Friday, October 31, 2025
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भारत में परिवारिक जीवन

भारतीय समाज एवं संस्कृति को समझने के लिए आवश्यक है कि भारत में परिवारिक जीवन को समझा जाए। इसे समझे बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति तथा जीवन मूल्यों को समझना असंभव है।

भारतीय सामाजिक संगठन का इतिहास पाँच हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है। जब विश्व के अधिकांश देश सभ्यता के उषाकाल में थे, तभी भारतीय समाज सुव्यवस्थित रूप धारण कर चुका था। आर्य ऋषियों ने भारतीय समाज के संगठन के लिए जिन संस्थाओं का निर्माण किया, ‘परिवार’ अथवा ‘कुटुम्ब’ उनमें सबसे प्राचीन था। आर्यों के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में परिवार का संगठित स्वरूप दिखाई देता है।

वैदिक यज्ञ-अनुष्ठान, षोडष संस्कार, राजन्य व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, विवाह, यौन सम्बन्ध, कुल, गौत्र एवं वंश परम्परा आदि समस्त संस्थाओं एवं परम्पराओं का आधार परिवार ही था। पश्चिमी संस्कृतियों में समाज की सबसे छोटी इकाई ‘व्यक्ति’ है किंतु भारतीय संस्कृति में ‘परिवार’ को समाज की सबसे छोटी इकाई माना गया।

भारतीय समाज में परिवार-रहित व्यक्ति का सहजता से जीवन-यापन करना कठिन है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भारतीय समाज का गठन परिवारों से हुआ है न कि व्यक्तियों से।

परिवार की रचना में थोड़ा सा परिवर्तन, सामाजिक संरचना में बड़ा परिवर्तन कर देता है। भारतीय परिवारों की संरचना पश्चिमी सभ्यताओं में प्रचलित परिवारों से भिन्न है। भारत में परविार का आशय ‘संयुक्त परिवार’ से है। ‘परिवार’ समस्त सभ्यताओं की सार्वभौम संस्था है किन्तु ‘संयुक्त परिवार’ की संस्था केवल भारत में ही देखने को मिलती है।

पश्चिम के व्यक्तिवादी समाज में संयुक्त परिवार एक दुर्लभ संगठन है। परिवार का आधार ‘सुनिश्चित यौन-सम्बन्ध’ है जो संतान उत्पन्न करने से लेकर उसके पालन-पोषण, रोजगार की व्यवस्था एवं कुटुम्ब के वृद्ध एवं रुग्ण सदस्यों की समुचित देखभारत करने तक विस्तृत है।

परिवार के सदस्यों के मध्य भावनात्मक आबद्धता के कारण परस्पर सहयोग, गृहस्थ-धर्म के उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्यबोध जैसे विचारों का निर्माण होता है।

परिवार की परिभाषा

अनेक समाजशास्त्रियों ने परिवार की अलग-अलग परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। प्रसिद्ध विद्वान् मैकाइवर और पेज के अनुसार- ‘परिवार पर्याप्त निश्चित यौन-सम्बन्धों द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों के जनन एवं पालन-पोषण की व्यवस्था करता है।’

इस परिभाषा के अनुसार परिवार यौन-सम्बन्धों पर आश्रित एक जैविक समुदाय भर है जिसका मुख्य कर्त्तव्य सन्तानोत्पति करना एवं उसका लालन-पालन करना है किन्तु परिवार इन लक्षणों के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ होता है।

बर्जेस और लॉक के अनुसार- ‘परिवार संस्था के रूप में एक प्रक्रिया है, जो समाज की संरचना में सहयुक्त है। परिवार व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त या गोद लेने के सम्बन्धों से संगठित होता है। इसमें एक छोटी गृहस्थी का निर्माण होता है जिसमें पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री और भाई-बहिन एक दूसरे से अन्तःक्रियाएँ करते तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण और देख-रेख करते हैं।’

पश्चिमी समाजशास्त्री डेविस के अनुसार- ‘परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है, जिसके एक-दूसरे से सम्बन्ध, सगोत्रता पर आधारित होते हैं ओर इस प्रकार एक-दूसरे से रक्त-सम्बन्ध होते हैं।’

डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, जो रक्त-सम्बन्धी सूत्रों से सम्बद्ध रहते हैं और स्थान, हित तथा पारस्परिक कृतज्ञता के आधार पर समान होने की भावना रखते हैं।’

प्रसिद्ध विद्वान् केलर के अनुसार- ‘यह मनुष्यों का एक वर्ग है, जो जीवन-यापन तथा मानव जाति को सहकारिता के आधार पर स्थिर रखने का प्रयत्न करता है।’

उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘परिवार’ का मुख्य आधार ‘विवाह’ है तथा यौन-सम्बन्धों द्वारा सन्तान उत्पन्न करने से लेकर उसके लालन-पालन, भरण-पोषण और सेवा-सुश्रुषा तक विस्तृत है। परिवार में पति-पत्नी, उसकी सन्तानें व भाई-बहिन रहते हैं जिनकी पृथक् वंश-परम्परा होती है। परिवार समाज का लघु रूप है और समाज, परिवार का विराट रूप है। चूँकि परिवार समाज की मूलभूत इकाई है, अतः मानव-समाज का इतिहास परिवार से ही आरम्भ होता है। परिवार के सहारे ही अन्य संस्थाओं और समितियों का जन्म सम्भव हो पाया है।

परिवार की उत्पत्ति

परिवार की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, इसके सम्बन्ध में भी अनेक मत एवं विचार प्रकट किए गए हैं। कुछ समाजशास्त्रियों का विचार है कि मानव सभ्यता के प्रारम्भ में ‘पितृसत्तात्मक’ परिवार की उत्पत्ति हुई होगी जबकि कुछ अन्य विद्वानों की मान्यता है कि पहले ‘मातृसत्तात्मक’ परिवार विकसित हुए होंगे क्योंकि प्रारम्भिक काल में यौन सम्बन्धों की सुनिश्चतता अर्थात् विवाह जैसी संस्था का विचार नहीं पनप सका होगा।

भारत में मानव द्वारा कृषि आरम्भ किए जाने के बाद ‘मातृसत्तात्मक परिवार’ का महत्त्व घट गया और ‘पितृसत्तात्मक परिवार’ की प्रथा मजबूत होने लगी। ऋग्वैदिक-काल एवं उत्तरवैदिक-काल में भी संयुक्त-परिवार-प्रथा प्रचलित थी। परिवार का वयोवृद्ध व्यक्ति, परिवार का मुखिया होता था तथा परिवार के समस्त सदस्य उसके आदेशों का पालन करते थे। बौद्ध-काल में भी परिवार संयुक्त होते थे। अनेक जातक कथाओं में ऐसे परिवारों का उल्लेख मिलता है जो अपने सदस्यों के सहयोग और सहायता से चलते थे।

एकल अथवा पृथक् परिवार

 उत्तरवैदिक-काल में संयुक्त-परिवार के विघटन का आभास होने लगता है किंतु आर्यों में मुख्यतः संयुक्त-परिवार परम्परा ही प्रचलित रही। स्मृतिकारों ने भी संयुक्त परिवारों का वर्णन किया है परन्तु इस युग में ‘एकल अथवा पृथक् परिवार’ का समर्थन भी आरम्भ हो गया था। मनु के अनुसार परिवार का विभाजन धर्मानुकूल है किंतु सम्पत्ति का बँटवारा पिता की मृत्यु के बाद ही किया जाना चाहिए।

पितृ-सत्तात्मक आर्य-परिवार

भारतीय आर्यों में पितृमूलक तथा भारत की अनार्य सभ्यताओं में मातृमूलक परिवार व्यवस्था थी। आर्य-परिवार में पति-पत्नी, पुत्र-पौत्र, प्रपौत्र, पुत्र-वधुएँ, पौत्र वधुएं, प्रपौत्र वधुएँ, अविवाहित पुत्रियाँ, अविवाहित बहिनें, अविवाहित पौत्रियाँ, अविवाहित प्रपौत्रियाँ आदि रहते थे। ये सब लोग एक ही स्थान पर और प्रायः एक ही भवन में रहते थे।

एक साथ भोजन करते थे और और एक ही धर्म तथा इष्टदेव की उपासना करते थे। परिवार का वयोवृद्ध पुरुष परिवार का मुखिया होता था। परिवार का मुखिया, परिवार के समस्त सदस्यों के आचरण को अनुशासित करता था और उनकी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करता था। परिवार का मुखिया ही समाज में अपने परिवार का प्रतिनिधित्व करता था।

परिवार के समस्त सदस्य, मुखिया के अनुशासन में रहते थे तथा उसके मार्ग-र्दशन में कार्य करते थे। वैदिक युग से लेकर आज तक भारतीय परिवार के मुखिया के अधिकारों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है।

मातृ-सत्तात्मक अनार्य-परिवार

भारत की अनार्य सभ्यताओं में मुख्यतः मातृमूलक परिवार व्यवस्था थी। सिन्धु सभ्यता के अवशेषों के आधार पर विद्वानों का अनुमान है कि सिन्धु-वासियों में मातृसत्तात्मक परिवार-प्रथा रही होगी। आज भी दक्षिण भारत की नैय्यर, कादर, इरूला, पुलयन आदि जातियों में तथा आसाम की गोरो और खासी जातियों में मातृसत्तात्मक परिवार ही पाए जाते हैं। उपर्युक्त अपवादों को छोड़़कर शेष भारत में पितृसत्तात्मक परिवारों का अस्तित्त्व है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य अध्याय – भारतीय परिवार प्रणाली

प्राचीन विवाह प्रणालियाँ

भारत में पारिवारिक जीवन

भारतीय परिवार की विशेषताएँ

भारतीय परिवार के कर्त्तव्य

संयुक्त परिवार प्रणाली

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