Friday, October 31, 2025
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खानवा की लड़ाई

खानवा की लड़ाई समरकंद से आए मुगल आक्रांता जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर तथा राजपूताना के लगभग समस्त हिन्दू राजाओं के बीच लड़ी गई। हिन्दुओं की ओर से खानवा की लड़ाई का नेतृत्व महाराणा सांगा द्वारा किया गया।

पानीपत का प्रथम युद्ध बाबर के लिये भारत में पैर टिकाने के लिये पर्याप्त था किंतु साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार के लिये बाबर को कई लड़ाइयाँ ल़ड़नी पड़ीं जिनमें खानवा की लड़ाई प्रमुख थी। वह कभी भी भारत में शांति से शासन नहीं कर सका। बाबर का पूरा जीवन युद्धों की एक लम्बी शृंखला है। इन्हीं युद्धों को लड़ते हुए उसकी मृत्यु हुई।

बाबर पानीपत का प्रथम युद्ध जीत चुका था तथा अब खनवा की लड़ाई उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। यह युद्ध भी पानीपत के प्रथम युद्ध की भांति बाबर के जीवन के निर्णायक युद्धों में से एक है। खनवा युद्ध का प्रमुख कारण बाबर द्वारा भारत में ही रहने का निर्णय लेना था। इस कारण सांगा उसे भारत से बाहर निकालने के लिये उद्धत हो उठा।

बाबर का बयाना के दुर्ग पर अधिकार

बयाना मेवाड़ की सीमा पर स्थित था। इसे राजपूताने का फाटक कहा जाता था। इन दिनों बयाना पर आलम खाँ के छोटे भाई निजाम खाँ का अधिकार था। बयाना दुर्ग का सामरिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व था। बयाना पर अधिकार कर लेने पर बाबर को अपने साम्राज्य की रक्षा करने में भी सुविधा होती और इसे आधार बनाकर वह राजपूताने में प्रवेश भी कर सकता था।

इसलिये बाबर ने तार्दी बेग को बयाना पर आक्रमण करने के लिए भेजा परन्तु निजाम खाँ ने उसे मार भगाया। विवश होकर बाबर ने निजाम खाँ के साथ मैत्री करने का प्रयत्न किया। अंत में निजाम खाँ ने इस्लाम की रक्षा तथा काफिर राणा सांगा के विनाश के लिये बाबर से मैत्री कर ली।

बाबर का धौलपुर तथा ग्वालियर के दुर्गों पर अधिकार

बयाना में घट रही घटनाओं ने राणा की चिंताएं बढ़ा दीं। इसलिये वह भी अपनी सेनाओं के साथ आगे बढ़ा और रणथंभौर से थोड़ी दूरी पर स्थित कन्दर दुर्ग पर अधिकार करके बैठ गया। बाबर ने राणा की गतिविधियों को देखकर अनुमान लगा लिया कि राणा से अकेले पार पाना असंभव है।

इसलिये उसने अफगान सरदारों को अपनी ओर मिलाने के लिये नया पासा फैंका। बाबर ने अपने युद्ध को ‘जेहाद’ या धर्मयुद्ध के नाम से पुकारा और अफगान सरदारों से अनुरोध किया कि वे इस्लाम की रक्षा के लिये अपनी जागीर छोड़कर सुरक्षित प्रान्तों में चले जायें जहाँ उन्हें उतनी ही बड़ी जागीर मिल जाएगी।

प्रायः समस्त अफगान सरदारों ने बाबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार ग्वालियर, बयाना, धौलपुर तथा अन्य दुर्ग बाबर के अधिकार में आ गये जिनमें उसने मुगल सेनाएँ रख दीं।

राणा सांगा द्वारा बयाना पर अधिकार

अफगान सरदार हसन खाँ मेवाती ने बाबर के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसने इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी को इब्राहीम लोदी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और उसे दिल्ली के तख्त पर बैठाने के लिए राणा सांगा से सहायता मांगी। राणा सांगा ने हसन खाँ मेवाती का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अब हसन खाँ मेवाती तथा राणा सांगा की संयुक्त सेनाएँ आगे बढ़ीं और उन्होंने बयाना पर अधिकार कर लिया।

सीकरी की पराजय

11 फरवरी 1527 को बाबर ने आगरा से प्रस्थान किया। उसने सीकरी के निकट स्थित बड़ी झील के किनारे अपना खेमा लगाया और युद्ध की तैयारी करने लगा। राणा भी अपनी सेना लेकर सीकरी के पास आ गया। सांगा की सेना ने बाबर की सेना के एक अंग पर धावा बोलकर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया।

इससे बाबर के सैनिकों में निराशा फैल गई और उनका उत्साह भ¦ होने लगा। इसी समय कुछ अफगान सरदारों ने उपद्रव किया और वे बाबर का साथ छोड़कर चले गये। इससे बाबर की चिन्ता और बढ़ गई। उसने फिर से अपने सैनिकों की सभा बुलाई और उनके सामने पहले की ही तरह ओजपूर्ण भाषण देकर उनसे यह शपथ करवा ली कि मरते दम तक लड़ेंगे।

बाबर ने सैनिकों के समक्ष, शराब नहीं पीने की शपथ ली तथा शराब पीने के सोने-चांदी के बर्तन तोड़कर गरीबों तथा फकीरों में बंटवा दिये। इससे बाबर के सैनिकों का उत्साह बढ़ गया और वे फिर से शत्रु का सामना करने के लिए कटिबद्ध हो गये।

खानवा की लड़ाई

युद्ध का आरम्भ

सीकरी से दस मील की दूरी पर कनवाह अथवा खानवा की लड़ाई नामक स्थान है। इस स्थान पर 27 मार्च 1527 ई. को प्रातः साढ़े नौ बजे बाबर तथा राणा सांगा की सेनाओं में भीषण संघर्ष आरम्भ हुआ। बाबर ने खानवा की लड़ाई के युद्ध में उसी प्रकार की व्यूह रचना की जिस प्रकार की व्यूह रचना उसने पानीपत के मैदान में की थी।

उसने अपनी सेना के सामने गाड़ियों की कतार लगवाकर उन्हें लोहे की जंजीरों से बँधवा दिया। इन गाड़ियों की आड़ में उसने तोपें तथा बंदूक चलाने वालों को रखा जो शत्रु सैन्य पर गोलों तथा जलते हुए बारूद की वर्षा करते थे। उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त किया- दाहिना पक्ष, बांया पक्ष तथा मध्यभाग।

दाहिने पक्ष का संचालन हुमायूँ, बायें का मेंहदी ख्वाजा और मध्य भाग का संचालन स्वयं बाबर के नेतृत्व में रखा गया। तोपों तथा बन्दूकों के संचालन का कार्य उस्ताद अली को सौंपा गया। सेना के दोनों सिरों पर बाबर ने तुलगम सैनिक रखे जिनका कार्य युद्ध के जम जाने पर दोनों ओर से घूम कर, शत्रु सैन्य पर पीछे से आक्रमण करना था।

राणा सांगा की पराजय

खानवा की लड़ाई का आरम्भ राजपूतों ने किया। उन्होंने बाबर की सेना के दाहिने पक्ष पर धावा बोलकर उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। यह देखकर बाबर ने राजपूतों के बायें पक्ष पर अपने चुने हुए सैनिकों को लगा दिया। इससे युद्ध ने विकराल रूप ले लिया। थोड़ी ही देर में राजपूतों की सेना में घुसने के लिये वामपक्ष तथा मध्यभाग का मार्ग खुल गया।

मुस्तफा रूमी ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अपने तोपखाने को आगे बढ़ाया और राजपूत सेना पर गोलों तथा जलते हुए बारूद की वर्षा आरम्भ कर दी। मुगलों के बायें पक्ष पर भी भयानक युद्ध हो रहा था। इसी समय तुलगम सेना ने राजपूतों पर पीछे से आक्रमण किया।

राजपूत सेना चारों ओर से घेर ली गई। राजपूतों के लिये तोपों की मार के समक्ष ठहरना असम्भव हो गया। वे तेजी से घटने लगे। राणा सांगा युद्ध में बुरी तरह घायल हो गया। राजपूत सेनापति राणा को रणक्षेत्र से निकाल कर ले गये। सांगा की सेना बुरी तरह परास्त हो गई।

राणा सांगा का निधन

राणा सांगा खानवा की लड़ाई के आरंभिक भाग में ही किसी हथियार की चपेट में आ जाने से बेहोश हो गया था। इसलिये उसके सरदार उसे रणक्षेत्र से निकालकर सुरक्षित स्थान पर ले गये। होश में आने पर सांगा को अपने सरदारों का यह कार्य उचित नहीं लगा।

उसने फिर से युद्ध क्षेत्र में जाने की इच्छा प्रकट की इससे रुष्ट होकर कुछ सरदारों ने सांगा को जहर दे दिया जिससे कालपी में सांगा की मृत्यु हो गई। राणा का शव भरतपुर के निकट बसवा ले जाया गया और वहीं पर उसका अंतिम संस्कार किया गया।

खानवा की लड़ाई में राजपूतों की पराजय के कारण

(1.) बाबर की तुलगम रणनीति

खानवा की लड़ाई के मैदान में राजपूतों की पराजय का सबसे बड़ा कारण बाबर द्वारा अपनाई गई तुलगम रणनीति थी। उसने तुलगम सैनिकों के माध्यम से राजपूतों की सेना को चारों ओर से घेर लिया तथा राजपूत सेना के मध्य में घुसने का भी मार्ग बना लिया। इससे राजपूत सैनिक, आग बरसाती तोपों की मार के सामने ही रहे। उन्हें पीछे हटने का अवसर ही नहीं मिला। तुलगम सेना रक्षा के दृष्टिकोण से निर्बल होती है परन्तु तीव्र आक्रमण के लिये बड़ी उपयोगी होती है। जब बाबर की तुलगम सेना ने राजपूतों को पीछे से घेर लिया तब राजपूतों का भीषण संहार आरम्भ हो गया और वे परास्त हो गए।

(2.) तोपखाने का प्रयोग

बाबर की विजय का दूसरा कारण बाबर द्वारा प्रयुक्त तोपखाना था। राजपूत सैनिक तोपों के सामने लड़ने के अभ्यस्त नहीं थे। तोपों के सामने राजपूतों की प्रत्येक रणनीति एवं वीरता विफल हो गई। उनका अब तक का युद्ध अनुभव भी काम नहीं आया।

(3.) राणा सांगा की सेना की विशालता

बाबर की सेना से युद्ध करते समय जो गलती इब्राहीम लोदी ने की, लगभग वही गलती राणा सांगा ने भी की। वह बाबर की छोटी सेना से लड़ने के लिये विशाल सेना लेकर आ गया। बाबर की छोटी सेना बड़ी ही सुव्यस्थित थी। इससे उसका संचालन सुचारू रीति से हो सकता था। इसके विपरीत राणा सांगा की सेना अत्यन्त विशाल थी जिसका त्वरित संचालन करना अत्यंत कठिन था। जब सांगा की बड़ी सेना आगे से तोपखाने और पीछे से तुलगम सैनिकों के बीच में फंस गई तब वह चाह कर भी युद्ध क्षेत्र से नहीं हट सकी।

(4.) राणा सांगा की रणनीतिक भूल

राणा सांगा ने एक बहुत बड़ी रणनीतिक भूल यह की कि बयाना पर अधिकार कर लेने के उपरान्त उसने तुरन्त बाबर पर आक्रमण नहीं किया। इससे बाबर को सेना की व्यूहरचना के लिए काफी समय मिल गया। यदि राणा ने तुरन्त आक्रमण कर दिया होता तो बाबर को संभलने का अवसर ही नहीं मिलता। न वह अपना तोपखाना सजा पाता और न तुलगम सैनिकों को यथा स्थान नियुक्त कर पाता। ऐसी स्थिति में युद्ध का परिणाम कुछ और ही हो सकता था।

(5.) राणा सांगा का बेहोश हो जाना

खानवा की लड़ाई में बाबर की विजय का बहुत बड़ा कारण युद्ध की प्रारम्भिक अवस्था में ही राणा सांगा का घायल होकर बेहोश हो जाना तथा रण-क्षेत्र से हटा लिया जाना था। सेना के मनोबल को बनाए रखने के लिए झाला नामक सरदार को राणा के वस्त्र पहनाकर उसे हाथी पर बिठा कर युद्ध का संचालन होता रहा। ऐसी स्थिति में राजपूत लोग राणा की योग्यता, उसके रण-कौशल, उसके अनुभव तथा उसके नेतृत्व से वंचित रहे।

खानवा की लड़ाई के परिणाम

भारतीय इतिहास पर खनवा के युद्ध के दूरगामी प्रभाव हुए। इससे भारत के भविष्य का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया।

(1.) राणा सांगा के प्रभाव को क्षति

इस युद्ध से पहले राणा सांगा लगातार मालवा, दिल्ली तथा गुजरात के राज्यों को परास्त करता हुआ अपना प्रभाव बढ़ा रहा था। उसने सीकरी के पास बाबर की सेना को भी मार कर भगा दिया था। इस कारण सांगा का प्रभाव बहुत बढ़-चढ़ गया था किंतु खनवा के युद्ध में मिली पराजय से राणा सांगा के प्रभाव को बड़ी क्षति पहुँची। वह युद्ध क्षेत्र में घायल हो गया। उसके असंतुष्ट सरदारों ने उसे विष देकर उसका अंत कर दिया।

(2.) राजपूतों के संघ का बिखराव

खनवा युद्ध में मिली पराजय के बाद राजपूतों का संघ बिखर गया। सांगा की पराजय के बाद राजपूतों का नेतृत्व करने वाला कोई प्रभावशाही हिन्दू नरेश नहीं रहा। इस कारण हिन्दुओं के प्रभाव को बड़ा धक्का लगा और पास-पड़ौस के मुसलमान राज्यों में राजपूतों का भय समाप्त हो गया।

(3.) हिन्दुओं की आशा पर तुषारापात

लोदी सल्तनत के कमजोर पड़ जाने पर हिन्दू शासक उत्तरी भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने का जो स्वप्न देख रहे थे वह स्वप्न बिखर गया।

(4.) राजपूताना असुरक्षित

खनवा युद्ध की पराजय के बाद राजपूताना एक बार फिर असुरक्षित हो गया और उस पर पास-पड़ोस के राज्यों के आक्रमण आरम्भ हो गये। राजपूताना की स्वतन्त्रता फिर से खतरे में पड़ गई।

(5.) मुगल साम्राज्य की स्थापना की राह आसान

खनवा युद्ध ने मुगल साम्राज्य की स्थापना का मार्ग खोल दिया। अब बाबर की रुचि अफगानिस्तान से समाप्त होकर पूरी तरह भारत में हो गई। इस युद्ध के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की। गाज का अर्थ होता है बिजली तथा गाजी का अर्थ होता है वह योद्धा जो काफिरों पर बिजली बन कर गिरे।

`मेवात पर अधिकार

बाबर खनवा विजय के उपरान्त बयाना चला गया। यहाँ से वह राजपूताना के भीतर घुसना चाहता था परन्तु भीषण गर्मी के कारण वह मेवात (अलवर) से आगे नहीं बढ़ सका। बाबर ने थोड़े से ही प्रयास से मेवात पर अधिकार कर लिया। मेवात से बाबर सम्भल गया और वहाँ से चन्देरी पर आक्रमण करने की योजनाएँ बनाने लगा।

चन्देरी पर विजय

चन्देरी दुर्ग पर इन दिनों राणा सांगा के दुर्गपति मेदिनी राय का अधिकार था। चन्देरी उन दिनों सम्पन्न नगर था। चन्देरी के सामने 230 फुट ऊँची चट्टान पर चन्देरी का दुर्ग था। यह दुर्ग मालवा तथा बुन्देलखण्ड की सीमाओं पर स्थित था और मालवा से राजपूताना जाने वाली सड़क पर बना हुआ था।

इस कारण चंदेरी व्यापारिक तथा सामरिक दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। राणा की पराजय के बाद भी मेदिनी राय ने बाबर के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया। 29 जनवरी 1528 को बाबर अपनी सेना के साथ चन्देरी पहुँचा। बाबर ने अपने सैनिकों को युद्ध के लिये प्रेरित करने हेतु इस युद्ध को भी ‘जेहाद’ का स्वरूप दिया।

दूसरे दिन बाबर ने चन्देरी के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। राजपूतों ने अपनी पराजय निश्चित जानकर अपनी स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया तथा मरते दम तक मुगलों का सामना करते हुए रणखेत रहे।  भीषण युद्ध के उपरान्त बाबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में भी राजपूतों का भीषण संहार हुआ।

अहमदशाह को चन्देरी का शासक नियुक्त किया गया। मेदिनी राय की दो कन्याएँ इस युद्ध में पकड़ी गईं। जिनमें से एक कामरान को और दूसरी हुमायूँ को दे दी गई। चंदेरी विजय बाबर की बड़ी विजयों मे से एक मानी जाती है। यहाँ से भी बाबर को विपुल धन राशि प्राप्त हुई।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य आलेख – मुगलों का राज्य विस्तार

बाबर का भारत आगमन

पानीपत का प्रथम युद्ध

खानवा की लड़ाई

घाघरा का युद्ध

बाबर का चरित्र तथा उसके कार्यों का मूल्यांकन

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