गोविंद गुप्त बालादित्य (412-415 ई.)
बसाढ़ (वैशाली) से ध्रुवस्वामिनी की एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर एक लेख इस प्रकार उत्कीर्ण है- महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त-पत्नी महाराज गोविन्दगुप्त माता महादेवी श्री धु्रवस्वामिनी। इस मुहर से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
1. किसी रानी की मुहर में उसके शासक पति और उसके युवराज पुत्र के नाम की ही अपेक्षा की जा सकती है। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय चंद्रगुप्त (द्वितीय) जीवित था। अन्यथा धु्रवस्वामिनी ने स्वयं को राजमाता कहा होता।
3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय तक कुमार गुप्त को चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया गया था।
3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गोविंदगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का ज्येष्ठ पुत्र था तथा युवराज होने के कारण इस मुहर पर उसका नाम आया है।
मालव अभिलेख कहता है कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की मृत्यु के बाद गोविंद गुप्त राजा हुआ। अतः अनुमान होता है कि गोविंदगुप्त अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ किंतु उसका शासन अत्यंत अल्पकाल का रहा। अनुमान है कि इस शासन की अधिकतम अवधि दो वर्ष रही। उसने 412 ई. से 415 ई. के बीच की अवधि में शासन किया। संभवतः इसकी उपाधि बालादित्य थी।
कुमार गुप्त प्रथम (415-455 ई.)
बिलसड़ अभिलेख के अनुसार कुमारगुप्त की आरम्भिक तिथि 415 ई. तथा उसके चांदी के सिक्कों पर उसकी अंतिम तिथि 455 ई. प्राप्त होती है। इससे अनुमान होता है कि 415 ई. में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का कनिष्ठ पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। उसे महेन्द्रादित्य भी कहते हैं।
साम्राज्य: कुमारगुप्त के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा संगठित रखा। 436 ई. के एक अभिलेख में कहा गया है कि कुमारगुप्त का साम्राज्य उत्तर में सुमेरू और कैलाश पर्वत से दक्षिण में विन्ध्या वनांे तक और पूर्व तथा पश्चिम में सागर के बीच फैला हुआ था।
प्रजा की स्थिति: कुमारगुप्त का राज्य शांतिपूर्ण और समृद्धिशाली था। उसने अपने शासन के 40 वर्ष के शांतिकाल में भी अपनी सेना को बनाये रखा।
अश्वमेध यज्ञ: कुमारगुप्त की मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने एक अश्वमेघ यज्ञ भी किया था।
पुष्यमित्रों पर विजय: कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम भाग में नर्मदा नदी के उद्गम के निकट निवास करने वाले पुष्यमित्र वंश के क्षत्रियों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने उनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।
धार्मिक सहिष्णुता: कुमारगुप्त ने अपने पिता की धर्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। वह स्वयं कार्तिकेय का उपासक था तथा अन्य सम्प्रदाय वालों के साथ उदारता का व्यवहार करता था।
निधन: 455 ई. में कुमारगुप्त का निधन हो गया।
स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)
कुमारगुप्त की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त 455 ई. में गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। इस अभिलेख में स्कन्दगुप्त अपने पिता कुमारगुप्त के नाम का उल्लेख तो करता है किंतु अपनी माता के नाम का उल्लेख नहीं करता जबकि गुप्त शासकों में इस प्रकार के शिलालेखों में अपनी माता का नाम लिखने की अनिवार्य परम्परा थी। इस कारण परमेश्वरीलाल गुप्त ने इससे यह आशय निकाला है कि स्कंदगुप्त को अपनी माता का नाम लिखना गौरवपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ।
स्कन्दगुप्त की उपलब्धियाँ
सिंहासन की प्राप्ति: स्कन्दगुप्त वीर राजा था। अपने पिता के शासनकाल में ही उसने पुष्यमित्रों का दमन किया। जिस समय कुमारगुप्त की मृत्यु हुई, उस समय स्कन्दगुप्त राजधानी से दूर युद्ध में व्यस्त था। इस कारण स्कन्दगुप्त के छोटे भाई घटोत्कच ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। स्कन्दगुप्त ने राजधानी लौटकर कुछ माह में ही अपने पिता के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि लक्ष्मी ने समस्त गुण-दोषों को पूरी तरह छान-बीन करने के बाद अन्य राजपुत्रों को ठुकराकर उनका वरण किया।
शत्रुओं का दमन: भितरी अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने अपने पिता के राज्य का दिग्विजय द्वारा विस्तार किया और पराजितों पर दया दिखाई। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि स्कन्दगुप्त ने मान दर्प से अपने फणों को उठाने वाले सर्प रूपी नरपतियों का दमन किया। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त के सिंहासन पर बैठते ही हूणों का आक्रमण हुआ।
किदार कुषाणों का दमन: जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कंदगुप्त ने म्लेच्छों का दमन किया। परमेश्वरीलाल गुप्त ने इन म्लेच्छों का साम्य किदार कुषाणों से किया है जिन्होंने स्कन्दगुप्त से परास्त होकर उत्तरी पश्चिमी पर्वतीय भूभाग में शरण ली तथा फिर वे छठी शताब्दी में किसी समय वहां से वापस लौटे तथा गांधार के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया।
हूणों का दमन: स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठते ही विपत्तियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि हूणों ने सिन्धु नदी को पार कर उसके साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त कर दिया। इस उपलक्ष्य में उसने देवी-देवताओं को बलि भेंट चढ़ाई तथा विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया जो गाजीपुर के भीतरी नामक गांव में पाया जाता है।
जूनागढ़ अभिलेख स्कन्दगुप्त के राज्यारोहण के बाद एक-दो वर्ष की अवधि में ही लिखा गया है जिसमें कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों का सामना कर उन्हें पराजित कर पृथ्वी को हिला दिया। जूनागढ़ अभिलेख तथा भितरी अभिलेख दोनों ही स्कंदगुप्त की विजय की स्पष्ट घोषणा करते हुए कहते हैं कि स्कन्दगुप्त ने अपने शत्रुओं को पराजित कर पूर्णतः कुचल दिया।
हूणों ने डैन्यूब नदी से सिंधु तक क्रूर विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। उनके नेता अत्तिल ने रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया दोनों ही राजधानियों पर भयानक आक्रमण किया था। उसने ईरान को परास्त करके वहां के राजा को मार डाला था। अतः स्कन्दगुप्त ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की।
स्कन्दगुप्त की इस सेवा का वर्णन करते हुए बी. पी. सिंह ने लिखा- ‘यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों की दासता के बंधन से देश को मुक्त किया तो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने शकों की शक्ति का विनाश किया और स्कन्दगुप्त ने हूणों से साम्राज्य तथा देश की रक्षा की।’ स्कन्दगुप्त को जीवन पर्यन्त उनके साथ संघर्ष करना पड़ा परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए।
शासन प्रबंध: स्कन्दगुप्त उदार शासक था। उसे शास्त्र और न्याय दोनों के प्रति गहरी आस्था थी। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि उसकी प्रजा का कोई व्यक्ति अपने धर्म से च्युत नहीं होता, कोई दारिद्र्य और कदर्य से पीड़ित नहीं है और न किसी दण्डनीय को अनावश्यक पीड़ित किया जाता है। स्कन्दगुप्त के शासन काल में प्रांतपतियों को गोप्ता कहा जाता था। उनका चयन बहुत सोच समझकर किया जाता था। उनमें सर्वलोक हितैषी, विनम्रता तथा न्यायपूर्ण अर्जन की प्रवृत्तियों की परख की जाती थी।
सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार: 455 ई. में अतिवृष्टि के कारण सुदर्शन झील का बांध टूट गया। स्कन्दगुप्त ने विपुल धन राशि लगाकर सुदर्शन झील की मरम्मत कराई तथा इसके बांध का पुनः निर्माण करवाया। इस बांध से चंद्रगुप्त (द्वितीय) के समय में ही सिंचाई के लिये नहरें निकाली गई थीं।
स्कन्दगुप्त का धर्म: स्कन्दगुप्त वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने भी अपने पूर्वजों की भांति धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने नालंदा में एक बौद्ध संघाराम बनवाया।
साम्राज्य की सुरक्षा: यद्यपि स्कन्दगुप्त का काल भयानक विपत्तियों का काल था परन्तु वह अपने पूर्वजों के साम्राज्य को सुरक्षित रखने में पूरी तरह सफल रहा। 460 ई. के कहवां अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने नालंदा में बौद्ध संघाराम बनाने में सहायता की इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय तक स्कन्दगुप्त हूणों, शकों एवं कुषाणों को अपने राज्य की सीमाओं से परे धकेल चुका था तथा राज्य में शांति हो गई थी।
मुद्राओं के भार में वृद्धि: स्कन्दगुप्त ने अपने पूर्ववर्ती गुप्त सम्राटों द्वारा जारी की गई मुद्राओं की अपेक्षा अधिक भार की मुद्रायें चलाईं। जबकि धातु की शुद्धता पहले से भी अधिक बढ़ा दी गई। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त का राज्य पूरी तरह समृद्ध था तथा राज्यकोष परिपूर्ण था। अनुमान है कि स्कन्दगुप्त के राज्य में सोना और चांदी सस्ते हो गये थे अतः मुद्रा का मूल्य बनाये रखने के मुद्रा के भार तथा शुद्धता में वृद्धि की गई।
चीन के साथ राजनीतिक सम्बन्ध: चीनी स्रोतों के अनुसार 466 ई. में एक भारतीय राजदूत सांग सम्राट के दरबार में गया। उस समय चीनी सम्राट् ने भारतीय नरेश को एक उपाधि प्रदान की जिसका अर्थ था- ‘अपना अधिकार सुदृढ़ रूप से स्थापित करने वाला सेनापति।’ अनुमान होता है कि यह राजदूत स्कन्दगुप्त द्वारा भेजा गया था क्योंकि इस उपाधि में स्कन्दगुप्त के राज्य की घटनाओं की झलक मिलती है।
उत्तर-पश्चिमी पंजाब का पतन: स्कंदगुप्त के शासन के अंतिम दिनों में हूणों ने उत्तर पश्चिमी पंजाब पर अधिकार कर लिया। यह संभवतः पहली बार था जब किसी आक्रांता ने गुप्तों से धरती छीनी हो।
प्रांतपतियों का विद्रोह: स्कन्दगुप्त के शासन के परवर्ती काल का कोई भी शिलालेख उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी मध्यप्रदेश से आगे नहीं मिलता। उसकी प्रारंभिक मुद्राओं पर परमभागवत महाराजाधिराज की उपधि मिलती है किंतु बाद के सिक्कों पर परहितकारी राजा की उपाधि उत्कीर्ण है। इससे अनुमान है कि उसके शासन के अंतिम वर्षों में हूणों ने उसके राज्य का बहुत सा भाग दबा लिया जिससे उत्साहित होकर अन्य प्रांतपतियों ने भी विद्रोह करके स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी। काठियावाड़ में मैत्रकों ने वलभी को राजधानी बनाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। स्कंदगुप्त के शासन काल में ही मालवा भी हाथ से निकल गया था।
करद राज्यों का विद्रोह: स्कन्दगुप्त के शासन काल में ही एरण में परिव्राजकों का शासन हो गया था। यह पहले गुप्तों के अधीन एक करद राज्य था।
पश्चिमी राज्यों पर छोटे राज्यों की स्थापना: स्कन्दगुप्त के शासन काल में साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई।
स्कन्दगुप्त की पराजय एवं राज्य बिखरने के कारण
स्कन्दगुप्त के जीवन काल में ही राज्य में आई शिथिलता, हूणों से पराजय एवं राज्य के बिखरने के दो प्रमुख कारण जान पड़ते हैं-
1. उत्तराधिकारी का अभाव: स्कन्दगुप्त के कुछ सिक्के मिले हैं जिनमें एक स्त्री की प्रतिमा उत्कीर्ण है। स्त्री की प्रतिमा वाले सिक्के स्कन्दगुप्त के शासन काल के प्रारंभिक सिक्के हैं बाद के सिक्कों पर इस तरह की प्रतिमा नहीं है। कुछ इतिहासकार इसे स्कन्दगुप्त की रानी मानते हैं तो कुछ उसे लक्ष्मी की मूर्ति मानते हैं। अधिकांश इतिहासकारों की राय है कि स्कन्दगुप्त अविवाहित था। उसके सिक्कों पर न रानी का उल्लेख मिलता है न किसी राजकुमार का। संभवतः यही कारण था कि सम्राट की वृद्धावस्था तथा उत्तराधिकारी के अभाव के कारण हूणों का सफलता पूर्वक प्रतिरोध नहीं किया जा सका। सम्राट की वृद्धावस्था, पराजय एवं उत्तराधिकारी के अभाव से उत्साहित होकर करद राज्यों ने कर देना बंद कर दिया तथा प्रांतपतियों ने भी स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।
2. बौद्ध धर्म का प्रभाव: स्कन्दगुप्त ने अपने प्रारंभिक सिक्कों में अपने आप को परमभागवत महाराजाधिराज घोषित किया है जबकि बाद के सिक्कों में परहितकारी कहकर अपनी दीनता प्रकट की है। कहला अभिलेख घोषणा करता है कि स्कन्दगुप्त ने नालंदा में बौद्ध संघाराम का निर्माण करवाया। इन दों तथ्यों से अनुमान होता है कि बौद्ध धर्म में रुचि हो जाने के कारण स्कन्दगुप्त युद्धों के प्रति उदासीन हो गया। इसी कारण हूणों से उसकी पराजय हुई तथा प्रांतीय सामंतों एवं करद राज्यों ने उत्साहित होकर अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।
निष्कर्ष
स्कन्दगुप्त की सफलताएं उसे अपने पूर्ववर्ती सम्राटों- चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त (द्वितीय) की पंक्ति में बैठाती हैं। उसके राज्य में पूर्ववर्ती समस्त राजाओं से अधिक समृद्धि थी। उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके कार्य समुद्रगुप्त की भांति महान थे किंतु वृद्धावस्था आ जाने के कारण, बौद्ध धर्म में आस्था होने के कारण, युद्धों से उदासीन होने के कारण तथा उत्तराधिकारी न होने के कारण राज्य के अंतिम वर्षों में शिथिलता आ गई। हूणों से मिली पराजय के बाद राज्य बिखरने लगा।
स्कन्दगुप्त की मृत्यु
स्कन्दगुप्त की ज्ञात अंतिम तिथि गुप्त संवत् 148 अर्थात् 467 ई. है। विश्वास किया जाता है कि इसी वर्ष उसकी मृत्यु हुई।