4 जून 1947 को माउंटबेटन को सूचना मिली कि आज शाम की प्रार्थना सभा में गांधीजी देशवासियों से अपील करेंगे कि वे विभाजन की योजना को अस्वीकार कर दें।
इस पर माउंटबेटन ने गांधीजी को बुलाया और उनसे कहा कि- ‘विभाजन की पूरी योजना आपके निर्देशानुसार बनायी गयी है। अतः आप इस योजना का विरोध न करें।’
उस शाम गांधीजी ने प्रार्थना सभा में इतना ही कहा कि- ‘वायसराय को दोष देकर ही क्या हो जायेगा? जो हो रहा है और जो होने जा रहा है, उसका जवाब तो स्वयं हमारे दिलों में छिपा है। किसी को कुछ कहने से पहले क्यों न हम अपने दिलों में झांक कर देख लें?’
हंसराज रहबर ने गांधी के इस वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- ‘गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा और जब बन गया तो निर्णय सुनाने का यह धूर्तता भरा ढंग अपनाया।’
विभाजित भारत की विदेश नीति एक रहे
5 जून 1947 को माउण्टबेटन ने पुनः विभिन्न दलों के नेताओं से भेंट करके विभाजन की योजना को कार्यान्वित करने पर विचार-विमर्श किया। इस बैठक में जिन्ना ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा कि भविष्य में बनने वाले दोनों राज्यों को हर तरह से स्वाधीन और समान स्तर पर रहना चाहिए।
नेहरू का कहना था कि इस मामले में हमें अलग दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। भारत का प्रशासन पहले की ही तरह चलाया जा रहा है। यदि कुछ असंतुष्ट प्रांतों को अलग होने की अनुमति दी जाती है तो उस स्थिति में भी भारत सरकार का काम या उसकी विदेश नीति का कार्यान्वयन बाधित नहीं होना चाहिए। इस बैठक में काफी तनाव था।
स्वतंत्रता की तिथि की घोषणा जब भारत के हिन्दुओं की पार्टी कांग्रेस, मुसलमानों की पार्टी मुस्लिम लीग और सिक्खों के नेता बलदेव सिंह ने भारत विभाजन की योजना स्वीकार कर ली तो माउण्टबेटन ने पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत को निकट भविष्य में दो उपनिवेशों के रूप में स्वतंत्र किए जाने की घोषणा की।
जब एक पत्रकार ने माउंटबेटन से स्वतंत्रता की तिथि के बारे में प्रश्न किया तो माउंटबेटन ने 15 अगस्त 1947 की तिथि घोषित कर दी। यह द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के समर्पण की तिथि थी।