जब माउण्टबेटन योजना लंदन से लेकर भारत में समस्त पक्षों द्वारा स्वीकार कर ली गई तब अचानक ही समस्त पक्षों में गांधीजी से भय व्याप्त हो गया क्योंकि गांधीजी ने अब तक एक बार भी भारत विभाजन को स्वीकार नहीं किया था।
गांधीजी के दो बड़े चेले नेहरू एवं पटेल गांधीजी से भय के कारण मन ही मन कांप रहे थे, वे दोनों ही गांधीजी को विभाजन के लिए तैयार नहीं कर पाए थे। नेहरू एवं पटेल ही नहीं, पूरी कांग्रेस गांधीजी से भय खा रही थी!
जिस वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन से हर कोई डरा हुआ था कि न जाने यह शक्तिशाली अंग्रेज भारत के भाग्य का क्या निर्णय करे, उस माउंटबेटन को भी गांधीजी से भय लग रहा था। 4 जून 1947 को माउंटबेटन को सूचना मिली कि आज शाम की प्रार्थना सभा में गांधीजी देशवासियों से अपील करेंगे कि वे विभाजन की योजना को अस्वीकार कर दें।
इस पर माउंटबेटन ने गांधीजी को वायराय भवन में बुलाया और उनसे कहा कि- ‘विभाजन की पूरी योजना आपके निर्देशानुसार बनायी गयी है। अतः आप इस योजना का विरोध न करें।’
गांधीजी ने वायसराय की किसी बात का जवाब नहीं दिया किंतु इस बार यह नहीं कहा कि उनका मौन व्रत है। गांधीजी ऐसा कह भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें शाम को प्रार्थना सभा में अपने भक्तों को सम्बोधित करना था। गांधीजी राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे, उन्होंने वायसराय की आंख में कुछ ऐसा पढ़ लिया था जो पहले कभी नहीं पढ़ा गया था। गांधीजी ने मन ही मन कुछ निर्णय लिया और वे वायसराय भवन से बाहर आ गए।
जब गांधीजी बिना कुछ कहे, बिना कोई प्रतिवाद किए, बिना कोई आश्वासन दिए वायसराय के पास से उठकर चले गए तो वायसराय को हैरानी हुई। उसे गांधीजी से भय अब भी लग रहा था किंतु जिस प्रकार गांधीजी ने कोई निर्णय ले लिया था, उसी प्रकार वायसराय ने भी गांधीजी के सम्बन्ध में कुछ निर्णय ले लिया था।
उस शाम गांधीजी ने प्रार्थना सभा में इतना ही कहा कि- ‘वायसराय को दोष देकर ही क्या हो जायेगा? जो हो रहा है और जो होने जा रहा है, उसका जवाब तो स्वयं हमारे दिलों में छिपा है। किसी को कुछ कहने से पहले क्यों न हम अपने दिलों में झांक कर देख लें?’
हंसराज रहबर ने गांधी के इस वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- ‘गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा और जब बन गया तो निर्णय सुनाने का यह धूर्तता भरा ढंग अपनाया।’
विभाजित भारत की विदेश नीति एक रहे
5 जून 1947 को माउण्टबेटन ने पुनः विभिन्न दलों के नेताओं से भेंट करके विभाजन की योजना को कार्यान्वित करने पर विचार-विमर्श किया। इस बैठक में जिन्ना ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा कि भविष्य में बनने वाले दोनों राज्यों को हर तरह से स्वाधीन और समान स्तर पर रहना चाहिए। नेहरू का कहना था कि इस मामले में हमें अलग दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। भारत का प्रशासन पहले की ही तरह चलाया जा रहा है। यदि कुछ असंतुष्ट प्रांतों को अलग होने की अनुमति दी जाती है तो उस स्थिति में भी भारत सरकार का काम या उसकी विदेश नीति का कार्यान्वयन बाधित नहीं होना चाहिए। इस बैठक में काफी तनाव था।
स्वतंत्रता की तिथि की घोषणा जब भारत के हिन्दुओं की पार्टी कांग्रेस, मुसलमानों की पार्टी मुस्लिम लीग और सिक्खों के नेता बलदेव सिंह ने भारत विभाजन की योजना स्वीकार कर ली तो माउण्टबेटन ने पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत को निकट भविष्य में दो उपनिवेशों के रूप में स्वतंत्र किए जाने की घोषणा की।
जब एक पत्रकार ने माउंटबेटन से स्वतंत्रता की तिथि के बारे में प्रश्न किया तो माउंटबेटन ने 15 अगस्त 1947 की तिथि घोषित कर दी। यह द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के समर्पण की तिथि थी।
अब किसी को गांधीजी से भय नहीं था। यहाँ तक का सफलर बहुंत शांत ढंग से निबट गया था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता