Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 20 : गुप्त साम्राज्य का पतन

उत्तरकालीन गुप्त सम्राट

स्कन्दगुप्त के बाद उसका विमात-पुत्र पुरुगुप्त वृद्धावस्था में सिंहासन पर बैठा। पुरुगुप्त ने 467 ई. से 473 ई. तक शासन किया। उसने धनुर्धर प्रकार की स्वर्ण मुद्रायें चलाईं। डॉ. रायचौधरी ने भरसार से पाये गये सिक्कों पर अंकित प्रकाशादित्य को पुरुगुप्त अथवा उसके किसी तात्कालिक उत्तराधिकारी की गौण उपाधि माना है। पुरुगुप्त साम्राज्य को विश्ृंखलित होने से नहीं बचा सका। उसका चाचा गोविन्दगुप्त, जो मालवा में शासन करता था, स्वतंत्र हो गया। उसका अनुसरण करके अन्य प्रान्तपति भी स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगे। उसके बाद कई शक्तिहीन राजा हुए जो गुप्त-साम्राज्य को नष्ट होने से नहीं बचा सके। गुप्त सम्राटों में अंतिम सम्राट कुमारगुप्त (तृतीय) तथा विष्णुगुप्त हुए। इनकी अंतिम तिथि 570 ई. के लगभग मिलती है। इसके बाद गुप्तवंश के किसी राजा का उल्लेख नहीं मिलता है।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण

गुप्त सम्राटों ने 275 ई. से 550 ई. तक पूरी शक्ति एवं ऊर्जा से शासन किया। उसके बाद उनकी अवनति आरंभ हो गई तथा 570 ई. के लगभग उनका राज्य पूरी तरह नष्ट हो गया। गुप्तों के पतन के कई कारण थे जिनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-

(1) अयोग्य उत्तराधिकारी: गुप्त साम्राज्य के पतन का सर्वप्रथम कारण यह था कि स्कन्दगुप्त की मृत्यु के उपरान्त पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त (द्वितीय), भानुगुप्त आदि गुप्त-सम्राट् अयोग्य तथा शक्तिहीन थे। उनमें विशाल गुप्त-साम्राज्य को सुरक्षित रखने की क्षमता नहीं थी। केन्द्रीभूत शासन की सुरक्षा तथा सुदृढ़़ता सम्राट् की योग्यता पर ही निर्भर रहती है। इसलिये अयोग्य शासकों के शासन-काल में साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना स्वाभाविक था।

(2) हूणों के आक्रमण: गुप्त-साम्राज्य के पतन का दूसरा कारण हूणों का आक्रमण था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने सफलतापूर्वक इन आक्रमणों का सामना किया परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए। उत्तरकालीन निर्बल गुप्त-सम्राटों के शासन-काल में ये आक्रमण और अधिक बढ़ गये।

(3) निश्चित सीमा नीति का अभाव: परवर्ती गुप्त-सम्राटों ने विदेशी आक्रमणों को रोकने के लिए किसी निश्चत सीमा नीति का अनुसरण नहीं किया। न ही सीमाओं पर नियुक्त सेनाओं के सुदृढ़़ीकरण पर ध्यान दिया। इसलिये वे हूणों के लगातार हो रहे आक्रमणों को लम्बे समय तक रोक नहीं सके।

(4) प्रान्तपतियों की महत्त्वाकांक्षाएँ: गुप्त-साम्राज्य के पतन का तीसरा कारण प्रान्तपतियों की महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। स्कन्दगुप्त के बाद जब अयोग्य शासक सिंहासन पर बैठे तब प्रान्तपतियों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करना आरम्भ कर दिया। सबसे पहले बल्लभी के मैत्रकों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया। इसके बाद सौराष्ट्र, मालवा, बंगाल आदि के शासकों ने भी स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया जिससे गुप्त-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

(5) आर्थिक विपन्नता: गुप्त-साम्राज्य के पतन का चौथा करण आर्थिक विपन्नता थी। यह विपन्नता स्कन्दगुप्त के शासन-काल में ही आरम्भ हो गई थी। ब्राह्य-आक्रमणों को रोकने में परवर्ती गुप्त-सम्राटों को विपुल धन व्यय करना पड़ा। जिससे राज-कोष धीरे-धीरे रिक्त हो गया और शासन का सुचारू रीति से संचालित करना असम्भव हो गया। फलतः सर्वत्र कुव्यवस्था फैल गई और गुप्त-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

(6) बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाना: गुप्त-साम्राज्य के पतन का पांचवां तथा अन्तिम कारण यह था कि गुप्त वंश के परवर्ती शासकों ने ब्राह्मण धर्म त्याग कर बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया। बौद्ध-धर्म अंहिसा-धर्म है इसलिये वह सैन्य-शक्ति को बल नहीं प्रदान करता। इसका परिणाम यह हुआ कि गुप्त-साम्राज्य की सैन्य-शक्ति दिन पर दिन क्षीण होती गई और साम्राज्य हूणों की सैन्य शक्ति का शिकार बनकर नष्ट हो गया।

(7) यशोवर्मन का उत्कर्ष: कुमारगुप्त (तृतीय) के शासनकाल में मंदसौर के क्षेत्रीय शासक यशोवर्मन ने अपनी शक्ति बढ़ाई। उसने हूणों को परास्त किया तथा मगध तक धावा बोला। गुप्त साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यशोवर्मन का पूर्वी भारत का सैनिक अभियान ही था।

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