भारतीय परिवार के कर्त्तव्य
विश्व की प्रत्येक संस्कृति में परिवार के प्रमुख कर्त्तव्यों में बच्चों का लालन-पालन, वृद्धों की सेवा, बीमारों की सुश्रुषा तथा प्रत्येक सदस्य को संरक्षण एवं सहारा देना शामिल होता है किंतु भारतीय परिवार कुछ विशिष्ट कार्यों को भी सम्पादित करता है। तीन ऋणों से उऋण होना, पंच महायज्ञ करना तथा सोलह संस्कारों को सम्पादित करना प्रत्येक भारतीय परविार के प्रमुख कर्त्तव्य थे।
तीन ऋणों से उऋण होना
भारतीय ऋषियों का मानना था कि प्रत्येक मनुष्य देवताओं, ऋषियों, माता-पिता, अतिथियों और समाज के अन्य व्यक्तियों एवं प्राणियों से कुछ न कुछ सेवा, वस्तु, ज्ञान, आशीर्वाद एवं अनुग्रह प्राप्त करता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य पर तीन ऋण होते हैं- (1.) देव ऋण, (2.) ऋषि ऋण, (3.) पितृ ऋण। प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह धर्मानुकूल आचरण करके तथा अपने कर्त्तव्यों का पालन करके इन तीनों ऋणों से उऋण होने का प्रयत्न करे।
(1.) देव ऋण: मनुष्य को जीवन-यापन करने के लिए जल, भूमि, वायु आदि साधनों की आवश्यकता होती है। ये समस्त साधन दैवीय-शक्तियों द्वारा उपलब्ध कराए जाते हैं। इसलिए हमें ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिससे जल, भूमि या वायु को हानि पहुँचे। प्राकृतिक साधनों के संरक्षण के लिए वृक्ष लगाना, जलाशयों को साफ करवाना, उनमें से मिट्टी निकलवाना, पशु-पक्षियों के प्रति हिंसा नहीं करना, उनके दाने-पानी की व्यवस्था करना आदि कार्य देव-ऋण से उऋण करने में सहायक होते हैं।
(2.) ऋषि ऋण: मनुष्य समाज के विभिन्न व्यक्तियों से ज्ञान प्राप्त करता है। इस ज्ञान के सहारे वह अपना जीवन-यापन करता है, इस कारण मनुष्य पर समाज का ऋण होता है। इसे ऋषि ऋण कहते हैं। इस ऋण से उऋण होने के लिए लिए मनुष्य को समाज के लोगों में ज्ञान बांटना चाहिए तथा विद्यार्थियों के लिए विद्यालय खोलने, निःशुल्क पुस्तकें उपलब्ध कराने तथा स्कॉलरशिप बांटने जैसी व्यवस्थाएं करनी चाहिए।
(3.) पितृ ऋण: मनुष्य का पालन-पोषण उसके माता-पिता अथवा परिवार के सदस्य करते हैं तथा उसे समुचित शिक्षा दिलवाकर जीविकोपार्जन के योग्य बनाते हैं। इस कारण प्रत्येक मनुष्य पर अपने परिवार की देख-भाल करने तथा अपनी संतान के लालन-पालन की जिम्मेदारी होती है। इसे पितृ ऋण कहते हैं। इस ऋण से उपकृत होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह विवाह करके गृहस्थी बसाए तथा अपने परिवार की समुचित देखभाल करे।
(4.) गौण ऋण: इन तीन प्रमुख ऋणों के अतिरिक्त दो गौण ऋण और होते हैं- अतिथि ऋण और भूत ऋण। इन दोनों से भी हमें समय-समय पर कुछ न कुछ ज्ञान एवं सहयोग मिलता रहता है। धर्मशास्त्रों में इन पाँचों ऋणों से उऋण होने के लिए पंच-महायज्ञों का विधान रख गया है।
पंच-महायज्ञ
हिन्दू-धर्मशास्त्रों ने प्रत्येक परिवार के लिए पंच-महायज्ञों का विधान निर्धारित किया है-
(1.) ब्रह्म यज्ञ: इस यज्ञ के माध्यम से मनुष्य अपने प्राचीन ऋषियों के प्रति सम्मान व्यक्त करता था। इसलिए इसे ‘ऋषि यज्ञ’ भी कहा जाता है। प्राचीन ऋषियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का सर्वोत्तम ढंग विद्याध्ययन करना माना गया। इस कारण आर्यों ने स्वाध्याय करने का नियम बनाया।
(2.) देव यज्ञ: इसे देवताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए किया जाता था। प्रत्येक व्यक्ति को प्रातःकाल और सायं काल में अग्नि, इन्द्र, प्रजापति, सोम, पृथ्वी आदि देवी-देवताओं के मंत्रों के साथ ‘स्वाहा’ कहकर अग्नि में घी, दूध, दही आदि हविष्य की आहुतियाँ देने का विधान किया गया।
(3.) भूत यज्ञ: इस यज्ञ के अन्तर्गत सृष्टि के समस्त तत्त्वों की संतुष्टि के लिए पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, प्रजापति एवं विश्वदेव आदि को भोजन की बलि दी जाती है और कौआ, गाय, चींटी एवं श्वान आदि पशु-पक्षियों को भोजन डालकर तुष्ट किया जाता है।
(4.) पितृ यज्ञ: इस यज्ञ में पितरों के लिए तर्पण, बलि-हरण अथवा श्राद्ध का आयोजन होता है। पितरों के लिए दक्षिण दिशा की ओर भोजन एवं जल फेंका जाता है।
(5.) मनुष्य यज्ञ: मनुष्य मात्र के प्रति उत्तरदायित्व की भावना का प्रदर्शन करने के लिए अतिथि-सत्कार की अनिवार्यता स्थापित की गई। इस यज्ञ के अंतर्गत स्वयं भोजन करने से पहले अतिथि को भोजन कराया जाता है।
मुख्य अध्याय – भारतीय परिवार प्रणाली
भारतीय परिवार के कर्त्तव्य



