवादी नेताओं का अँग्रेजों की न्यायप्रियता में असीम विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि अँग्रेज न्यायप्रिय एवं स्वतन्त्रता प्रेमी हैं। यदि उन्हें भारतीयों की योग्यता पर विश्वास हो जायेगा तो वे बिना किसी हिचकिचाहट के भारतीयों को स्वशासन का अधिकार प्रदान कर देंगे। बाद में उदारवादियों का भारत के ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता से विश्वास उठने लगा परन्तु ब्रिटिश राजनीतिज्ञों और ब्रिटिश जनता की न्यायप्रियता में उनका विश्वास बना रहा। इसलिये वे ब्रिटिश राजनीतिज्ञों तथा ब्रिटिश जनमत का समर्थन जीतने का प्रयास करते रहे।

(6.) ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन

कांग्रेस के उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन चाहते थे। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘स्वशासन एक प्राकृतिक देन है, ईश्वरीय शक्ति की कामना है। प्रत्येक राष्ट्र को स्वयं अपने भाग्य का निर्णय करने का अधिकार होना चाहिए, यही प्रकृति का नियम है।’

ब्रिटिश साम्राज्य से सम्बन्ध विच्छेद की तो वे स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते थे। इसलिए पूर्ण स्वतन्त्रता की बात उनके मस्तिष्क में नहीं थी। वे तो ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन प्राप्त करना चाहते थे। दादाभाई नौरोजी ने अपनी सुधारवादी वृत्ति के कारण समस्त प्रकार के सुधारों के लिए अँग्रेजी शासन का सहारा लेना उचित ठहराया। उन्होंने मांग रखी कि भारत को शीघ्र ही प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं से युक्त किया जाये। इस योजना के अन्तर्गत भारत सरलता से सुशासन की ओर बढ़ते हुए एक पूर्ण लोकतान्त्रिक राज्य बन सकता था। 1906 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में पहली बार भारतीयों को स्वराज्य शब्द का मन्त्र देते हुए कहा कि बदलते हुए समय के अनुसार अब भारतीय जनता केवल सुशासन तक ही सीमित नहीं रखी जा सकती, उसे स्वशासन की आवश्यकता है। इसी प्रकार फीरोजशाह मेहता ने कहा कि प्रतिनिधि संस्थाओं की मांग भारत के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ही की गई थी न कि किसी क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य में। भारतीयों द्वारा अपने अधिकारों का जो ज्ञान शिक्षा के माध्यम से अर्जित किया गया है, उसी सन्दर्भ में भारतीयों ने प्रतिनिधि संस्थाओं की मांग रखी है।

(7.) वैधानिक उपायों में विश्वास

चूँकि उदारवादी नेताओं को अँग्रेजों की न्यायप्रियता में अटूट विश्वास था, अतः वे क्रान्तिकारी उपायों को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने सरकार के साथ संघर्ष करने की बात कभी नहीं की। उनका पूर्ण विश्वास वैधानिक संघर्ष में था। वे अपने कार्यों से सरकार को असन्तुष्ट नहीं करना चाहते थे। हिंसात्मक एवं क्रान्तिकारी उपाय उनके मस्तिष्क में कभी नहीं आये। उन्होंने प्रार्थनाओं, प्रार्थना-पत्रों, याचिकाओं, स्मरण-पत्रों और प्रतिनिधि-मण्डलों द्वारा सरकार से अपनी न्यायोचित मांगों को मानने का आग्रह किया। अनेक विद्वानों का मानना है कि इस समय कांग्रेस की नीति प्रार्थना करने की थी, अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने की नहीं। इस रीति-नीति को कुछ लोगों ने राजनीतिक भिक्षावृत्ति कहा। अन्य विद्वानों का मत है कि उदारवादियों ने अँग्रेजी शासन का इसलिए विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें आंशका थी कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो अँग्रेज सरकार कांग्रेस को ही समाप्त कर देगी। संभवतः उनका ऐसा सोचना सही था। अभी कांग्रेस अपनी जड़ंे मजबूत नहीं कर पाई थी। इसलिए उन्होंने जनता की इच्छाओं तथा भावनाओं को अपने प्रस्तावों तथा अन्य वैधानिक उपायों द्वारा सरकार के सामने बड़े विनम्र रूप में प्रस्तुत किया।

उदारवादियों की मांगें

कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक बीस वर्षों में वार्षिक अधिवेशनों में विभिन्न प्रस्ताव पारित करके ब्रिटिश सरकार का ध्यान भारतीय जनता की समस्याओं की ओर आकर्षित किया तथा नागरिक प्रशासन में विभिन्न प्रकार के सुधार करने की मांग की। उनकी विभिन्न मांगंे इस प्रकार से थीं-

(1.) राजनीतिक मांगें

प्रारम्भिक राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा भारत की गोरी सरकार से भारतीयों के लिये अनेक राजनीतिक अधिकारों की मांगें की गईं-

1. प्रशासन व्यवस्था में भारतीयों की अधिक से अधिक भागीदारी हो।

2. विधायी परिषदों में सुधार हो।

3. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय कौंसिलों का विस्तार हो तथा उनमें सरकार द्वारा नामित सरकारी सदस्यों की संख्या में कमी करके निर्वाचित और गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जाये।

4. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण हो तथा मुकदमों की सुनवाई में जूरी प्रथा को मान्यता दी जाये।

5. वित्तीय व्यवस्था का पुनर्गठन करके करों का बोझ कम किया जाये।

6. अँग्रेजी साम्राज्य की सुरक्षा और विस्तार के व्यय में ब्रिटिश सरकार भी भागीदारी निभाये।

7. सरकार के सैनिक व्यय में कमी की जाये।

8. किसानों की स्थिति सुधारने के लिए भू-राजस्व की दर कम की जाये तथा यह 20 से 30 वर्षों के लिये स्थाई की जाये।

9. भारतीय जनता की दशा सुधारने के लिए उचित कदम उठाए जाएँ। प्राथमिक शिक्षा का विस्तार हो, औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा की सुविधा दी जाये, सफाई में सुधार के लिए अधिक अनुदान दिया जाए इत्यादि।

1886 ई. में हुए कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में केन्द्रीय और प्रान्तीय कौंसिलों के विस्तार और उनमें निर्वाचित प्रतिनिधियों की मांग उठी। यह मांग हर अधिवेशन में अधिक मजबूती के साथ दोहराई जाती रही। तीसरे अधिवेशन के प्रस्तावों में कहा गया कि कौंसिल में आधे प्रतिनिधि निर्वाचित पद्धति से आएं। यह निर्वाचन सीधा न होकर परोक्ष विधि से हो। अर्थात् नगरपालिका, विश्वविद्यालय, व्यापार मण्डल, स्थानीय मण्डल और स्थानीय कौंसिल में निर्वाचन किया जाये और स्थानीय कौंसिल के माध्यम से केन्द्रीय कौंसिल में किया जाये। चौथे अधिवेशन में इस बात पर सर्वाधिक जोर डाला गया कि विधान परिषदों को इतना बढ़ाया जाए कि उनमें देश के हितों का प्रतिनिधित्व हो जाए। 1889 ई. के पांचवें अधिवेशन में 21 वर्ष के प्रत्येक भारतीय को मताधिकार देने की बात उठाई गई।

(2.) नागरिक अधिकारों की मांगें

उदारवादी नेता नागरिकों के लिये भाषण और प्रेस की स्वतन्त्रता का अधिकार, संगठन बनाने की स्वतन्त्रता का अधिकार जैसे नागरिक अधिकारों की मांग उठाते थे। जब कभी सरकार इन अधिकारों को सीमित करने का प्रयास करती थी, तब उदारवादी नेता इन अधिकारों के समर्थन में दलीलें देते थे। 1878 ई. में पारित प्रेस अधिनियम का उदारवादियों ने तब तक विरोध किया जब तक कि सरकार ने इस अधिनियम को निरस्त नहीं कर दिया। इसी प्रकार, 1880-90 ई. में जब सरकार ने समाचार पत्रों के आलोचना करने के अधिकार को समाप्त करने का प्रयास किया, तब उदारवादियों ने सरकारी प्रयासों का विरोध किया।

फीरोजशाह मेहता प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने टाइम्स ऑफ इण्डिया के नाम पत्र में लिखा- ‘यदि वर्नाक्यूलर प्रेस का कार्य शासन को अनुत्तरदायी दिखाई देता है तो यह अनुत्तरदायित्व सरकार के नियमन एवं पंजीकरण द्वारा भी बना रह सकता है। प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन भारत में नवपल्ल्वित स्वतन्त्रता के विकास को अवरुद्ध कर देगा। इससे शासन को संचार के एक महत्त्वपूर्ण साधन से वंचित रहना पड़ेगा और उसे जन प्रतिक्रिया की सही जानकारी नहीं प्राप्त हो सकेगी। यदि प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन किसी व्याप्त विरोध को दबाने में प्रयुक्त किया जाता है तो वह उचित नीति नहीं होगी।’

उन्होंने भारत सरकार को चेताया कि वह ऐसी किसी भी नीति का अनुसरण नहीं करे।

(3.) सांविधानिक सुधार और स्वशासी सरकार की मांग

उदारवादी नेता एक स्वशासी सरकार की स्थापना चाहते थे परन्तु इस दिशा में उन्होंने जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाया। प्रारम्भ में उन्होंने विधान परिषदों के विस्तार और विभिन्न सुधारों के माध्यम से भारतीय जनता को सरकार में अधिक हिस्सा देने की मांग की। इसके बाद उन्होंने विधान परिषदों के अधिकारों में वृद्धि की मांग की ताकि बजट पर बहस की जा सके और प्रशासन के कार्यों की समीक्षा करने का अवसर मिल सके। 1905 ई. तक इस विषय में प्रस्ताव पारित किये जाते रहे।

(4.) नागरिक सेवाओं के भारतीयकरण की मांग

उदारवादियों का मानना था कि विभिन्न प्रशासकीय एवं वित्तीय बुराइयों को तब तक दूर नहीं किया जा सकता जब तक कि अधिक-से अधिक भारतीयों को सिविल सेवाओं में भरती नहीं किया जायेगा। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उमेशचन्द्र बनर्जी ने कहा- ‘मैं समझता हूँ कि यूरोप की तरह की शासन पद्धति की आकांक्षा रखना, कदापि राजद्रोह नहीं है। हमारी आकांक्षा केवल इतनी है कि शासन का आधार अधिक व्यापक हो और उसमें देशवासियों को समुचित तथा न्यायपूर्ण भाग मिले।’

1890 ई. के अधिवेशन में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया कि देश के 95 प्रतिशत उत्तरदायित्व पूर्ण उच्च पदों पर यूरोपियनों का अधिकार है किंतु वे भारत के हित में नहीं सोचते हैं। उनका सारा चिंतन इस बात में निहित है कि ब्रिटिश शासन की नींव को और गहरा किया जाये। अतः उदारवादियों ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स के 2 जून 1893 के उस प्रस्ताव को लागू करने की मांग की जिसके द्वारा भारत और इंग्लैण्ड में सिविल सेवाओं के लिए प्रतियोगी परीक्षा का आयेाजन साथ-साथ किये जाने की व्यवस्था की गई थी। उन्होंने भारतीय सेवाओं के पुनर्गठन की मांग भी की। उन्होंने यह भी मांग की कि न्यायिक कार्य केवल उन्हीं व्यक्तियों को दिया जाये जो कानून के विशेषज्ञ हों।

(5.) भारत से धन निष्कासन रोकने की मांग

दादाभाई नौरोजी भारत में व्याप्त निर्धनता के लिए आवाज उठाने वाले प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने दो पुस्तकें- (1.) पावर्टी इन इण्डिया तथा (2.) पावर्टी ऐन अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया लिखीं। उन्होंने भारत की निर्धनता के लिए अन्य विचारकों एवं आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों को, जिनमें भारत की निर्धनता के लिए भारत की बढ़ती हुई आबादी को दोषी ठहराया था, अमान्य सिद्ध किया। भारत की निर्धनता के लिए उन्होंने भारत की बढ़ती आबादी के स्थान पर अँग्रेजों की क्रूर आर्थिक शोषण की नीति को उत्तरदायी ठहराया। धन निर्गम सिद्धान्त में उन्होंने लिखा कि विशेष रूप से चार मदों में इस देश की विपुल धन राशि ब्रिटिश हुकूमत की नहर प्रणाली से इंग्लिश चैनल तक पहुंच रही है- (1.) ब्रिटिश अधिकारियों की पेंशन,

(2.) भारत में सेना के व्यय के लिये ब्रिटेन के युद्ध विभाग को भुगतान (3.) भारत सरकार का ब्रिटेन में व्यय और (4.) भारत स्थित ब्रिटिश व्यावसायिक वर्ग द्वारा स्वदेश भेजी गई अपनी कमाई।  भारत से जो पूँजी इंग्लैण्ड जाती थी उसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता था। भारत से इंग्लैण्ड भेजा गया धन सार्वजनिक ऋण के रूप में पुनः भारत आता था जिसे चुकाने के लिए ब्याज देना पड़ता था। उदारवादियों ने मांग की कि देश का उत्पादन देश में ही रहे तथा भारत से धन-निष्कासन रोका जाये।

(6.) भारतीय उद्योगों को संरक्षण की मांग

उदारवादियों का मानना था कि भारत के तीव्र औद्योगीकरण में कई बाधाएँ हैं। जैसे- 1. स्वदेशी उद्योगों का ह्रास, 2. पूंजी की कमी, 3. तकनीकी शिक्षा का अभाव, 4. भारतीयों में उद्यम भावना की कमी और 5. मुक्त व्यापार की नीति। उदारवादी नेताओं ने इन बाधाओं को दूर करने तथा भारतीय उद्योगों को सरकारी प्रोत्साहन एवं सरंक्षण देने की मांग की। क्योंकि सरकारी सहायता के बिना भारत का औद्योगिक विकास सम्भव नहीं था और बिना औद्योगिक विकास के आर्थिक समृद्धि की कल्पना करना निरर्थक था।

जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे का कहना था- ‘भारत की गिरती हुई आर्थिक स्थिति का वास्तविक कारण भारत के घरेलू उद्योग-धन्धों का ह्रास तथा भारत की कृषि पर अत्यधिक निर्भरता है।’

नवीन उद्योगों की स्थापना तथा औद्योगिक उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करके भारत की निर्धनता को दूर किया जा सकता था। रानाडे का यह भी मानना था कि अँग्रेजी शासन की विरोधी नीति इसके मार्ग में बाधक सिद्ध हो रही है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था कि जब तक भारत के उद्योगों का उचित संरक्षण एवं संवर्धन नहीं होगा तब तक भारत आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं हो पायेगा। उन्होंने बम्बई के कपड़ा उद्योग, बंगाल के जूट उद्योग, आसाम के चाय उद्योग तथा मध्य प्रदेश एवं दक्षिण भारत के कोयला एवं लोहा उद्योगों को बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया। वे फैक्ट्री नियमों को उत्पादन घटाने तथा उत्पादन मूल्य बढ़ाने वाले मानते थे। बनर्जी ने लंकाशायर के सूती कपड़ा उद्योगपतियों को भारत के सूती कपड़ा उद्योग को शिथिल करने का दोषी बताया।

(7.) श्रमिकों की दशा सुधारने की मांग

उदारवादी नेताओं ने श्रमिकों की स्थिति सुधारने की मांग की परन्तु इस विषय में अधिक उत्साह नहीं दिखाया। रानाडे, दादाभाई नौरोजी, जी. वी. जोशी, आर. सी. दत्त जैसे नेताओं ने भी श्रमिकों के प्रति कोई विशेष सहानुभूति प्रकट नहीं की। कांग्रेस के अधिवेशनों में भी श्रमिकों से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित नहीं किये गये जबकि इस युग में भारतीय श्रमिकों की दशा शोचनीय थी। आगे चलकर लाला लाजपतराय ने इस विषय को पूरी शक्ति के साथ उठाया।

(8.) कृषि एवं कृषकों की दशा सुधारने की मांग

ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत कृषि एवं कृषक दोनों की दशा खराब होती जा रही थी। उदारवादी नेताओं का मानना था कि कठोरतापूर्वक किया गया कर निर्धारण और कर की ऊँची दर के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है। उन्होंने सरकार से भूमि कर में कमी करने तथा किसानों की स्थिति सुधारने के लिए पुराने ऋण माफ करने की मांग की। उन्होंने जमींदारों के अधिकारों में कमी करने तथा किसानों को स्वतंत्र बनाने का सुझाव दिया ताकि किसान अपनी जमीन पर जी-तोड़ परिश्रम करके उत्पादन को बढ़ा सके। कांग्रेस के चौथे अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित करके कहा गया- ‘जमीन बन्दोबस्त के बदलते रहने से आम जनता परेशान और क्षुब्ध है। अतः प्रान्तीय कांग्रेस समितियाँ इस समस्या का अध्ययन करें और सुझावों सहित अपनी रिपोर्ट आगामी अधिवेशन में प्रस्तुत करें।’ इस प्रकार कांग्रेस के मंच से कृषि एवं कृषकों से सम्बन्धित समस्याएँ उठाई जाने लगीं।

(9.) अन्य माँगें

उदारवादी नेताओं ने नागरिक जीवन से सम्बन्धित अन्य समस्याओं पर भी प्रस्ताव पारित किये। इन प्रस्तावों में सिंचाई की उचित व्यवस्था, कृषि-बैकों की स्थापना, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन, भारत में सैनिक कॉलेज की स्थापना, प्रिवी कौंसिल में भारतीयों को प्रतिनिधित्व, पुलिस व्यवस्था में सुधार, विदेशों में रहने वाले भारतीयों की रक्षा आदि विषय सम्मिलित थे। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि लोगों ने शिक्षित बेरोजगारों की समस्या को उठाया। उनका कहना था कि भारत की निर्धनता; रोजगार के नये तरीकों के प्रयोग तथा अधिक रोजगार प्रदान करने से दूर हो सकती थी। बनर्जी ने कहा था- ‘हमारी मांगों का प्रमुख लक्ष्य भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना करवाना कहा जा सकता है।

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