Saturday, December 7, 2024
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अध्याय – 6 : गुलाम वंश का पतन

(कैकूबाद तथा क्यूमर्स)

कैकुबाद (1287-1290)

शहजादे मुहम्मद की मृत्यु के बाद बलबन ने अपने द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहा किंतु बुगरा खाँ अपने पिता के कठोर स्वभाव से डरकर चुपचाप लखनौती चला गया। इस पर बलबन ने शाहजादा मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। बलबन की मृत्यु के बाद दिल्ली के कोतवाल मलिक फखरूद्दीन ने षड्यन्त्र रचकर बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को तख्त पर बैठा दिया। जिस समय कैकुबाद तख्त पर बैठा, उस समय उसकी अवस्था केवल सत्रह वर्ष थी। वह रूपवान तथा सरल प्रकृति का युवक था। उसका पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा बलबन ने अपने निरीक्षण में करवाई थी। कैकुबाद ने कभी मद्य का सेवन नहीं किया था और न कभी रूपवती युवती पर उसकी दृष्टि पड़ी थी। उसका अध्ययन अत्यन्त विस्तृत था और उसे साहित्य से अनुराग था। उसे योग्य शिक्षकों द्वारा विभिन्न विषयों एवं कलाओं की शिक्षा दी गई थी। इस शिक्षा के प्रभाव से कैकुबाद कभी अनुचित कार्य नहीं करता था। उसके मुँह से कभी अपशब्द नहीं निकलते थे।

कैकुबाद के रूप में दिल्ली सल्तनत को अच्छा शासक मिलने की आशा थी किंतु तख्त पर बैठते ही उसे दुष्ट लोगों ने घेर लिया जिससे वह सब शिक्षाओं को भूलकर भोग-विलास में लिप्त हो गया। उसके दरबारियों ने उसका अनुसरण करना आरम्भ किया। भोग-विलास में संलग्न रहने के कारण सुल्तान ने शासन की बागडोर कोतवाल फखरूद्दीन के भतीजे तथा दामाद मलिक निजामुद्दीन के हाथ में सौंप दी। निजामुद्दीन ने सुल्तान को हर तरह से कमजोर कर दिया। निजामुद्दीन ने शहजादे कैखुसरो को जहर देकर मार डाला तथा सल्तनत के प्रमुख वजीर खतीर की भी दुर्दशा कर दी।

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जब कैकुबाद के पिता बुगरा खाँ को बंगाल में दिल्ली के समाचार मिले तो वह अपने पुत्र को बचाने के लिये एक सेना लेकर दिल्ली के लिये रवाना हुआ। इस पर मलिक निजामुद्दीन ने कैकुबाद को उकसाया कि वह भी सेना लेकर अपने पिता का मार्ग रोके क्योंकि उसकी नीयत ठीक नहीं है। कैकुबाद उसकी बातों में आ गया तथा सेना लेकर अयोध्या पहुँच गया। इस पर बुगरा खाँ ने कैकुबाद को संदेश भिजवाया कि वह सुल्तान से मिलना चाहता है। इस पर मलिक निजामुद्दीन ने कैकुबाद से कहा कि वह बुगरा खाँ को संदेश भिजवाये कि बुगरा खाँ, सुल्तान के समक्ष वैसे ही जमींपोशी करे जैसे अन्य अमीर करते हैं। मलिक निजामुद्दीन की योजना थी कि बुगरा खाँ इस शर्त को मानने से इन्कार कर देगा किंतु बुगरा खाँ अनुभवी व्यक्ति था। उसने अपने पुत्र की इस शर्त को स्वीकार कर लिया। इस पर कैकुबाद के समक्ष और कोई उपाय नहीं रहा कि वह अपने पिता बुगरा खाँ से मिले।

जब बुगरा खाँ सुल्तान के समक्ष उपस्थित हुआ तो बुगरा खाँ ने अन्य अमीरों की तरह धरती पर माथा रगड़कर सुल्तान की जमींपोशी की तथा सुल्तान के पैर पकड़कर उसकी पैबोशी की। यह देखकर कैकुबाद ग्लानि से भर गया। वह तख्त से उतरकर अपने पिता के चरणों में गिर गया और रोने लगा। बुगरा खाँ ने अपने पुत्र को भोग-विलास से दूर रहने के लिये कहा तथा भोग विलास के दुष्परिणामों के बारे में समझाया। बुगरा खाँ ने उसे यह सलाह भी दी कि वह मलिक निजामुद्दीन को उसके पद से हटा दे। कैकुबाद ने पिता की इन सारी सलाहों को मान लिया। इसके बाद बुगरा खाँ बंगाल चला गया। कैकुबाद दिल्ली आकर फिर से भोग-विलास में डूब गया। उसने मलिक निजामुद्दीन की हत्या करवाकर उससे मुक्ति पा ली। इसके बाद मलिक कच्छन और मलिक सुर्खा नामक तुर्की अमीरों ने शासन पर वर्चस्व स्थापित कर लिया।

इस पर सुल्तान ने मंगोलों के विरुद्ध लगातार युद्ध जीत रहे अपने सेनापति जलालुद्दीन खिलजी को दिल्ली बुलवाकर उसे आरिज-ए-मुमालिक (सेना का निरीक्षक) नियुक्त किया तथा उसे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी। तुर्की अमीरों को सुल्तान का यह निर्णय अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे जलालुद्दीन खिलजी को तुर्क नहीं मानते थे। इस नियुक्ति के कुछ दिनों बाद अत्यधिक शराब के सेवन से कैकुबाद को लकवा मार गया। इस पर तुर्की अमीरों ने उसके अल्पवयस्क पुत्र क्यूमर्स को गद्दी पर बैठा दिया। अब तुर्की अमीरों ने गैर-तुर्की सरदारों को जान से मार डालने की योजना बनाई। इस सूची में जलालुद्दीन खिलजी का नाम सबसे ऊपर था। जलालुद्दीन खिलजी को तुर्की अमीरों के षड़यंत्र का पता चल गया। वह तुरंत दिल्ली से समीप, बहारपुर चला गया। तुर्की अमीरों ने उसे फिर से दिल्ली में लाने का षड़यंत्र किया। मलिक कच्छन, जलालुद्दीन खिलजी को बुलाने उसके शिविर में गया। खिलजियों ने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद जलालुद्दीन खिलजी के पुत्र दिल्ली में घुस गये और महल में घुसकर शिशु सुल्तान क्यूमर्स को उठा लाये। इस पर मलिक सुर्खा तथा अन्य तुर्की अमीरों ने उनका पीछा किया किंतु वे भी मार दिये गये।

इस घटना के कुछ दिन बाद खिलजी पुनः दिल्ली में घुसे। खलजी मलिक ने कीलूगढ़ी के महल में घुसकर लकवे से पीड़ित सुल्तान कैकूबाद को लातों से मार डाला। उसका शव एक चादर में लपेटकर यमुना नदी में फैंक दिया। इसके बाद जलालुद्दीन, शिशु सुल्तान क्यूमर्स का संरक्षक तथा वजीर बनकर शासन करने लगा।

क्यूमर्स

जलालुद्दीन खिलजी ने कुछ दिनों तक परिस्थितियों का आकलन किया तथा परिस्थितियाँ अपने अनुकूल जानकर कुछ ही दिनों बाद क्यूमर्स को कारागार में पटक दिया और 13 जून 1290 को दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। इस प्रकार भारत पर लगभग 90 वर्ष के दीर्घकालीन शासन के बाद अपमानपूर्ण ढंग से इल्बरी तुर्कों के शासन का अंत हुआ। जलालुद्दीन खिलजी ने कुछ समय पश्चात् क्यूमर्स की हत्या कर दी। इसी के साथ दिल्ली सल्तनत से गुलाम वंश का भी अंत हो गया।

गुलाम वंश के पतन के कारण

गुलाम वंश के पतन के कई कारण थे। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार से है-

(1) उत्तराधिकार के लिये संघर्ष: तुर्की शासकों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। अतः प्रत्येक सुल्तान की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के लिए संघर्ष आरम्भ हो जाता था। इस संघर्ष का राज्य की शक्ति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता था। इस संघर्ष से अमीर तथा मलिक अधिक ताकतवर बन जाते थे।

(2) स्वेच्छाचारी सैनिक शासन: गुलाम वंश के सुल्तानों के शासन का आधार स्वेच्छाचारी सैनिक शासन था जिसकी नींव सदैव निर्बल होती है। यह सैनिक अंशाति का युग था। कोई योग्य सेनापति ही साम्राज्य को सुरक्षित रख सकता था।

(3) अमीरों तथा मलिकांे का कुचक्र: गुलाम वंश का शासन अमीरों के बल पर खड़ा था जो स्वयं सुल्तान बनने का अवसर ताकते रहते थे। वे बड़े ही स्वार्थी तथा महत्वाकांक्षी थे। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये षड्यन्त्र रचते रहते थे। उनकी नीयत एक सुल्तान को गद्दी से उतार कर दूसरे सुल्तान को गद्दी पर बैठाने की रहती थी जिससे सुल्तान उनके हाथों की कठपुतली बना रहे।

(4) हिन्दुुओं का विरोध: तुर्की शासन भारत में विदेशी था। हिन्दू राजवंश अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को भूले नहीं थे और उसे प्राप्त करने के लिए सदैव सचेष्ट रहते थे। वे प्रायः विद्रोह कर देते थे। फलतः हिन्दुओं की सहायता तथा असहयोग गुलाम वंश के सुल्तानों को नहीं मिल सका।

(5) मंगोलों का आक्रमण: पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमण की सम्भावना सदैव बनी रहती थी। अतः उस दिशा में भी प्रान्तीय शासकों के नेतृत्व में विशाल सेनायें रखनी पड़ती थीं और उन्हें पर्याप्त स्वतन्त्रता देनी पड़ती थी। विद्रोही हाकिम इन सेनाओं का प्रयोग प्रायः सुल्तान के विरुद्ध करने लगते थे।

(6) बलबन का अयोग्य उत्तराधिकारी: बलबन ने एक केन्द्रीयभूत स्वेच्छाचारी निरंकुश शासन की स्थापना की थी। इस शासन व्यवस्था को अत्यधिक प्रतिभावान् सुल्तान ही चला सकता था। दुर्भाग्य से बलबन का उत्तराधिकारी निर्बल तथा अयोग्य था। उसने तुर्की अमीरों का प्रभाव कम करने के लिये खिलजियों को दिल्ली बुलाकर भूल की। जब तुर्की सरदारों ने खिलजियों को नष्ट करने का षड़यंत्र रचा तो खिलजियों ने न केवल तुर्की अमीरों को मार डाला अपितु सुल्तान को भी मार डाला।

गुलाम वंश का सबसे बड़ा सुल्तान कौन ?

गुलाम वंश में कुल दस शासक हुए। इनमें से छः शासकों- आरामशाह, रजिया, बहरामशाह, किशलू खाँ, मसउद खाँ तथा कैकुबाद का शासन काल संक्षिप्त सिद्ध हुआ। इन समस्त सुल्तानों को निर्ममता से मारा गया। रजिया को छोड़कर शेष पाँच सुल्तान अयोग्य तथा निकम्मे थे और अमीरों के हाथों की कठपुतली बने रहे। राज्य की वास्तविक शक्ति स्वार्थी तथा कुचक्री अमीरों के हाथ में रही। यद्यपि रजिया योग्य तथा प्रतिभाशाली सुल्तान थी परन्तु स्त्री होने के कारण वह तुर्की अमीरों की आँख की किरकरी बनी रही और अंत में उसे नष्ट कर दिया गया। उसका 3 वर्ष का शासन अशान्त तथा कलहपूर्ण ही रहा।

गुलाम वंश के शेष चार सुल्तानों- कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, नासिरुद्दीन तथा बलबन में से कुतुबुद्दीन का शासन काल केवल चार वर्ष का था। फिर भी योग्य तथा प्रतिभावान होने के कारण उसने दिल्ली सल्तनत की नींव रख दी। इस प्रकार केवल तीन शासकों- इल्तुतमिश, नासिरुद्दीन तथा बलबन के शासन काल दीर्घकालीन सिद्ध हुए। इनमें से नासिरुद्दीन के शासन काल में अधिकांश समय शासन की वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री बलबन के हाथों में रहीं। इस प्रकार शेष दो सुल्तान इल्तुतमिश तथा बलबन ही ऐसे थे जिन्होंने न केवल दिल्ली सल्तनत पर दीर्घ काल तक शासन किया अपितु उनमें शासन करने की मौलिक प्रतिभा भी थी।

इस प्रकार हम पाते हैं कि इल्तुतमिश तथा बलबन गुलाम-वंश के अग्रण्य तथा शक्तिशाली सुल्तान थे। दोनों ही योग्य तथा प्रतिभावान व्यक्ति थे और अपने अलौकिक गुणों के कारण ही जेर खरीद गुलाम से सुल्तान के उच्च पद तक पहुँच सके थे। इन दोनों सुल्तानों में से किसका स्थान अधिक ऊँचा था, इस बात पर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकार इल्तुतमिश को बलबन से उच्चतर स्थान प्रदान करते हैं और उसे गुलाम वंश का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान मानते हैं परन्तु अन्य इतिहासकार बलबन को उच्च स्थान प्रदान करते हैं और उसे गुलाम वंश के सुल्तानों में श्रेष्ठतम मानते हैं।

क्या इल्तुतमिश सबसे महान सुल्तान था ?

जो इतिहासकार इल्तुतमिश को बलबन से श्रेष्ठतर मानते हैं, वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

(1) इल्तुतमिश की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ बलबन की प्रारम्भिक कठिनाइयों से अधिक भंयकर थीं। इल्तुतमिश को आरामशाह के विफल हो जाने पर अमीरों द्वारा सुल्तान बनाया गया था। उसे जो साम्राज्य मिला था वह विश्ंृखलित हो गया था। अतः इल्तुतमिश को वास्तव में एक नये साम्राज्य का निर्माण करना पड़ा था जबकि बलबन नासिरुद्दीन के जीवन काल से ही दिल्ली का वास्तविक शासक बन गया था। तख्त पर बैठने के समय उसे सुदृढ़़, सुसंगठित तथा विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था।

(2) इल्तुतमिश तथा बलबन दोनों को बार-बार विद्रोहियों का सामना करना पड़ा था परन्तु इल्तुतमिश की मुसबीतें अधिक बड़ी थीं जबकि बलबन के साधन इल्तुतमिश के साधनों से कहीं अधिक प्रचुर थे।

(3) इल्तुतमिश में बलबन से कहीं अधिक सैनिक गुण थे। विजय के जिस कार्य को ऐबक ने आरम्भ किया था उसे इल्तुतमिश ने पूरा किया और लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत में तुर्कों की सत्ता को स्थापित कर दिया। इसके विपरीत बलबन विद्रोहों का दमन करने में ही संलग्न रहा।

(4) इल्तुतमिश ने चालीस अमीरों के दल को संगठित करके तुर्की राज्य को मजबूती दी परन्तु बलबन ने इस दल को ध्वस्त करके तुर्की राज्य की जड़ों को हिला दिया।

(5) इल्तुतमिश ने खलीफा से मान्यता प्राप्त करके भारत में मुस्लिम राज-संस्था को नैतिक बल दिलवाया परन्तु बलबन ने उसके विरुद्ध आचरण किया था।

(6) इल्तुतमिश द्वारा जमाया गया तुर्की शासन, उसकी मृत्यु के 54 वर्ष बाद तक चलता रहा जबकि बलबन के मरने के बाद यह शासन केवल 3 वर्ष ही चल पाया।

उपरोक्त तर्कांे के आधार पर इतिहासकारों ने इल्तुतमिश को बलबन की अपेक्षा ऊँचा स्थान दिया है और उसे गुलाम वंश का सबसे बड़ा सुल्तान माना है।

क्या बलबन इल्तुतमिश से अधिक महान था ?

जो इतिहासकार बलबन को उच्चतर स्थान प्रदान करते हैं वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

(1) यह ठीक है कि बलबन ने कोई नया क्षेत्र नहीं जीता और न ही उसने राज्य का विस्तार किया परन्तु उसने साम्राज्य के संगठन का महत्वपूर्ण कार्य किया जिसकी आवश्यकता नये राज्य जीतने से अधिक थी।

(2) बलबन ने चालीस गुलामों के दल को नष्ट करके साम्राज्य को निर्बल नहीं बनाया था क्योंकि उसने उस समय इनका दमन किया जब वे साम्राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गये थे। उसने सुल्तान के प्रति वफादार अमीरों का संगठन बनाकर दिल्ली की सल्तनत को पतनोन्मुख होने से बचाया था।

(3) उलेमा लोग राजनीति में हस्तक्षेप करके दरबार में षड़यंत्रों को बढ़ावा देते थे। इल्तुतमिश उन्हें राजनीति से अलग करने का साहस नहीं कर सका। यह कार्य करने का साहस बलबन ने ही किया।

(4) इल्तुतमिश तथा बलबन दोनों के समय, मंगोलों के आक्रमण होते रहे। इल्तुतमिश ने उनका सामाना करने के लिये तात्कालिक उपाय किये तथा उन्हें भारत की सीमा से बाहर रखा। इसके विपरीत बलबन ने निश्चित सीमा-नीति का अनुसरण किया जिसे उसके बाद के सुल्तानों ने भी जारी रखा। उसने सीमान्त प्रदेश में दुर्ग बनवाये और उनमें योग्य सेनापतियों के नेतृत्व में सेनाएँ तैनात कीं।

(5) बलबन का राजनीतिक दृष्टिकोण इल्तुतमिश से कहीं अधिक ऊँचा था। बलबन उलेमा तथा अमीरों के प्रभाव में नहीं था। वह राजनीति को धर्म से अलग करना चाहता था। जबकि इल्तुतमिश न तो उलेमाओं तथा अमीरों के प्रभाव से ही अपने को मुक्त रख सका और न राजनीति को ही धर्म से अलग कर सका।

(6) इल्तुतमिश प्रधानतः एक विजेता था अतः उसके शासन काल में संस्कृति की वैसी उन्नति नहीं हुई जैसी बलबन के शासनकाल में हुई। बलबन का दरबार जितना शानदार और गौरवपूर्ण था, वैसा दरबार इल्तुतमिश का तो क्या, गुलाम वंश के किसी अन्य सुल्तान का नहीं था।

(7) यद्यपि दोनों ने विदेशियों को आश्रय प्रदान किया था परन्तु विदेशों में जो ख्याति बलबन ने प्राप्त की थी वह इल्तुतमिश ने नहीं की थी।

(8) इल्तुतमिश की मृत्यु के उपरान्त उसके वंशजों ने कई पीढ़ियों तक उसके साम्राज्य का उपभोग किया और बलबन के मरने के थोड़े ही दिनों बाद उसका राज्य अन्य वंश के अधिकार में चला गया परन्तु इस दुर्भाग्य का पूरा उत्तरदायित्व बलबन के अयोग्य उत्तराधिकारियों पर पड़ना चाहिये।

उपर्युक्त तर्कों द्वारा इतिहासकारों ने बलबन को इल्तुतमिश से उच्चतर स्थान प्रदान किया है और उसे गुलाम वंश का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान सिद्ध करने का प्रयास किया है।

निष्कर्ष

उपरोक्त दोनों ही मतों में सत्य का बहुत बड़ा अंश विद्यमान है और दोनों ही मत तर्कपूर्ण तथा सारगर्भित प्रतीत होते हैं। अतः इस समस्या का सामधान मध्यम मार्ग अपनाकर किया जा सकता है। वास्तव में इन दोनों सुल्तानों ने भिन्न-भिन्न कालों तथा परिस्थितियों में शासन किया था और दोनों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिभा थी अतः दोनों के कार्य भी भिन्न-भिन्न प्रकार के थे। दोनों ने अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुकूल नीतियों का अनुसरण किया। दोनों ने अपनी-अपनी परिस्थितियों तथा प्रतिभाओं के बल पर दीर्घकाल तक सफलतापूर्वक शासन किया। यदि कुछ क्षेत्रों में इल्तुतमिश ने बलबन से अधिक श्लाघनीय कार्य किये तो अन्य क्षेत्रों में बलबन के कार्य इल्तुतमिश से कहीं अधिक श्रेयस्कर थे। सामान्यतः दोनों ही के कार्य प्रंशसनीय थे। दोनों ही इस्लाम के नियमों के अनुसार सदाचारी थे और प्रजा के समक्ष अपने आचरण की उच्चता का आदर्श प्रस्तुत कर सके थे। दोनों ही सुल्तान अपनी मुस्लिम प्रजा के प्रति न्याय-प्रिय थे इस कारण दोनों समान रूप से प्रशंसा के पात्र हैं।

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